Valmiki Ramayana Translation : ‘सीता के साथ दिन में बैठकर शराब पीते थे राम’

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Shri Ram Sita

Valmiki Ramayana Translation Sanskrit 

आज कुछ अलग ही वर्ग के लोग कभी यूट्यूब पर तो कभी सोशल मीडिया पर ऐसी बातें बोलते हुए मिल जाते हैं कि ‘राम सीता को शराब पिलाते थे’, ‘राम मांस खाते थे’, ‘सीता ने गंगा-पूजा में मांस और शराब चढ़ाई थी’, ‘राम ने गृहवास्तु की पूजा के लिए लक्ष्मण से हिरण मारकर लाने को कहा था…’ वगैरह-वगैरह.

क्या आप जानते हैं कि ये सारी बातें कहाँ से आ रही हैं? ये सारी बातें आ रही हैं 1927 में द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनुवादित वाल्मीकि रामायण से और उसी को आधार बनाकर इंटरनेट पर IIT Kanpur की तरफ से किये गए अनुवादित वाल्मीकि रामायण से. इन लोगों ने वाल्मीकि रामायण के कैसे अनुवाद किये हैं, यह देखिये-

श्रीराम ने वनवास पर जाने से पहले सबके सामने प्रतिज्ञा की–

“मैं 14 वर्षों तक महलों के आरामदायक आसनों को छोड़कर कुश के आसन पर ही बैठूंगा. और 14 वर्षों तक मांस छोड़कर ऋषियों की तरह केवल कंद-मूल-फल ही खाऊंगा.”
(IIT Kanpur अयोध्याकाण्ड सर्ग 20)

तो इससे तो अर्थ यह निकल रहा है कि श्रीराम मांसाहार करते थे और इसीलिए तो वनवास को जाते समय उन्होंने मांस छोड़कर कंद-मूल-फल खाने की प्रतिज्ञा की. इसका एक अर्थ यह भी है कि जैसे महल में उनके लिए सोने-बैठने के लिए आरामदायक नरम आसन होते थे, वैसे ही खाने के लिए मांसाहार बनता था.

(दरअसल, IIT के ‘विद्वानों’ ने श्लोक में “अमिषम्” शब्द का अर्थ “मांस” से निकाला है, हालाँकि ‘अमिषम्’ का अर्थ “पकवान” और “भोजन” भी होता है.)

अब आप एक प्रश्न का उत्तर दीजिये–

मेरा जन्म एक शुद्ध शाकाहारी परिवार में हुआ है. ईश्वर की कृपा से मेरे घर में मेरे लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ मौजूद हैं. सोने-बैठने के लिए आरामदायक नरम चीजें और रोज खाने के लिए तरह-तरह के पकवान.

मैंने मम्मी से कहा- “मम्मी! मैं इस बार का नवरात्रि का व्रत रखूंगी, जिसमें मैं नौ दिनों तक बिल्कुल तपस्वियों की ही तरह चटाई पर सोऊंगी और केवल फल खाकर रहूंगी.”

तो आपके अनुसार मेरी इस बात का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए?

क्या इसका यही अर्थ है कि मैं नौ दिनों तक के लिए मांस छोड़कर फल खाने की प्रतिज्ञा कर रही हूँ..?? क्या फलाहार का उल्टा (विलोम) मांसाहार होता है..??

Valmiki Ramayana Translation Sanskrit 

खैर! लेकिन फिर सुन्दरकाण्ड के सर्ग 36 में जब अशोक वाटिका में सीताजी हनुमान जी से पूछती हैं कि ‘मेरे बिना श्रीराम किस प्रकार से रहते हैं’, तब हनुमान जी उन्हें बताते हैं कि–

“देवी! (जब से श्रीराम आपसे अलग हुए हैं, तब से) श्रीराम ने मांस खाना और शराब पीना छोड़ दिया है.” (IIT Kanpur सुन्दरकाण्ड सर्ग 36)

तो यानी कि इन महान अनुवादकों के अनुसार, श्रीराम ने वनवास पर जाने से पहले मांस न खाने की प्रतिज्ञा तो कर ली थी, लेकिन फिर मांस और शराब के बिना उनका मन नहीं लगा, इतने आदी थे वो इन सबके. अतः उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और वनवास में सीताजी के साथ मांस भी खाते रहे और शराब भी पीते रहे. यानी मांस-मदिरा के लालच में ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ की रीत भी तोड़ दी भगवान ने. आखिर यही सब तो करने गए थे वो वनवास में. है न…??

