Rishi Chyawan and Sukanya Story : सती सुकन्या का धर्म पालन, तपस्या और उनकी परीक्षा

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देवी सुकन्या

Rishi Chyawan and Sukanya

राजकुमारी सुकन्या राजा शर्याति की पुत्री थीं. राजा शर्याति आदर्श प्रजा पालक थे और जनता के प्रिय थे. एक बार राजा शर्याति अपने राज्य के गांवों का दौरा कर रहे थे. उन्होंने जहां अपना शिविर लगाया, वहां महर्षि च्यवन घोर तपस्या में लीन थे. उनकी देह पर मिट्टी जम गई थी. इससे महर्षि का शरीर स्पष्ट नहीं दिखाई देता था.

राजकुमारी सुकन्या को वह वनस्थली बहुत भायी. वे अपनी सखियों के साथ वन में इधर-उधर घूमने लगीं. घूमते-घूमते राजकुमारी सुकन्या महर्षि च्यवन की उसी बांबी के पास जा पहुंचीं. सब लोगों की चहलकदमी से महर्षि का ध्यान टूट गया. उनकी दृष्टि सुकन्या पर पड़ी. सुकन्या अत्यंत रूपवती थीं. सुकन्या की सुंदरता को देखकर ऋषि च्यवन उन पर मोहित हो गए, पर वे कुछ नहीं बोले.

तपस्या करते-करते महर्षि च्यवन के नेत्रों में अत्यंत तेज आ गया था और बांबी में से उनके नेत्र दो मणियों की तरह चमक रहे थे. जब सुकन्या ने बांबी में से दो चमकती हुई चीजें देखीं, तो उन्हें बहुत कौतूहल हुआ. उस रहस्य को जानने के लिए उन्होंने उन चमकती दोनों चीजों को कांटों से बेध दिया.

ऋषि चवन में सभी गुण थे, लेकिन इस प्रकार अपने दोनों नेत्र बेध दिए जाने से वे क्रोध से लाल हो गए. उन्होंने उसी समय अपने तपोबल से राजा शर्याति की सेना और शिविर में मतिभ्रम उत्पन्न कर दिया. देखते ही देखते सभी आपस में लड़ने लगे. प्रत्येक व्यक्ति उपद्रवी हो उठा था. चारों ओर अशांति फैल गई, साथ ही सब का स्वास्थ्य भी अचानक खराब होने लगा. महाराज की भी यही दशा हो रही थी. वे भी पीड़ा से तड़प रहे थे.

राजा शर्याति को समझते देर न लगी कि अवश्य ही यहां हम में से किसी के द्वारा कोई घोर अपराध हो गया है, और यह सब किसी तपस्वी के क्रोध का परिणाम है. यह सोचकर महाराज ने कारण का अन्वेषण प्रारंभ किया. अंत में पता चला कि यहां तपस्या कर रहे महर्षि च्यवन को गहरी चोट पहुंचाई गई है और उनके नेत्र भी बेध दिए गए हैं. यह जानकारी मिलते ही राजा ने बड़े क्रोध से शिविर में पूछा-

“महातपस्वी महर्षि च्यवन के साथ ऐसा घोर अपराध किसने किया है?”

तभी महाराज की परमप्रिय एकमात्र पुत्री सुकन्या ने तुरंत आकर कहा-

“पिताजी! मुझे क्षमा कीजिए, मैं नहीं जानती कि यह अपराध हुआ या नहीं. परंतु मैंने कुछ तो किया है. मैं सखियों के साथ यहीं घूम रही थी. एक वृक्ष के नीचे मिट्टी से बना हुआ ऊंचा टीला दिखाई पड़ा. मिट्टी कठोर हो गई थी. उसमें ऊपरी भाग में दो छिद्र थे और उन छिद्रों से दो वस्तुएं चमक रही थीं. मैंने उन चमकीली वस्तुओं को निकालने के लिए बिल्व के कांटे छिद्रों में डाले तो कांटे रक्त से भीग गए. मैंने समझा कि कोई जुगनू की तरह का कीट चमक रहा था जो कांटों से बिंध गया है. मेरी जानकारी में नहीं था कि यहां महर्षि बैठे हुए हैं. मैंने बड़ा अनर्थ कर डाला.”

