Hindu View of Menstruation : मासिक धर्म का हिंदू दृष्टिकोण

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Menstruation in Hinduism

भारत में महिलाओं, विशेषकर युवा लड़कियों के मन में मासिक धर्म (Menstruation) से जुड़े कुछ प्रतिबंधों और प्रथाओं को लेकर कई सवाल होते हैं कि इन दिनों के दौरान उन्हें कुछ अलग-थलग क्यों कर दिया जाता है, या उन पर कुछ प्रतिबन्ध क्यों लगा दिए जाते हैं? जैसे इस दौरान मंदिरों में प्रवेश या पूजा करने पर प्रतिबंध क्यों? मासिक धर्म, जो कि एक सरल जैविक प्रक्रिया है, के साथ धार्मिक अशुद्धता की धारणा क्यों जुड़ी हुई है?

युवा लड़कियों के मन में उठने वाले ऐसे प्रश्नों को यदि दबा दिया जाता है, या सही कारण नहीं बताया जाता है, तो उसका परिणाम यह होता है कि कई लड़कियां इन प्रतिबंधों या नियमों को अन्धविश्वास समझकर इन्हें नजरअंदाज कर देती हैं, साथ ही उन्हें एक प्रकार की मानसिक पीड़ा का भी एहसास कराती हैं. आज हम इसी पर चर्चा करने जा रहे हैं.

नारी पीरियड्स में भी अपवित्र नहीं है

हिन्दू एक सनातन या सदा रहने वाला धर्म है जो जीने का सलीका सिखाता है, जो ब्रह्माण्ड को ब्रह्मा (सृजनकर्ता), विष्णु (पालनकर्ता) और महेश (संहारकर्ता) के रूप में पूजता है. एक ऐसा धर्म जिसमें केवल मूर्तिपूजा ही नहीं की जाती, बल्कि प्रकृति के हर रूप को पूजा जाता है. यहाँ पेड़-पौधों से लेकर पत्थरों, नदियों और गाय की भी पूजा की जाती है.

यह धर्म किसी व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक तत्व को पवित्र, पूजा और उत्सव के योग्य मानता है. जन्म के क्षण से, पहला भोजन ग्रहण करने, पहला अक्षर लिखने से लेकर विवाह और मृत्यु तक, जीवन की प्रत्येक घटना पवित्रता, पूजा और उत्सव से जुड़ा होता है. एकमात्र ऐसा धर्म जो नारीवाद को बढ़ावा देता है. नारी को देवी और शक्ति के रूप में पूजता है. कामाख्या देवी मंदिर इस बात को भी दर्शाता है कि हिन्दू धर्म में नारी पीरियड्स में भी अपवित्र नहीं मानी जाती है.

हिन्दुओं में जीवन के अलग-अलग तत्वों के प्रति पूजा और उत्सव की धारणा की पवित्रता का यह लगाव मासिक धर्म वाली महिलाओं के संबंध में भी देखा जा सकता है. इसे दर्शाने वाला सबसे अच्छा उदाहरण ‘ऋतु ​​काल संस्कार’ का उत्सव है. ऋतु कला संस्कार उम्र के आगमन का समारोह है जो युवा लड़कियों में मासिक धर्म की शुरुआत का जश्न मनाता है.

कर्नाटक में, जिस लड़की का मासिक धर्म शुरू हो जाता है, उसे तैयार किया जाता है और पड़ोस की सुमंगली महिलाएं (विवाहित महिलाएं) गीत गाते हुए उसकी आरती करती हैं. फिर लड़की को तिल और गुड़ से बना एक व्यंजन जिसका सेवन इन दिनों में अच्छा माना जाता है, तंबुला (नारियल, पान के पत्तों आदि का एक संयोजन जो पूजा में देवता को चढ़ाया जाता है या मेहमानों को दिया जाता है) आदि दिया जाता है. ऐसा ही समारोह केरल और आंध्र प्रदेश में भी देखने को मिलता है.

