Lotus Flower Importance in Hinduism
कमल पुष्प (Lotus Flower) भारतीय संस्कृति में युग-युगों से सर्वाधिक सुंदर तथा पावन पुष्प माना गया है. पूजा तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर इस पुष्प का प्रयोग शुभ माना जाता है. यह पुष्प सभी देवी-देवताओं को अतिप्रिय है. इसकी सुगंध एवं सुन्दरता सभी के लिए मनमोहक है. इसके पुष्प ताप को दूर करते हैं तथा मन को शांति देते हैं.
सर्वाधिक मनोरम व पावन कुसुम माने जाने वाले कमलपुष्प अपने प्रत्येक प्रकृति-प्रदत्त रंग में मनोरम्य है- चाहे वह श्वेत पुण्डरीक हो, रक्तिम कोकनद या पाटल वर्ण का अरविन्द हो अथवा नील वर्ण का उत्पल या इन्दीवर. नीलकमल को ‘नीलोत्पल’ भी कहते हैं. ‘नीलोफर’ शब्द इसी का अपभ्रंश रूप है. कमल के अनेक पर्यायवाची हैं, जैसे- जलज, सरोज, पंकज, नीरज, अरविंद, पद्म, कंज, सिद्धि, शतदल, अंबुज, वारिज, अंभोरुह, सरसिज, नलिन, राजीव, सीतांबुज, पुंडरीक, इन्दीवर, उत्पल, सरोरुह, पुष्कर, कुवलय, मृणाल, वनज आदि.
कीचड़ में कमल
कमल का फूल सदैव प्रस्फुटन, उन्मीलन, सद्यस्फूर्ति, अनासक्ति एवं अलिप्तता का प्रतीक रहा है. यह सादगी, स्वच्छता, सौंदर्य, शुद्धता, समृद्धि, दिव्यता और पूर्णता का प्रतीक है. आज भी सबके बीच रहकर, अपने समाज और परिवेश की बुराइयों से अप्रभावित रहने वाले व्यक्ति के लिए ‘कीचड़ में कमलवत्’ की उपमा दी जाती है. सरोवर में सरसिज न खिले तो कीचड़ को रंग और सुगंध कैसे मिले? इसी प्रकार, समाज में कमलवत् लोग न हों तो पतितोद्धार कौन करेगा?
कमल कीचड़ में खिलता है, पर उससे पूरी तरह अछूता रहता है. अर्थात बुराइयों के बीच भी रहकर अपनी मौलिकता और पवित्रता को बनाये रखता है. जल से उत्पन्न होकर कीचड़ में खिलता है, किन्तु दोनों से निर्लिप्त रहकर पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है. इसी प्रकार हम चाहें जिस भी परिस्थिति में रहें, लेकिन उन्हें अपने ऊपर हावी न होने दें. कमल कीचड़ में खिलकर भी बहुत सुंदर लगता है, अर्थात मुस्कुराता रहता है. उसी प्रकार हमें भी विषम परिस्थितियों में कभी हताश या निराश नहीं होना चाहिए.
कमल का पुष्प पूर्ण विकास को परिलक्षित करता है. सांसारिक एवं आध्यात्मिक जीवन किस प्रकार जिया जाए, इसका आसान तरीका बताता है. संसार रूपी कीचड़ में रहते हुए हमें कैसे जीवन यापन करना चाहिए, इसकी शिक्षा हम कमल से ले सकते हैं. विषम व विकट स्थितियों में भी सुन्दर कर्मों की सुगंध बिखेरने बाले व्यक्ति आज के इस युग में उसी तरह कम होते जा रहे हैं जैसे लुप्त होते हुए कमल.
चैतन्य का प्रतीक
कमल का फूल चैतन्य का भी प्रतीक है. यह सूक्ष्म शरीर के विभिन्न चक्रों के कमलों का द्योतक है. मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि चक्रों से सम्पृक्त सूक्ष्म कमल (पद्म) समष्टि चेतना के आधार हैं. अध्यात्म का कमल ब्रह्मांडीय शून्य में खिलता है तथा अपने भीतर से शून्य होकर हम इसे विकसित कर सकते हैं. देह में वास करने वाली आत्मा देह से उसी प्रकार अलिप्त है जैसे पंक में पद्म (कीचड़ में कमल).