यह सुनते ही महाराज शर्याति अत्यंत दुखी हुए और बोले, “ओह! मेरी पुत्री! यह तो हमसे घोर पाप हो गया है. अब क्या होगा?”

महाराज शर्याति ऋषि च्यवन के पास गए और बड़ी दीनतापूर्वक प्रार्थना की और पुत्री से अज्ञानतावश जो अपराध हुआ, उसके लिए क्षमा याचना की.

तब ऋषि च्यवन क्रोध से बोले, “तुम्हारी पुत्री ने मुझे अंधा ही कर दिया है. नेत्र पीड़ा के कारण मेरी ध्यानावस्था भी भंग हो गई है. एक अंधा मनुष्य बिना किसी की सहायता के जीवन निर्वाह कैसे कर सकता है?”

तब राजा ने कहा, “हे महर्षि! मैं आपकी सेवा के लिए पर्याप्त सेवक नियुक्त कर दूंगा.”

तब महर्षि च्यवन ने कहा, “राजन! भय, श्रद्धा, लोभ आदि से सेवा नहीं होती. थोड़े दिनों में आवेश शांत होने पर सेवा में त्रुटि होने लगती है. अंधे को तो जीवन भर सेवा चाहिए और सेवा तो ममत्व से ही हो सकती है. अतः तुम्हारी जिस पुत्री ने मुझे अंधा किया है, तुम उसी का विवाह मुझसे करो, तभी मेरा क्रोध शांत हो सकेगा.”

राजा शर्याति के लिए ऐसा करना बड़ा ही कठिन था. कठोर तपस्या करते-करते महर्षि च्यवन का शरीर कमजोर, जर्जर और बूढ़ा दिखाई देने लगा था. आखिर अपनी प्रिय पुत्री, जो सदैव से ही राजकुमारी की तरह पली-बढ़ी थी, उसका विवाह ऐसे ऋषि से कैसे कर दिया जाए और इस घोर वन में वह कैसे अपना जीवन काट सकेगी. महाराज मौन हो गए.

राजकुमारी सुकन्या ने देखा कि उनके पिता और समस्त सचिव-सैनिक कष्ट में पड़े हुए हैं. पुत्री की चिंता में पिताजी कोई निर्णय नहीं ले पा रहे हैं. अतः सुकन्या ने स्वयं अपने अपराध का दंड स्वीकार करने का निश्चय कर लिया.

राजकुमारी सुकन्या ने अपने पिता से कहा, “पिताजी! आप मेरी चिंता न करें. महर्षि च्यवन की आज्ञा का पालन करें और मेरा विवाह उनसे कर दें. मैंने जो अपराध किया है, मुझे उसका पश्चाताप करना ही चाहिए. मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती. मैं इनके नेत्र तो वापस नहीं कर सकतीं, अतः अब मैं ही इनके नेत्र बनूंगी. मैं अपना कार्य अपना धर्म समझकर करूंगी. कृपया आप अपने मन को दुखी न करें. मुझे अपना आशीर्वाद दें. आप एक राजा भी हैं, अतः वही कार्य करें जिसमें प्रजा का हित हो. न्याय-नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा एवं विश्व का कल्याण है.”

महाराज को न चाहते हुए भी अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से करना पड़ा. तब महर्षि च्यवन ने सबकी शारीरिक और मानसिक पीड़ा दूर कर दी. राजा ने रोते हुए अपनी पुत्री को हृदय से लगाया. सखियां भीगे नेत्रों से गले मिलीं. सब विदा हो गए.

सुकन्या का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था. वे तप और नियम का पालन करती थीं. महर्षि च्यवन के साथ विवाह होने के बाद राजकुमारी सुकन्या ने अपने सभी राजसी वस्त्र और आभूषणों का त्याग कर दिया और अपना जीवन ही बदल डाला. वे भूल ही गईं कि वह कभी एक राजकुमारी थीं. वे पूरी जिम्मेदारी और प्रेम से पति की सेवा करने लगीं.

