बहुत समय पहले की बात है. भद्र देश के राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी. उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए एक ऋषि से मार्गदर्शन करने को कहा, तब उन ऋषि ने राजा और रानी को बताया कि अगर दोनों मिलकर तपस्या करके मां सावित्री जी को प्रसन्न कर लें, तो उनके घर एक तेजस्वी संतान पैदा होगी, जो अपने माता-पिता और देश का नाम रौशन करेगी (वेद माता गायत्री और देवी सरस्वती को भी सावित्री कहा जाता है).
राजा और रानी ने ऐसा ही किया. दोनों ने मिलकर प्रजा का पालन करने के साथ-साथ 18 सालों तक मां सावित्री जी की उपासना की, जिससे मां सावित्री जी ने प्रसन्न होकर उन्हें एक तेजस्वी कन्या के माता-पिता बनने का आशीर्वाद दिया.
इसके बाद में महारानी ने एक अत्यंत सुंदर और तेजस्वी कन्या को जन्म दिया. चूंकि उस कन्या का जन्म मां सावित्री जी की कृपा से हुआ था, इसलिए राजा ने अपनी पुत्री का नाम भी सावित्री ही रखा. राजा ने अपनी बेटी सावित्री को हर प्रकार की उच्च शिक्षा दी. सावित्री भी अत्यंत रूपवती, गुणवती और आदर्श स्त्री थीं.
जब राजकुमारी सावित्री बड़ी हुईं और विवाह योग्य हो गईं, तो राजा को उनके विवाह की चिंता सताने लगी, क्योंकि राजा को अपनी पुत्री के समान योग्य वर नहीं मिल रहा था. तब राजा-रानी ने सावित्री से कहा कि, “पुत्री! तुम समझदार हो. हम चाहते हैं कि तुम अपने वर का चुनाव स्वयं करो. तुम जिसे अपने वर के रूप में पसंद करोगी, हमें वह स्वीकार होगा.”
अपने माता-पिता की सहायता करने के लिए सावित्री अपने एक मंत्री के साथ देशाटन पर निकलीं. इस दौरान वह कई अच्छे राजाओं और राजकुमारों और गुणी लोगों से मिलीं, लेकिन उनमें से कोई भी उन्हें उपयुक्त नहीं लगा. फिर यात्रा करते-करते सावित्री उस वन में पहुंचीं, जहां साल्व देश के राजा घुमत्सेन अपनी पत्नी और पुत्र सत्यवान के साथ एक झोपड़ी में निवास करते थे. सत्यवान बहुत सुंदर, गुणवान और आदर्श पुरुष थे. सावित्री जी ने जब सत्यवान को देखा तो वह उनके सौंदर्य और गुणों से बहुत प्रभावित हुईं.
सावित्री ने अपने मंत्री से सत्यवान के बारे में पता लगाने को कहा. तब मंत्री ने उन्हें बताया कि सत्यवान के माता-पिता दोनों ही अंधे हैं. जब उनके पुत्र सत्यवान बहुत छोटे थे, तब राजा-रानी के अंधेपन का लाभ उठाकर एक पड़ोसी राजा ने धोखे से उनका राज्य छीन लिया था, तब से राजा-रानी वन में एक कुटिया बनाकर रह रहे हैं, और सत्यवान उनकी हर प्रकार से सेवा करते हैं.
सावित्री जी सत्यवान के रूप और गुणों पर मोहित हो गईं. उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह सत्यवान से ही विवाह करेंगी. ऐसा संकल्प करके वह अपने मंत्री के साथ अपने महल लौट आईं.
तब राजा और रानी ने सावित्री से पूछा कि ‘क्या तुम्हें तुम्हारे योग्य कोई वर मिला?’ तब सावित्री जी ने सत्यवान के बारे में बता दिया. उसी समय वहां नारद मुनि आ गए. उन्होंने राजा और रानी को बताया कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि सत्यवान अत्यंत गुणवान हैं, लेकिन वह एक साल से अधिक जीवित नहीं रहेंगे.
यह सुनकर राजा-रानी बेहद दुखी हुए. उन्होंने सावित्री जी को समझाया कि ‘पुत्री तुम कोई और वर का चुनाव कर लो. हम तुहें सत्यवान के लिए कैसे हां कह दें?’ तब सावित्री ने बड़ी विनम्रता से कहा कि ‘हे पिता! मैं सत्यवान को मन ही मन अपना पति मान चुकी हूं. मैं अब किसी और दूसरे पुरुष के बारे में सोचूंगी भी नहीं.’
तब राजा-रानी को सावित्री का विवाह सत्यवान से ही करना पड़ा. उन्होंने सावित्री और उनके ससुराल के लिए बहुत सा धन देना चाहा, लेकिन सावित्री ने कुछ भी लेने से मना कर दिया और अपने माता-पिता को यह विश्वास दिलाया कि जल्द ही सब कुछ अच्छा हो जाएगा.
सावित्री जी ने राजमहल के सभी सुखों का त्याग कर दिया और एक आदर्श बहू तथा पत्नी बनकर अपने सास-ससुर और पति की मन लगाकर सेवा करने लगीं. सत्यवान के माता-पिता सावित्री जैसी बहू पाकर धन्य हो गए थे. वहीं, सावित्री यह भी जानती थीं कि सत्यवान अल्पायु हैं, इसलिए वह सत्यवान की लंबी आयु के लिए कठिन से कठिन व्रत भी रखने लगीं.
