Draupadi in Mahabharat
“प्रिया च दर्शनीया च पण्डिता च पतिव्रता।” अर्थात् “पतिव्रता द्रौपदी पांडवों की प्रिया, दर्शनीया और विदुषी थीं” (महाभारत ३.२७.२). द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती हैं-
“ज्ञानी पुरुष को भी इस संसार में कर्म अवश्य करना चाहिए. पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर भूत ही कर्म किए बिना जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं. गांव के बछड़े भी माता का दूध पीते और छाया में जाकर विश्राम करते हैं. इस प्रकार सभी जीव कर्म करके ही जीवन-निर्वाह करते हैं. जंगम प्राणियों में, विशेष रूप से मनुष्य कर्म के द्वारा ही इहलोक और परलोक में जीविका प्राप्त कर सकते हैं. सभी प्राणी अपने उत्थान को समझते हैं और कर्मों के प्रत्यक्ष फल का उपभोग करते हैं, जिसका साक्षी यह सारा जगत है.
यह जल के समीप जो बगुला बैठकर (मछली के लिए) ध्यान लगा रहा है, उसी के समान ये सभी प्राणी अपने उद्योग का आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं. धाता और विधाता भी सदा सृष्टि पालन के उद्योग में लगे रहते हैं. कर्म न करने वाले प्राणियों की कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती. अतः केवल प्रारब्ध का भरोसा करके कभी कर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए. सदा कर्म का ही आश्रय लेना चाहिए.
अपना कर्म स्वयं करना चाहिए. उसमें ग्लानि नहीं करना चाहिए. कर्म का कवच पहने रहना चाहिए. धन की वृद्धि और रक्षा के लिए भी कर्म की आवश्यकता है. यदि धन का उपभोग (व्यय) ही होता रहे और आय न हो, तो हिमालय जैसी धनराशि का भी क्षय हो सकता है. यदि समस्त प्रजा इस भूतल पर कर्म करना छोड़ दे तो सबका संहार हो जाएगा. यदि कर्म का कुछ फल न हो तो इन प्रजाओं की वृद्धि ही न हो. हम देखते हैं कि कुछ लोग व्यर्थ कर्म में भी लगे रहते हैं, पर कर्म न करने पर तो लोगों की किसी प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती.
जो भाग्य के भरोसे रहकर कर्म नहीं करता
संसार में जो केवल भाग्य के भरोसे रहकर कर्म नहीं करता, अर्थात जो ऐसा मानता है कि पहले जैसा किया है वैसा ही फल अपने-आप ही प्राप्त हो जाएगा, तथा जो हठवादी है, अर्थात बिना किसी युक्ति के हठपूर्वक यह मानता है कि कर्म करना आवश्यक नहीं है, जो कुछ मिलना होगा अपने-आप मिल जाएगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं.
जिसकी बुद्धि कर्म (पुरुषार्थ) में रुचि रखती है, वही प्रशंसा का पात्र है. जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य प्रारब्ध या भाग्य का भरोसा रखकर उद्योग से मुंह मोड़ लेता है और सुख से सोता रहता है, उसका जल में रखे हुए कच्चे घड़े की भांति विनाश हो जाता है. इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करने में समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता, बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथ की भांति दीर्घजीवी नहीं हो पाता.
जो कोई मनुष्य इस जगत में अकस्मात कहीं से धन पा लेता है, उसे लोग हठ से मिला हुआ धन ही मानते हैं, क्योंकि उसके लिए किसी के द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं दिखता. मनुष्य जो कुछ भी देवाराधन की विधि से अपने भाग्य के अनुसार पाता है, उसे निश्चित रूप से दैव (प्रारब्ध) कहा गया है, तथा मनुष्य स्वयं कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं. यह सब लोगों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है.
जो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत्त होकर धन प्राप्त करता है, उसके उस धन को स्वाभाविक फल समझना चाहिए. इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्म से मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं को पाता है, वह सब उसके पूर्वकर्मों की ही फल होता है. मनुष्य यहां जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वर द्वारा विहित उसके पूर्वकर्मों के फल का उदय ही समझिये (जो जानबूझकर जैसे कर्म करता है, ईश्वर भी उससे वैसे ही कर्म करवाता है. अच्छा कर्म और अच्छा कर्म करवाता है तथा बुरा कर्म और बुरा कर्म करवाता है).
