क्या सच में भगवान से भी होती हैं ‘गलतियां’, भगवान होकर ‘चिंता’ क्यों?

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भगवान शिव

आज एक व्यक्ति ने मुझसे सवाल किया कि, “यदि शिव सर्वशक्तिमान भगवान ही हैं, तो वे भस्मासुर से डरकर क्यों भागे? हनुमान जी संजीवनी बूटी की पहचान क्यों नहीं कर पाए? लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर श्रीराम क्यों रोये…” आदि.

इस प्रकार के सवालों का एक वाक्य में जवाब यही है कि जब आपके माता-पिता आपको चलना सिखाते हैं, तो वे स्वयं उल्टा चलते हैं, ताकि वे आपको सीधा चलना सिखा सकें, साथ ही आपको गिरने से भी बचा सकें. आप इन बातों को यहां दिए जा रहे कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं-

भगवान शिव द्वारा भस्मासुर को वरदान देना

भगवान शिव एक राक्षस की भक्ति से बहुत प्रसन्न हो गए. तब उन्होंने उस राक्षस से कहा कि “तुम जो मांगोगे, वही दे दूंगा”. तब राक्षस ने मांगा कि “मैं जिसके सिर पर हाथ रखूं, वही भस्म हो जाए”. शिवजी ने बिना कोई सोच-विचार किए उस राक्षस को ऐसा ही वरदान दे दिया. और तब वह राक्षस भगवान शिव के ही पीछे पड़ गया. तब भगवान शिव वहां से तुरंत चले गए और तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण कर उसी वरदान से उस राक्षस का अंत किया.

अब इस कथा का अर्थ यह नहीं कि भगवान शिव उस राक्षस को पहचान नहीं पाए, या भगवान शिव उस राक्षस से स्वयं को बचा नहीं सकते थे, या उसका वध नहीं कर सकते थे. पूरे संसार को जला डालने की क्षमता रखने वाले भयंकर हलाहल विष को भगवान शिव स्वयं ही बड़ी सहजता से अपने कंठ में धारण करते हैं, अपने तीसरे नेत्र से अग्नि को भी भस्म करने की शक्ति रखते हैं, तो भला भस्मासुर जैसा कोई तुच्छ राक्षस उनका क्या बिगाड़ लेता.

दरअसल, भगवान शिव इस कथा से पूरी मानवजाति को एक बहुत बड़ी सीख देना चाहते हैं कि-

♦ जब आप बहुत ज्यादा प्रसन्न हों, या बहुत ज्यादा दुखी हों, तो उस समय न तो कोई प्रतिज्ञा कीजिये और न ही किसी को कोई वचन दीजिये, क्योंकि उस समय आप केवल अपने दिल की सुन रहे होते हैं (जबकि कोई भी बड़ा फैसला लेते समय अपने दिल और दिमाग, दोनों का इस्तेमाल करना जरूरी होता है).

♦ दूसरी बात कि कभी किसी व्यक्ति को पूरी तरह परखे बिना, या किसी अयोग्य या दुष्ट व्यक्ति को कोई भी बड़ी सिद्धि, या विद्या या यंत्र-मंत्र आदि नहीं दे देना चाहिए, नहीं तो वह समाज के लिए तो खतरनाक होता ही है, साथ ही वह व्यक्ति सबसे पहले आपका ही अहित करने में लग जाता है.

♦ तीसरी बात कि अगर आप कोई भी कार्य बिना सोचे-विचारे करते हैं, या कोई भी कार्य करते समय या किसी भी खतरनाक चीज का निर्माण करते समय पूरे समाज के हित का ध्यान नहीं रखते हैं, तो इसके परिणाम आपको भी भुगतने पड़ते हैं.

♦ और चौथी बात, कि यदि आप किसी सज्जन या भले व्यक्ति की दी हुई चीज या शक्ति का गलत इस्तेमाल करते हैं (भस्मासुर की तरह), या उस चीज से दूसरों को नुकसान पहुंचाने का प्रयास करते हैं, तो वह शक्ति उल्टा असर करने लगती है और आप ही का विनाश कर डालती है. जैसे यही बात होलिका के ऊपर भी लागू हुई थी. उसने ब्रह्मा जी के वरदान का दुरुपयोग कर एक निर्दोष बालक (प्रह्लाद) को जिन्दा जलाने की कोशिश की, तो वह वरदान उसी होलिका के लिए शाप बन गया.

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हनुमान जी संजीवनी बूटी की पहचान क्यों नहीं कर पाए?

हनुमान जी तो संजीवनी बूटी की पहचान कर लेते, लेकिन फिर वे मानवजाति को यह सीख कैसे देते कि जब आपके सामने भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति हो, साथ ही समय भी बहुत कम हो, और आपको बहुत सारी चीजों में सही चीज का ज्ञान न हो, कुछ समझ न आ रहा हो… तब बिना समय गंवाए यथाशक्ति आपको क्या करना चाहिए.

