Duryodhan in Mahabharat
“द्रौपदी की इस हंसी ने रखी थी महाभारत युद्ध की नींव, यूं उड़ाया था दुर्योधन का उपहास”, यह वाक्य आपको इंटरनेट-यूट्यूब पर कई जगहों पर लिखा मिल जाएगा.
यानी कि हर बार कौरवों द्वारा पांडवों को मारने की साजिश, चाहे वो बचपन में खीर में जहर मिलाकर भीम को देना हो या, लाक्षागृह में आग लगाकर सबको जिंदा जलाकर मार देने की साजिश हो, हर बार द्रौपदी को अपमान भरे शब्दों से अपमानित करना हो, भरी सभा में एक स्त्री का चीरहरण, केवल पाँच गाँव मांगने पर भी पांडवों को कुछ भी न देना, कुंती का अपमान, पांडवों के साथ धृतराष्ट्र का अन्याय… सब व्यर्थ हैं, ये सब कारण नहीं थे, मात्र द्रौपदी की एक हंसी बन गई महाभारत का कारण?
और यदि एक हंसी को ही पूरे महाभारत का कारण मान भी लिया जाए, तो लेकिन कौन सी हंसी? द्रौपदी की हंसी को महाभारत का कारण बता देने वालों से यह भी तो पूछा जाना चाहिए कि आखिर महाभारत में द्रौपदी कब और किस पर हंसी थीं? और द्रौपदी ने दुर्योधन को “अंधे का पुत्र अँधा” कब कहा था?
महाभारत के अनुसार,
“सभी राजाओं के चले जाने के बाद भी, दुर्योधन तथा शकुनी, ये दोनों उस रमणीय सभा (युधिष्ठिर की सभा) में ही रह गए. दुर्योधन ने शकुनि के साथ उस सारी सभा का निरीक्षण किया. दुर्योधन उस सभा में उन दिव्य दृश्यों को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुर में पहले कभी नहीं देखा था. एक दिन की बात है, दुर्योधन उस सभाभवन में घूमता हुआ स्फटिकमणिमय स्थल पर जा पहुंचा और वहां जल की आशंका से उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया, लेकिन जब उसे पता चला कि यहां जल नहीं स्थल है, तब अपनी बुद्धि-मोह से मन ही मन लज्जित और उदास होकर उस स्थान से लौटकर सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा. तभी वह स्थल में ही गिर पड़ा. इससे वह मन ही मन दुखी और लज्जित हो गया और वहां से हटकर लंबी सांस लेता हुआ सभाभवन में घूमने लगा.”
तत्पश्चात स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल से भरी बावली को स्थल मानकर वह जल में गिर पड़ा. दुर्योधन की ऐसी अवस्था को देखकर महाबली भीम, उनके सेवक, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव जोर-जोर से हंसने लगे. किन्तु फिर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा से उन्होंने दुर्योधन को सुंदर वस्त्र दिए.
• कहीं भी द्रौपदी, श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर द्वारा हंसने का उल्लेख नहीं है. भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि इसलिए हँसे थे क्योंकि वे बचपन से अपने विरुद्ध कौरवों द्वारा लगातार रची जा रहीं साजिशों से बहुत परेशान हो चुके थे, जबकि पांडव अपने हस्तिनापुर में सबके साथ प्रेम से ही रहने के लिए आये थे, और उन्होंने कौरवों के विरुद्ध कभी कोई साजिश नहीं रची थी. फिर भी कौरवों को उनसे अत्यधिक ईर्ष्या रहती थी.
“इसके बाद, दुर्योधन ने एक स्फटिकमणि बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्तव में बंद था तो भी खुला दिखता था. उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया. उसके साथ ऐसा कई दरवाजों पर हुआ. इस प्रकार बार-बार धोखा खाकर दुर्योधन राजसूय महायज्ञ में पांडवों के पास आई हुई अद्भुत समृद्धि को देखकर अप्रसन्न मन से हस्तिनापुर को चला गया. पांडवों की राजलक्ष्मी से दुखी होकर उसका मन पापपूर्ण विचार करने लगा.”
“यह देखकर कि कुंती के पुत्रों का मन प्रसन्न है, भूमण्डल के सभी राजा उनके वश में हैं, तथा बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सारा जगत उनका हितैषी है, इस प्रकार महात्मा पांडवों की महिमा अत्यंत बढ़ी हुई देखकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन का रंग फीका पड़ गया. रास्ते में जाते समय वह युधिष्ठिर की अलौकिक सभा तथा अनुपम लक्ष्मी के विषय में ही सोच रहा था.”
