Shri Ram Sita ki Prem Kahani
कुछ लोगों के हिस्से में केवल तपस्या आती है, वरदान नहीं. श्रीराम की वन यात्रा सभ्यता के निर्माण की यात्रा है. निर्दोष लोगों पर राक्षसों के क्रूर अत्याचारों को देखते हुए रानी कैकेयी ने यह शपथ ली थी कि वह इस धरती को राक्षसों से विहीन करवा देंगी. अतः रानी कैकेयी श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी के वनवास का कारण बनीं.
राजा दशरथ कैकेयी से कहते हैं कि, “मैं अपने सत्कर्मों और राम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उसे पूर्ण करूंगा, फिर चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें.”
तब माता कैकेयी 14 वर्षों के लिए श्रीराम के लिए वनवास और भरत जी के लिए अयोध्या का राज्य मांग लेती हैं, साथ ही कहती हैं कि “मैं राम को आज ही वन की ओर जाते हुए देखना चाहती हूँ, नहीं तो विषपान कर अपने प्राण त्याग दूँगी.” (अयोध्याकाण्ड सर्ग 11 श्लोक 28, सर्ग 12 श्लोक 47, सर्ग 14 श्लोक 10)
तब राजा दशरथ कहते हैं कि, “मुझे भरत का राज्याभिषेक स्वीकार है, लेकिन राम को वनवास क्यों? राम तो तुम्हारी सेवा भरत से भी अधिक करता है और तुम भी सबसे अधिक प्रेम राम से ही करती आयी हो…”. सभी ने कैकेयी जी को बहुत समझाया, लेकिन माता कैकेयी किसी की नहीं सुनतीं.
♦ जब कमल खिलने लगते हैं, तब कुमुद नहीं, और जब कुमुद खिलने लगते हैं तब कमल नहीं. प्रकृति की एक ही अवस्था किसी को रुलाती है तो किसी को हंसाती है. जब श्रीराम अयोध्या से बाहर कदम बढ़ाते हैं, तो अयोध्या भले ही आंसुओं में डूब गई, लेकिन वहीं वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे केवट, शबरी, ऋषि शरभंग, सुग्रीव आदि के साथ न जाने कितने ही सज्जनों और भक्तों के चेहरे खिल उठे. उनकी तपस्या पूरी होकर सुखद फल मिलने का समय जो आ गया था. रावण की कैद में बंदी देवताओं-ऋषियों के कष्टों के अंत होने का समय आ गया था.
जब यह बात श्रीराम को बताई जाती है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनके सुख और कल्याण की बात कह दी गई हो. श्रीराम प्रसन्नता के साथ वन में जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, जिससे किसी को ऐसा न लगे कि श्रीराम को कष्ट पहुंचाया जा रहा है या श्रीराम दुखी हैं.
श्रीराम का ऐसा व्यवहार देखकर माता कैकेयी बहुत प्रसन्न होती हैं और श्रीराम से कहती हैं कि, “राम! तुम जब तक उतावली के साथ इस नगर से वन को नहीं चले जाते, तब तक तुम्हारे पिता स्नान और भोजन नहीं करेंगे, अतः तुम्हें शीघ्र से शीघ्र ही वन को चले जाना चाहिए.” (अयोध्याकाण्ड सर्ग 19 श्लोक 16)
अपने पिता के वचन और अपनी सौतेली माता की इच्छा को श्रीराम ने बड़ी ही सहजता से स्वीकार किया. अपने वनवास की तैयारी करते हुए श्रीराम माता कौशल्या जी से कहते हैं, “मां! आज मुझे सम्पूर्ण दण्डकारण्य का राज्य मिल गया है. मेरा विश्वास करो, मुझे वहां कोई कष्ट नहीं होगा. पिताजी के वचन का पालन करके मैं शीघ्र ही लौट आऊंगा. प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मेरी वन यात्रा में आनंद-मंगल हो. मेरे स्नेह में डरना नहीं और मन को दुखी न करना. आपके आशीर्वाद से मेरे साथ सब आनंद ही होगा. ये 14 वर्ष शीघ्र ही बीत जायेंगे.”
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श्रीराम के वनवास की बात सुनकर सीताजी माता कौशल्या और श्रीराम को मनाने लगती हैं कि, “कृपया मुझे भी साथ जाने की आज्ञा दें”.
तब कौशल्या जी श्रीराम से कहती हैं कि, “सीता अत्यंत सुकुमारी है. सास, ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी है. मेरी सीता ने कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा और अब वह तुम्हारे साथ वन में जाना चाहती है. क्या उसे आज्ञा देनी चाहिए? यह जानते हुए भी कि वन में राक्षस जैसे अनेक दुष्ट जीव-जन्तु घूमते रहते हैं. आखिर मेरी फूल सी सीता वन में कैसे रहेगी?”
