Murti Puja In Vedas : मूर्तिपूजा सही है या गलत? क्या वैदिक काल में भी होती थी मूर्तिपूजा?

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ॐ नमः शिवाय

Murti Puja in Vedas

बिना पढ़े ही सनातन धर्म पर ही ज्ञान बांटने की आज एक प्रथा चल पड़ी है. प्रथा के अनुसार ऐसा ही एक और ज्ञान आजकल खूब बांटा जा रहा है कि मूर्तिपूजा गलत है, यह पाखंड और अन्धविश्वास है, या मूर्तियाँ अध्यात्म की शिशु कक्षाएँ हैं, या मूर्तिपूजा एक प्राथमिक कक्षा है, या वेदों में मूर्तिपूजा का खंडन किया गया है, या वैदिक काल में मूर्तिपूजा नहीं होती थी, या आदि शंकराचार्य मूर्तिपूजा के विरोधी थे… आदि.

लेकिन अब ऐसे ही ज्ञानियों से मेरा सवाल यह है कि यदि वैदिक काल में मूर्तिपूजा नहीं होती थी, तो ये बारह ज्योतिर्लिंग क्या हैं? हमारे सभी ज्योतिर्लिंग इस बात का स्पष्ट प्रमाण देते हैं कि मूर्तिपूजा हमेशा से ही होती आ रही है.

यदि मूर्तियाँ अध्यात्म की शिशु कक्षाएँ हैं या मूर्तिपूजा एक प्राथमिक कक्षा है, तो क्या भगवान् श्रीराम भी अध्यात्म की शिशु कक्षा में थे जो शिवलिंग स्थापित करके शिवजी की पूजा करते थे? (उदाहरण- रामेश्वरम शिवलिंग). भला शिवजी का उनसे बड़ा भक्त कौन होगा. वे तो शिवजी से सीधे ही संपर्क कर सकते थे, पर फिर भी वे मूर्तिपूजा करते थे.

यदि वेदों में मूर्तिपूजा का खंडन किया गया है तो राजा दशरथ क्यों श्री नारायण जी की मूर्तिपूजा करते थे (प्रमाण इसी लेख में आगे देखिये), जिनके लिए वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट कहा गया है कि “महाराज दशरथ वेदों के विद्वान और महान तेजस्वी थे” (बालकाण्ड सर्ग 6 श्लोक 1).

श्रीराम सांङ्गवेद के यथार्थ विद्वान और सम्पूर्ण विद्याओं में भलीभांति निष्णात हैं (अयोध्याकाण्ड सर्ग 2 श्लोक 34).

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सीता जी और रुक्मिणी जी भी गौरी मंदिर में जाकर पूजन करती थीं. भगवान् श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी जी का हरण पार्वती जी के मंदिर से ही किया था, जहाँ रुक्मिणी जी को (विवाह से पहले होने वाले) गौरी-पूजन के लिए ही ले जाया गया था.

यानी सभी वेदों के विद्वान तो मूर्तिपूजा करते थे, और फिर भी आज के कुछ लोग वेदों का ही नाम लगाकर यह प्रचारित करते रहते हैं कि वेदों, उपनिषदों में मूर्तिपूजा का कोई उल्लेख ही नहीं है, या वैदिक काल में मूर्तिपूजा नहीं होती थी. जैसे आज के इन लोगों ने तो सभी वेदों को अच्छे से पढ़ और समझ लिया है.

जबकि वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेना तो वैदिक काल में कई महर्षियों के लिए भी अत्यंत कठिन था, लेकिन आज के कुछ लोग ऐसे धड़ल्ले से वेदों का ज्ञान बांटते फिर रहे हैं, जैसे इन लोगों ने सभी वेद पढ़ और समझ लिए हैं.


वेदों में निर्गुण भी है और सगुण भी

वेद ज्ञान-विज्ञान का भण्डार हैं. वेदों में न तो निर्गुण उपासना से मना किया गया है, और न ही सगुण पूजा का खंडन किया गया है (लेख में सबसे नीचे देखिये).