तत्वज्ञ एवं कुशल लोग कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल दैव से, कुछ हठ से और कुछ स्वभाव से प्राप्त करता है, क्योंकि यदि ईश्वर सब प्राणियों को इष्ट-अनिष्ट रूप फल नहीं देते, तो उन प्राणियों में से कोई भी दीन नहीं होता. यदि पूर्वकृत प्रारब्ध कर्म प्रभाव डालने वाला न होता, तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजन के अभिप्राय से कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता. अतः जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थ की प्राप्ति में हठ, दैव और स्वभाव- इन तीनों को कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे साधारण अज्ञानी लोग होते हैं.
मनुष्य ही कर्ता है
यह मानव शरीर जिस कर्म में प्रवृत्त होता है, वह ईश्वर के कर्मफलसंपादन-कार्य का साधन है. वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह शरीर वैसा ही करता है. ईश्वर ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कार्यों में लगाते और सबके स्वभाव के अनुसार उन प्राणियों से कर्म कराते हैं, किंतु मन से अभीष्ट वस्तुओं का निश्चय करके फिर कर्म द्वारा मनुष्य स्वयं बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है, अतः मनुष्य ही उसमें कारण है.
कर्मों की गणना नहीं की जा सकती. गृह एवं नगर आदि सभी की प्राप्ति में मनुष्य ही कारण है. विद्वान मनुष्य पहले बुद्धि द्वारा यह निश्चय करें कि तिल में तेल है, गाय के भीतर दूध है और काष्ठ में अग्नि है, तत्पश्चात उसकी सिद्धि के उपाय का निश्चय करें. उसके बाद उन्हीं उपायों द्वारा उस कार्य की सिद्धि के लिए प्रवृत्त होना चाहिए. सभी प्राणी इस जगत में उसे कर्मजनित सिद्धि का सहारा लेते हैं. योग्य कर्ता के द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंग से संपादित होता है. अमुक कार्य किसी आरोग्य कर्ता द्वारा किया गया है, यह बात कार्य के परिणाम से जानी जाती है.
यदि कर्मसाध्य फलों में मनुष्य एवं उसका प्रयत्न कारण न होता, अर्थात वह कर्ता न बनता तो किसी को यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मों का भी फल नहीं मिलता. फिर तो न कोई किसी का शिष्य होता और न ही गुरु. कर्ता होने के कारण ही कार्य की सिद्धि में मनुष्य की प्रशंसा की जाती है और जब कार्य की सिद्धि नहीं होती तब उसकी निंदा की जाती है. यदि कर्म का सर्वथा नाश ही हो जाए तो यहाँ कार्य की सिद्धि ही कैसे हो.
मनु का यह सिद्धांत है कि कर्म करना ही चाहिए. जो बिल्कुल कर्म छोड़कर निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है, वह मनुष्य पराभव को प्राप्त होता है. कर्म करने वाले मनुष्य को यहाँ प्रायः फल की सिद्धि प्राप्त होती ही है. परन्तु जो आलसी है, जिससे ठीक-ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि प्राप्त नहीं होती.
यदि कर्म करने पर भी फल न मिले, तो?
यदि कर्म करने पर भी फल न मिले, तो कोई न कोई कारण अवश्य है, ऐसा मानकर प्रायश्चित (उसके दोष के समाधान) पर दृष्टि डालनी चाहिए (यह देखना चाहिए कि गलती कहाँ हो रही है, कमी कहाँ रह गई है, और फिर उन दोषों का समाधान करना चाहिए). जो मनुष्य आलस्य के वश में पड़कर सोता रहता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है. और कार्यकुशल मानव अभीष्ट (इच्छित) फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है.
कर्म का फल मिलेगा या नहीं, इस संशय में पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धि से वंचित रह जाते हैं. और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है. कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं (ऐसे लोग संसार में बहुत कम ही देखे जाते हैं). कर्म कर लेने पर अंत में कर्ता को जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना जा सकता है, कि दूसरों का कर्म सफल हुआ है या हमारा.