दूसरी ओर, तमिलनाडु में यह उत्सव पूरे तीन दिनों तक बहुत धूमधाम से मनाया जाता है, जहां इसे ‘मंजल नीरट्टू विझा’ (हल्दी स्नान समारोह) कहा जाता है. इस समारोह में दोस्तों और परिवार को आमंत्रित किया जाता है और लड़की को रेशम की साड़ियाँ उपहार में दी जाती हैं और वह पहली बार साड़ी पहनती है. पूरा समारोह धूमधाम के साथ होता है.

हमारे एक राज्य ओडिशा में, किसी लड़की के पहले मासिक धर्म का जश्न 7 दिनों तक चलता है. रिश्तेदार और पड़ोसी लड़की को मिठाई देते हैं और आशीर्वाद देते हैं. इसके अलावा एक वार्षिक उत्सव भी होता है जिसे ‘रजो पर्व’ कहा जाता है, यह नारीत्व का जश्न मनाता है. इस दौरान लड़कियाँ और महिलाएँ झूले पर खेलती हैं, श्रृंगार करती हैं, गीत गाती हैं और नृत्य करती हैं. असम में भी लड़कियों के पहले पीरियड्स का जश्न मनाया जाता है.

इन समारोहों का उद्देश्य होता है- लड़की के मन में मासिक धर्म के बारे में एक बहुत ही सकारात्मक धारणा पैदा करना, इन दिनों के लिए उसे ऐसी शिक्षाएं देना, जो युवा लड़की को युवावस्था के दौरान आने वाले शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए अच्छी तरह से तैयार करे.

लड़कियों को अपने स्वयं के व्यक्तित्व को बेहतर ढंग से समझने और उन्हें अधिक पूर्ण जीवन जीने में मदद करना. इन समारोहों से लड़की मासिक धर्म को एक शाप न समझकर एक वरदान के रूप में देखती है, नियमों का पालन सरलता से कर पाती है, साथ ही किसी भी प्रकार के मानसिक तनाव से मुक्त रहती है.

इस दौरान आयोजित किये जाने वाले समारोहों में लड़की को विशेष माना जाता है और उसे उपहार दिए जाते हैं. उन्हें सर्वोच्च देवी की अभिव्यक्ति के रूप में माना जाता है और आरती के साथ उनकी पूजा की जाती है. युवा लड़की का नारीत्व में खुले हाथों से स्वागत किया जाता है और अनुष्ठान उसे यौवन के साथ आने वाले परिवर्तनों को सकारात्मक और स्वागत की भावना से स्वीकार करने की अनुमति देता है. उसे अपनी स्त्री पहचान में आत्मविश्वास और प्रसन्न महसूस कराया जाता है. अतः स्पष्ट है कि हिंदू परंपरा मासिक धर्म को एक पवित्र और सकारात्मक प्रक्रिया के रूप में मान्यता देती है.

मासिक धर्म में नियम और प्रतिबन्ध-

मासिक धर्म के दौरान महिलाओं से कुछ नियमों या प्रतिबंधों का पालन करने की सलाह दी गई है, जैसे- तीन दिनों के दौरान नहाना नहीं चाहिए, धातु के कप से पानी नहीं पीना चाहिए, भोजन नहीं पकाना चाहिए, तेज आवाज में हंसना या बोलना नहीं चाहिए, गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए, मेहंदी नहीं लगाना चाहिए, आँखों में काजल नहीं लगाना चाहिए, नाखून नहीं काटने चाहिए, दिन में नहीं सोना चाहिए, तामसी भोजन नहीं करना चाहिए, पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए आदि. लेकिन ऐसा क्यों? इसे समझने के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों को समझना होगा-

मासिक धर्म का मानसिक पक्ष

संस्कृत में मासिक धर्म का एक नाम ‘रजस्राव’ है, जिसका अर्थ है ‘रज का प्रवाह’. हालाँकि यहाँ ‘रज’ शब्द का अनुवाद अक्सर ‘रक्त’ के रूप में कर दिया जाता है, जबकि यह ‘रजस गुण’ को संदर्भित करता है. रजस तीन गुणों (सत, रज और तम) में से एक है.