ये अनुवाद किये हैं 1927 की वाल्मीकि रामायण वाले द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने और IIT वालों ने, जिन्हें आज कुछ अलग ही वर्ग के लोग नये सिरे से मात्र इस कारण से अपना समर्थन देने में जुट गए हैं, क्योंकि इससे उन्हें श्रीराम को अपमानित करने का अच्छा मौका मिल जाता है. आज जिसे भी श्रीराम को जबरन मांसाहारी सिद्ध करना होता है, वह यहीं से स्क्रीनशॉट उठाकर परोस देता है.

जबकि इन्हीं अनुवादकों की रामायणों में शूर्पणखा अपने भाई खर को श्रीराम और लक्ष्मण जी का परिचय देते हुए कहती है कि-

फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ धर्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥
(3.19.15)

“फल-मूलाहारी (फल-मूल जिनका आहार हैं), जितेन्द्रिय, तपस्वी और धर्मचारी महाराज दशरथ के दो पुत्र राम और लक्ष्मण नाम के दो भाई हैं.”

और विभीषण ने राक्षसों का परिचय इस प्रकार दिया है-

दशकोटिसहस्राणिरक्षसांकामरूपिणाम्।
मांसशोणितभक्ष्याणांलङ्कापुरनिवासिनाम्॥
(6.19.15)

“लंकापुरी में 10 कोटि सहस्त्र राक्षस बसते हैं. ये कामरूपी राक्षस मांस खाते और रक्त पीया करते हैं.”

लेकिन फिर भी इन महान अनुवादकों ने एक बार भी इतना सा भी दिमाग नहीं लगाया कि –

जब सब जगह राक्षसों या आसुरी प्रवृत्तियों की पहचान मांसभक्षी के रूप में बताई गई है, तो उन्हीं आसुरी शक्तियों को काटने के लिए आये भगवान श्रीराम भी मांसाहारी कहाँ से हो जायेंगे?
जिन वाल्मीकि जी ने एक पक्षी की हत्या के कारण दुखी होकर एक व्याध को श्राप दे दिया था, वही करुणा से भरे हुए वाल्मीकि जी “मांसाहारी श्रीराम” का इतना गुणगान क्यों करेंगे…??

मतलब न कुछ सोचना है न विचारना है न पूरा पढ़ना है, बस शब्द देखो, और खुद को जितना आता है, बस उसी के आधार पर अर्थ लगा दो और छाप दो.

इन्हीं महान अनुवादकों ने (युद्ध विजय के पश्चात) उत्तरकांड के 42वें सर्ग में अशोक वाटिका में श्रीराम और सीताजी को शराब और मांस ग्रहण करते हुए जश्न मनाते बता दिया गया है. क्योंकि इन अनुवादकों को ‘मांस’ शब्द का अर्थ केवल ‘पशु-मांस’ और ‘मधु-मैरेय’ आदि का अर्थ केवल ‘शराब’ ही मालूम है. इससे अधिक न तो इन्हें ज्ञान है और न ही इन्होंने इससे अधिक ज्ञान हासिल करने की आवश्यकता समझी है.

इसी प्रसंग में नृत्य-संगीत में कुशल स्त्रियां श्रीराम और सीताजी के सामने अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हैं, जिसे आज के कुछ लोग इस प्रकार से बोलते हैं जैसे नृत्य-संगीत का आनंद लेकर श्रीराम और सीताजी ने कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया हो.

हमारे यहाँ नृत्य-संगीत को बहुत ही अच्छा माना गया है. भगवान् शिव-पार्वती जी भी नृत्य करते हैं और श्रीकृष्ण-राधा भी. और फिर जिनके पास जो कला होती है, वह (अवसर मिलने पर) अपनी कला का प्रदर्शन राजा-रानी के ही सामने नहीं करेगा तो किसके सामने करेगा… ?

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अगर बात करें 1927 में द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनुवादित वाल्मीकि रामायण की, तो उसमें उनके द्वारा किये गए शब्द-दर-शब्द अनुवादों से श्रीराम मांसाहारी और शराबी तो सिद्ध हो जाते हैं, लेकिन उनके यही अनुवाद उन्हीं की पुस्तक में दिए गए अन्य अनुवादों और तथ्यों से स्पष्ट विरोधाभास भी दिखाते हैं, जिसकी उस समय आलोचना भी हुई थी. और IIT वालों ने भी इन्हें ही आधार बनाकर अपने मशीनी अनुवाद करके इंटरनेट पर छाप दिए.