वेदों में एक ब्रह्म की सत्ता है, पर उस ब्रह्म के अलग-अलग स्वरूपों का ज्ञान भी हमें वेदों से ही प्राप्त होता है. श्रीसूक्त, विष्णुसूक्त, सरस्वती रहस्योपनिषद आदि. ऋग्वेद का महामृत्युंजय मंत्र, जो साकार ईश्वर को दर्शाता है. इन्हीं सबके आधार पर हमारे ऋषियों ने ब्रह्म के सभी स्वरूपों को एक निश्चित आकार दिया है.

कुछ लोग यह तर्क भी देते हैं कि ‘ब्रह्म निर्गुण और निराकार है, इसलिए उसका कोई निश्चित आकार तय नहीं किया जा सकता है, और इसलिए मूर्तिपूजा गलत है.’

लेकिन क्या आप सच में यह तय कर सकते हैं कि ब्रह्म साकार हैं या निराकार? निर्गुण हैं या सगुण? द्वैत है या अद्वैत?

निर्गुण जय जय सगुण अनामय,
निराकार साकार हरे
पार्वती पति हर हर शम्भो,
पाहि पाहि दातार हरे॥

भगवान् शिव की पूजा-उपासना उनके निराकार (शिवलिंग) और साकार, दोनों रूपों में होती है. लेकिन यदि कभी आपके मन में भी निर्गुण-सगुण या साकार-निराकार आदि को लेकर प्रश्न खड़े हो जाएँ तो आपको एक बार उद्धव-गोपियों का संवाद और भगवद्गीता जरूर पढ़ना चाहिए. आपकी सभी शंकायें दूर हो जाएँगी.

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा।। (उत्तरकाण्ड 7.115)
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ (बालकाण्ड 1.116)

“भक्ति और ज्ञान में कुछ भी अंतर नहीं है. दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों का हरण कर लेते हैं. वेद कहते हैं कि सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है. जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण और साकार रूप धारण कर लेता है.”

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥ (उत्तरकाण्ड 7.108 – रुद्राष्टकम)


मूर्तिपूजा क्यों जरूरी है (Murti Puja kyon karte hain)?

मूर्तिपूजा क्यों आवश्यक है, इसके कई कारण हैं-

किसी व्यक्ति ने एक संत से पूछा कि “यदि भगवान हर जगह हैं, तो मूर्तियों-मंदिरों की क्या जरूरत है?” संत ने कहा- “हवा हर जगह है, नहीं तो हम सांस ही नहीं ले पाते, लेकिन हवा को फील (महसूस) करने के लिए हमें पंखे की जरूरत पड़ती है.”

मूर्तियां और मंदिर हमें उस ब्रह्म या ईश्वर से जुड़ने का माध्यम बनकर हमारी मदद करते हैं. ये हमारे लिए एक सेतु का काम करते हैं. इस सेतु का निर्माण हमें ही करना पड़ता है अपने लिए, और इस सेतु की रक्षा भी हमें ही करनी पड़ती है अपने लिए.

मूर्तिपूजा का आध्यात्मिक महत्त्व

आप ‘अ’ से ‘अनार’ पढ़ते हैं तो आपका उद्देश्य अनार को जानने का नहीं होता, बल्कि ‘अ’ को जानने का होता है. जोर है अनार पर, लेकिन उद्देश्य है ‘अ’ के विराट उपयोग पर. ठीक उसी प्रकार मूर्त को जानकर ही आप अमूर्त तक पहुंच सकते हैं. मूर्त को ही मूर्ति कहते हैं. मूर्तिपूजा का यही उद्देश्य है, अमूर्त को जानने के लिये.

आकार को मन में धारण करके ही निराकार की कल्पना की जा सकती है. अगर आपके मन में कोई आकार ही नहीं होगा, तो आपका ध्यान करना बहुत कठिन हो जाएगा. जब हम लक्ष्य को ताकते हैं, तब हमारे मस्तिष्क में लक्ष्य केंद्रबिंदु होता है. यदि हम हवा में तीर चलाएंगे तो निशाना नहीं लगेगा. जो मन मस्तिष्क में केंद्रित होता है, उसे हम मूर्ति के रूप में देखते हैं.