भारतीय दर्शन में जीवों के गुण तीन प्रकार होते हैं- सत रज और तम. सत वह है जो हर स्थिति में प्राणी को उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा और सुख-दुख में भेद और परिमाण बता सके. सतोगुण के लोग इस ज्ञान से भरे होते हैं कि किस स्थिति में क्या करना चाहिए और इस तरह उन्हें घबराहट नहीं होती है क्योंकि वे तत्वदर्शी होते हैं.

रजोगुणी को यह ज्ञान थोड़ा कम होता है और तमोगुणी को अत्यंत कम होता है. सतोगुणी मनुष्य सुख में अहंकार से और दुःख में मोह और क्रोध जैसे भावों से बचता है. जिसे यह ज्ञान होता है वह ब्रह्म के निकट माना जाता है और ‘ब्राह्मण’ कहलाता है. वंशानुगत ब्राह्मण बनने की परम्परा आधुनिक काल में शुरु हुई.

मासिक धर्म के दौरान महिलाओं का रजोगुण शरीर से बाहर निकलता है. इस प्रकार, रक्त के उत्सर्जन के माध्यम से अतिरिक्त प्राण शक्ति जो कि राजसिक प्रकृति की होती है, मासिक धर्म के दौरान शरीर से बाहर निकल जाती है.

मासिक धर्म में अशुद्ध या अपवित्र नहीं है स्त्री

सनातन धर्म में स्त्रियों के मासिक धर्म को कभी भी अशुद्ध या अपवित्र नहीं समझा गया है, बल्कि इसे पुरुषों के ब्रह्मचर्य के समान ही बताया गया है. जैसे पुरुषों में ब्रह्मचर्य और स्त्रियों में मासिक धर्म या पुरुषों में संयम और स्त्रियों में त्याग को एक समान समझा गया है. स्त्रियों के मासिक धर्म को एक तपस्या कहा गया है. हमारे यहाँ हर चीज का एक नियम बनाया गया है, जिनका पालन सभी के लिए आवश्यक बताया गया है. पालन न करने पर शारीरिक और मानसिक रूप से कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है.

मासिक धर्म महिलाओं को तपस्या का अभ्यास करने और मन और इंद्रियों पर बेहतर नियंत्रण विकसित करके आत्म-शुद्धि प्राप्त करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है. मासिक धर्म की प्रक्रिया एक आत्मशुद्धि मानी गई है क्योंकि इस दौरान जो रज गुण होता है, वह हमारे शरीर को छोड़कर चला जाता है. तब हमारे शरीर में बचता है- सत और तम. ऐसे में हम सत की ओर मन लगाकर आत्मशुद्धि और आत्मविकास कर सकते हैं.

मासिक धर्म वाली महिलाओं को अलग करने के पीछे एक कारण यह है कि मासिक धर्म अपने आप में एक तप है. चूंकि कोई भी तप, चाहे वह पुरुषों या महिलाओं द्वारा किया जाता है, एकांत में अभ्यास करने पर सबसे अच्छा होता है.

शुद्धिकरण न केवल भौतिक शरीर से, बल्कि मन से भी संबंधित है. और मासिक धर्म व्यक्तित्व की तीनों परतों में से प्रत्येक से जुड़ी अशुद्धता को दूर करता है. यह शरीर के विषैले तत्वों को बाहर निकालकर तथा अपान वायु को हटाकर भौतिक शरीर को शुद्ध करता है, साथ ही रजो गुण निकालकर मानसिक अशुद्धियों को दूर करके मन को शुद्ध करता है. इस प्रकार, मासिक धर्म एक आत्म-शुद्धिकरण प्रक्रिया भी है.