आखिरकार वह दिन आ गया, जिस दिन सत्यवान की मृत्यु होनी थी. सावित्री जी बहुत चिंता में थीं. जब सत्यवान रोज की तरह लकड़ियां काटने के लिए वन में जाने लगे, तो सावित्री जी ने कहा कि ‘आज मैं भी आपके साथ लकड़ियां काटने चलूंगी’. सत्यवान ने मना किया, लेकिन सावित्री जिद करने लगीं. सावित्री जी की जिद पर सत्यवान उन्हें अपने साथ वन में ले चलते हैं. सत्यवान एक पेड़ पर लकड़ियां काटने के लिए चढ़ते हैं कि तभी अचानक उन्हें चक्कर आने लगते हैं.
सत्यवान सावित्री जी से कहते हैं कि ‘न जाने क्यों आज मुझे चक्कर आ रहे हैं’. सावित्री जी तुरंत कहती हैं कि ‘आप थक गए होंगे. आप पेड़ से नीचे उतर आइये’. सत्यवान पेड़ से नीचे उतर आते हैं कि तभी वह बेहोश होकर नीचे गिर पड़ते हैं. सावित्री सत्यवान को इस अवस्था में देखकर बहुत घबरा जाती हैं, और जोर-जोर से रोने लगती हैं.
तभी सावित्री जी देखती हैं कि सामने भैंसे पर सवार कोई देवता आए हैं, जो सत्यवान को अपनी तरफ खींच रहे हैं. दरअसल, वह यमराज थे, जो सत्यवान के प्राण लेने के लिए आए थे. सावित्री जी उनसे पूछती हैं कि ‘आप कौन हैं और मेरे पति के प्राणों को अपनी तरफ क्यों खींच रहे हैं?’
तब यमराज सावित्री से कहते हैं कि ‘मैं यमराज हूं और तुम्हारे पति की आयु पूरी हो चुकी है, इसलिए मैं उन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं. तुमने अपना पतिव्रत धर्म इतनी निष्ठा से निभाया है, कि मेरे दूत तुम्हारे तेज के सामने आ न सके. इसलिए मुझे स्वयं ही आना पड़ा. तुम्हारे सतीत्व के तेज के कारण ही तुम मुझे भी देख पा रही हो.’
इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राण लेकर वहां से चल पड़ते हैं.
थोड़ी देर बाद यमराज पीछे मुड़कर देखते हैं कि सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चली आ रही हैं. वह सावित्री जी से कहते हैं कि ‘देवी! तुम अपने घर लौट जाओ. मेरे पीछे न आओ. इस तरह पीछे-पीछे आने से कोई फायदा नहीं होगा. मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं.’
तब सावित्री कहती हैं कि ‘मैं भी अपने पतिव्रत धर्म का पालन कर रही हूं. मैं अपने पति को छोड़कर जीना नहीं चाहती. मुझे रोकना असंभव है.’
तब यमराज सावित्री से कहते हैं कि ‘मैं तुहारे पतिव्रत धर्म से बहुत प्रसन्न हूं. तुम एक काम करो, तुम सत्यवान के प्राणों को छोड़कर मुझसे कोई भी तीन वरदान मांग लो और वापस लौट जाओ.’
यह सुनकर सावित्री यमराज से कहती हैं कि ‘हे प्रभु! अगर आप मुझे इतने ही प्रसन्न हैं तो मेरे सास-ससुर को उनकी आंखें और उनका राज्य वापस दिला दीजिये, मेरे माता-पिता को एक पुत्र का आशीर्वाद दीजिए, क्योंकि मेरे बाद उनका और कोई नहीं. और मुझे भी पुत्रवती होने का आशीर्वाद दीजिये.’
यमराज सावित्री को ये तीनों वरदान देकर चल पड़ते हैं.
इसके बाद यमराज फिर पीछे मुड़कर देखते हैं कि सावित्री फिर भी उनके पीछे-पीछे चली आ रही हैं. यमराज सावित्री से कहते हैं कि ‘मैंने तुम्हें तुम्हारे मनचाहे तीनों वरदान दे दिए, फिर भी तुम मेरे पीछे-पीछे चली आ रही हो?’
इस पर सावित्री यम से कहती हैं, कि ‘हे भगवन! आप मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे चुके हैं और मेरे पति के प्राणों को अपने साथ लिए जा रहे हैं. तो मैं पुत्रवती कैसे होऊंगी, क्योंकि मैं कह चुकी हूं कि अपने पति के बिना जीवित नहीं रहूंगी.’
यह सुनकर यमराज को ध्यान आया. वह सावित्री जी की चतुराई और धर्म परायणता से अत्यंत प्रसन्न होते हैं.
यमराज तुरंत सत्यवान के प्राणों को मुक्त कर देते हैं. सत्यवान फिर जीवित हो जाते हैं. सत्यवान के माता-पिता को उनका खोया हुआ राज्य और अपनी आंखों की रौशनी मिल जाती है. वहीं, सावित्री के माता-पिता को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है. इस प्रकार सावित्री अपनी तपस्या, कर्म और धर्म से सभी के जीवन में खुशियां भर देती हैं.
व्रत – त्योहारों और पौराणिक कथाएं
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