वे नदी से घड़े भरकर जल लातीं, ऋषि च्यवन को स्नान करातीं. नित्य समिधा, कुश, कंद, मूल, फल की व्यवस्था करतीं, रसोई बनातीं, अग्नि प्रज्वलित करतीं, हविष्य प्रस्तुत करतीं, आश्रम को स्वच्छ रखतीं और सभी छोटी-बड़ी सेवा करतीं.

सुकन्या का शरीर दुर्बल हो गया, केश जटायें बनने लगीं, लेकिन सुकन्या ने कभी अशांति का अनुभव नहीं किया और न ही कभी सेवा में प्रमाद प्रकट किया. तपस्या एवं संयम ने सुकन्या के तेज को और भी बढ़ा दिया था.


इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए. सुकन्या रोज की तरह कुटिया के बाहर बैठीं ऋषि च्यवन की सेवा कर रही थीं. उस समय दोनों अश्विनीकुमार पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे. संयोग से वे दोनों ऋषि च्यवन के आश्रम की ओर से कहीं जा रहे थे. उन्होंने सुकन्या और ऋषि च्यवन को देखा. उनकी बातें सुनकर दोनों अश्विनी कुमारों को यह समझते देर न लगी कि ये दोनों पति-पत्नी हैं. यह देखकर दोनों अश्विनी कुमार बड़े विस्मित हुए, साथ ही सुकन्या से बहुत प्रभावित भी हुए. दोनों अश्विनी कुमारों ने सुकन्या की परीक्षा लेने की सोची. (शतपथ ब्राह्मण ४|१|५|८)

जब सुकन्या पानी के घड़े लेकर अपने आश्रम की ओर लौट रही थीं, तब दोनों अश्विनी कुमार उनके सामने आकर खड़े हो गए और सुकन्या से उनका परिचय पूछा, “देवी! आप कौन हैं? किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हैं?”

तब सुकन्या ने उन दोनों को प्रणाम करते हुए अपने पिता और अपने पति का नाम बता दिया और कहा, “मैं महात्मा च्यवन की पत्नी हूँ. उनके लिए जल लेने आई हूँ. आप कौन हैं? कृपया आश्रम में पधारें और महर्षि का आतिथ्य स्वीकार करें.”

तब अश्विनी कुमारों ने सुकन्या की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा-

“सुकन्या! तुम अप्रतिम रूपवती हो, तुम्हारी तुलना किसी से नहीं की जा सकती. ऐसी स्थिति में तुम उस जीर्ण और वृद्ध शरीर वाले काम-भोग से शून्य पति की उपासना कैसे करती हो? हम देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार हैं. सदा युवा और सुन्दर हैं. तुम च्यवन को छोड़कर हम दोनों में से किसी से विवाह कर लो और अपना जीवन सुखी बनाओ.” (जैमिनीय ब्राह्मण)

अश्विनी कुमारों की बात सुनकर सुकन्या ने विनम्रता से कहा, “महानुभावों! आप मेरे विषय में अनुचित आशंका न करें. मैं अपने पति से प्रेम करती हूँ. प्रेम आदान नहीं, प्रदान चाहता है. महर्षि च्यवन मेरे आराध्य हैं. मैं उनके सुख में सुखी हूँ. आप उनके सम्मान के विरुद्ध कुछ न कहें, क्योंकि यह मेरे लिए असह्य है.”

सुकन्या का ऐसा उत्तर सुनकर अश्विनीकुमार डर जाते हैं. वे समझ गए कि सुकन्या की परीक्षा लेना ठीक नहीं, क्योंकि इस चक्कर में यदि मुख से कोई भी असंगत शब्द निकल गया तो ऐसी सती नारी के क्रोध से हमें बचाने वाला कोई नहीं.

