Vishnu Suktam and Shri Suktam : विष्णु सूक्त और श्रीसूक्त का पाठ (हिंदी अर्थ सहित)

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भगवान् श्री विष्णु जी और देवी लक्ष्मी जी

Vishnu Suktam and Sri Suktam

वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवों की स्तुति और अलग-अलग यज्ञों के समय पढ़ा जाता है. यहां ऋग्वेद से लिए गए श्री विष्णु सूक्त और श्रीसूक्त (Vishnu Sukta and Sri Sukta) को प्रस्तुत किया जा रहा है-

भगवान श्री विष्णु जी को संपूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति और नियन्ता कहा गया है. (विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा एक ही हैं. त्रिमूर्ति के अंतर्गत विष्णु जी को विश्व या जगत का पालनहार, ब्रह्मा जी को विश्व का सृजन करने वाला और शिव जी को संहारक कहा गया है). श्रीहरि विष्णु जी के अलग-अलग रूप और कर्म हैं. अद्वितीय परमेश्वर रूप में वे विराट पुरुष हैं, यज्ञ और जलोत्पादक सूर्य भी उन्हीं के रूप हैं. वे पुरातन, जगत्स्रष्टा, नित्य-नूतन और चिर-सुंदर हैं.

श्री महालक्ष्मी जी भगवान श्री विष्णु जी की भार्या और धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी हैं. पार्वती जी और सरस्वती जी के साथ, ये त्रिदेवियों में से एक हैं और धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं. इनका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के श्रीसूक्त में मिलता है. गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है. लक्ष्मी का अर्थ केवल धन नहीं होता. धन के साथ-साथ सुख, शांति, बुद्धि, विवेक, धर्म और आरोग्यता को ही लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहा जाता है.

विष्णु सूक्त (Vishnu Suktam)

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इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।
समूढमस्य पांसुरे स्वाहा॥

इरावती धेनुमती हि भूत
सूयवसिनी मनवे दशस्या।
व्यस्कभ्नारोदसी विष्णवेतेदाधर्थ
पृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा॥

सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु जो इस जगत् को धारण करते हैं, जो पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को स्थापित करते हैं, अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनमें ही समस्त विश्व व्याप्त है, हम उन श्री विष्णु जी के लिए हवि प्रदान करते हैं. यह पृथ्वी सबके कल्याण के लिए अन्न और गाय से सम्बद्ध खाद्य-पदार्थ तथा हित के साधनों को देने वाली है. हे विष्णुदेव! आपने अपनी किरणों के द्वारा इस पृथ्वी को सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है. हम आपके लिए आहुति प्रदान करते हैं.

देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं
कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम्।
स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा
निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् (Varshman) पृथिव्याः॥

विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं
यः पार्थिवानि विममे रजांसि।
यो अस्कभायदुत्तरँ सधस्थं
विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥

आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें. इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनाएं, अध:पतित न करें. देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें. जब तक आयु है तब तक हमें धन आदि से सम्पन्न बनाएं. संततियों पर अनुग्रह करें. इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें. जिन सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु जी ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अंतरिक्ष, द्युलोक आदि स्थानों का निर्माण किया है और जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें.

दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या
महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात्।
उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा
प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा॥

प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्र्वा॥

विष्णो रराटमसि विष्णोः
श्नप्त्रे (Shnaptre) स्थो विष्णोः
स्यूनसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि (Vishnordhruvoasi)।
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥

हे श्रीविष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त संसार को सुखों से पूर्ण कीजिए और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अंतरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें. हे सर्वान्ततर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करने वाले श्रीविष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं. भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आपके अतुलित पराक्रम के कारण हम आपकी स्तुति करते हैं.

सर्वव्यापक श्रीविष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं. इस विश्व में निरंतर व्यापक देव विष्णु का प्रकाश है. विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है और इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही व्याप्त हैं. जगत् की उत्पत्ति करने वाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं.


