Hanuman ji and Bheem
हनुमान जी के दर्शन पाकर भीम का मन हर्ष से भर जाता है. वे बड़े प्रेम से अपने भाई वानरराज हनुमानजी को प्रणाम करते हुए मधुर वाणी में बोले-
“अहा! आज मेरे समान भाग्यशाली कोई दूसरा नहीं है. आर्य! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है. आपके दर्शन से मुझे जो सुख मिला है, मैं उसे शब्दों में नहीं बता सकता. ज्येष्ठ भ्राता! अब आपको मुझ पर एक और कृपा करनी होगी. वीरवर! आपने मकरालय समुद्र (लंका को जाने वाले समुद्र) को लांघते समय जो अनुपम और विशाल रूप धारण किया था, मुझे आपके उस रूप का दर्शन करने की बड़ी इच्छा है. आपके उस रूप को देखकर ही मुझे संतोष प्राप्त होगा. कृपया मुझे अपने उस रूप का दर्शन करा दीजिये.”
भीम के ऐसा कहने पर हनुमान जी को हंसी आ गई. वे बोले- “भैया! तुम अब मेरे उस स्वरूप को नहीं देख सकते. और तुम ही नहीं, कोई दूसरा मनुष्य भी मेरे उस स्वरूप को नहीं देख सकता, क्योंकि उस समय की अवस्था कुछ और थी, अब वैसी अवस्था नहीं है. सतयुग का समय दूसरा था और त्रेता तथा द्वापर का समय दूसरा ही है. यह काल सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है. अब मेरा वह रूप है ही नहीं.”
हनुमान जी आगे कहते हैं- “भीम! पृथ्वी, नदी, वृक्ष पर्वत, सिद्ध देवता और महर्षि- ये सभी काल का अनुसरण करते हैं (अर्थात समय के अनुसार ही चलते हैं). प्रत्येक युग के अनुसार सभी वस्तुओं के शरीर, बल और प्रभाव में न्यूनाधिकता होती रहती है (कमी-अधिकता आती रहती है या घटती-बढ़ती रहती है). अतः कुरुश्रेष्ठ! तुम मेरे उस स्वरूप को देखने का आग्रह न करो, क्योंकि मैं भी युगों का अनुसरण करता हूँ (समय के अनुसार ही चलता हूँ). काल का उल्लंघन करना किसी के भी लिए अत्यंत कठिन ही है.”
तब भीमसेन हनुमानजी से युगों की संख्या तथा सभी युगों की विशेषताओं के विषय में पूछते हैं. तब हनुमान जी भीम के सामने क्रम से चारों युगों का वर्णन करते हैं-
हनुमान जी द्वारा चारों युगों का वर्णन
“सुनो भीम! सबसे पहला युग कृतयुग (सतयुग) है. उसमें सनातन धर्म की पूर्ण स्थिति रहती है. उसका कृतयुग नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि उसमें उत्तम गुणों के लोग अपना सब कर्तव्यकर्म संपन्न कर लेते हैं. उस समय धर्म का ह्रास नहीं होता था. प्रजा का अर्थात (माता-पिता के रहते) संतान का नाश नहीं होता था (अर्थात सब अपनी पूरी आयु जीते थे). उसके बाद कालक्रम से उसमें गौणता आ गई.
भीम! कृतयुग में देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग नहीं थे. अर्थात कोई परस्पर भेदभाव नहीं रखता था. उस समय क्रय-विक्रय का व्यवहार भी नहीं था. ऋक, साम और यजुर्वेद के मंत्रवर्णों का अलग-अलग विभाग नहीं था (वेद के चार भाग नहीं थे). कृषि जैसी कोई मानवीय क्रिया आदि भी नहीं होती थी, क्योंकि उस समय चिंतन करने मात्र से सबको अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाया करती थी.
सतयुग में एक ही धर्म था- स्वार्थ का त्याग. उस युग में बीमारी नहीं होती थी. इन्द्रियों का क्षय नहीं होता था. कोई किसी के गुणों में दोष नहीं देखता था. किसी को दुःख से रोना नहीं पड़ता था. किसी में न तो घमंड था और न ही कोई अन्य विकार था. कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं था. कोई आलसी भी नहीं होता था. द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या आदि नहीं थे.
उस समय योगियों के परम आश्रय और सम्पूर्ण भूतों की अंतरात्मा परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायण का वर्ण शुक्ल था. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग शम-दम आदि शुभलक्षणों से संपन्न थे. सतयुग में समस्त प्रजा अपने-अपने कर्तव्यकर्मों में लगी रहती थी.
सभी वर्णों के मनुष्य परमब्रह्म परमात्मा के उद्देश्य से ही समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करते थे, अतः उन्हें उत्तम धर्म-फल की प्राप्ति होती थी. कर्म-फल की कामना व आसक्ति न होने के कारण परम गति प्राप्त कर लेते थे. सभी वर्णों के अलग-अलग धर्म होने पर भी वे एकमात्र वेद को ही मानने वाले थे और एक ही सनातन धर्म का पालन करते थे. एकता प्राप्ति कराने वाला यह योग नामक धर्म सतयुग का सूचक है.