और इसीलिए एकलव्य ने धनुर्विद्या प्राप्ति के लिए गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति की स्थापना करके धनुर्विद्या प्राप्त की थी.

जब तक यही न पता हो कि जाना कहाँ है, तब तक व्यक्ति हर जगह भटकता रहता है. पर कोई बता दे या दिखा दे कि तुम्हारी मंजिल यह है, तो पैरों और शरीर में शक्ति आ जाती है, इच्छा प्रबल हो जाती है.

भक्ति का तो कोई भी रूप हो सकता है, साकार भी और निराकार भी. दोनों ही गलत नहीं हैं. उद्धव ईश्वर को निर्गुण रूप में पूजते थे जबकि गोपियाँ सगुण रूप में. उद्धव ईश्वर को ज्ञान से देखते थे, जबकि गोपियाँ भक्ति से. न उद्धव गलत थे और न गोपियाँ. उद्धव तब गलत साबित हुए, जब उन्होंने यह मान लिया कि जो वे सोचते हैं, या जो वे जानते हैं, केवल वही सही है, और ईश्वर को समझे बिना ही जो लोग उनकी भक्ति या पूजा करते रहते हैं, वे लोग गलत या अज्ञानी हैं.

और तब श्रीकृष्ण ने उद्धव के अहंकार को दूर करने और उनके ज्ञान को पूर्ण करने के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था. भक्ति ही ज्ञान के अहंकार को तोड़ती है.

सो सुतंत्र अवलंब न आना।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥

हम अपनी भावनाओं को अपनी कुछ विशेष क्रियाओं द्वारा ही तो व्यक्त कर पाते हैं. जैसे यदि हम किसी व्यक्ति का विशेष सम्मान करते हैं या उससे विशेष प्रेम करते हैं, तो उसके चरण छूना, उसे कोई उपहार देना आदि. अब यदि यही सब हम अपने ईश्वर के साथ भी करना चाहें तो कैसे करेंगे? एक भक्त यदि भक्तिवश अपने इष्ट को कोई भौतिक वस्तु चढ़ाना चाहता है, तो वह कैसे चढ़ाएगा? कहीं पर भी तो नहीं चढ़ा देगा न? वह मूर्तियों यानी प्रतीकों के माध्यम से ही तो चढ़ा पायेगा. जैसे सुदामा ने श्रीकृष्ण को आधा चावल का दाना चढ़ाया था.

सभी शक्तियां जग की करके एकत्रित
है मिट्टी की देह को इसे जो पहनाया।।

यह तो आज कुछ लोगों ने ऐसी सूक्तियां प्रचलित कर दी हैं कि “लोग भगवान की पूजा किसी डर या लालच की वजह से ही करते हैं”, लेकिन यह सच नहीं है.

क्या मीराबाई, तुलसीदास जी, सूरदास जी, रसखान आदि को कोई डर था? कोई लालच था? हमारे सनातन धर्म में भक्ति का अर्थ ‘भगवान से प्रेम’ ही होता है, कोई डर या लालच नहीं.

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सतयुग में भगवान् शिव और भगवान् विष्णु जी की पूजा होती थी. फिर जब किसी भी युग के अंत में ईश्वर धरती पर अवतार लेते हैं, तब भक्तों ने उनके भी मूर्ति बनाईं.

हम किसी को भी श्रीराम और श्रीकृष्ण के ‘अनुयायी’ नहीं कहते, क्योंकि अनुयायी तो धर्मों-पंथों में होते हैं, पर हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि आचरण है, जो हमेशा से है और हमेशा रहेगा. हम भक्त हैं और भक्ति निर्गुण और सगुण हो सकती है.