श्री सूक्त (Shri Suktam)

महालक्ष्मी जी के आगमन का अर्थ केवल धन आगमन से ही नहीं होता, सुख और सौभाग्य से होता है. अर्थात सुख, शांति, धन, आरोग्य और सद्गुणों का आना ही महालक्ष्मी जी का आगमन कहलाता है, क्योंकि केवल धन ही सुख का पर्याय नहीं होता. महालक्ष्मी जी की कृपा के बिना जप-पूजा, यज्ञ आदि भी कठिन हो जाता है. इसीलिए हम लक्ष्मी जी की आरती में भी यही गाते हैं-

जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता
जिस घर में तुम रहतीं, सब सद्गुण आता।
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता॥

ऋग्वेद वर्णित श्री सूक्तम् देवी लक्ष्मी जी की आराधना करने के लिए उन्हें समर्पित मंत्र हैं. इसे ‘लक्ष्मी सूक्तम्’ भी कहा जाता है. यह सूक्त, ऋग्वेद के खिलानि के अन्तर्गत आता है. अर्थात श्रीसूक्त ऋग्वेद का खिल सूक्त है जो ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के अन्त में उपलब्ध होता है.

इस सूक्त का पाठ देवी लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है. सूक्त में मन्त्रों की संख्या 15 है. सोलहवें मन्त्र में फलश्रुति है. बाद के मंत्र परिशिष्ट के रूप में उपलब्ध होते हैं, जिन्हें ‘लक्ष्मीसूक्त’ के नाम से स्मरण किया जाता है.

श्रीसूक्त का विनियोग लक्ष्मी जी के आराधन, जप, होम आदि में किया जाता है. महर्षि वशिष्ठ और बोधायन आदि ने इसके विशेष प्रयोग बतलाए हैं. श्रीसूक्त की फलश्रुति में भी इस सूक्त के मंत्रों का जप और इन मंत्रों के द्वारा होम करने का निर्देश दिया गया है.

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ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥

हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण के से रंग वाली, किञ्चित हरितवर्ण विशिष्टा, स्वर्ण और चाँदी के हार धारण करने वाली, चंद्रमा के समान प्रसन्नकांति, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे लिए आवाहन करो. हे अग्ने! उन लक्ष्मी देवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं स्वर्ण, गौ, अश्व तथा संतान आदि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिए आवाहन करो. जिन देवी के आगे अश्व तथा पीछे रथ रहते हैं, जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता/करती हूँ, लक्ष्मी देवी मुझे प्राप्त हों (लक्ष्मी देवी की मुझ पर कृपा हो).

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां
तामिहोप ह्वये श्रियम्॥

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये
अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥

जो साक्षात ब्रह्मस्वरूपा, मंद-मंद मुसकराने वाली, स्वर्ण के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रहकारिणी (भक्तों पर अनुग्रह करने वाली), कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता/करती हूँ. मैं चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुंदर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता देवी लक्ष्मी जी की शरण में आना चाहता/चाहती हूँ. मेरा दारिद्र्य दूर हो जाए. मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता/करती हूँ (मैं आपकी शरण में हूँ).

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु
या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥

हे सूर्य के समान प्रकाश स्वरूपा! आपके ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुए हैं. उसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें. हे देवी! देवसखा कुबेर तथा उनके मित्र मणिभद्र और दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों (अर्थात मुझे धन और यश की प्राप्ति हो). मैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ/हुई हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें. लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन कही जाने वाली अलक्ष्मी का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन और क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता/चाहती हूँ (अर्थात मेरे जीवन से दरिद्रता का नाश करो). हे देवी! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो.

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्॥

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥

जो दुराधर्षा और नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से (गौ जैसे उपयोगी पशुओं से) युक्त गन्धगुणवती हैं. पृथ्वी जिनका ही स्वरूप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ अपने गृह में आवाहन करता/करती हूँ. मन की कामनाओं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो. गौ आदि पशु तथा विभिन्न प्रकार के अन्न भोग्य पदार्थों के रूप में एवं यश के रूप में श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें.

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥

हम माता लक्ष्मी के पुत्र ऋषि कर्दम की संतान हैं. हे कर्दम ऋषि! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मी देवी को हमारे कुल में स्थापित करें. जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करे. हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मी देवी का मेरे कुल में निवास करायें. हे अग्ने! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे यहाँ आवाहन करें.

