Varahamihira Brihat samhita Underground Water
प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री वाराहमिहिर (Varahamihira) द्वारा रचित सुप्रसिद्ध ग्रन्थ बृहत्संहिता (Brihatsamhita) विज्ञान का एक व्यापक विश्वकोश ज्योतिष, ग्रहों, नक्षत्रों, तारों, बादलों, वर्षा, पौधों, फसलों, भूकंप, तूफान, उल्काओं आदि विषयों का विस्तृत वर्णन करती है. इसी बृहत्संहिता में ‘उदकार्गल’ (जल बाधा) नाम से एक अध्याय है. 125 श्लोकों के 54वें अध्याय में भूमिगत जल (Underground Water) की विभिन्न स्थितियों और उनके ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है.
बृहत्संहिता का यह अध्याय न केवल भूजल को पारिभाषित करता है, बल्कि जलभर के विभिन्न आयामों पर भी जानकारी देता है. अलग-अलग वृक्षों-वनस्पतियों, मिट्टी के रंग, पत्थर, क्षेत्र, देश आदि के अनुसार भूमिगत जल की उपलब्धि का इसमें अंदाज दिया गया है. किस स्थिति में कितनी गहराई पर जल हो सकता है, फिर अपेय जल को शुद्ध कर पेय कैसे बनाया जाए… आदि बातों के भी संकेत दिए गए हैं.
विज्ञान की भाषा में, धरती की सतह के नीचे चट्टानों के कणों के बीच के अंतरकाश या रन्ध्राकाश में मौजूद जल को भूमिगत जल कहा जाता है. मीठे पानी के स्रोत के रूप में यह एक प्राकृतिक संसाधन है. जलभर (Aquifer) धरातल की सतह के नीचे चट्टानों का एक ऐसा संस्तर है जहाँ भूजल एकत्रित होता है और मनुष्य द्वारा नलकूपों से निकालने योग्य अनुकूल दशाओं में होता है. पेड़-पौधों और जीवजगत के व्यवहार का बहुत सूक्ष्म विवेचन ग्रंथ के इस अध्याय में किया गया है. वृहत्संहिता के उदकार्गल में भूजल से सम्बंधित जो व्याख्या प्रस्तुत की गई है, उस पर संक्षिप्त दृष्टि डालते हैं-
• जिस प्रकार मानव शरीर में नाड़ियाँ होती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी में भी विभिन्न ऊँची-नीची शिराएँ होती हैं. पूर्वादि आठों दिशाओं के नाम से आठ शिराएँ (धाराएँ) हैं. मध्य में एक बड़ी शिरा महाशिरा कहलाती है. इनसे और भी सैकड़ों शिराएँ निकली हैं जो अपने-अपने नाम से प्रसिद्ध हैं.
• आकाश से बरसता सब जल स्वाद में एक सा होता है, लेकिन वही जल पृथ्वी की विशेषता से अलग-अलग स्थान पर अनेक प्रकार के रस (वर्ण) और स्वाद वाला हो जाता है. उसकी परीक्षा भू्मि के समान ही करनी चाहिए. अर्थात् जैसी भूमि होगी वैसा ही जल होगा.
♦ यदि ऐसा स्थान है जहाँ पानी मिलने की संभावना न्यूनतम है, तब?
• जलहीन देश में वेदमजनूँ नामक पेड़ के पश्चिम में तीन हाथ दूर, डेढ़ पुरुष नीचे जल होता है. वहाँ पश्चिमी शिरा बहती है. आधा पुरुष खोदने पर वहाँ श्वेत मेंढक निकलता है, फिर पीले रंग की मिट्टी होती है, इसके नीचे एक परतदार पत्थर होगा जो धारा को रोकेगा और उसके नीचे पानी होगा.
♦ एक पुरुष अर्थात जब एक पुरुष अपने हाथ ऊपर खड़े करे. यह 120 अँगुल का होता है. उदकार्गल में बहुत सी गणनायें इसी अनुमापन पर की गई हैं. जैसे-
• यदि जामुन के पेड़ से पूर्व दिशा में पास ही सर्प की बाँबी हो तो उस पेड़ से तीन हाथ दक्षिण में दो पुरुष नीचे मीठा जल होता है. खोदने पर आधे पुरुष के बराबर गहराई में मत्स्य के रंग का और उसके नीचे कबूतर के रंग का एक पत्थर होगा. उसके नीचे फिर से काली मिट्टी होगी, और उसके नीचे जल होगा जो वर्षों तक बना रहेगा.