पुरुषों को मासिक धर्म नहीं होता है और इसलिए उन्हें अपनी आत्म-शुद्धिकरण के लिए या शरीर और मन की पवित्रता को प्राप्त करने के लिए विशेष प्रयास करने पड़ते हैं, जबकि महिलाएं एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में मासिक धर्म से ही पवित्र हो जाती हैं. इस दौरान महिलाएँ अस्थायी अशौच से जुड़ जाती हैं, लेकिन यह उन्हें नीचा नहीं दिखाता या उन्हें हीन नहीं बनाता या उन्हें अपवित्र नहीं बनाता है, बल्कि यह महिलाओं को हमेशा मन और शरीर से पवित्र रहने की सुविधा देता है.

उदाहरण के लिए, बौधायन धर्मसूत्र (2.2.4.4) कहता है- ‘महिलाओं के पास शुद्धि का एक बेजोड़ साधन है; वे कभी भी पूरी तरह अपवित्र नहीं होतीं, क्योंकि मासिक धर्म उनकी अस्थायी अशुद्धता को दूर करती है.” यही बात वशिष्ठ धर्मसूत्र में भी दोहराई गई है (28.4), और कहा गया है कि महिलाएं अपवित्र नहीं हो सकती हैं. याज्ञवल्क्य स्मृति (1.71) में भी ऐसा ही एक श्लोक मिलता है, जहां महिलाओं को ‘सर्वशुद्ध’ कहा गया है.

मासिक धर्म का शारीरिक पक्ष-

त्रिदोष- आयुर्वेद एक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा प्रणाली है, जो कई हजार वर्षों से पूरे भारत में प्रचलित है. आयुर्वेद मासिक धर्म को एक शारीरिक प्रक्रिया के रूप में मान्यता देता है और अन्य शारीरिक प्रक्रियाओं की तरह, यह भी दोषों की क्रियाओं द्वारा नियंत्रित होता है . आयुर्वेद में वात (गति से संबंधित), पित्त (पाचन से संबंधित), और कफ (संचय से संबंधित) इन तीनों को ‘त्रिदोष’ कहा जाता है.

यहाँ यहां ‘दोष’ शब्द का अर्थ सामान्य भाषा में प्रचलित ‘विकार’ नहीं है. ‘दोष’ शब्द इसलिए जुड़ा है क्योंकि सीमा से अधिक बढ़ने या घटने पर ये स्वयं दूषित हो जाते हैं. आयुर्वेद में कहा गया है कि ‘दुषणात दोषाः, धारणात धातवः’, अर्थात वात, पित्त और कफ जब दूषित होते हैं, या इनमें असंतुलन होता है, तो शरीर में रोग उत्पन्न कर देते हैं तथा जब वे अपनी स्वाभाविक या प्राकृतिक अवस्था में रहते हैं तो शरीर को संतुलित रखते हैं.

आयुर्वेद किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य और बीमारी को इस आधार पर परिभाषित करता है कि इन तीनों दोषों के कामकाज में संतुलन है या असंतुलन, और क्या किसी भी समय किसी व्यक्ति में इन तीनों दोषों की कार्यप्रणाली उसकी प्रकृति के अनुरूप है या नहीं. यदि वात, पित्त और कफ के बीच का बैलेंस या संतुलन बिगड़ जाता है, तो शरीर में बीमारियां उत्पन्न होने लगती हैं.

अब, मासिक धर्म की प्रक्रिया पर आते हैं. आयुर्वेद पूरे मासिक चक्र को तीन चरणों में विभाजित करता है- ऋतु-काल, ऋतु-व्यतीता-काल, और राजहश्रव-काल. इनमें से प्रत्येक चरण में एक अलग दोष प्रबल होता है. ऋतु-काल में कफ दोष का प्रभुत्व होता है, जो पुनर्जनन और विकास को नियंत्रित करता है. ऋतु-व्यतीता-काल में पित्त दोष का प्रभुत्व है, जो शरीर में सभी स्राव गतिविधियों को नियंत्रित करता है. रजहश्रव-काल मासिक धर्म का वास्तविक चरण है, जिसमें एंडोमेट्रियम के साथ मासिक धर्म का रक्त शरीर से बाहर निकल जाता है.