भीम! अब त्रेतायुग का वर्णन सुनो, जिसमें यज्ञ-कर्म आरम्भ हो जाता है. उस समय धर्म के एक चरण का ह्रास हो जाता है और भगवान् अच्युत का स्वरूप लाल वर्ण का हो जाता है. लोग सत्य में तत्पर रहते हैं. शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया तथा धर्मपालन में परायण रहते हैं. त्रेतायुग में ही यज्ञ, धर्म तथा नाना प्रकार के सत्कर्म आरम्भ होते हैं. लोगों को अपनी भावना व संकल्प के अनुसार वेदोक्त कर्म तथा दान आदि के द्वारा इच्छित फल की प्राप्ति होती है.
त्रेतायुग के मनुष्य तप और दान में लगे रहकर अपने धर्म से कभी विचलित नहीं होते थे. सभी स्वधर्मपरायण व क्रियावान थे. द्वापरयुग में धर्म के दो ही चरण रह जाते हैं. उस समय भगवान् विष्णु का स्वरूप पीले वर्ण का हो जाता है और वेद चार भागों (ऋक, यजुः, साम तथा अथर्व) में बंट जाता है. उस समय कुछ द्विज चार वेदों के ज्ञाता, कुछ तीन वेदों के विद्वान, कुछ दो ही वेदों के जानकार, कुछ एक ही वेद के पंडित, और कुछ वेद की ऋचाओं के ज्ञान से सर्वथा शून्य होते हैं.
इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों के होने से उनके बताये हुए कर्मों में भी अनेक भेद हो जाते हैं, तथा प्रजा तप और दान- इन दो ही धर्मों में प्रवृत्त होकर राजसी हो जाती है. द्वापर में मनुष्य सम्पूर्ण एक वेद का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है, इसलिए वेद के कई विभाग कर दिए जाते हैं (वेद को कई भागों में बाँट दिया जाता है). इस युग में सात्विक बुद्धि का क्षय होने से कोई विरला ही सत्य में स्थित होता है (अर्थात बहुत कम मनुष्य ही सत्य और धर्म का पालन करते हैं).
♦ भागवत पुराण के अनुसार, समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है. आयु भी कम होने लगती है. उस समय जब भगवान् देखते हैं कि अब मनुष्य लोग मेरे तत्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में वे वेदव्यास जी के समान प्रकट होकर वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूप में विभाजन कर देते हैं.
सत्य से भ्रष्ट होने के कारण द्वापर के लोगों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं. उनके मन में अनेक प्रकार की कामनाएं पैदा होने लगती हैं और वे बहुत से दैवी-उपद्रवों से भी पीड़ित हो जाते हैं. उन सबसे अत्यंत पीड़ित होकर लोग तप आदि करने लगते हैं. कुछ लोग भोग और स्वर्ग की कामना से यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं.
इस प्रकार द्वापरयुग के आने पर अधर्म के कारण प्रजा क्षीण होने लगती है, और उसके बाद कलियुग का आगमन होता है. भीम! कलियुग में धर्म एक ही चरण से स्थित होता है. इस तमोगुणी युग को पाकर भगवान् विष्णु के श्रीविग्रह का रंग काला हो जाता है. वैदिक सदाचार, धर्म तथा यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं. ईति (बाधा), व्याधि (रोग-पीड़ा), आलस्य, क्रोध आदि दोष, मानसिक रोग तथा भूख-प्यास का भय- ये सभी उपद्रव बढ़ जाते हैं.
भीम! युगों के परिवर्तन होने पर आने वाले युगों के अनुसार धर्म का भी ह्रास होता जाता है. इस प्रकार धर्म के क्षीण होने से इस लोक की सुख-सुविधाओं का भी क्षय होने लगता है, जिससे लोक के प्रवर्तक (संचालक) भावों का भी क्षय होने लगता है. युग-क्षयजनित धर्म मनुष्य की इच्छित कामनाओं के विपरीत फल देते हैं. दीर्घकाल तक रहने वाले लोग भी युगों का अनुसरण करते हैं (समय के अनुसार ही चलते हैं).”
♦ यहाँ सतयुग और द्वापरयुग में एक महत्वपूर्ण अंतर बताया गया है. सतयुग में अधिकांश लोग किसी कर्म-फल की कामना से नहीं, बल्कि ईश्वर की सेवा के उद्देश्य से ही समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, अर्थात भगवान् की सेवा या समाज की सेवा आदि के लिए ही अपना कर्तव्य समझकर तप-कर्म आदि करते हैं, वहीं द्वापर में अधिकांश लोग दुःख आने पर ही, पीड़ित होने पर ही, या भोग और सुख की कामना से ही तप-यज्ञादि का अनुष्ठान करते हैं. द्वापर में अधिकतर मनुष्य अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करते, इसीलिए संसार में अनेक प्रकार के रोग-दुःख भी उत्पन्न होने लगते हैं.