• उदुम्बरा के पश्चिम में तीन हाथ की दूरी पर और ढाई पुरुष की गहराई पर अच्छे पानी की धारा चलती है. खुदाई में एक पुरुष नीचे सफेद नाग मिलेगा. उसके नीचे काले पत्थर का टुकड़ा होगा, जिसके नीचे पानी होता है (या निर्जल क्षेत्र में गूलर के वृक्ष से तीन हाथ पश्चिम में ढाई पुरुष नीचे शिरा होती है. एक पुरुष नीचे सफेद सर्प निकलता है, फिर काजल सा काला पत्थर होता है. उसके नीचे मीठे जल की धारा होती है).
• यदि अर्जुन के पेड़ के उत्तर में तीन हाथ पर एक बाँबी है, तो उससे तीन हाथ पश्चिम में साढ़े तीन पुरुष नीचे सफेद रंग की गोह, एक पुरुष नीचे धूसर वर्ण की मिट्टी, फिर काली, पीली और फिर बालू रेत मिली सफेद मिट्टी मिलती है. उसके नीचे पानी होता है.
• यदि किसी बाँबी पर निर्गुण्डी नाम का पौधा उगता हुआ दिखाई दे, तो उसके तीन हाथ दक्षिण में सवा दो पुरुष नीचे मीठा जल होता है. वहां आधा पुरुष नीचे रोहू मछली मिलती है. फिर क्रमशः हल्के पीले रंग की, पांडुवर्ण की और पत्थर के बूरे के साथ बालू के बाद जल होता है.
• बेर के पेड़ के पूर्व में बाँबी होने पर उसके तीन हाथ पश्चिम में सवा तीन पुरुष नीचे जल होता है. आधा पुरुष नीचे सफेद छिपकली होती है.
• जलरहित क्षेत्र में ढाक के पेड़ के साथ बेर का पेड़ हो तो उसके तीन हाथ पश्चिम में सवा तीन पुरुष नीचे जल होता है. यहां एक पुरुष नीचे विषहीन सर्प निकलता है.
• जहाँ बिल्व और उदुम्बर (बेल और गूलर) के पेड़ एकत्र हों, उनके तीन हाथ दक्षिण में तीन पुरुष नीचे जल होता है, और आधा पुरुष नीचे काला मेंढक निकलता है.
• यदि काकोदुम्बरी (आकगूलर) के पास बाँबी हो तो उसके नीचे सवा तीन पुरुष नीचे पश्चिमवाहिनी शिरा होती है. खुदाई में आधे पुरुष नीचे पीली-सफेद मिट्टी मिलेगी, उसके नीचे दूध के रंग का एक पत्थर होगा, और उसके नीचे कुमुद के रंग का एक चूहा मिलेगा.
• यदि शुष्क भूमि पर कैंपिला वृक्ष को बढ़ता हुआ देखा जाए, तो वृक्ष के पूर्व में तीन हाथ की गहराई पर धारा प्रवाहित होगी और धारा दक्षिण की ओर चलेगी (या जलरहित क्षेत्र में कपिल वृक्ष से तीन हाथ पूर्व में सवा तीन पुरुष नीचे दक्षिण शिरा बहती है).
• कोविदार (सप्तपर्ण वृक्ष) के ईशान (उत्तर-पूर्व) में कुश घास से लदी सफेद मिट्टी की बाँबी हो तो वृक्ष और बाँबी के बीच साढ़े पाँच पुरुष नीचे बहुत पानी होता है. प्रथम पुरुष खोदने पर कमल के फूल के मध्यभाग जैसे रंग का सर्प निकलता है. फिर लाल रंग की मिट्टी, फिर कुरविन्द (लालमणि) नामक पत्थर मिलता है.
• जलरहित क्षेत्र में बाँबी वाले सप्तपर्ण (यदि सप्तपर्ण के पाद के चारों ओर बांबी दिखाई दे) से एक हाथ उत्तर में पांच पुरुष नीचे जल होता है. यहाँ आधा पुरुष नीचे हरा मेंढक, फिर हरिताल जैसी पीली मिट्टी, और फिर मेघ जैसा काला पत्थर, उसके नीचे मीठे जल की उत्तरी आव मिलती है.