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हनुमान जी का कालनेमि के पास जाना- समय बहुत कम था, फिर भी श्रीराम नाम का जप कर रहे कालनेमि से प्रसन्न होकर हनुमान जी उसके पास जाते हैं. यहां हनुमान जी बताना चाहते हैं कि राम का तो नाम ही पवित्र है, आप श्रीराम का नाम चाहे किसी भी भावना से जपें, हनुमान जी प्रसन्न हो ही जाते हैं, फिर चाहे वे कितने ही व्यस्त क्यों न हों. राम-सीता जी की भक्ति करना या उनकी स्तुति-गुणगान करना, या उनका नाम-जप करना ही हनुमान जी को प्रसन्न करने या उनकी कृपा पाने का सबसे बड़ा रास्ता है.

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।।

इसी के साथ, हनुमान जी के सामने किसी भी प्रकार का कपट बहुत देर तक छिपा नहीं रह सकता, फिर चाहे वह कपट भक्ति का ही क्यों न हो.

लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर श्रीराम क्यों रोये?

लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर श्रीराम का रोना यह बताता है कि कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं, जब धीर-वीर और ज्ञानी पुरुष का भी धैर्य और आत्मविश्वास टूटने लगता है, लेकिन उस समय जो हनुमान जी की तरह चिंता में समय गंवाने की बजाय केवल समाधान खोजने और कर्म करने की ठान लेता है, वह बड़े से बड़े “युद्ध” की भी दिशा पलट सकता है.

यदि लक्षमण जी को शक्ति लगने पर श्रीराम रोये न होते, तो वे संसार को कैसे बताते कि किसी भी परिस्थिति में एक वैद्य का क्या कर्तव्य होता है, कैसे बताते कि हनुमान जी संकटमोचन हैं, कैसे बताते कि किसी बड़ी समस्या का समाधान कैसे निकाला जाता है, कैसे बताते कि उन्हें हनुमान जी अपने भरत के समान ही क्यों प्रिय हैं.

प्रभु श्रीराम-सीता जी का चिंता करना या रोना आदि उनकी लीलाएं हैं, ताकि इस बहाने उनके भक्तों या बच्चों के चरित्र की महानता संसार के सामने आ सके. माता-पिता का प्रेम ऐसा ही होता है कि वे अपने से ज्यादा अपनी संतानों का यश फैलते हुए देखना चाहते हैं, अपनी संतानों के सुंदर गुणों और विशेषताओं को संसार के सामने लाना चाहते हैं.

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श्रीराम ने लंका तक जाने के लिए सेतु का निर्माण क्यों किया था?

कुछ लोग यह भी पूछते हैं कि जब हनुमान जी पर्वत उठाकर ला सकते थे, तो श्रीराम की पूरी सेना को लेकर समुद्र पार भी तो करवा सकते थे. तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?

तो जवाब ये है कि भगवान तो बिना अवतार लिए ही रावण को मार सकते थे. लेकिन फिर वे मनुष्यों को ये शिक्षा कैसे देते कि धर्म और सत्य का पालन करते हुए एक मनुष्य अपने आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प से क्या कर दिखा सकता है.

दूसरी बात कि श्रीराम रावण को केवल हनुमान जी की ही शक्तियों से परिचित नहीं कराना चाहते थे, बल्कि अपनी सेना के एक-एक वानर की शक्ति और इच्छाशक्ति से परिचित कराना चाहते थे. नल-नील की प्रतिभा को भी सबके सामने लाना चाहते थे. वे रावण को दिखाना चाहते थे कि मेरी सेना में उपस्थित जिन वानरों को तुम साधारण भालू-वानर समझ रहे हो, वे साधारण नहीं हैं. ये वानर समुद्र पर सेतु बांध सकते हैं, तो कुछ भी कर सकते हैं. अतः सीता जी को सम्मान सहित वापस लौटा देने में ही लंका की भलाई है.

श्रीराम धरती पर केवल अपना पराक्रम और अपनी महानता दिखाने के लिए नहीं आए. उन्होंने अपना साथ देने वाले अपने सभी भक्तों के चरित्र की महानता और पराक्रम को संसार के सामने लाने का पूरा अवसर दिया है.

♦ कहने का मतलब ये है कि रामायण, महाभारत आदि के अस्तित्व पर या भगवान की शक्तियों पर सवाल उठाने से पहले उनका सही जगह से, सही तरीके से और सही अर्थ लगाकर ठीक से अध्ययन करना जरूरी है, तो उसके बाद कोई संदेह या सवाल नहीं रह जाएंगे.

