“काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा”, रावण को मंदोदरी की सीख

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Ravan Mandodari Samvad

श्रीराम (Shri Ram) अंगद जी को भेजकर रावण को अंतिम चेतावनी दे देते हैं, और एक रात का अवसर देकर अगली ही सुबह से लंका पर चढ़ाई करने का संदेश भिजवा देते हैं. तब रावण के नाना, ससुर, गुरु, माता और पत्नी मंदोदरी सभी मिलकर रावण को समझाते हैं कि सीता जी को सम्मानपूर्वक श्रीराम के पास भेज देने में ही लंका की भलाई है. राजा होने के नाते नीति-अनीति, धर्म-अधर्म का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि राजा पर केवल अपना और अपने परिवार का ही नहीं, पूरी प्रजा का जीवन निर्भर रहता है.

मंदोदरी ने रावण के चरणों में सिर नवाकर, अपना आँचल पसारकर रावण से कहा- “हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन सुनिए.”

काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥

“हे प्राणनाथ! काल किसी को लाठी लेकर नहीं मारता. वह व्यक्ति की बुद्धि, विचार, धर्म, बल को हर लेता है. जिसका काल निकट आ जाता है, उसे इसी प्रकार भ्रम हो जाता है. हर प्राणी की अंतरात्मा उसे अवश्य चेतावनी देती है. हाँ, यह दूसरी बात है कि अपने अहंकार और जय-जयकार में उसे वह आवाज सुनाई नहीं देती.”

“नारी अपने सत्य धर्म के पालन में हिमालय से भी अधिक अविचल है”

“महाबली! आप चर-अचर, देव, दानव, मानव, यम, कुबेर, दिक्पाल और यहां तक कि साक्षात् काल को भी अपने बाहुबल से जीत सकते हैं, लेकिन एक सती-सतवंती नारी के मन को नहीं जीत सकते. नारी का हृदय दया, ममता और स्नेह का अगाध सागर है. स्त्री प्रेम में पंखुड़ी के समान कोमल है, पर अपने सत्य धर्म के पालन में वह हिमालय से भी अधिक अविचल है. पर्वत तो भूचाल से दहल सकते हैं, पर नारी का हृदय बड़े से बड़े प्रलोभन और भीषण भय से भी अपने धर्म से कण भर भी विचलित नहीं होता.”

“पत्नी से बड़ा मित्र और कोई नहीं होता”

“यदि इस समय मैं आपकी आँखों पर बंधी अहंकार की पट्टी खोलकर वास्तविक सत्य के दर्शन न कराऊँ तो मैं अपने कर्तव्य पालन से वंचित रह जाऊंगी, क्योंकि हर पत्नी का यह धर्म है कि कुमार्ग पर भटके पति को सत्य की राह पर ले आये. जैसे हर अच्छे मित्र का कर्तव्य होता है कि वह अपने मित्र से गाली सुनकर भी उसे कुमार्ग से बचाकर ले जाए, ऐसा ही पत्नी का भी धर्म है. पत्नी से बड़ा मित्र और कोई नहीं होता नाथ.”

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥

“हे नाथ! यह दुराग्रह करने का अवसर नहीं है. आपके दो पुत्र मारे गए, नगर जल गया, अब भी अपनी भूल का सुधार कर लीजिये. यदि आप चाहें तो इतिहास और काल के धारे को मृत्यु से जीवन की ओर मोड़ सकते हैं. आपकी आने वाली पीढ़ियां आपकी ऋणी रहेंगी. श्रीराम ने स्वयं आपको संधि का प्रस्ताव भेजा है, ताकि लंका महाविनाश से बच जाए. भीषण युद्ध होने और युद्ध में होने वाली जनहानि को रोका जा सके. सीता जी को सम्मान सहित लौटाकर उनके संधि प्रस्ताव को स्वीकार कर लीजिये नाथ.”

तब रावण क्रोध में भरकर मंदोदरी से कहता है, “बूढ़े कायरों की बातों में आकर तुम क्या कह रही हो, यह तुम नहीं जानती. तुम मुझे उस तुच्छ वनवासी मानव के चरणों में शीश झुकाकर उससे क्षमा मांगने को कह रही हो? उस रावण को जो तीनों लोकों को जीत चुका है, उस रावण को जो कैलाश को भी उठाने की शक्ति रखता है. उस रावण को जो नवग्रहों को भी अपने दरबार में खड़ा रखता है. उस रावण को एक तुच्छ नर के सामने गिड़गिड़ाने को कह रही हो तुम?”

रामानुज लघु रेख खचाई।
सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥
नाथ बयरु कीजे ताही सों।
बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा।
खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥

तब मंदोदरी कहती हैं. “नहीं! मैं उस रावण को कह रही हूँ जो उस तुच्छ वनवासी मानव के छोटे भाई की खींची रेखा को भी पार न कर सका. मैं उसी रावण से कह रही हूँ कि इतना अहंकार अच्छा नहीं होता. जनक की सभा में अगणित राजागण थे. वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी तो थे. वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्रीराम ने जानकी जी से विवाह किया, तब उस समय आपने उन्हें संग्राम में क्यों नहीं जीता?”

जनक सभाँ अगनित भूपाला।
रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥
भंजि धनुष जानकी बिआही।
तब संग्राम जितेहु किन ताही॥

“हे स्वामी! डींग न हाँकिए, मेरे कहने पर हृदय में कुछ तो विचार कीजिए. वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीता जा सके. आपमें और रघुनाथजी में वैसा ही अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में! आप यह क्यों नहीं समझते कि जिन्हें आप बार-बार वनवासी और भिखारी कहते हैं, वे कोई साधारण मानव नहीं हैं, स्वयं जगन्नाथ हैं. सर्वशक्तिमान साक्षात भगवान विष्णु हैं. वो स्वयं विश्वनियन्ता चराचरपति श्रीमन नारायण ही हैं, जो किसी कारणवश ‘राम’ नाम धारण करके इस समय पृथ्वीलोक पर आ गए हैं. आप तो त्रिलोक विजेता हैं और श्रीराम त्रिलोक रचियता हैं. आप उन्हें क्यों नहीं पहचान रहे स्वामी?”

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पर रावण अपनी पत्नी मंदोदरी द्वारा विनम्रतापूर्वक कही गई बातों को अनसुना कर यह कहते हुए वहां से चला जाता है कि “स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है.”

मन्दोदरी अत्यन्त ही सुन्दरी, सुशीला, सरल और गुणवती थीं. मंदोदरी की बात हमेशा ही विवेकपूर्ण, नीतिसंगत रही. मन्दोदरी ने रावण को अनेक बार समझाया पर अपने धन-बल के अहंकार में रावण मन्दोदरी की बात को समझ नहीं सका. फिर भी मंदोदरी ने अपना धर्म नहीं छोड़ा. और इसीलिए मंदोदरी का नाम पञ्च महाकन्यायों में शामिल है.

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