तब श्रीराम सीता जी को हर प्रकार से समझाते हैं, साथ ही उन्हें वन के सभी कष्टों से भी अवगत कराते हैं. श्रीराम कहते हैं-
“देखो सीते! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो दुःख पाओगी. तुम तो स्वभाव से ही बहुत कोमल हो, और जहां तक मेरी जानकारी है, वन बड़ा कठिन और भयानक होता है. वहां की धूप, सर्दी, वर्षा और हवा सबको सहना बड़ा कठिन है. तुम्हारे चरण बहुत कोमल हैं और वन के रास्तों में कुश, कांटे और कंकड़ हैं. उन पर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा. दिनभर के परिश्रम से थके-मांदे मनुष्य को रात में सूखे पत्तों पर ही सोना पड़ता है. फिर भी वहां क्रोध, लोभ को त्याग देना पड़ता है और तपस्या में ही मन लगाना पड़ता है.”
“वहां भोजन के लिए फल-फूल और कंद-मूल ही मिलते हैं. और वे भी सदा नहीं मिलते. सब कुछ अपने-अपने समय के अनुसार ही मिल सकेगा, तब तक उपवास ही रखना पड़ता है. उपवास करना, सिर पर जटा धारण करना, पत्तों की छाल पहनना ही वहां की जीवनशैली है. प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों समय स्नान करके स्वयं चुनकर लाए हुए फूलों से वेदोक्त विधि से देवताओं का पूजन करना वनवासियों का प्रधान कर्तव्य होता है.”
“मिथिलेशकुमारी! एक बार सोचकर तो देखो, वन में बहुत से सर्प रास्ते में विचरते रहते हैं. पतंगे, बिच्छू, कीड़े और मच्छर वहां सदा कष्ट पहुंचाते रहते हैं. बहुत सी नदियां भी कीचड़ से भरी होती हैं, अतः उन्हें पार करना भी कठिन होता है. वन में निवास करने वालों को कई प्रकार के कष्टों और भयों का सामना करना पड़ता है. मनुष्यों को खाने वाले निशाचर वहां घूमते रहते हैं.”
“रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे (भयानक) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है. वन की भयंकरता से तो कभी-कभी धीर पुरुष भी डर जाते हैं. अतः तुम्हारा वन में जाना ठीक नहीं है. तुम वहां सकुशल नहीं रह सकोगी. इसलिए तुम घर ही पर रहो. मेरी चिंता मत करो. मैं पिताजी के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा. ये दिन जाते देर नहीं लगेगी.”
सीता जी रोते हुए करती हैं श्रीराम से आग्रह
श्रीराम द्वारा इस प्रकार डराने से भी सीता जी नहीं डरतीं. वे रोती हुई कहती हैं, “हे नाथ! यदि ऐसा ही है तो मैं आपको अकेले वन में नहीं जाने दूंगी. आपने वन के बहुत से दुःख, भय मुझे बताए हैं, लेकिन हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी मुझे इतने कष्ट नहीं देंगे, जितना आपका साथ न मिल पाने से मुझे कष्ट होगा. मुझे किसी राक्षस से डरने की आवश्यकता नहीं, भला आपके साथ रहते मेरी ओर आँख उठाकर देखने वाला कौन है? आपको तपस्या उचित है और मुझे विषय भोग? आपसे बिछड़कर मैं जीवित नहीं रह सकूंगी.”
“हे रघुनाथ! यदि आप मेरे साथ हों, तो पशु-पक्षी भी मेरे कुटुम्बी हैं, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र हैं और पर्णकुटी भी स्वर्ग के समान ही जान पड़ेगी. यदि आप साथ हों, तो मेरे लिए कंद-मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे और पहाड़ ही अयोध्या के सैकड़ों राजमहलों के समान होंगे. आपके चरणों को देखते रहने से मुझे रास्तों में चलने में कोई थकावट न होगी.”
तब श्रीराम कहते हैं यह बात
सीता जी को संज्ञा-हीन सी होते देख श्रीराम ने दोनों हाथों से उन्हें संभाला और अपने हृदय से लगाकर कहा, “सीता! तुम्हें दुःख देकर यदि मुझे स्वर्ग का राज्य भी मिल जाए, तो मैं उसे भी नहीं लेना चाहूंगा. ये सच है कि मैं तुम्हारी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हूं, मैं तो केवल तुम्हें कष्टों से बचाना चाहता था.”
और फिर श्रीराम सीता जी को साथ चलने की आज्ञा दे देते हैं.
वहीं, सीताजी की ऐसी बातें सुनकर कौशल्या जी ने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएं दीं. सीताजी बड़े ही प्रेम से बार-बार सास के चरणों में सिर नवाकर चलीं.