कमल के अष्टदल मनुष्य के विभिन्न आठ गुणों के प्रतीक हैं. ये गुण हैं- सरलता, मंगल, दया, शांति, पवित्रता, निस्पृहता, उदारता तथा ईर्ष्या का अभाव. इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है, तब वह भी भगवान को कमल पुष्प के समान ही प्रिय हो जाता है. भारतीय संस्कृति और साहित्य में पूज्य, पावन व सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति या वस्तु को कमल की उपमा दी जाती है.
पूजा-अनुष्ठान में भगवान् को कमल का पुष्प अर्पित किये जाने का विशेष ही महत्त्व है, साथ ही भगवान के श्रीअंगों को कमलशोभा से संयुक्त किया जाता रहा है, जैसे मुखारविन्द, पादपद्म, पद्मनाभम, पद्मलोचन, करकमल, कमलनयन इत्यादि.
भगवान् श्रीराम के लिए गोस्वामी तुलसीदास के उद्गार हैं-
“नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणं”
तथा श्रीराम की सांवली छटा के लिए “नवनीलनीरज सुन्दरम्” का प्रयोग भाव-परक भी है और परंपरा-परक भी.
सीता जी की सुन्दर और पवित्र दृष्टि के लिए तुलसीदास जी लिखते हैं-
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी।
जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥
वाल्मीकि जी “पद्मपत्रविशालाक्षौ” कहते हुए श्रीराम के शरीर और सुंदरता की तुलना प्रफुल्ल कमल दलों से करते हैं.
महिषासुरमर्दिनिस्तोत्र में आदि शंकराचार्य जी ने श्रीदुर्गा जी की स्तुति करते हुए उनके सर्वांगसुंदर देह की अंग-कांति की सुषमा की समानता कमल की कोमल पंखुड़ी की सौम्य आभा से की है, साथ ही वे लिखते हैं- “अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्”, अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है.
शिवताण्डवस्तोत्र में रावण ने भगवान् शिव के नीले कण्ठ की नीली शोभा की उपमा नीलकमल-समूह की श्यामल प्रभा से दी है-
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
कमल के पुष्प को श्रीहरि, ब्रह्मा जी, लक्ष्मी जी तथा सरस्वतीजी ने अपना आसन बनाया है. विष्णु जी को पद्म धारण करने वाला माना जाता है. श्रीविष्णु जी के लिए पद्मनाभं, कमलनयनं, ब्रह्माजी के लिए पद्मयोनि या पद्मोद्भव. बैकुंठ में भगवान् विष्णु अष्टदल कमल पर ही अपनी भार्या श्रीलक्ष्मी जी के साथ विराजमान रहते हैं.
देवी लक्ष्मी तो पद्मोद्भवा हैं ही, वे कमलालया व कमलासना भी हैं, देवी सरस्वती श्वेत पद्मासन-संस्थिता हैं. वृंदावन की महारानी और भगवान श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया श्रीराधिका जी के जन्म के विषय में कहा जाता है कि राजा वृषभानु को वे एक कमल के फूल पर ही मिली थीं. इन्द्र द्वारा देवी लक्ष्मी जी की स्तुति करते हुए कहा गया है-
“कमल के आसन वाली, कमल जैसे हाथों वाली, कमलदलों जैसी आँखों वाली, हे पद्ममुखी, पद्मनाभ (भगवान विष्णु) की प्रिया, मैं आपकी वन्दना करता हूँ.”
इसी प्रकार की शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हमारे साहित्यों में प्राप्त होता है. उदाहरणार्थ काव्यों में कमल निर्मलता के प्रतीक के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है. अतः भक्त-कवि अपने निमल-ह्रदय के लिए कहता है “मम हृदय-कंज निवास कुरु…” प्राचीन काव्यों में ‘पद्मिनी’ नायिका चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी से श्रेष्ठ होती हैं, नयन -सौंदर्य में भी कमलनयनी पहले आती है तब क्रमश: मृगनयनी, मत्स्यनयनी तथा खंजननयनी.