• किसी भी पेड़ के नीचे मेंढक हो तो उस पेड़ के एक हाथ उत्तर में साढ़े चार पुरुष नीचे पानी होता है. खोदने पर वहाँ एक पुरुष नीचे नेवला मिलेगा, इसके नीचे काली मिट्टी होगी, फिर पीली मिट्टी होगी और उसके नीचे सफेद मिट्टी होगी; और उसके नीचे मेंढक की खाल के रंग जैसा पत्थर मिलेगा.
• करंज के पेड़ के दक्षिण में वल्मीक हो तो उससे दो हाथ दक्षिण में साढ़े तीन पुरुष नीचे आव होती है. वहाँ आधे पुरुष नीचे कछुआ फिर पूर्व दिशा की शिरा का पानी निकलता है और फिर दूसरी स्वादिष्ट पानी की उत्तरी आव आती है (एक धारा पूर्व की ओर बहेगी और दूसरी मीठे जल की धारा उत्तर की ओर बहेगी). उसके नीचे हरे रंग का पत्थर होगा और उसके नीचे पानी होगा.
• यदि मधुका (महुए) के पेड़ के उत्तर में वल्मीक हो तो उसके पश्चिम में 5 हाथ की दूरी पर और साढ़े आठ पुरुष की गहराई पर पानी की धारा होगी. पहला पुरुष खोदने पर बड़ा नाग मिलेगा, फिर धुयें जैसी भूमि (मिट्टी लाल-काली होगी), उसके नीचे कुल्थी के रंग का एक पत्थर होगा, उसके नीचे पूर्व की ओर बहने वाली एक धारा होगी. उसमें से सदैव झागदार पानी आता है.
• यदि तिलक के वृक्ष के दक्षिण में दूर्वा और कुश वाली बाँबी हो तो उससे पाँच हाथ पश्चिम में पाँच पुरुष गहराई पर पूर्व दिशा से पानी आता है.
• यदि कदंब के पेड़ के पश्चिम में बाँबी हो तो उससे तीन हाथ दक्षिण पर पौने छः पुरुष नीचे जल स्तर बहुत होता है, जिसमें से लोहे की गंध आती है. धारा उत्तरी दिशा में चलती है. खुदाई में एक पुरुष की गहराई पर पीली मिट्टी मिलेगी; उसके नीचे सोने के रंग का मेंढक होगा.
• बाँबी से घिरा ताड़ का अथवा नारियल का पेड़ हो तो तो पेड़ के पश्चिम में 6 हाथ की दूरी पर और चार पुरुषों की गहराई में दक्षिण शिरा होती है.
• कपिथ (कैथ) के वृक्ष से दक्षिण में बाँबी हो तो उससे सात हाथ उत्तर में पाँच पुरुष नीचे जल होता है. खोदने पर एक पुरुष नीचे चितकबरा साँप और काली मिट्टी, फिर परतवाला पत्थर, फिर सफेद मिट्टी और फिर उत्तर से आती हुई पानी की धारा होती है.
♦ पानी तो मिल गया, तब कूप-तालाब आदि खोदकर उसका दोहन सुनिश्चित किया जाता है. ऐसे में भी वाराहमिहिर के पास अनेक समाधान हैं. वे खनन में आ रही कठिनाईयों और न टूटने वाले पत्थरों से निजात पाने का उपाय भी बताते हैं-
भेदं यदा नैति शिला तदानीं पालाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम्
प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति।
तोयं श्रृतं मोक्षकभस्मना वा यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत्,
कार्य शरक्षारयुतं शिलायाः प्रस्फोटनं वह्निवितापितायाः।
कूप आदि खोदने के समय शिला निकले और यदि वह न फूटे, तो उस पर ढाक और तेंदु की लकड़ी जलाकर उसे लाल करके ऊपर चूने की कलों से मिला पानी छिड़कें तो वह शिला टूट जाती है. मरुवा पेड़ की भस्म मिलाकर पानी उबालकर उसमें शरकाखार मिलाकर फिर अग्नि से तपाई शिला के ऊपर सात बार वह पानी छिड़कने से वह शिला टूट जाती है.
