Manusmriti Vedas me Meat
मनु (Raja Manu) को संसार का प्रथम योगीपुरुष कहा जाता है. इनकी पत्नी का नाम शतरूपा था. मान्यता के अनुसार, इन्हीं दोनों की संतानों से संसार के सभी जनों की उत्पत्ति हुई. मनु की संतान होने के कारण सभी जनों को मानव या मनुष्य कहा जाता है. महाराज मनु ने लंबे काल तक एक आदर्श राजा के रूप में इस पृथ्वी पर राज किया. उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी. भक्तराज ध्रुव (Dhruv) इन्हीं मनु के पोते थे.
मनुस्मृति की रचना- आगे चलकर महाराज मनु ने अपने बड़े पुत्र को पूरा राजपाट सौंपकर अपनी पत्नी के साथ नैमिषारण्य में तप करना शुरू किया और इसीलिए ये राजर्षि कहलाए. उसी दौरान इन्होंने उस समय में प्रचलित संस्कृत भाषा में ‘मनुस्मृति’ (Manusmriti) नाम के ग्रन्थ की रचना की, जो आज ठीक उसी रूप में उपलब्ध नहीं है, जिस रूप में वह लिखी गई थी. उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है.
जैसे- उस काल में ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ ‘वरण’ होता था, यानी धारण करना या स्वीकार करना. यानी जिस व्यक्ति ने जो कार्य करना स्वीकार किया, वही उसका वर्ण कहलाया. मनु केवल मनुष्य थे. यानी वे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे. आगे चलकर जिस मनुष्य ने अपने लिए जिस कर्म या कार्य का चुनाव किया, वही उसका वर्ण (वरण करना या स्वीकार करना या धारण करना) कहलाने लगा.
मनुस्मृति विश्व के सबसे प्राचीन धर्मशास्त्रों में से एक है. (भारत में ‘धर्म’ शब्द का अर्थ किसी मजहब से नहीं, बल्कि अधर्म के विलोम से है). प्राचीन समय में मनुस्मृति को एक कानून ग्रंथ की उपाधि दी गई थी. उस समय समाज में इस ग्रंथ को बहुत महत्वपूर्ण और आदरणीय स्थान प्राप्त था. और यही कारण है कि पहले का मानव समाज ज्यादा उन्नत और सभ्य था. मनुस्मृति की गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव को वैयक्तिक आचरण की प्रेरणा प्राप्त होती है.
आज हम जानेंगे कि मनुस्मृति में मांस भक्षण को लेकर क्या कहा गया है-
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते।। (मनु. ५/४५)
अर्थ- जो जीव वध योग्य नहीं हैं (यानी जिन जीवों से किसी को कोई खतरा नहीं है और जिनका वध करना जरूरी नहीं है) उन जीवों को जो कोई भी अपने सुख (या अपने स्वार्थ) के लिए मारता है, वह जीवित रहते हुए भी मृतक-तुल्य (शव के समान) है और वह कहीं भी सुख नहीं पाता है.
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चैति घातकाः।। (मनु. ५/५१)
अर्थ- पशुओं की हत्या की अनुमति देने वाला, या शस्त्र से जीवों को मारने वाला या मांस को काटने वाला, या मांस को खरीदने वाला, या मांस को बेचने वाला, या मांस को पकाने वाला या परोसने वाला और खाने वाला… ये सब प्रकार के जन घातक हैं.
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम्।। (मनु. ५/५३)
अर्थ- जो मनुष्य सौ सालों में, हर एक साल एक बार अश्वमेध यज्ञ करता है, और अन्य पुरुष जो मांस का भक्षण बिल्कुल नहीं करता है, इन दोनों (मनुष्यों के) के पुण्य फल समान हैं.
यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते।। (मनु. ५/४६)
अर्थ- जो मनुष्य किसी भी जीव को बंधन में रखने, उसका वध करने और उसे क्लेश देने की इच्छा नहीं रखता है, वह सबका हितेच्छु (सबका हित चाहने वाला) है, और इसलिए वह मनुष्य अनंत सुख भोगता है.
इसका मतलब कि मनुस्मृति में जीवों के केवल वध का ही नहीं, बल्कि उन्हें बंधक बनाकर रखने, या उन्हें किसी तरह का कोई भी कष्ट देने का भी विरोध किया गया है.
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।। (मनु. ५/४८)
समुत्पत्तिं तु मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।। (मनु. ५/४९)
अर्थ- जीवों पर हिंसा किए बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और जीवों पर हिंसा करना स्वर्ग-प्राप्ति (यानी सुख प्राप्ति) में बाधक है, इसलिए मांस का भक्षण बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए.