धार्मिक चित्रों, व मंदिरों की दीवारों, गुंबदों और स्तंभों में कमल के सुंदर अलंकरण मिलते हैं. उदयपुर में पद्मावती माता मंदिर को कमल के आकार में बनाया गया है. संगमरमर से निर्मित देवी पद्मावती के इस मन्दिर में देवी लक्ष्मी, सरस्वती एवं अम्बिका की भव्य प्रतिमाएँ विराजमान हैं. महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पद्म पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है. इससे पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में कमल के सौंदर्य को कितना आकर्षक और पवित्र माना गया है.
कमल का फूल और उसके औषधीय लाभ
कमल का वानस्पतिक नाम ‘नीलंबियन न्यूसिफेरा (Nelumbian Nucifera) है. यह भारत का राष्ट्रीय पुष्प है और भारत के सभी उष्ण भागों में तथा ईरान से लेकर आस्ट्रेलिया तक पाया जाता है. वैसे तो यह संसार के सभी भागों में पाया जाता है. यह झीलों, तालाबों और गड़हों में होता है. इसका पौधा बीज से जमता है. कमल के तने लंबे, सीधे और खोखले होते हैं तथा पानी के नीचे कीचड़ में चारों ओर फैलते हैं. तनों की गाँठों पर से जड़ें निकलती हैं.
प्रातःकाल कमल की कली खिल उठती है. भँवरों को कमल की सुगंध बड़ी प्यारी लगती है. सब फूलों की पंखुड़ियों या दलों का संख्या समान नहीं होती. पंखुड़ियों के बीच में केसर से घिरा हुआ एक छत्ता होता है. जब तालाब में कमल की पंखुड़ियां झड़ जाती हैं तो छत्ता बढ़ने लगता है और थोड़े दिनों में उसमें बीज पड़ जाते हैं.
इन बीजों के पकने और सूखने पर वे काले हो जाते हैं और तब वे ‘कमलगट्टा’ कहलाते हैं. इसे ही कमल के बीज या कमल का फल भी कहते हैं. कच्चे कमलगट्टे को लोग खाते हैं और उसकी तरकारी बनाते हैं, वहीं सूखे कमलगट्टे दवा के काम आते हैं. कमल की जड़ को ‘कमल ककड़ी’ या ‘मुरार’ कहते हैं. कमल के फल, तने और जड़ सभी की स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है.
कमल एक फूल पानी में होने वाली वनस्पति है. रंग और आकार भेद से इसकी बहुत सी प्रजातियां होती हैं, पर लाल, सफेद और नीले रंग के कमल अधिक देखे जाते हैं. कहीं-कहीं पीले कमल भी मिलते हैं. कमल और कुमुदिनी दोनों एक जैसे दिखते हैं पर इनमें अंतर होता है. कुमुदनी (वाटर लिलि) का रूप कमल के जैसा ही होता है, पर यह कमल नहीं होता. इसके पत्ते कमल के पत्ते से छोटे, चमकीले, चिकने, जल की सतह पर तैरने वाले होते हैं. इसके फूल सफेद तथा 5-12 सेमी व्यास के होते हैं.
कमल के पौधे का सर्वांग उपयोगी और औषधीय गुणों से युक्त एवं ऊर्जाप्रदायक होने के कारण यह पुष्प किसी संजीवनी से कम नहीं है. महाकवि कालिदास की कृतियों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार यह पुष्प तत्कालीन जीवन के दैनन्दिन के क्रिया-कलापों से सहजता से जुड़ा था.
कहीं उनकी नायिका कमलनाल की डंडी से अपने अंग पर लेप लगा रही है तो कहीं व्यजन (हवा) कर रही है, कहीं वह कमल-दल का पर्णपुट (दोना) बनाकर उसमें जल पी रही है और कहीं कमलिनी-पत्र की ओट में अपना लज्जावनत मुख छिपा रही है.
आयुर्वेद के अनुसार, कमल का फूल एक नहीं बल्कि अनेक रोगों के इलाज में फायदेमंद होता है. वैद्यक में लिखा है कि इस सूत के कपड़े से ज्वर दुर हो जाता है.अत्यधिक प्यास लगने की समस्या, जलन, पेशाब से संबंधित बीमारी, कफज दोष, बवासीर आदि में कमल के फूल से लाभ पाया जा सकता है. मधुमक्खियाँ कमल के रस को लेकर जो शहद बनाती हैं, वह आँखों के रोगों के लिए अच्छा होता है.
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