श्रीराम द्वारा रावण वध की योजना, सीता जी की अग्नि परीक्षा

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Sita ki Agni Pariksha (Ramayan)

रावण ने ब्रह्मा जी से, मनुष्य को छोड़कर किसी के भी हाथों न मरने का वरदान मांग लिया. रावण के अत्याचारों से त्रस्त सभी देवों की करुण पुकार पर भगवान श्री विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी जी के साथ पृथ्वी पर मनुष्य रूप में ही अवतार लेने और लीला करने का निर्णय लेते हैं. वे चार भाईयों के रूप में अयोध्या के राजा दशरथ के घर में जन्म लेते हैं.

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रानी कैकेयी ने अपने विवाह से पहले यह शपथ ली थी कि वह इस धरती को राक्षसों से विहीन करवा देंगी. अतः रानी कैकेयी श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी के वनवास का कारण बनीं.

चूंकि जब किसी युग के अंत में भगवान अपने पूर्ण रूप में धरती पर अवतार लेते हैं, तो वे एक साथ अनगिनत कार्य लेकर चलते हैं. श्रीराम केवल राक्षसों के विनाश के लिए ही नहीं, बल्कि कई जन्मों से भगवान के दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे बहुत से भक्तों और जीवों की तपस्या का फल देने के लिए भी आते हैं. एक आदर्श मानव जीवन कैसे जिया जाता है, और किसी भी परिस्थिति में किस तरह व्यवहार किया जाता है, कैसे निर्णय लिए जाते हैं, ये सिखाने के लिए भी आते हैं (नहीं तो राक्षसों को तो वे अपनी जगह पर बैठे-बैठे ही मार सकते हैं).

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इसीलिए भगवान श्रीराम न तो महल में बैठे और न ही अपने वनवास के दौरान एक स्थान पर कुटिया बनाकर रहे, बल्कि वे नंगे पांव चलते-चलते उन सभी स्थानों पर गए, जहां-जहां भक्तों को किसी न किसी प्रकार उनकी आवश्यकता थी. वे अधर्मियों को दंड देते हुए, राक्षसों का विनाश करते हुए और भक्तों को दर्शन देते हुए लगातार आगे बढ़ते चले जा रहे थे.

आतंक मचाने वाले बहुत से राक्षस मारे गए, लेकिन समुद्र पार लंका में राक्षसों की पूरी बस्ती बसी हुई थी, जहां का राजा रावण और उसकी विशाल मायावी सेना के आतंक से सभी अत्यंत भयभीत और त्रस्त थे.

चूंकि भगवान श्रीराम मनुष्य रूप में थे, इसलिए किसी भी पापी-अधर्मी का वध करने के लिए उन्हें कोई न कोई कारण चाहिए था. समुद्र के इस पार राक्षसों के वध के लिए श्रीराम के पास कोई न कोई कारण था, जैसे किसी ने सहायता मांगी, तो किसी राक्षस ने हमला किया. खर-दूषण ने अपनी सेना सहित हमला किया, तो वे मारे गए.

अब लंका में बैठे रावण-मेघनाद आदि, जो कि दूसरे देश का एक राजा भी है, को मारने के लिए राम-सीता जी ने मिलकर एक योजना बनाई. ‘सीता-हरण’ की योजना.

इसके लिए, (खर-दूषण के वध के बाद) जब लक्ष्मण जी वन में लकड़ियां काटने के लिए जाते हैं, तब श्रीराम जी सीता जी से कहते हैं-

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥

“हे प्रिये! सदा पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले, अब मुझे कुछ महत्वपूर्ण मनुष्य लीला करनी है, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूं, तब तक तुम अग्नि में निवास करो. श्रीराम ने जैसे ही सीता जी को सब कुछ समझा दिया, सीता जी ने श्रीराम जी के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में प्रवेश कर लिया और श्रीराम जी की सहायता के लिए अपनी ही छाया मूर्ति वहां रख दी जो रूप, शील-स्वभाव और विनम्रता में उन्हीं के समान थी.”