(सनातन धर्म में ईश्वर की पूजा वे लोग भी करते हैं, तो ईश्वर के बताये रास्ते पर नहीं चलते. भगवान् शिव की पूजा श्रीराम भी करते हैं और रावण भी. और इसीलिए हम लोग अनुयायी नहीं, भक्त ही कहलाते हैं).

ईश्वर हर जगह है, यह बात सनातन धर्म ही कहता है, तभी तो वह प्रकृति के हर रूप में ईश्वर की छवि ही तो निहारता है. निर्गुण और सगुण पूजा, या प्रकृति पूजा आदि एक ही मंजिल तक पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं. मंजिल तो सबकी एक ही है.

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मूर्तिपूजा का ऐतिहासिक महत्त्व-

मूर्तियां या मंदिर किसी देश की संस्कृति और सभ्यता की पहचान भी होती हैं, इनसे इतिहास की जानकारी मिलती है. एक उदाहरण देखिये-

कमल हासन जैसे लोगों ने कहा कि ‘चोल राजा हिन्दू नहीं थे.’ उन्हें हिंदू नहीं मानने के पीछे वे यह तर्क देते हैं कि चोलों के समय हिंदू धर्म नाम की कोई चीज नहीं थी.

जबकि चोल राजा द्वारा बनवाया गया तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर (Brihadeeswarar Temple) विश्व प्रसिद्ध है. अब सोचिये कि यदि यह बृहदेश्वर मंदिर न होता, तो चोल राजा तो आज के कुछ ऐसे ही एजेंडा सेट वाली मानसिकता के आसानी से शिकार हो गए होते.

कोई और नहीं, स्वयं महादेव इस बात का प्रमाण देते हैं कि चोल राजा हिन्दू ही थे और कितने शक्तिशाली और समृद्धशाली भी थे. और चोल राजा केवल शैवभक्त नहीं थे, क्योंकि उनके लिए यह भी प्रसिद्ध है कि वे अपनी हर जीत का जश्न शिव मंदिर और विष्णु मंदिर बनवाकर ही मनाते थे.

जब किसी भी देश की खुदाई में हजारों वर्ष पुरानी मूर्तियां, मंदिर, यज्ञ वेदिकाएं आदि निकलकर सामने आती हैं, तभी तो पता चल पाता है कि प्राचीन समय में इस देश में कौन सी सभ्यता निवास करती थी, या मानव सभ्यता कितनी पुरानी है.

जैसे हाल ही में सऊदी अरब की एक खुदाई में 8000 साल पुराने मंदिर, यज्ञ वेदिकाओं आदि का मिलना. सिनौरी की खुदाई में लगभग 4500 पुराने शिवलिंग का मिलना.

हर हिन्दू राजा मूर्तिपूजा करता था. पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, रानी अहिल्याबाई होल्कर, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, मीराबाई आदि सब…

तो क्या ये सब पागल या अंधविश्वासी थे? और आज के कुछ लोग जो सनातन धर्म में ही मूर्तिपूजा को अन्धविश्वास बताते हैं, मात्र वे ही वैज्ञानिक बुद्धि वाले हैं?

यदि मूर्तियां या मंदिर जरूरी ही नहीं होते, तो हिन्दू मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें और बौद्ध स्तूप क्यों बनवाये गए?

यानी जो लोग सनातन धर्म में ही मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, वे लोग मूर्तिपूजा और मंदिरों का महत्त्व अच्छी तरह जानते ही हैं, और इसीलिए वे मंदिरों को तोड़ने की बात करते हैं. वे केवल मंदिरों में ही अन्धविश्वास और पाखंड ढूंढते रहते हैं.

आने वाले संकट से करती हैं सावधान

कुछ लोगों का कहना होता है कि यदि जो हिन्दू जनेऊ न पहने, या प्रतीकात्मक चीजों को धारण न करें, या मूर्तिपूजा न करें, तो क्या वह हिन्दू नहीं माना जायेगा..?