मांस खाने के लिए मांस की उत्पत्ति, जीवों को बंधन में रखने, और उन पर हिंसा (जैसे कार्य किए किए जाते हैं), इसलिए इन बातों को देखकर सब प्रकार से मांस भक्षण को त्याग देना चाहिए.
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्।
स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते।। (मनु. ५/५0)
अर्थ- जो मनुष्य विधि का त्याग करके (नियमों को ठुकराकर) पिशाच की तरह मांस-भक्षण नहीं करता है, वह संसार में सर्वप्रिय (सबका प्रिय) बन जाता है और विपत्ति के समय कष्ट नहीं पाता है (उस व्यक्ति को संकट के समय कष्ट नहीं भोगना पड़ता है).
यानी जीवों की हत्या करना, या मांस भक्षण करना नियमों के विरुद्ध है. और जो व्यक्ति इन नियमों के खिलाफ न जाकर मांस का सेवन नहीं करता है, वह सबका प्रिय बन जाता है.
यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्।
सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।। (मनु. ११/९५)
इसमें राजर्षि मनु ने मद्य, मांस, सुरा और आसव को राक्षसों और पिशाचों का भोजन बताया है. और मनुष्यों का भोजन देवताओं को दी जाने वाली गोघृत (गाय का घी), अन्न, औषधि और नाना प्रकार के फल और शाकाहारी पदार्थ बताए हैं. और इस तरह, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में न केवल यज्ञ में, बल्कि किसी भी तरह के कार्यों में पशुओं का वध घोर पाप बताया गया है.
♦ जिन लोगों भी ऐसा लगता है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहार या पशुबलि जैसे किसी भी कार्य का समर्थन किया गया है, तो वे लोग एक बार महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्याय 115 पढ़ लें.
इस संबंध में क्या कहते हैं वेद
वेदों (Vedas) में जीवों की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं. यजुर्वेद के पहले ही मंत्र में ‘यजमानस्य पशुन् पाहि’ कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा और हिंसा न करने की बात कही गई है. और इसी प्रकार, ऋग्वेद और अथर्ववेद के बहुत से श्लोकों में जीवों की हत्या और मांस खाने का स्पष्ट निषेध किया गया है.
इसी के साथ, वेदों में यज्ञ को ‘अध्वर’ यानी ‘हिंसारहित’ कहा गया है, जिसका मतलब ही है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाए, क्योंकि वेदों में यज्ञ आदि को शक्ति और ईश्वर प्राप्ति का माध्यम बताया गया है. चारों वेदों के अनेक मंत्रों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ आदि में हिंसा रहित कर्म करने का विधान है.
जैसे- ‘अश्वमेध’ शब्द का मतलब यज्ञ में अश्व की बलि देना नहीं, बल्कि राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किए जाने वाले सभी कार्य हैं (शतपथ 13.1.6.3 और 13.2.2.3). यानी वेदों आदि में किसी भी जगह पशुबलि आदि का किसी तरह का कोई समर्थन नहीं किया गया है.
ऋग्वेद में निरामिषरूपी धान, करम्भ, पुरोडाश और सोमरस (एक प्रकार का स्वादिष्ट प्राकृतिक पदार्थ, जिसे दूध-दही के साथ पीया जाता था) को इंद्र का भोजन बताया गया है, न कि मांस को.
वेदों में मनुष्यों के लिए जीवों और प्रकृति की रक्षा का स्पष्ट आदेश है. और इसीलिए प्राचीन भारत के लगभग सभी त्योहार प्रकृति और सेहत की रक्षा से ही जुड़े हुए हैं, ताकि त्योहारों के माध्यम से व्यक्ति अपनी जीवनचर्या में से कुछ समय निकालकर प्रकृति और जीवों की रक्षा और सेवा में लगाए.
क्या कहते हैं दूसरे धार्मिक ग्रंथ
अब अगर हम दूसरे ग्रंथों पर भी एक नजर डालें, तो- आयुर्वेद में भी मांसाहार को रोगों को वृद्धि करने और आयु घटाने वाला बताया गया है.
भगवद्गीता में लिखा है- “आसुरी प्रवृत्ति के लोगों में पशुवध अत्यंत प्रधान होता है”.
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में एक चौपाई आती है, जब सभी देवता और ऋषि-मुनि रावण के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु जी के पास जाते हैं, तब वे सभी कहते हैं कि-
“गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता”
वहीं पर देवराज इंद्र भगवान से कहते हैं कि-
“आज पृथ्वी पर गायों, ब्राह्मणों, नारियों और निर्बलों को बचाने वाला कोई नहीं है. हम सबकी रक्षा कीजिये.”