♦ सीता जी को एक ओर अपने सास-ससुर की चिंता थी, तो दूसरी ओर अपने श्रीराम की. फिर सीता जी ने सोचा कि सास-ससुर के लिए तो उन्हीं के समान उनकी तीन बहनें यहां होंगी, लेकिन श्रीराम तो अकेले ही वन में जा रहे हैं. आखिर 14 वर्षों तक वे अकेले वन में कैसे रहेंगे, कहां रहेंगे, दुखी होने पर अपने मन की बात किससे कहेंगे. कम से कम मैं उनके चरण ही दबा दिया करूंगी, उन्हें पंखा झल दिया करूंगी, उनके रास्ते के कांटे और कंकड़ साफ कर दिया करूंगी, उन पर कोई संकट आते देख उनकी ढाल बन जाऊंगी…
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥
और यही चिंता लक्ष्मण जी को भी सता रही थी. वे भी श्रीराम और सीता जी की सेवा के लिए ही उनके साथ वन में जाना चाहते थे कि “आखिर भैया-भाभी 14 वर्षों तक वन में अकेले कैसे रहेंगे. क्या हर संकट का सामना वे अकेले ही करेंगे और मैं यहां महलों के सुख भोगूं? मैं कम से कम उनके लिए कुटिया बना दूंगा, लकड़ियां और फल-फूल ले आया करूंगा, उनके सोने पर पहरा दे दिया करूंगा, श्रीराम के चरण दबा दिया करूंगा…”
और यही सब करने की शिक्षा माता सुमित्रा ने भी लक्ष्मण जी को दी कि, “पुत्र! सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन-वचन-कर्म से सीताराम जी की सेवा करना.”
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥
इस संसार में हर एक की परछाईं काली है, केवल श्रीराम की ही परछाईं उजली है, जिसे ‘लक्ष्मण’ कहते हैं.
♦ उर्मिला जी भी लक्ष्मण जी के साथ जाना चाहती थीं, लेकिन तब लक्ष्मण जी ने उर्मिला जी को समझाया कि “अगर तुम मेरे साथ चलने का आग्रह करोगी, तो तुम्हारा दुःख देखकर मुझे भी रोक लिया जाएगा, क्योंकि वनवास तो श्रीराम भैया को हुआ है, मुझे नहीं”.
तब उर्मिला जी ने धीरज धरकर सबके सामने अपने आंसुओं को रोक लिया. उर्मिला जी श्रीराम जी के प्रति लक्ष्मण जी की भक्ति को समझती थीं, क्योंकि उर्मिला जी स्वयं ही श्रीराम और सीता जी की भक्ति करती थीं, तो वे लक्ष्मण जी की भक्ति के रास्ते में नहीं आईं.
उर्मिला जी समझ गई थीं कि इस समय एक महान बलिदान का समय आया है. वे समझ रही थीं कि सीता दीदी का श्रीराम भैया के साथ जाना आवश्यक है, और वन जैसी जगह पर भैया-भाभी के साथ लक्ष्मण जी का भी साथ रहना जरूरी है, लेकिन मेरे भी साथ जाने से लक्ष्मण जी अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाएंगे.
इसी के साथ तीनों के वन चले जाने पर सास-ससुर को मेरी आवश्यकता है. अतः उर्मिला जी ने किसी के भी सामने अपने दुःख को प्रकट नहीं किया, क्योंकि वे जानती थीं कि मेरा दुःख मेरे ससुराल वालों से सहा नहीं जाएगा. अतः धर्म के रथ पर चढ़कर कर्म के पथ पर जा रहे लक्ष्मण जी को उन्होंने मुस्कुराकर विदा किया.
लेकिन लक्ष्मण जी सहित सब उर्मिला जी का दुःख अच्छी तरह समझ रहे थे, लेकिन कोई कुछ कह न सका, क्योंकि वह घड़ी ही कुछ ऐसी थी. सब अपने-अपने प्रेम और कर्तव्य से बंधे हुए थे. किसी के भी त्याग और बलिदान को शब्दों में कभी व्यक्त नहीं किया जा सकता.
लक्ष्मण सा भाई हो,
कौशल्या माई हो,
नगरी हो अयोध्या सी,
रघुकुल सा घराना हो,
चरण हों राघव के,
जहां मेरा ठिकाना हो…
♦ श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी का वन जाना पहले से ही निश्चित था, ये शबरी जी की बातों से स्पष्ट हो जाता है. बचपन से श्रीराम की प्रतीक्षा कर रहीं शबरी जी को बहुत पहले से ही पता था कि भगवान श्रीराम अपनी पत्नी को ढूढ़ते हुए ही मेरे पास आएंगे और यहीं से रावण के वध की कथा शुरू हो जाएगी, जिसके लिए भगवान श्रीराम ने अवतार लिया.