तो इसका उत्तर है कि सभी प्रतीकात्मक आस्था चिन्ह, मंदिर, जनेऊ आदि हमें बांधकर रखते हैं, एक करते हैं, साथ ही सतर्क करते हैं आने वाले किसी भी खतरे से.

ये मूर्तियां और मंदिर ही हमें आने वाले खतरों से सावधान करते हैं. जब किसी विदेशी आतताई द्वारा हमारे मंदिरों और मूर्तियों पर हमला होता है, तभी तो हम यह जान पाते हैं कि कोई विदेशी शक्ति हमारे देश पर कब्जा करने का प्रयास कर रही है, क्योंकि कोई भी विदेशी आतताई सबसे पहले किसी देश की संस्कृति पर ही हमला करता है.

प्रतीकों पर हमले आपको जाग्रत करते हैं, आपको सावधान करते हैं. यदि आप प्रतीकों में पाखण्ड और अन्धविश्वास खोजते हैं तो आप गर्त में जा रहे हैं. यदि हमारी आस्था मूर्ति और मंदिरों में नहीं होगी तो कल कोई आतताई मंदिर तोड़ भी देगा तो हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. और फिर वही आततायी आप पर भी हमला करेगा ही, भले ही आप प्रतीकों को महत्व नहीं देते, क्योंकि वह आपको अपने प्रतीकों में ढालना चाहेगा.

अतः अपने प्रतीकों से कटना अपने ही समाज की आत्महत्या का मार्ग खोलना है. समाज से पहले प्रतीकों पर हमला होता है जिससे समाज यह समझ सकता है कि अब हमारे अहित की साजिश हो रही है.

मिलती है प्रेरणा और विश्वास

मूर्तियों से प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास मिलता है.

सीता जी पुष्पवाटिका में जैसे ही श्रीराम को देखती हैं, उन्हें उनसे प्रेम हो जाता है, पर श्रीराम के अंगों की कोमलता और सुंदरता देखकर वे चिंता में पड़ जाती हैं कि वे शिव-धनुष उठा भी पाएंगे या नहीं. तब सीता जी घबराकर गौरी मंदिर में जाती हैं और अपने मन की सारी बात उन्हें ही बता देती हैं.

जबकि सीता जी यह भलीभांति जानती हैं कि गौरी जी तो सबके हृदय में वास करती हैं और कोई भी बात उनसे छिपी नहीं है. वे कहती भी हैं कि मोर मनोरथु जानहु नीके, बसहु सदा उर पुर सबही के, पर मानव स्वभाव ऐसा ही होता है कि जब वह किसी से कुछ कहने को आतुर होता है तो वह उसे प्रत्यक्ष अपने सामने देखना चाहता है. मूर्तियां इसमें सहायक बनती हैं.

जिस प्रकार अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म बनाकर सब जगह फैला देती है, उसी प्रकार मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है. इन दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं. अग्नि उपासना भी वैदिक है और मूर्तिपूजा भी वैदिक ही है. अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते हैं.

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ग्रंथों में मूर्तिपूजा के प्रमाण-

सतयुग में मूर्तिपूजा

“वेद काल में न मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता…” तो फिर ये सब क्या हैं-

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना स्वयं चन्द्रदेव ने की थी, जिसका स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में भी है. मूल सोमनाथ मंदिर के निर्माण का समय आज तक अज्ञात है. वाराणसी में जगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थान के अध्यक्ष स्वामी गजानंद सरस्वती के अनुसार, पहले सोमनाथ मंदिर का निर्माण लगभग 8 करोड़ साल पहले हुआ था.

इसके बाद सोमनाथ मंदिर का निर्माण चार चरणों में चंद्र देवता ने स्वर्ण से, रावण ने चांदी से, भगवान श्रीकृष्ण ने चंदन की लकड़ी से और पांडव भाइयों में से एक भीम ने पत्थरों से करवाया था.