दोनों अश्विनीकुमार हाथ जोड़कर सुकन्या से बोले, “देवी! हमें क्षमा करें. हम आपकी तपस्या से बहुत प्रभावित हैं. हम महर्षि का आतिथ्य अवश्य स्वीकार करेंगे.”

और तब दोनों अश्विनी कुमार आश्रम में पधारे और महर्षि को प्रणाम कर बोले, “महर्षि! हम देवभिषक् हैं, अतः आप हमसे कोई वरदान मांग सकते हैं.”

तब ऋषि च्यवन ने कहा, “आपका मंगल हो. यदि ऐसा है तो कृपया आप मुझे स्त्रियों के लिए अभीष्ट रूप, तरुण अवस्था और नेत्र ज्योति प्रदान करें.”

“एवमस्तु!” देववैद्यों ने महर्षि का हाथ पकड़ा और उन्हें पास के सरोवर तक ले गए. अश्विनीकुमार महर्षि के साथ जल में उतर गए और एक मुहूर्त तक तीनों जल के अंदर रहे. इसके बाद जब वे तीनों जल से बाहर निकले, तो तीनों का रंग-रूप और अवस्था एक जैसी ही थी. उन तीनों ने सुकन्या से एक साथ कहा, “हम तीनों में से किसी एक को स्वीकार कर लो.”

प्रारम्भ में तो सुकन्या ठगी सी खड़ी रह गईं. उन तीनों में से ऋषि च्यवन कौन थे, वे समझ न पा रही थीं. तब सुकन्या ने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा-

“मैं महात्मा च्यवन की पत्नी हूँ और जन्म-जन्मांतर तक उन्हीं की रहना चाहती हूँ. मैं इस द्यूत मैं कैसे सम्मिलित हो सकती हूँ? मैं देव-युगल की शरण में हूँ. यदि मैंने सच्चे मन से पति की सेवा की हो, तो दोनों देव मुझे मेरे पति को प्रदान करें.”

“देवी! ये हैं तुम्हारे पति. ऐसी साध्वी से कब तक छल किया जा सकता है.”

ऐसा कहकर दोनों देवता स्वयं ही सुकन्या को महर्षि च्यवन की पहचान बता देते हैं और महर्षि च्यवन एवं सुकन्या को आशीर्वाद देकर देवलोक को चले जाते हैं. इस प्रकार अश्विनी कुमारों ने सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान कर दिया था. (ऋग्वेद १|११७|१३)

प्रायश्चित एवं सेवाभावना के कारण ऋषि च्यवन सुकन्या से अत्यंत प्रसन्न थे. उन्होंने सुकन्या का नाम ‘मंगला’ रखा. अपने गुणों के कारण सुकन्या आज भी नारी-जगत में वंदनीय व पूजनीय हैं.

अश्विनीकुमार (Ashwini Kumar)

ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का उल्लेख 398 बार हुआ है और 50 से अधिक ऋचाओं में उन्हीं की स्तुति की गई है. दोनों अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं. दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं. इनके लिए ‘नासत्यौ’ विशेषण भी प्रयुक्त होता है, जो ऋग्वेद में 99 बार आया है.

ऋग्वेद के अतिरिक्त इनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण और महाभारत में भी किया गया है. रामायण में (बालकाण्ड सर्ग ४८ श्लोक २ और ३) महाराज जनक जब पहली बार श्रीराम और लक्ष्मण जी को देखते हैं, तो वे दोनों भाईयों के सौंदर्य से प्रभावित होकर उनकी तुलना अश्विनीकुमारों से करते हैं.

इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ।
गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभौपमौ॥
पद्मपत्र विशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥

“देवताओं के समान पराक्रमी और सुंदर आयुध धारण करने वाले ये दोनों राजकुमार (श्रीराम और लक्ष्मण) कौन हैं, जो सिंह और सांड के समान (बल से युक्त) जान पड़ते हैं, प्रफुल्ल कमल दल के समान सुशोभित हैं, एवं अपने मनोहर रूप से अश्विनी कुमारों को भी लज्जित कर रहे हैं.”

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