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हालांकि, लोगों के मन में भगवान और उनकी शक्तियों के प्रति इस प्रकार के संदेह और सवाल आना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि जब माता सती तक को श्रीराम पर संदेह हो गया था, तो भला हम साधारण मनुष्यों की तो क्या औकात. आप तो यह कथा जानते ही होंगे कि-

सीता जी का हरण हो जाने पर श्रीराम को रोते हुए देखकर माता सती सोचने लगीं, “कि यदि सच में श्रीराम भगवान हैं तो इनकी पत्नी का हरण कैसे हो गया? यदि श्रीराम भगवान होते, तो क्या ये इस प्रकार अज्ञानी की तरह अपनी पत्नी को खोज रहे होते? जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा और भेदरहित हैं, वह देह धारण करके मनुष्य का जन्म क्यों लेंगे, क्या वे अपनी ही जगह पर बैठे-बैठे राक्षसों को नहीं मार सकते थे?” (रामचरितमानस-बालकाण्ड)

और इसके बाद माता सती का श्रीराम पर संदेह बढ़ता ही चला गया और यह संदेह उनके मन से तब तक नहीं गया, जब तक उनसे एक बड़ी भूल नहीं हो गई.

भगवान शिव माता सती को बहुत समझाते हैं कि ‘यह श्रीराम और माता सीता जी की मात्र नर-लीला चल रही है, उनकी नर-लीला में बाधा मत डालो’. फिर भी माता सती को विश्वास नहीं होता.

यहां माता सती की यह भूल पूरी मानवजाति को बताना चाहती है कि जब किसी अज्ञानता के कारण, या केवल अपने दिल की सुनने के कारण जब आप कोई बड़ी भूल करने जा रहे होते हैं, या किसी गलत रास्ते पर पैर रखने वाले होते हैं, तब ऐसे में भगवान भी कई तरह के संकेत देते हैं (यदि हम उन संकेतों को समझने की कोशिश करें तो). इसीलिए ऐसे में आपको अपने दिल की सुनने के साथ-साथ एक बार उस व्यक्ति की भी बात पर विचार करना चाहिए, जो हमेशा ही आपका हितैषी रहा है. या जब आप भगवान पर या उनकी शक्तियों पर संदेह करते हैं, तब उसके बाद ऐसी परिस्थितियां बनती चली जाती हैं कि यह संदेह बढ़ता ही चला जाता है.

कोई भी व्यक्ति या हितैषी आपको एक सीमा तक ही समझा पाता है, भगवान भी आपको किसी गलत रास्ते से बचाने के लिए एक सीमा तक ही संकेत देते हैं, लेकिन फिर यदि किसी सही व्यक्ति के बार-बार समझाने पर भी आप नहीं समझते हैं, या भगवान के संकेतों को समझने की कोशिश नहीं करते, तो इस प्रकार के संदेह या केवल अपने दिल की ही सुनने की आदत एक बड़ी भूल भी करवा सकते हैं, जिसका असर पूरे जीवन पड़ सकता है. जब आप किसी की बात मानने को तैयार नहीं होते, तब दुनिया आपको आपके ही हाल पर छोड़ देती है कि, “ठीक है, जो करना है सो करके देख लो.”

इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि अपनी लीलाओं में भगवान ने जानबूझकर जो भी गलतियां की हैं, वे इसलिए की हैं, ताकि वे आपको गलतियां करने से बचा सकें. यदि भगवान ने चिंताएं की हैं, तो उन सबका कोई न कोई विशेष कारण रहा है.

आजकल हम लोगों में कमी यही है कि हम लोग अपने ग्रंथों में लिखी बातों का अर्थ नहीं समझना चाहते, अपने मूल ग्रंथों को स्वयं ही नहीं पढ़ना चाहते, और सनातन पर उंगली उठाने वाला कोई भी व्यक्ति जब हमारे ग्रंथों से कोई भी तथ्य आधे-अधूरे ढंग से हमारे सामने पेश कर देता है, तो हम उसे ही सच मानकर अपने ही धर्म और शास्त्रों पर उंगली उठाने लगते हैं, या संदेह करने लगते हैं.

अब जैसे भगवद्गीता के अंतिम श्लोकों में से एक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, “सब प्रकार के धर्मों का परित्याग करके मेरी शरण में आ जाओ! मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा.”

तो यहाँ कई लोगों ने यह अर्थ निकाल लिया कि भगवान् श्रीकृष्ण तो अहंकारी हैं, या वे अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने से मना कर रहे हैं. जबकि क्या श्रीकृष्ण सच में ऐसा ही कह रहे हैं? दरअसल लोग ‘धर्म’ शब्द का ही अर्थ नहीं समझते, बस पंथ सम्प्रदाय या मजहब आदि से अर्थ निकाल लेते हैं, और इसीलिए अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं.

यहाँ सारथी बने श्रीकृष्ण धर्मसंकट में फंसे अर्जुन को समझा रहे हैं कि तुम अपने सब प्रकार के धर्मों (अर्थत मुझे क्या करना चाहिए क्या नहीं, मेरा क्या कर्तव्य है क्या नहीं, उन सबका क्या परिणाम होगा क्या नहीं… आदि) से बाहर निकलो, इन सबको भूल जाओ और मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सही मार्ग दिखाऊंगा, तुमसे कोई पाप या अधर्म नहीं होने दूंगा, डरो मत, मुझ पर भरोसा रखो.’

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