इस प्रकार युगों का वर्णन करके हनुमान जी भीम से कहते हैं- “भीम! इसीलिए तुम्हें मेरे पुराने स्वरूप को देखने या जानने का आग्रह नहीं करना चाहिए. कोई भी समझदार मनुष्य निरर्थक विषयों के लिए आग्रह नहीं करता.”
किन्तु तब भी भीम हनुमान जी से कहते हैं- “कपिप्रवर! चाहे जो हो, किन्तु मैं आपका वह पूर्वरूप देखे बिना यहाँ से नहीं जाऊंगा. यदि मैं आपकी कृपा पाने योग्य हूँ, तो कृपया आप स्वयं ही अपने-आपको मेरे सामने प्रकट कर दीजिये.”
जब हनुमानजी ने दिखाया अपना विराट स्वरूप
भीम के ऐसा कहने पर हनुमान जी मुस्कुरा दिए और आखिरकार उन्होंने भीम के सामने अपने उसी रूप को प्रकट कर दिया, जो उन्होंने समुद्र पार करते समय धारण किया था. उन्होंने भीम का प्रिय करने की इच्छा से अत्यंत विशाल शरीर धारण कर लिया. वे अमित तेजस्वी वानरवीर उस सम्पूर्ण वन को आच्छादित करते हुए गंधमादन पर्वत की भी ऊंचाई को लांघकर वहां खड़े हो गए.
हनुमान जी के उस विराट रूप को देखकर भीम को बहुत आश्चर्य हुआ. उनके शरीर में बार-बार हर्ष से रोमांच होने लगा. हनुमान जी का तेज सूर्य के समान दिखाई दे रहा था. उनका शरीर स्वर्णमय मेरुपर्वत के समान था और उनकी प्रभा से सारा आकाशमण्डल प्रज्जवलित-सा जान पड़ रहा था. भीम हनुमानजी की ओर अधिक देर तक देख न सके. उन्होंने अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं. तब हनुमान जी उनसे मुस्कुराते हुए बोले-
“भीम! तुम यहाँ मेरे इतने ही बड़े रूप को देख सकते हो, परन्तु मैं इससे भी बड़ा हो सकता हूँ. मेरे मन में जितने बड़े स्वरूप की भावना होती है, मैं उतना बढ़ सकता हूँ. भयानक शत्रुओं के समीप मेरी मूर्ति अत्यंत ओज के साथ बढ़ती है.”
हनुमान जी का वह अत्यंत भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर भीम घबरा-से गए. उनके शरीर के रोंगटे खड़े होने लगे. और तब भीम ने हाथ जोड़कर हनुमान जी से कहा- “प्रभो! आज मैंने आपके इस शरीर का विशाल प्रमाण प्रत्यक्ष देख लिया. महापराक्रमी वीर! अब कृपया आप अपने शरीर को समेट लीजिये. आप तो सूर्य के समान दिखाई दे रहे हैं. मैं आपकी ओर देख नहीं सकता.”
भीम आगे कहते हैं- “वीर! आज आपके इस स्वरूप को देखकर मुझे एक बात पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके निकट रहते हुए भी भगवान् श्रीराम को क्यों रावण का सामना करना पड़ा? जबकि आप तो अकेले ही सभी योद्धाओं और वाहनों सहित समूची लंका को क्षणभर में नष्ट कर सकते थे. आपके लिए तो कुछ भी असंभव नहीं है. रावण आपका सामना करने में समर्थ ही नहीं था.”
भीम के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने स्नेहयुक्त वाणी में उत्तर दिया- “भीम! तुम ठीक कह रहे हो. वह अधम राक्षस वास्तव में मेरा सामना करने में समर्थ नहीं था. किन्तु सम्पूर्ण लोकों को कष्ट देने वाला रावण यदि मेरे हाथों मारा जाता, तो इससे मेरे प्रभु श्रीराम की कीर्ति नष्ट हो जाती. इसलिए मैंने रावण की उपेक्षा कर दी. उस अधम राक्षस का वध करके भगवान श्रीराम माता सीता को अयोध्यापुरी ले आये. इससे मनुष्यों में उनकी कीर्ति का विस्तार हुआ तथा मानवजाति को धर्म, सत्य, न्याय, प्रेम, ज्ञान, नीति, साहस, पुरुषार्थ आदि का महत्वपूर्ण ज्ञान भी प्राप्त हुआ, जिसके लिए ही श्रीराम ने अवतार लिया था.”
और फिर इसके बाद हनुमान जी ने भीम को धर्म का ज्ञान देकर प्रेम से उन्हें विदा किया. मार्ग में भीम हनुमान जी के उस अद्भुत विशाल रूप तथा भगवान् श्रीराम के आलौकिक माहात्म्य व प्रभाव का बार-बार स्मरण करते जाते.
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