सोमनाथ मंदिर को ‘शाश्वत तीर्थ’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसे इतिहास में कई बार नष्ट किया गया, लेकिन फिर भी हर बार इस मंदिर की महिमा और भव्यता बरकरार रही. वर्तमान मंदिर के अभिषेक समारोह में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि-

“सोमनाथ मंदिर यह दर्शाता है कि सृजन की शक्ति हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक होती है.”

Somnath temple ruins history (1869)

इसी प्रकार केदारनाथ शिवलिंग की स्थापना का समय भी अज्ञात है, पर इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना नर-नारायण ने की थी (जो अगले जन्म में अर्जुन और श्रीकृष्ण थे), यह स्पष्ट है. यह भी कहा जाता है कि सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा.

बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर भी पिछले कई हजार वर्षों से वाराणसी में स्थित है. और काशी को वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी माना जाता है.

सतयुग में हिरण्यकश्यप ने सभी मंदिर और प्रतिमाएं तुड़वा दिए थे. उस समय भगवान् विष्णु की एक ही प्रतिमा बची थी, जो हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु के पास थी. कयाधु वह प्रतिमा छिपाकर रखती थीं. उन्होंने वह प्रतिमा अपने पुत्र प्रह्लाद को दिखाकर उनके मन में विष्णु-भक्ति का बीज बोया था.

जब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा कि “तुम्हें कहाँ-कहाँ दिखता है अपना भगवान्?” तो प्रह्लाद कहते हैं कि “मुझे तो वे हर जगह दिख रहे हैं.” हिरण्यकश्यप पूछता है, “क्या वह इस खम्भे में भी है?” तो प्रह्लाद कहते हैं कि, “हाँ! मैं उन्हें इस खम्भे में भी देख रहा हूँ.”

यहाँ स्पष्ट है कि प्रह्लाद के मन में भगवान् विष्णु की एक निश्चित छवि बसी हुई थी. तभी तो वे यह कह रहे हैं कि, “हाँ! मैं उन्हें खम्भे में भी देख रहा हूँ.”


त्रेतायुग और द्वापरयुग में मूर्तिपूजा

महाराज दशरथ और माता कौशल्या अपने पूर्वजन्म से ही भगवान् विष्णु जी के परम भक्त थे. वे मुख्य रूप से विष्णु जी की पूजा-आराधना करते थे. अतः श्रीराम को भी उनके साथ विष्णु जी की पूजा-आराधना करनी पड़ती थी, जबकि वे स्वयं ही विष्णु जी के अवतार थे.

लेकिन श्रीराम भगवान् शिव की पूजा किया करते थे. अपने वनवास के दौरान भी वे शिवलिंग स्थापित कर भगवान् शिव की पूजा करते थे. वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में रामसेतु निर्माण से पहले श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना और उनकी पूजा कर विजयश्री का आशीर्वाद मांगने का स्पष्ट उल्लेख है. रामचरितमानस में तो सभी ने यह प्रसंग पढ़ा ही होगा, आप वाल्मीकि रामायण में भी देखिये-

“देखो सीते! यहां मैंने सेना का पड़ाव डाला था. यहीं भगवान् महादेव ने मुझ पर कृपा की थी. सेतु बांधने से पहले मेरे द्वारा स्थापित होकर वे यहां विराजमान हुए थे.” (वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 123 श्लोक 19 और 20)

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श्रीराम भगवान् विष्णु जी के पूर्णावतार हैं, इस बात का स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड सर्ग 15-17) और रामचरितमानस दोनों में है.

अयोध्याकाण्ड के सर्ग 1 के श्लोक 6 और 7 के अनुसार भी-

“राजा दशरथ को अपने चारों पुत्र समान रूप से प्रिय थे, लेकिन श्रीराम से उनका विशेष प्रेम था, क्योंकि श्रीराम साक्षात् सनातन विष्णु थे, और परम प्रचंड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए थे” (राजा दशरथ ने उन्हें अपने पुत्र रूप में पाने के लिए कठोर तप किया था).