सुश्रुत संहिता (2.4) कहती है- ‘वात, पित्त, कफ और रक्त में गड़बड़ी के कारण या तो अर्थवम (असामान्य मासिक धर्म) का कारण बनती है, या अलग-अलग या दो या दो से अधिक दोषों के संयोजन से, एक महिला की गर्भधारण करने की क्षमता में बाधा उत्पन्न कर सकती है.’

प्रत्येक महिला में वात, पित्त और कफ के असंतुलन के कारण अलग-अलग असामान्य स्थितियां विकसित होने की आशंका होती हैं. वात प्रकृति वाली महिला को मासिक धर्म के दौरान दर्द होने की अधिक संभावना होती है. इसी तरह, पित्त प्रकृति वाली महिला के मूड में बदलाव की संभावना अधिक होती है और कफ प्रकृति वाली महिला के मासिक धर्म के रक्त में अधिक थक्के होने की संभावना होती है. अतः वात, पित्त और कफ में असंतुलन से मासिक धर्म प्रक्रिया में भी असंतुलन हो जाएगा, जो बदले में महिला के स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा.

इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए, आयुर्वेद ने मासिक धर्म वाली महिलाओं द्वारा अपनाई जाने वाली जीवन शैली निर्धारित की है कि “इस दौरान क्या करें और क्या न करें” की एक श्रृंखला, जिसे “रजस्वला परिचर्या” (Rajaswala Paricharya) कहा जाता है, जिसका उद्देश्य मासिक धर्म वाली महिला के स्वास्थ्य की रक्षा करना और किसी भी गर्भधारण की स्थिति में बच्चे में किसी भी स्वास्थ्य दोष को रोकना है.

इन नियमों के चलते ही भारत की स्त्रियों में मासिक धर्म के दौरान होने वाली परेशानियां, पश्चिमी देशों की महिलाओं में होने वाली परेशानियों से कम है. वहीं, जैसे-जैसे हम पश्चिमी सभ्यता को अपनाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे इन दिनों होने वाली परेशानियां भी बढ़ती जा रही हैं- जैसे पेट दर्द, पैरों की नसों में दर्द, मानसिक तनाव, अवसाद, चिड़चिड़ापन, थकान, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, पिंपल्स, भूख में कमी, गर्मी लगना, कब्ज/मल त्याग में वृद्धि, यूरिन में वृद्धि, कमजोरी, सिरदर्द/माइग्रेन, हार्मोन्स की गड़बड़ी आदि.

महिलाओं को आराम देने के लिए बनाये गए हैं ये नियम-

जब एक स्त्री का मासिक धर्म चल रहा होता है, तब उसके शरीर में वात और पित्त बढ़ जाता है, क्योंकि शरीर इस दौरान एक नई एक्टिविटी को हैंडल कर रहा होता है और इन क्रियाओं के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है और इसीलिए मासिक धर्म के दौरान उन सभी कार्यों को वर्जित बताया गया है, जिससे वात और पित्त का संतुलन बिगड़ सकता है.

अंगिरस स्मृति (श्लोक 37), महिलाओं को मासिक धर्म रुकने के बाद ही अपना घरेलू काम फिर से शुरू करने की सलाह देती है. इसी तरह, वशिष्ठ धर्मसूत्र (5.6) कहता है कि मासिक धर्म वाली महिलाओं को शारीरिक परिश्रम नहीं करना चाहिए, चाहे वह घरेलू काम हो या दौड़ने जैसी गतिविधियाँ. असम के कामाख्या मंदिर में अंबुबाची उत्सव के दौरान, देवी को आराम देने के लिए मंदिर को तीन दिनों के लिए बंद कर दिया जाता है. माना जाता है कि देवी उस दौरान रजस्वला होती हैं.