यानी यहां से लेकर रावण वध तक असली सीता जी नहीं, बल्कि माया की बनी सीता थीं, जो राक्षसों के विनाश के लिए प्रकट हुई थीं. राम-सीता जी के इस रहस्य को लक्ष्मण जी भी नहीं जान सके.

श्रीराम-सीता ने ऐसा क्यों किया?

श्रीराम को ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि वे जानते थे, कि उनकी सीता जी का तेज इतना प्रचंड है, कि अगर रावण अपनी पाप बुद्धि के साथ उनके सामने आएगा, तो वहीं भस्म हो जाएगा. जब अनसूया जी के आगे त्रिदेवों की माया नहीं चली, तो भला सीता जी के आगे रावण की क्या चलती.

और इस तरह केवल रावण ही मरकर रह जाता. लेकिन भगवान को तो सभी राक्षसों का विनाश कर धरती को उन सबके बोझ से और लंका में कैद देवताओं, ऋषि-मुनियों और स्त्रियों, संतों आदि को मुक्त कराना था.

अधर्म का राज बढ़ाने के लिए रावण न जाने कितने ही निर्दोषों, संतों आदि का खून बहा रहा था. अपनी काम*वासना में न जाने कितने ही देवताओं, ऋषि-मुनियों की पत्नियों, बहनों, पुत्रियों आदि का अपहरण कर उन्हें लंका में कैद कर लिया था. कितने ही देवता भी लंका में कैद थे.

इन सभी को छुड़ाने के लिए काल का रूप धारण कर लंका में गई थीं सीता जी, क्योंकि रावण सीता जी का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता था, लेकिन श्रीराम जी को एक कारण जरूर मिल गया था रावण का वध करने का.

श्रीराम द्वारा सीता जी की अग्नि परीक्षा

वहीं, रावण वध के बाद श्रीराम जी अपनी सीता को अग्नि से वापस लेने के लिए सीता जी की अग्नि परीक्षा का नाटक रचाते हैं. इसके लिए श्रीराम सबके सामने माया सीता से कुछ कड़वे वचन कहते हैं और उन्हें अग्नि में प्रवेश करने की आज्ञा देते हैं, जिसे सुनकर राक्षसियों सहित वहां उपस्थित सभी जन दंग रह जाते हैं,

तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥

माया की बनी सीता जी जब अग्नि में प्रवेश करती हैं, तब श्रीराम मन ही मन अपनी वास्तविक सीता जी की स्तुति करके उन्हें अपने पास बुला रहे हैं. श्रीराम जी कहते हैं-

“हे जातवेद अग्नि, अब तुम मेरी उन सीताजी को मेरे सामने प्रकट करो जो वन में भी मेरे साथ-साथ चली हैं, जिनके पांवों में चुभे कांटे मैंने अपने हाथों से निकाले हैं, मेरी लीला पूर्ण करने के लिए जो कृत्रिम स्वर्णमय हिरण पर मोहित होने का आडंबर करती हैं, मंद-मंद मुस्काने वाली, स्वर्णभवन की निवासिनी, समुद्र से प्रकट होने वाली लक्ष्मी स्वरूपा जनकनंदिनी सीता का मैं आवाहन करता हूं.”

“कमलवासिनी, आर्द्र हृदया, चन्द्र के समान प्रकाशवान, यश से दीप्त, वेदों में और जगत्‌ में प्रसिद्ध, सभी लोकों और देवताओं द्वारा पूजी जाने वाली श्रीदेवी सीता का मैं आवाहन करता हूं. हे देवी सीता, हे मेरी प्रिया, अब मेरी इस वनवास रूप अलक्ष्मी को तुम दूर करो. मुझसे पुनः मिलकर, मुझे और मेरे देश को अपार उत्तम सुख-ऐश्वर्य, रत्न-स्वर्ण, धन संपत्ति, पशुधन, कार्मिकों, अश्व, हाथी आदि से संपन्न करो.”