“उस समय देवी कौशल्या पुत्र की मंगलकामना से रातभर जागकर सबेरे एकाग्रचित्त होकर भगवान विष्णु की पूजा कर रही थीं.” (वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 20 श्लोक 14)

“राजकुमार श्रीराम विदेहनन्दिनी सीता के साथ भगवान् विष्णु के सुन्दर मंदिर में कुश की चटाई पर सोये” (क्योंकि राज्याभिषेक से पहले राजकुमार को यह परम्परा निभानी होती थी) (वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 6 श्लोक 4)

“पर्वतों के समान गगनचुम्बी देवमंदिरों, चौराहों, गलियों, वृक्षों, समस्त सभाओं, अट्टालिकाओं, नाना प्रकार की बेचने योग्य वस्तुओं से भरी हुई व्यापारियों की बड़ी-बड़ी दुकानों और कुटुम्बी गृहस्थों के सुन्दर समृद्धशाली भवनों में और दर से दिखाई देने वाले वृक्षों पर भी ऊंची ध्वजाएं लगाई गईं और उनमें पताकाएं फहराई गईं.” (वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 6 श्लोक 11-13)

“सीते! वन में स्वयं चुनकर लाये हुए फूलों द्वारा वेदोक्त विधि से देवताओं की पूजा करनी होती है” (दरअसल, महलों में दास-दासियाँ ही पूजा सामग्री आदि को तैयार करके रख देते थे). (अयोध्याकाण्ड सर्ग 28 श्लोक 15, 16)

“मैं वन में ही रहकर बाहर-भीतर से पवित्र होकर नियमित भोजन करूंगा और पवित्र फल, मूल और पुष्पों द्वारा देवताओं और पितरों को तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञा का पालन करूंगा.” (अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 श्लोक 26)

नवरात्रि की पूजा का प्रचलन भगवान् श्रीराम से भी माना जाता है. रावण वध से पहले श्रीराम ने नौ दिनों तक व्रत रखकर शक्ति की पूजा और आराधना की थी. तब एक कमल पुष्प कम पड़ जाने के कारण वे देवी की प्रतिमा को अपना एक नेत्र चढ़ाने को तैयार हो गए थे.

Ram and durga maa

गौरी पूजन का विधान

माता पार्वती जी ने भगवान् शिव को पति रूप में पाने के लिए बेहद कठोर तपस्या की थी. भगवान् शिव और पार्वती जी समय से परे हैं और उनका विवाह इस कल्प से पहले हुआ था. तब से सभी स्त्रियां मनचाहा वर पाने और सुहाग की कामना से माता पार्वती जी की ही पूजा-आराधना करती आ रही हैं. महालक्ष्मी जी ने अपने हर अवतार में पार्वती जी की ही आराधना की है. सीता जी के रूप में-

सर समीप गिरिजा गृह सोहा।
बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥

(सरोवर के पास गिरिजा जी का सुन्दर मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर मन मोहित हो जाता है).

जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥

तीर तीर देवन्ह के मंदिर।
चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥

(सरयू जी के किनारे-किनारे देवताओं के मंदिर हैं, जिनके चारों ओर सुंदर उपवन हैं).

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रुक्मिणी जी के रूप में (द्वापरयुग) –

जब माता रुक्मिणी ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रेम-पत्र लिखा था, तब उस पत्र में उन्होंने श्रीकृष्ण को यह भी बता दिया था कि उनका हरण कैसे किया जाना है-

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धुं
स्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायं।
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा
यस्यां बहिर्न्नवावधूर्ग्गिरिजामुपेयात्॥६॥

“हमारे यहां एक नियम के अनुसार विवाह से एक दिन पहले कुलदेवी के लिए एक यात्रा होती है. उस यात्रा में नववधू को नगर के बाहर स्थित श्री पार्वती जी के मंदिर में ले जाया जाता है. उस समय आप मेरा हरण कर मुझे ले जा सकते हैं.”

इसी प्रकार महारास लीला से पहले राधा जी और सभी गोपियों ने मिलकर मां कात्यायनी जी की प्रतिमा स्थापित करके, उनका श्रृंगार आदि करके उनकी विधिवत पूजा और उपासना कर अपने लिए श्रीकृष्ण को पति रूप में माँगा था.