जब श्रीराम ने सीता जी को पहनाए वल्कल वस्त्र
जब श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी वन जाने की आज्ञा लेने के लिए पिता, माताओं, गुरुओं, मंत्रियों आदि के सामने आते हैं, तो तीनों को पहनने के लिए वल्कल वस्त्र (पेड़ों की छाल) दिए जाते हैं. श्रीराम और लक्ष्मण जी तो अपने सुंदर वस्त्र-आभूषण उतारकर वल्कल वस्त्र पहन लेते हैं, लेकिन सीता जी डर जाती हैं, क्योंकि उन्हें वल्कल वस्त्र पहनना नहीं आता था.
सीता जी उसे धारण करने की कोशिश तो करती हैं, लेकिन उन्हें पहनना नहीं आता. चीर-धारण में कुशल न होने से सीता जी बहुत लज्जित महसूस करती हैं और उनकी आँखों में आंसू आ जाते हैं. वे एक वल्कल गले में और दूसरा हाथ में पकड़कर चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो जाती हैं.
सीता जी को लज्जित महसूस होते देख और उनकी आँखों में आँसू देखकर श्रीराम तुरंत सीता जी के पास आते हैं और स्वयं ही उनके सुंदर वस्त्रों के ऊपर उन्हें वल्कल वस्त्र पहनाने लगते हैं. यह देखकर वहां खड़े सभी स्त्री-पुरुष श्रीराम को बस प्रेम से देखते रह जाते हैं. वहीं, जब सीता जी ने वल्कल वस्त्र पहने तो महाराज दशरथ, माताओं, गुरुजनों, मंत्रियों और प्रजाजनों की आँखों में आंसू आ गए.
यह सब जानते हुए भी पता नहीं कैसे आज के कुछ लोग श्रीराम और रघुकुल पर ‘सीता निर्वासन’ जैसा आरोप लगा देते हैं…
माता कैकेयी ने 14 वर्षों का ही वनवास क्यों माँगा था?
त्रेतायुग में वैधानिक रूप से 14 साल राज्य से बाहर रहने पर उस राजा का राज्य पर से अधिकार समाप्त हो जाता था. द्वापरयुग मैं यह समय सीमा बारह वर्ष थी, और इसीलिए कौरवों ने जानबूझकर पांडवों को 12 वर्षों का वनवास दिया था.
यदि हम केवल ऊपरी बातों को देखें (यानी रामायण के रहस्यों की तरफ न जाएं कि रावण सहित सभी राक्षसों के वध के लिए मंथरा और माता कैकेयी को निमित्त बनना था, इसीलिए वे यह सब कर रही थीं),
तो उसके अनुसार, मंथरा और माता कैकेयी चाहती थीं कि जब श्रीराम वनवास काटकर वापस आएं तो न तो राज्य पर उनका कोई अधिकार रह जाए और न ही श्रीराम-सीता जी की कोई संतान राज्य पर अपना दावा ठोके. इसीलिए उन्होंने श्रीराम के लिए ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के साथ वनवास मांगा था. माता कैकेयी की यह इच्छा भी राम-सीता जी ने प्रेम से स्वीकार कर ली. श्रीराम का तो 14 वर्षों तक किसी नगर में भी प्रवेश वर्जित था.
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥
तब मंथरा यह नहीं जानती थीं कि श्रीराम-सीता जी के वन जाने के बाद तो बाकी तीनों भाई और बहनें भी वनवासी ही हो जायेंगे. लक्ष्मण जी तो श्रीराम के साथ ही वन चले गए. भरत जी ने एक कठोर वनवासी की तरह नंदीग्राम में 14 वर्ष बिता दिए, और वहीं से पूरा राज्य संभालते रहे. और शत्रुघ्न जी दिनभर भरत जी के कार्यों में सहायता करते और रात को नंदीग्राम के बाहर ही पड़ी एक चट्टान पर सो जाते. तीनों बहनें (मांडवी, उर्मिला, श्रुतिकीर्ति) दिनभर माताओं और अन्य बड़ों की सेवा करतीं और रात को अपने-अपने कक्ष में धरती पर ही सो जातीं.
14 वर्ष के बाद जब श्रीराम-सीता जी और लक्ष्मण जी वापस आये, तब अयोध्या में एक बार फिर खुशियों के दीप जले. तब सब लोग फिर मिल-जुलकर रहे, चारों भाईयों के दो-दो पुत्र हुए. सबने अपने-अपने राज्यों को सम्भाला.
रामचरितमानस की इन चौपाइयों पर ध्यान दें-
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥
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