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क्या आपको पूरा विश्वास है कि द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी जैसे लोगों को संस्कृत का पूर्ण ज्ञान रहा होगा, या ग्रंथों का अनुवाद करने का उनका मकसद अच्छा ही रहा होगा? लेकिन फिर भी श्रीराम के खिलाफ कुप्रचार करने का शौक रखने वाले लोग ग्रुप बनाकर ऐसे ही लोगों को अपना समर्थन देने में जुट जाते हैं. यही लोग अपने मत के समर्थन के लिए गीताप्रेस के खिलाफ यह दुष्प्रचार भी करने में लग गए हैं कि ‘गीताप्रेस ने मांस को कंद और गूदा बता दिया है’. मतलब कि ये लोग श्रीराम के खिलाफ कुप्रचार करने के इतने शौकीन हैं कि प्राचीन संस्कृत भाषा तक नहीं सीखना चाहते.

और यही कुप्रचार शौकिया लोग तर्क के नाम पर केवल इतना ही बोल पाते हैं कि 1927 में द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनूदित वाल्मीकि रामायण के अनुवाद सही हैं, क्योंकि वह गीताप्रेस से अधिक पुरानी है.

तो फिर तो आप लोग मुगलों के अनुवादों पर तो और भी ज्यादा भरोसा करते होंगे जो उन्होंने हमारे ग्रंथों के किये हैं, क्योंकि वे तो और भी ज्यादा पुराने हैं??

नए या पुराने से फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है इस बात से कि अनुवाद किये किसने हैं.



पहले तो मुझे बड़ी हंसी आती थी यह सब पढ़कर कि प्राचीन वैद्यों ने कुछ शाक, फलों, मसालों आदि के कैसे कैसे नाम रख दिए हैं, बेचारा अच्छा भला इंसान भी कंफ्यूज हो जाए, लेकिन आज जब कुछ अलग ही वर्ग के लोगों को मात्र शब्दों के आधार पर जानबूझकर देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों के खिलाफ इतना झूठ फैलाते हुए देखती हूँ, तो अब हंसी आने की जगह निराशा होती है ऐसे शब्दों को देखकर-

मांसरोहिणी
मत्स्यन्डी
मत्स्याक्षी
कुक्कुरद्रुनाम
मयूरशिखा
कुमारिकामांस
सैंधव (नमक, घोड़ा)

और जैसे कि एक श्लोक में लिखा है “मांसरोहिण्यतिरुहा”

अब “रोहि” शब्द के अब तक मुझे दो अर्थ मालूम हैं-
• गूलर और
• एक प्रकार का हिरण

अब लेकिन “मांस” शब्द भी लगा दिया तो जिन्होंने ऐसी किसी चीज का नाम कभी नहीं सुना होगा, वे तो इसका सामान्य अर्थ “हिरण के मांस” से ही लगाएंगे.

इसी प्रकार ‘कुक्कुर’ का एक अर्थ ‘कुत्ता’ होता है, और कुक्कुर के नाम पर ही एक फल का भी नाम रख दिया.

मदनपाल निघंटु और भावप्रकाश में “गजकंद” के लिए केवल “मृग” शब्द ही लिख दिया, वहीं “हरीतिका” के लिए भी कहीं कहीं “मृग” ही लिख दिया गया.
कितना कंफ्यूजन.

श्रृङ्गवेर, पिप्पली, चव्य, तालीशपत्र, नागकेशर, पिप्पलीमूल, तेजपत्र, सूक्ष्मैला, त्वक्, कमल, गुड़ को मिलाकर बनने वाली औषधि को “मांसरस” कहते हैं, जो खूनी और बादी बवासीर की सर्वोत्तम दवा है.

अब लेकिन हम कैसे पहचाने कि फलां श्लोक में किसी मृग (जानवर) के मांस को पकाने के बात की जा रही है, या किसी फल वाले “मृग” के मांस (गूदे) को..?

इसके लिए मुख्य रूप से दो तरीके हैं–

या तो पूरा प्रसंग पढ़ो, सभी चीजों का और अन्य ग्रंथों का भी पूरा तुलनात्मक अध्ययन करो, और या फिर श्लोकों की बारीकी देखो और पाणिनी की पूरी अष्टाध्यायी सीख डालिए (जो किसी के लिए भी बिल्कुल आसान नहीं है), क्योंकि यदि यहां बारीक चीजों पर ध्यान दिए बिना केवल अपने ज्ञान के आधार पर शब्दार्थ कर दिए तो पूरा अर्थ का अनर्थ हो जाएगा, जो बड़ा भयंकर होगा.

किसी भोज्य पदार्थ को पकाने या भूनने के लिए “निस्तप्त” शब्द का (भी) प्रयोग किया जाता है, लेकिन एक नियम है कि यदि किसी चीज के शीघ्र ही ठीक से पक जाने या भुन जाने की बात की जा रही है, तो वहां निस्तप्त का प्रयोग न करके निष्टप्त का प्रयोग किया जाता है.