और तब सीताजी की छायामूर्ति अग्नि में जल जाती है और वास्तविक सीता जी तुरंत अग्नि से प्रकट होती हैं. वे श्रीरामचंद्र जी के वाम भाग में विराजित हो जाती हैं.

श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥

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यानी जो रावण ये समझ रहा था कि सीता-हरण की योजना उसने बनाई है और सब उसके जाल में फंस कर रह गए, वही रावण ये नहीं समझ सका कि अपनी कामवासना में अंधा होकर वह स्वयं ही राम-सीता जी के बुने जाल में फंस चुका है.

और इसीलिए मंदोदरी और विभीषण आदि ने रावण से कहा था कि, “आप सीता को नहीं, बल्कि लंका के विनाश को लेकर आ गए हैं.”

यानी अगर रावण उस समय अपने पुत्र मेघनाद और सभा में बैठे अन्य चापलूसों की बात न मानकर, अपनी पत्नी मंदोदरी और अपने भाई विभीषण आदि की बात मान लेता और सीता जी का हरण करने न जाता, तो वह कुल सहित नष्ट न होता.

हालांकि, इसके बाद भी भगवान श्रीराम ने उसे क्षमा मांगने और संभल जाने के कई अवसर दिए. हनुमान जी और अंगद जी को भेजकर बार-बार अपनी सेना की शक्ति का एहसास भी कराया, हर प्रकार से रावण को समझाया, साथ ही यह भी कहा कि, ‘केवल सीता जी को सम्मानपूर्वक वापस लौटा देने पर मैं चुपचाप लंका से वापस लौट जाऊंगा’.

श्रीराम ने यह भी प्रतिज्ञा की थी कि वे केवल उसी का वध करेंगे, जो उनसे युद्ध की इच्छा से आएगा. और इसीलिए श्रीराम ने रावण के गुप्तचरों को भी जीवित छोड़ दिया था, जबकि नीति के अनुसार ऐसा किया नहीं जाता.

लेकिन अपने अहंकार के चलते रावण को कोई बात समझ ही नहीं आई. बल्कि जो भी उसे समझाता, सही सलाह देता, वह उसे ही अपमानित करके लंका से निकाल देता. युद्ध शुरू हो जाने के बाद रावण ने अपने एक-एक पुत्र की मृत्यु अपनी आँखों से देखी, अपने सामने अपने कुल का नाश होते हुए देखा.

श्रीराम और रावण का युद्ध सत्ता का युद्ध नहीं, बल्कि सभ्यता का युद्ध था. वह युद्ध न तो अयोध्या और लंका का आपसी युद्ध था, न ही केवल राम और रावण का युद्ध था, वह युद्ध था धर्म और अधर्म का. श्रीराम और लक्ष्मण जब अयोध्या से निकले तो वे साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं निकले थे, वे निकले थे धर्म की स्थापना के लिए…

श्रीराम निकले थे पुत्रधर्म के निर्वहन के लिए! लक्ष्मण जी निकले थे भ्रातृधर्म के निर्वहन के लिए! और सीता जी निकलीं थी पत्नीधर्म के निर्वहन के लिए… महर्षि शरभंग के आश्रम में ऋषियों की अस्थियों का ढेर देखकर जब श्रीराम ने दैत्य संहार का प्रण लिया, तो यह उनका क्षत्रिय धर्म था. और रावण से युद्ध करना उनका पति धर्म था. कुल मिलाकर कहें तो श्रीराम की वनवास यात्रा विशुद्ध धर्मयात्रा थी. यह श्रीराम की ‘राजकुमार राम’ से “मर्यादा पुरुषोत्तम राम” होने की यात्रा थी.

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