किसान हल से पृथ्वी को चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर शांत बैठा रहता है, क्योंकि उसे सफल बनाने में अब मेघ कारण होंगे. यदि वृष्टि ने अनुग्रह नहीं किया (यदि वर्षा नहीं हुई) तो उसमें किसान का कोई दोष नहीं है. वह किसान मन ही मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-बोने का जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है, उस दशा में भी यदि मुझे ऐसा प्रतिकूल फल मिला है तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है. ऐसा विचार करके वह बुद्धिमान किसान उस असफलता के लिए अपनी निंदा नहीं करता.
पुरुषार्थ, प्रारब्ध और ईश्वरकृपा
पुरुषार्थ करने पर भी यदि स्वयं को सिद्धि प्राप्त न हो, तो इस बात को लेकर मन ही मन खिन्न नहीं होना चाहिए, क्योंकि फल की सिद्धि में पुरुषार्थ के सिवा दो और भी कारण होते हैं- प्रारब्ध (पूर्व में किये गए कर्म व लिए गए निर्णय) और ईश्वरकृपा. कार्य में सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मन में लेकर कर्म ही न किया जाए, तो यह उचित नहीं है, क्योंकि बहुत से कारण एकत्र होने पर ही कर्म में सफलता मिलती है.
कर्मों में किसी अंग की कमी रह जाने पर थोड़ा फल प्राप्त हो सकता है. यह भी संभव है कि फल प्राप्त ही न हो, परंतु कर्म का आरंभ ही न किया जाए, तब तो न कहीं फल दिखाई देगा और न कर्ता का कोई गुण-शौर्य आदि ही दृष्टिगोचर होगा.
धीर मनुष्य मंगलमय कल्याण की वृद्धि के लिए अपनी बुद्धि के द्वारा शक्ति तथा बल का विचार करते हुए देशकाल के अनुसार साम-दाम आदि उपायों का प्रयोग करे. सावधान होकर देशकाल के अनुरूप कार्य करे. इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान) है. कार्य की समस्त युक्तियों में पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है.
मनुष्य को कभी स्वयं का अनादर नहीं करना चाहिए
जहां बुद्धिमान मनुष्य शत्रु को अनेक गुणों से श्रेष्ठ देखे (यदि शत्रु हमसे अधिक शक्तिशाली हो, अधिक गुणी हो), तो वहां सामनीति से ही काम बनाने की इच्छा करें, और उसके लिए जो संधि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, वह करें. अथवा शत्रु पर कोई भारी संकट आने या देश से उसके निकाले जाने के प्रतीक्षा करे, क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उस पर भी विपत्ति लाने की इच्छा रखनी चाहिए, फिर मनुष्य के लिए तो कहना ही क्या है.
शत्रुओं के छिद्र का अन्वेषण करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए (शत्रु की कमजोरी कहां है, उसका पता लगाते रहना चाहिए). मनुष्य को कभी स्वयं का अनादर नहीं करना चाहिए. अपने आप को छोटा नहीं समझना चाहिए. जो स्वयं ही अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं होती. लोक को इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है. कार्यसिद्धि की यही व्यवस्था है. काल और अवस्था के विभाग के अनुसार शत्रु की दुर्बलता का पता लगाना ही सिद्धि का मूल कारण है.”
क्षमा और तेज (उत्तेजना) में क्षमा श्रेष्ठ है या तेज?
हिरण्यकश्यप के पुत्र और भगवान् विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद को तो सभी जानते हैं. द्रौपदी उन्हीं प्रह्लाद और उनके पौत्र राजा बलि के एक संवाद का उदाहरण देते हुए राजा युधिष्ठिर को बताती हैं- “आर्य! एक समय बलि ने अपने पितामह प्रह्लाद जी से पूछा- “क्षमा और तेज (उत्तेजना) में क्षमा श्रेष्ठ है या तेज?” तब प्रह्लाद ने उत्तर दिया-
“वत्स! न तो तेज ही सदा श्रेष्ठ है और न क्षमा ही. जो सदा क्षमा ही करता रहता है, उसे अनेक दोष प्राप्त होते हैं. उसके भृत्य, शत्रु तथा उदासीन व्यक्ति सभी उसका तिरस्कार करने लगते हैं. कोई भी प्राणी उसके सामने विनयपूर्ण बर्ताव नहीं करता. सेवकगण भी उसकी अवहेलना करके बहुत से अपराध करते हैं. इतना ही नहीं, वे भृत्यगण उसके धन को भी हड़प लेने का हौसला रखते हैं, उसकी स्त्रियों को भी हस्तगत करना चाहते हैं. अतः वत्स! सदा क्षमा करना विद्वानों के लिए भी वर्जित है. सदा क्षमा ही करते रहने वाले को ये तथा और भी कई दोष प्राप्त होते हैं.”