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥

तां म आ वह जातवेदो
लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो
दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥

हे जातवेद अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली हैं, फिर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा, सुंदर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन देवी लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें. हे अग्ने ! कभी नष्ट न होने वाली उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिए आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, गौयें, दास-दासियाँ, अश्व और पुत्र आदि को हम प्राप्त करें. जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त का निरंतर पाठ करे.

॥ श्रीसूक्त सम्पूर्ण ॥


लक्ष्मी सूक्त (परिशिष्ट)

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पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे
पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले
त्वत्पादपद्मं मयि सं नि धत्स्व॥

पद्मानने पद्मऊरु पद्माक्षि पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥

कमल के समान मुखवाली! कमल दल पर अपने चरण कमल रखने वाली! कमल में प्रीति रखने वाली! कमल दल के समान विशाल नेत्रों वाली! समग्र संसार के लिये प्रिय! भगवान श्री विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करने वाली! आप अपने चरण कमल को मेरे हृदय में स्थापित करें. कमल के समान मुखमण्डल वाली हे लक्ष्मी देवी! कमल के समान उरुप्रदेश वाली! कमल के समान नेत्रों वाली ! कमल से आविर्भूत होने वाली! पद्माक्षि ! आप उसी प्रकार मेरा पालन करें, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो.

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥

पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरी रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विना॥

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्तजापिनाम्॥

अश्वदायिनी, गोदायिनी, धनदायिनी, महाधनस्वरूपिणी हे देवी लक्ष्मी! मेरे पास सदा धन रहे, आप मुझे सभी अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करें. आप समस्त प्राणियों की माता हैं. मेरे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, अश्व, खच्चर तथा रथ को दीर्घ आयु से सम्पन्न करें. अग्नि, वायु, सूर्य, वसुगण, इन्द्र, बृहस्पति, वरुण तथा अश्विनी कुमार – ये सब वैभवस्वरूप हैं.

हे गरुड़! आप सोमपान (अमृत) करें. वृत्रासुर के विनाशक इन्द्र सोमपान करें. वे गरुड़ तथा इन्द्र धनवान सोमपान करने की इच्छा वाले के सोम को, मुझ सोमपान की अभिलाषा वाले को प्रदान करें. श्रीसूक्त का भक्तिपूर्वक जप करने वाले और पुण्यशाली लोगों को न क्रोध होता है, न ईर्ष्या होती है, न लोभ से ग्रसित होते हैं और न उनकी बुद्धि दूषित होती है.

(सोमपान या शीतल अमृत या सोमरस को बनाने के लिए सोम नाम के पौधे को पीसने, छानने के बाद दूध या दही मिलाकर लेने का वर्णन मिलता है).

सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्र सीद मह्यम्॥

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं
माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं भूमिं
नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥

महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥

कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करने वाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होने वाली, भगवान विष्णु की प्रिया लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हे भगवती लक्ष्मी देवी! मुझ पर प्रसन्न होइये. भगवान विष्णु की भार्या, क्षमास्वरूपिणी, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युतवल्लभा, भूदेवी भगवती लक्ष्मी को मैं नमस्कार करता/करती हूँ. हम विष्णु पत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं. वे लक्ष्मीजी सन्मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रेरणा प्रदान करें.

आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः।
ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥

पूर्व कल्प में जो आनंद, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत नाम के विख्यात चार ऋषि हुए थे. उसी नाम से दूसरे कल्प में भी वे ही सब माता लक्ष्मी जी के पुत्र हुए. बाद में उन्हीं पुत्रों से महालक्ष्मी अति प्रकाशमान वर्ण वाली हुईं, उन्हीं महालक्ष्मी से देवता भी अनुगृहीत हुए. ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि – मेरी ये सभी बाधाएँ सदा के लिए नष्ट हो जाएँ. भगवती महालक्ष्मी मानव के लिए ओज, आयुष्य, आरोग्य, धन-धान्य, पशु, पुत्रों की प्राप्ति एवं सौ वर्ष के दीर्घ जीवन का विधान करें और मनुष्य इनसे मण्डित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करे.

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