♦ कूप निर्माण के बाद उनके संरक्षण के लिये उल्लेख है कि-
द्वारं च न नैर्वाहिकमेकदेशे कार्य शिलासचितवारिमार्गम्,
कोशस्थितं निर्विवरं कपाटं कृत्वा ततः पांसुभिरावपेत्तम्।
जल निकलने के लिए एक तरफ मार्ग रखना चाहिए जिसे पत्थरों से बाँधकर पक्का करवा दें. उस जलमार्ग को छिद्ररहित मजबूत काठ के तख्तों से ढँककर, ऊपर से मिट्टी दबा दें.
♦ प्राप्त भूजल की शुद्धि के उपाय भी बताये गये हैं –
अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलकचूणँ:,
कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः।
कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वा शुभगन्धि भवेत्,
तदनेन भवत्यमलं सूरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्चयुतम्।
अंजन (सुरमा), मोथा, खस, बड़ी तुरई, आमल, कतक (निर्मली) सबका चूर्ण कूप में डाल दें. यदि पानी गंदा, कड़वा, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्धित हो तो वह इस चूर्ण से निर्मल, मीठा, सुगंधित और अन्य कई गुणों वाला हो जाता है.
इस विवरण से भूगर्भस्थ जल को प्राप्त करने का प्रयास किया जा सकता है. वराहमिहिर ने भूमि के अंदर स्थित जल की स्थिति जानने के लिए अवश्य ही भूमि के अंदर नमी में रहने वाले जीवों का गहन अध्ययन किया होगा कि कौन से जीव नम क्षेत्रों में अधिक पाए जाते हैं और संभवतः इसीलिए उन्होंने भूखंड के नीचे सर्प, नेवला, मेढक इत्यादि की उपस्थिति भी बताई है. उन्होंने इन्हीं जीवों को भूमि में जल का संकेतक माना होगा.
आपने भी देखा होगा कि लौकिक परम्परा आज भी भूमिगत जल के कई लक्षणों को जानती है. गाँवों में आज भी सब जानते हैं कि जहाँ गूलर का पेड़ है वहाँ पानी होता ही है. कुआँ खोदते समय काली चट्टान जब तक रहेगी, पानी नहीं मिलेगा, लेकिन जैसे ही हरा पत्थर दिखाई देगा, उसमें पानी का स्रोत मिल जाएगा.
एक बात और है कि आचार्य वाराहमिहिर के समय में जल-चक्र सामान्य था और जल का दोहन भी अधिक नहीं हुआ था. इसलिए यह संभव है कि उस कालखंड की परिस्थितियों के अनुसार वाराहमिहिर की भविष्यवाणियों में भूजल को कम गहराई पर दर्शाया है. तब के बाद से आज हालात बहुत बदल गए हैं.
आज पर्याप्त वर्षा के अभाव में नये-पुराने कई वापी-कूप जीवनहीन हो चुके हैं. इधर उनके अखण्ड स्रोत के रूप में जो-जो नदी-तालाब थे, उनका दोहन हो जाने से भी वे सूखते गये. अधिक गहराई में जो जलस्रोत हैं, उनका भी आज नलकूपों द्वारा दोहन हो जाने से भूमिगत जल का अभाव होता जा रहा है. जलस्तर गिरता जा रहा है और गिरते जलस्तर के कारण कई प्रकार के वृक्ष भी सूखते चले जा रहे हैं. यही नहीं, वृक्षों की बेरहमी से कटाई से कई वृक्ष लुप्त हो गये. नतीजा कि जिन वनस्पतियों के आधार परम्परा जल-स्थान बताती रहीं, वे वनस्पतियाँ ही नहीं बचीं तो वहाँ जलबोध कैसे हो सकता है.
हालाँकि, अभी भी जहाँ वनस्पतियाँ बची हैं और मिट्टी, पत्थर आदि की पहचान से जलस्थिति का ज्ञान हो सकता है. यदि फिर से हर साल सही समय पर अच्छी वर्षा होती रहे, वन और वनस्पतियों की वृद्धि होती रहे, तो वराहमिहिर के बताये लक्षणों के आधार पर भूमिगत जल स्थान और उसकी गहराई को जाना जा सकता है. ये लक्षण ऐसे हैं जो न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकते हैं.
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