“वत्स! अब क्षमा न करने वाले के दोषों को सुनो. क्रोधी मनुष्य रजोगुण से आवृत्त होकर योग्य या अयोग्य अवसर का विचार किये बिना ही अपने उत्तेजित स्वभाव से लोगों को नाना प्रकार के दंड देता रहता है. तेज (उत्तेजना) से व्याप्त मनुष्य मित्रों सी भी विरोध पैदा कर लेता है, साधारण लोगों व स्वजनों का द्वेषपात्र बन जाता है. वह मनुष्य दूसरों का अपमान करने के कारण सदा धन की भी हानि उठाता है. उपालम्भ सुनता और अनादर पाता है. इतना ही नहीं, वह संताप, द्वेष, मोह तथा नये-नये शत्रु पैदा कर लेता है.”
“मनुष्य क्रोधवश अन्यायपूर्वक दूसरे लोगों पर नाना प्रकार के दंड का प्रयोग करके अपने ऐश्वर्य, प्राण और स्वजनों से भी हाथ धो बैठता है. क्रोधी मनुष्य कभी यह नहीं समझ पाता कि कब क्या कहना चाहिए और क्या नहीं, क्या करना चाहिए और क्या नहीं. इसलिए न तो सदा उत्तेजना का प्रयोग करें और न ही सदा कोमल बने रहें. समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार कभी कोमल और कभी तेज स्वभाव वाला बन जाएँ. जो मौका देखकर कोमल होता है और उपयुक्त अवसर आने पर भयंकर भी बन जाता है, वही इहलोक और परलोक में सुख पाता है.”
“वत्स! अब क्षमा के योग्य अवसर सुनो (अर्थात् किन अवसरों पर क्षमादान देना चाहिए). जिसने पहले कभी तुम्हारा उपकार किया हो, उससे यदि कभी कोई भारी अपराध हो जाए तो उसके पहले के उपकार का स्मरण करके उसके उस अपराध को क्षमा कर देना चाहिए. जिन्होंने अनजाने में कोई अपराध कर डाला हो, उनका वह अपराध क्षमा के ही योग्य है, क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए सर्वत्र विद्वता (बुद्धिमानी) ही सुलभ हो, यह संभव नहीं है.”
“परंतु जो लोग जानबूझकर किए हुए अपराध को भी कर लेने के बाद उसे अनजाने में किया हुआ बताते हों, उन उद्वंड पापियों को थोड़े से अपराध के लिए भी अवश्य दंड देना चाहिए. अच्छी तरह जांच-पड़ताल करने पर यदि यह सिद्ध हो जाए कि अमुक अपराध अनजाने में ही हो गया है तो उसे क्षमा के योग्य ही बताया गया है. सभी प्राणियों का एक अपराध तो क्षमा कर ही देना चाहिए. यदि वे फिर दोबारा अपराध करें तो उनके थोड़े से अपराध के लिए भी उन्हें दंड देना आवश्यक हो जाता है.”
“मनुष्य कोमल स्वभाव (सामनीति) के द्वारा उग्र स्वभाव तथा शांत स्वभाव के शत्रु का भी नाश कर सकता है, मृदुता से कुछ भी असाध्य नहीं है, अतः मृदुतापूर्ण नीति को उत्तम माना गया है. देश, काल तथा बलाबल का विचार करके ही मृदुता (सामनीति) का प्रयोग करना चाहिए. अयोग्य देश अथवा अनुपयुक्त काल में मृदुता के प्रयोग से कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता. अतः उपयुक्त देश, काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए.”
: महाभारत वनपर्व (Mahabharata Vana Parva)
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