Bhagwat Gita Chapter 17 : भगवद् गीता – सत्रहवाँ अध्याय (श्रद्धात्रयविभाग योग)
मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही उसकी श्रद्धा होती है. आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा. […]
मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही उसकी श्रद्धा होती है. आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा. […]
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है. इसके सिवा और क्या है? […]
अच्छी और बुरी योनियों की प्राप्ति गुणों के संग से होती है एवं समस्त लोक और प्राणियों के शरीर तीनों गुणों के ही परिणाम हैं. अन्य सब योनियों में तो केवल पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगने का ही अधिकार है, जबकि मनुष्य योनि में नवीन कर्मों के करने का भी अधिकार है. […]
सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥17॥ सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य स्वर्ग आदि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस मनुष्य मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित तामस मनुष्य अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥ […]
सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के साथ जो जीव का अनादिसिद्ध संबंध है एवं उनके कार्य रूप सांसारिक पदार्थों में जो आसक्ति होगी, उसकी वैसी ही वासना होगी, वासना के अनुसार ही अंतकाल में स्मृति होगी और उसी के अनुसार उसे पुनर्जन्म प्राप्त होगा. इसीलिये यहाँ अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति में गुणों के संग को कारण बतलाया गया है. […]
‘सब कर्मों के फल का त्याग’ करने वाला मनुष्य न तो यह समझता है कि मुझसे भगवान कर्म करवाते हैं और न ही वह यह समझता है कि मैं भगवान के लिये समस्त कर्म करता हूँ. वह यह समझता है कि कर्म करने में ही मनुष्य का अधिकार है, उसके फल में नहीं. […]
भगवान श्रीकृष्ण के इस वचन को सुनकर अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुए नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद् वाणी से बोले- […]
अर्जुन! मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥ मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवन-शक्ति हूँ॥22॥ […]
जहाँ भगवान् ने स्वयं को जगत का रचयिता बतलाया है‚ वहाँ पर बात भी समझ लेनी चाहिये कि वस्तुतः भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते‚ वे अपनी शक्ति प्रकृति को स्वीकार करके उसी के द्वारा जगत की रचना करते हैं और जहाँ प्रकृति को सृष्टि की रचना आदि कार्य करने वाली कहा गया है‚ वहाँ …. […]
“अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है॥6॥ इसलिए अर्जुन! तुम सब समय में …” […]
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