किसी पशु जैसे हिरण, बकरा, सुअर, गाय, मुर्गा, भैंसा आदि के मांस को ठीक से पकाने या भूनने के लिए ष का प्रयोग नहीं किया जाता, स का ही प्रयोग किया जाता है (शाकाहारी भोज्य पदार्थों को भूनने के लिए स और ष, दोनों का प्रयोग किया जाता है, और यह इस पर निर्भर करता है कि भोज्य पदार्थ कौन सा है).

किसी ऐसे फल या कंद को भूनने या पकाने के लिए जिसका गूदा मोटा, कोमल और मांसल हो, उसके लिए ष का प्रयोग किया जाता है. इसे समझने के लिए देखिये–

रामायण में मांसाहार

एक स्थान पर वाल्मीकि जी ने श्लोक में “छिन्नशोणितं” शब्द का प्रयोग किया है, जिसको समझे बिना मात्र शब्दार्थ करने वालों ने बड़ा भयंकर अनुवाद कर दिया.

जबकि उस श्लोक में “छिन्नशोणितं” का पूरा वाक्य है-
“रक्तविकाररूपं रोगजातं येन सः तम्” (रक्तविकार नष्ट होता है जिससे)

आप स्वयं ही सोचिए, कि यदि वाल्मीकि जी इसी प्रकार हर एक शब्द के पूरे-पूरे वाक्य लिखते रहते तो उनके तो 24,000 श्लोक शायद 24 लाख तक पहुंच जाते, और वाल्मीकि रामायण संगीतबद्ध भी न रह जाती. जब कोई व्यक्ति अपनी कोई रचना कविता के रूप में करता है, ताकि उसे गया भी जा सके, तो उस लेखक पर मात्राओं की निश्चितता या लयबंदी आदि का भी दबाव होता है. तब वह ऐसे पर्यायवाची शब्दों का चुनाव करता है, जो उसकी कविता के सभी उद्देश्यों को पूरा करे. तो ऐसे में यदि हम आधे-अधूरे ज्ञान के आधार पर ही अर्थ लगाएंगे तो केवल अर्थ का अनर्थ ही करेंगे.



मांस

‘मांस’ शब्द नपुंसक लिंग में होता है तथा संस्कृत साहित्य में इस शब्द के पहले पांच वचनों के रूप नहीं होते और इसके पश्चात् (अर्थात् षष्ठी, सप्तमी में) हलन्त् ‘स’ के स्थान में विकल्प से ‘मांस’ आदेश हो जाता है.

प्रथमा से लेकर पंचमी तक प्रयुक्त मांस शब्द का अर्थ होता है- फल का गूदा, वसा, फल की चर्बी या सार या खट्टी भाजी. उत्पत्ति मूलक अर्थ के अनुसार प्रत्येक भोज्य पदार्थ को मांस कहते हैं, जिसका कालान्तर में प्रचलित अर्थ दूसरा हो गया. यदि इस शब्द मूर्धन्य ‘ष’ (माष), हो तो इसका एक ही अर्थ होता है- उड़द.

आयुर्वेदीय ग्रन्थों में ‘छाल’ के लिए ‘त्वचा’ और ‘गूदे’ के लिए ‘मांस’ शब्द का प्रयोग किया जाता है. ‘अष्टांग संग्रह’ में ‘भिलावे के गूदे’ के लिए ‘मांस’ शब्द का प्रयोग किया गया है.
‘कैयदेव निघण्टु’ में भी गूदे के लिए ‘मांस’ शब्द का प्रयोग मिलता है—

उष्ण-वात-कफ-श्वास-कास- तृष्णा – वमिप्रणुत।
तस्य त्वक् कटुतिक्तोष्णा, गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा॥

कृमि श्लेष्मानिलहर: मांसं स्वादु हिमं गुरु।
बृंहणं श्लेष्मलं स्निग्धं पित्तमारुतनाशनम्॥
(कैयदेव – निघण्टु, औषधिवर्ग श्लोक 255, 256)

वनस्पतिशास्त्र में मांसल फल का मतीरे के अर्थ में प्रयोग हुआ है—
“मांसलफलः कालिन्दी।”

अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग प्राणिशास्त्र और वनस्पतिशास्त्र, दोनों में समानरूप से हुआ है. यदि शास्त्रीय-संदर्भ के बिना उनका अर्थ किया जाये, तो असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है. इस विषय में असमंजस का कारण है, आचार-शास्त्रीय संदर्भ के बिना किया जाने वाला शब्द का अर्थ.

Written by : Aditi Singhal (working in the media)
(Guest Author)


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