फ्रेडरिक एपफेल-मार्गलिन ने अपनी पुस्तक ‘रिदम्स ऑफ लाइफ: एनेक्टिंग द वर्ल्ड विद द गॉडेसेस ऑफ उड़ीसा’ में ओडिशा की एक ग्रामीण महिला को इस प्रकार उद्धृत किया है- “मासिक धर्म के दौरान महिलाएं कोई काम नहीं करती हैं. वे अपन सहेलियों के साथ खेलती और गाती हैं. इसका एकमात्र उद्देश्य है- उन्हें आराम देना, क्योंकि माना जाता है कि मासिक धर्म के दौरान उन्हें परेशान नहीं किया जाना चाहिए.”

प्रतिबंधों के वैज्ञानिक या स्वास्थ्य कारण-

यदि अपान वायु (यानी वात) के मुक्त प्रवाह में बाधा पड़ती है, तो मासिक धर्म के रक्त को बाहर निकालने के लिए गर्भाशय पर अधिक दबाव पड़ता है, इससे मासिक धर्म के दौरान पेट में दर्द की समस्या होने लगती है. वात के प्रवाह में यह रुकावट पिंडली की मांसपेशियों में ऐंठन का कारण भी बनती है.

अब जैसे इस दौरान नहाने से मना किया गया है तो वह इसलिए क्योंकि आपके शरीर में प्राकृतिक रूप से पित बढ़ा हुआ है और ऐसे में आप नहाकर उसके विरुद्ध काम करते हैं. जैसे खाना खाने के तुरंत बाद नहाने से मना किया जाता है, क्योंकि खाना पचाने के लिए हमारा पित्त बढ़ जाता है, इसलिए उसके तुरंत बाद नहाकर उसके विरुद्ध काम नहीं करना चाहिए.

अंगिरस स्मृति महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान पूजा, होम, मंदिर जाना आदि जैसी कोई भी पवित्र (धार्मिक) गतिविधियाँ नहीं करने के लिए कहता है. इसी तरह, बृहदारण्यक उपनिषद (6.4.13) मासिक धर्म वाली महिलाओं को धातु के कप से पानी न पीने की सलाह देता है (क्योंकि धातुएं भौतिक और सूक्ष्म दोनों स्तरों पर ऊर्जा का संचालन करती हैं). यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता (2.5.1) महिलाओं को भोजन न पकाने की सलाह देती है (क्योंकि, राजसिक स्थिति में पकाया गया भोजन राजसिक प्रकृति का होगा).

सुश्रुत संहिता (2/25) और चरक संहिता (8.4) में कहा गया है- “मासिक धर्म शुरू होने के बाद 3 दिन और रात तक स्त्री को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए’. आयुर्वेदिक ग्रंथों में इस बात पर जोर दिया गया है कि मासिक धर्म के दौरान संभोग से बचना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसे संभोग से बच्चा गर्भ धारण करता है (यह संभव है, हालांकि कम संभावना है), तो जन्म के कुछ दिनों के भीतर ऐसे बच्चे की अंतर्गर्भाशयी मृत्यु हो सकती है, या किसी विकृति से ग्रस्त होकर जन्म लेता है.

अब इसका मतलब यह नहीं है कि प्रत्येक महिला, जो रजस्वला परिचर्या का पालन नहीं करती है, तो उसके बच्चे किसी न किसी विकार से ग्रस्त होंगे. सार यह है कि ऐसी महिलाओं से पैदा होने वाले बच्चों में उन अप्रिय स्थितियों के विकसित होने की संभावना अधिक होती है. यदि लंबे समय तक रजस्वला परिचर्या का पालन नहीं किया जाता है, तो दोषों में असंतुलन, साथ ही अग्निमांद्य (जठराग्नि की कमी, पाचनशक्ति की कमी, भूख न लगने का रोग) जैसी स्थितियां स्थायी बन सकती हैं, जिससे महिला के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.