सभी पांडव भी मूर्तिपूजा करते थे.

बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख महाभारत सहित कई वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है-

अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात।
बदरीदर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥


क्या आदि शंकराचार्य मूर्तिपूजा के विरोधी थे?

अद्वैतवाद के समर्थक आदि शंकराचार्य की भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं. कुछ लोग आज यह भी प्रचारित करते हैं कि शंकराचार्य मूर्तिपूजा के विरोधी थे. लेकिन हमने तो हमेशा से ही यही पढ़ा है कि आदि शंकराचार्य ने कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था, जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ मंदिर आदि. तो फिर वे मूर्तिपूजा के विरोधी कैसे हुए?

काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हो चुका है.

एक तथ्य यह भी मिलता है-
आचार्य शंकर और उनके गुरुदेव गोविंदपाद प्रात:काल की शुरुआत ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन, दंड -प्रणाम, पूजा-पाठ के सम्पूर्ण-विधि-विधानों और अनुष्ठानों के साथ करते थे. वहीं एक गुफा में बैठकर धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, विधि-विधानों से परे निर्गुण-निराकार अद्वैत ब्रह्म के विषय में चिंतन-मनन भी करते थे.”

सामाजिक और आध्यात्मिक दो धाराओं का इतना सुंदर समन्वय भला आचार्य शंकर के सिवाय कहाँ संभव है? अतः हम कह सकते हैं कि आदि शंकराचार्य मूर्तिपूजा के समर्थक थे.

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वेदों में मूर्तिपूजा (Murti Puja in Vedas)

संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे।
सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥
(अथर्ववेद 3/10/3)

एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः (अथर्ववेद 2/13/4)

“हे भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये.”

सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमनत्रो भवति॥ (अथर्व शीर्षम्)

“सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है.”

निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति॥
(देवी अथर्वशीर्षम्)

“प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है प्राणप्रतिष्ठा की जाती है!”

ईश्वर की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है, इस प्रकार साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है! बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है पर वास्तव में तो वह उस प्रतिमा के माध्यम से उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है.

हमारे सनातन वैदिक सिद्धांत में भक्त लोग मूर्ति का पूजन नहीं करते बल्कि उस मूर्ति के रूप में ईश्वर का ही पूजन करते हैं. जो ईश्वर सब जगह परिपूर्ण हैं, उसका विशेष ध्यान करने के लिए मूर्ति बनाकर उस मूर्ति में उस परमात्मा का पूजन किया जाता है. क्योंकि यदि मूर्ति की ही पूजा होती तो पूजा के भीतर पत्थर की मूर्ति का ही भाव होना चाहिए कि, “हे पत्थर देव! तुम मेरा कल्याण करो…”

परंतु कोई ऐसा नहीं कहता. अतः भक्त लोग मूर्ति में भगवान की पूजा करते हैं, अर्थात मूर्ति भाव को मिटाकर भगवद्भाव करते हैं. सूरदास जी मूर्तिपूजा नहीं कर पाते थे, पर वे सगुण पूजा के उपासक थे. तुलसीदास जी और मीराबाई जी मूर्तिपूजक थे और वे सगुण-निर्गुण से बहुत आगे निकल चुके थे. अतः द्वैत अद्वैत, निर्गुण सगुण, साकार निराकार, शैव वैष्णव आदि झगड़े और तर्क-वितर्क का विषय नहीं होते.

फिर भी निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं और केवल निराकारोपासनापरक “न तस्य प्रतिमा अस्ति” आदि वचनों को उद्धृत करके ही एकतरफा निर्णय करके संतुष्ट हो जाते हैं. ‘साकार शरीर में ही निराकार विचार का आधार है’, इतनी छोटी सी बात न समझकर बेकार की बक-बक अज्ञानता को ही दर्शाती है.

नारीवाद

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