• दुर्योधन को नाना प्रकार की चिंताओं से युक्त देखकर शकुनि ने उसके दुख का कारण पूछा, तब दुर्योधन बताता है-
“मामाजी! मैंने देखा है, अर्जुन के अस्त्रों के प्रताप से जीती हुई यह सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के वश में हो गई है. युधिष्ठिर का वह राजसूय यज्ञ इस प्रकार संपन्न हुआ है जैसे देवराज इंद्र का यज्ञ पूर्ण हुआ था. यह सब देखकर मेरा मन जल रहा है. और देखिए, यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को मार गिराया, किंतु कोई भी वीर पुरुष उसका बदला लेने को तैयार नहीं हुआ. सब राजा अनेक प्रकार के उत्तम रत्न लेकर युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित थे. युधिष्ठिर की उस प्रकाशमयी लक्ष्मी को देखकर मेरा मन बहुत दुखी हो रहा है. मैं आग में प्रवेश कर जाऊंगा, विष खा लूंगा अथवा जल में डूबकर मर जाऊंगा, पर अब मैं जीवित नहीं रह सकूंगा. आखिर संसार में ऐसा कौन शक्तिशाली पुरुष होगा जो शत्रुओं की वृद्धि देखकर भी चुपचाप सहन कर लेगा? शत्रुओं के पास समस्त भूमंडल का वह साम्राज्य, वैसे धन-रत्नों से भरी संपदा और उनका वैसा उत्कृष्ट राजसूय यज्ञ देखकर मेरे जैसा कौन पुरुष चिंतित न होगा? मैं अकेला युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी को हड़पने में असमर्थ हूं और मुझे अपने पास योग्य सहायक भी नहीं दिखाई दे रहे हैं, इसलिए अब मेरा मन मृत्यु का चिंतन कर रहा है. मैंने पहले भी युधिष्ठिर को नष्ट कर देने का प्रयत्न किया था, किंतु उन सारे संकटों को लांघकर वह जल में कमल की भांति उत्तरोत्तर बढ़ते ही चले गए. कुंती के पुत्र प्रतिदिन उन्नति करते जा रहे हैं और हम धृतराष्ट्रपुत्र हानि उठा रहे हैं. मैं पांडवों के ऐश्वर्य को, उस दिव्य सभा को तथा रक्षकों द्वारा किए गए अपने उपहास को देखकर मानो आग में जल रहा हूं.”
चूंकि शकुनि सभा में दुर्योधन के साथ था, अतः यहाँ दुर्योधन ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा कि श्रीकृष्ण, द्रौपदी आदि उस पर हँसे थे, या उसे किसी के हंसने के कारण दुःख हो रहा था. उसने अपने दुःख का कारण स्पष्ट रूप से पांडवों की समृद्धि को ही बताया. यानी कि दुर्योधन के दुःख का कारण कोई हंसी नहीं, बल्कि पांडवों की समृद्धि थी. वह केवल ईर्ष्या के कारण दुःखी था. वह पांडवों की उन्नति को सहन नहीं कर पा रहा था. वह किसी भी प्रकार से पांडवों की सारी समृद्धि को हड़पना चाहता था.
तब शकुनि अपने भांजे दुर्योधन से कहता है, “पांडवों को और श्रीकृष्ण को जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं है. इन सबको युद्ध में परास्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन मैं ऐसा उपाय जानता हूं जिससे युधिष्ठिर स्वयं पराजित हो सकते हैं.” और तब शकुनि दुर्योधन से द्यूतक्रीड़ा की बात करता है और धृतराष्ट्र द्वारा किस प्रकार पांडवों को इस द्यूतक्रीड़ा के लिए बुलवाया जाये, इसकी पूरी योजना समझाता है.
• और तब दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र के सामने पांडवों की समृद्धि और उसे देखकर अपने दुःख का वर्णन करता है, साथ ही कहता है, “यदि मुझे पांडवों का ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हुआ तो सदा के लिए सो जाऊंगा. मामा शकुनि जुये द्वारा युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी का अपहरण कर सकते हैं, अतः इसके लिए इन्हें आज्ञा दीजिये.”
धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन की शान्ति के लिए यह बात मान लेते हैं और द्यूतसभा का आयोजन करने का आदेश देते हैं. तब विदुर धृतराष्ट्र के चरणों में अपना मस्तक रखकर उन्हें और दुर्योधन को बहुत समझाते हैं तथा द्यूतक्रीड़ा का आयोजन करने से रोकते हैं.
तब दुर्योधन फिर से पांडवों के वैभव और ईर्ष्यावश अपने दुःख का वर्णन करने लगता है, साथ ही कहता है, “जब मैं भ्रमवश जल में गिर पड़ा, तब वहां श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ मेरी ओर देखकर जोर-जोर से हंसने लगे. स्त्रियों सहित द्रौपदी भी मेरे हृदय में चोट पहुंचाती हुई हंस रही थी. यह मेरे लिए बड़े दुःख की बात है. जब मेरा सिर दरवाजे से टकरा गया, तब भीमसेन ने मुझे “धृतराष्ट्रपुत्र” कहकर सम्बोधित किया और हँसते हुए कहा, “दरवाजा इधर है!”
• तब धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर पांडवों के पास जाते हैं और उन्हें द्यूतसभा के आयोजन की बात बताते हुए निमंत्रण देते हैं, साथ ही उन्हें सावधान भी करते हैं. तब युधिष्ठिर कहते हैं, “विदुर जी! मेरे मन में जुआ खेलने की इच्छा नहीं है. यदि मुझे विजयशील राजा धृतराष्ट्र का निमंत्रण न होता तो मैं शकुनि के साथ कभी जुआ न खेलता. किन्तु बुलाने पर मैं कभी पीछे न हटूंगा, यह मेरा सदा का नियम है. अतः आपने जैसा आदेश दिया है, वैसा ही करूंगा.”
Written By : Nancy Garg
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