मासिक धर्म वाली महिला को गरिष्ठ भोजन और मांसाहार करने से मना किया जाता है, क्योंकि इस दौरान महिला को भूख में कमी का अनुभव होता है. इसका समाधान करने और पाचन अग्नि को फिर से जागृत करने के लिए, कुछ आहार, जो सरल और आसानी से पचने योग्य होते हैं, उन्हें खाने की सलाह दी जाती है.

रजस्वला परिचर्या के अन्य तत्वों जैसे दिन के समय न सोना, व्यायाम और शारीरिक परिश्रम न करना, स्नान न करना आदि के साथ सात्विक खानपान का पालन करने से मासिक धर्म वाली महिलाओं की पाचन अग्नि को फिर से जागृत करने में मदद मिलती है और इस प्रकार कमजोर पाचन शक्ति से होने वाली समस्याओं को रोका जा सकता है.

इसके अलावा, शारीरिक परिश्रम से वात खराब होता है, जिसके परिणामस्वरूप कमजोरी आती है. कफ, वात और रक्त के खराब होने से मुंहासे होते हैं. इसी तरह, रस-धातु में असामान्यता मासिक धर्म के दौरान चिड़चिड़ापन, मूड में बदलाव और अवसाद का कारण बनती है. मासिक धर्म के दौरान दौड़ने, हंसने और बहुत अधिक बात करने से वात दोष बिगड़ जाता है और यदि महिलाएं हर मासिक धर्म के दौरान इन गतिविधियों को जारी रखती हैं, तो वात दोष की गड़बड़ी एक स्थायी स्थिति बन सकती है.

मंदिर जाने से इसलिए मना किया जाता है, क्योंकि पहला तो, इस दौरान महिलाओं को नहाने से ही मना किया गया है, तो नहाये बिना तो वैसे ही मंदिरों में नहीं जाना चाहिए और न ही पूजा करनी चाहिए, फिर चाहे वह पुरुष ही क्यों न हो.

दूसरा कि मंदिरों में एक अलग ऊर्जा होती है. यह हम मंदिर जाते समय अनुभव भी करते हैं. इसलिए ऐसे में मंदिर जाना सही नहीं हो सकता है. इसी के साथ, मासिक धर्म के दौरान मंदिर जाने और पूजा आदि करने से मना किया गया है, लेकिन मंत्र-जाप या साधना करने पर कोई रोक नहीं है, बल्कि इसे अच्छा बताया गया है.

इस दौरान महिलाओं को क्या करना चाहिए-

इस दौरान हमें कठिन शारीरिक मेहनत की बजाय शांत स्थान पर बैठकर मन को साधना में लगाना चाहिए, क्योंकि साधना करने के लिए यह समय सबसे अच्छा माना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस दौरान स्त्रियों के शरीर से विषैले तत्व भी निकल जाते हैं, साथ ही शरीर से रजो गुण निकलता है. ‘रजस्वला’ इसलिए बोला जाता है क्योंकि जो रजोगुण है, वह हमें छोड़कर जा रहा है, तब हमें थकान और आलस्य का अनुभव होता है. ऐसे में बचता है- सत और तम. ऐसे में यदि हम अपने आपको सत की ओर लगाएं तो यह हमारे शारीरिक और मानसिक विकास और स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होगा. और इसीलिए मासिक धर्म के दौरान की गई साधना को सबसे अच्छी साधना माना जाता है.

ये जितने भी नियम बताये गए हैं, वे तीन दिनों के लिए ही हैं. यदि किसी बीमारी या हार्मोन्स के बिगड़ जाने के कारण तीन दिनों से आगे भी रक्तस्राव होता रहता है, तो इन नियमों का पालन आवश्यक नहीं है. उस दौरान उचित इलाज और देखभाल की आवश्यकता है.

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