वाल्मीकि रामायण में सुंदरकांड के सर्ग-36 के श्लोक में लिखा है, “कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न ही मधु (शहद) का सेवन करता है. श्रीराम सदा चार समय उपवास करके पांचवे समय शास्त्रविहित जंगली फल-फूल और नीवार आदि भोजन करते हैं.”
इसी के साथ, भगवान शिव को ‘पशुपतिनाथ’ भी कहा जाता है.. और इसीलिए किसी भी जीव की हत्या को महापाप माना गया है. महाशिवरात्रि की मुख्य कथा (शिकारी वाली कथा) ऐसे ही प्रसंग से जुड़ी हुई है.
भगवान श्रीराम और सीता और लक्ष्मण जी ने पूरे वनवास के दौरान भी केवल कंद-मूल और फलों का ही सेवन किया, ऋषि-मुनियों की तरह सादे वस्त्र धारण कर एक कुटिया बनाकर रहते थे. वनवास के दौरान वे तीनों ज्यादा से ज्यादा व्रत-उपवास करते थे.
(नोट- पंचवटी में राम जी से हिरण को पकड़ लाने की इच्छा माता सीता ने नहीं, ‘माया’ सीता ने की थी, क्योंकि रावण सहित सभी राक्षसों का विनाश करने के लिए ऐसी लीला करना जरूरी था. राम-सीता जी यह जान ही चुके थे कि वह हिरण कोई और नहीं, बल्कि मायावी राक्षस मारीच ही था. और इसलिए सीता जी ने लीला करते हुए राम जी कहा कि, “स्वामी, कृपया इस सुंदर हिरण को पकड़ लाइये. वनवास पूरा होने पर इस हिरण को महल में ले जाएंगे और इसके पैरों में घुंघरू बांध देंगे, तो यह सब जगह छम-छम करता हुआ चलेगा, तो माताएं बहुत प्रसन्न होंगी”)
रामचरितमानस में भी साफ-साफ तो लिखा है कि, “श्री रघुनाथ और जानकी जी (मारीच के कपटमृग बनने का) सब कारण जानते हुए मात्र लीला कर रहे थे.”
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही।
आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन।
उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥
♦ प्राचीन भारत में ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र… कोई भी मांस का सेवन नहीं करता था. हां! राक्षस जरूर मांस का सेवन करते थे और इसीलिए भी वे राक्षस थे.
पहले के क्षत्रिय लोग मांस नहीं खाते थे, बल्कि अपनी शस्त्रविद्या के अभ्यास (प्रैक्टिस) या किसी नरभक्षी को मारने के लिए शिकार पर जाते थे, जैसे आज के मेडिकल के स्टूडेंट्स या जीव विज्ञानी जानवरों पर प्रयोग करते रहते हैं.
लेकिन पहले के समय में शिकार खेलने को भी पाप माना गया है. इस बात का प्रमाण रामायण से ही मिलता है, जब राजा दशरथ ने अपनी मृत्यु के समय कौशल्या जी से स्वयं ही कहा था कि, “अगर अपनी धनुर्विद्या के अहंकार में मैं शिकार न खेलता, तो मुझसे श्रवण कुमार की हत्या जैसा भयंकर पाप नहीं होता. कर्म ही सबसे शक्तिशाली है.”
आधुनिक युग में
वहीं, अगर हम आज के युग में भी देखें, तो वेदों आदि का सही अर्थ जानने वाले और उनका पालन करने वाले लोग किसी भी परिस्थिति में निर्दोष जीव-हत्या और मांसाहार जैसे कार्यों से दूर ही रहना पसंद करते हैं, जैसे- महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने जंगल में घास की रोटियां तो खा ली थीं, लेकिन अपनी भूख मिटाने के लिए किसी भी जीव को कष्ट पहुंचाना उन्हें मंजूर न था.
भारत के महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन (Srinivasa Ramanujan) जब इंग्लैंड गए तो वह वहां अपना खाना खुद ही बनाते थे या फलाहार ही करते थे, क्योंकि वह अपनी आस्था, परम्परा और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या का भी पूरा पालन करना चाहते थे. आपको ऐसे हजारों उदाहरण देखने को मिलेंगे.
मूल मनुस्मृति में 680 श्लोक ही थे, जबकि मिलावटी मनुस्मृति में श्लोकों की संख्या 2400 है.
एक संत ने कहा है कि, “अपने स्वार्थ के लिए वेदों, मनुस्मृति आदि का गलत अर्थ निकालने और उनमें मिलावट करने वालों ने न केवल भारतीय संस्कृति को बेहद नुकसान पहुंचाया, बल्कि करोड़ों निर्दोष जीवों की हत्या भी करवा दी.”
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