Vegetarian Non vegetarian and Vegan (Shakahar and Mansahar)
शाकाहार और मांसाहार का अर्थ तो सब जानते ही हैं. मांसाहार में प्राणियों के प्रति हिंसा शामिल होती है, जबकि शाकाहार में हिंसा शामिल नहीं होती. और वीगन का अर्थ सब लोग अपने-अपने अनुसार निकालते हैं. वीगन में कई तरह की परिभाषाएं दी गई हैं, कई प्रकार दिए गए हैं, कि कौन किन-किन चीजों का त्याग करता है. वीगनवाद के अंतर्गत, कुछ लोग पशुओं से प्राप्त होने वाले उत्पादों जैसे कि दुग्ध उत्पादों का उपभोग नहीं करते, तो वहीं कुछ लोग पशुओं से प्राप्त होने वाले अन्य उत्पाद जैसे कि ऊन आदि से भी परहेज करते हैं.
शाकाहार-मांसाहार और हिंसा-अहिंसा को लेकर श्री विनय झा जी (Vinay Jha) कहते हैं कि-
किसी भी प्राणी को कायिक-वाचिक-मानसिक क्षति पहुंचाना हिंसा है. विधाता ने जीवों की प्राणरक्षा के लिए प्राकृतिक रूप से जो अन्न और फल दिए हैं, उनका उपभोग हिंसा नहीं है. शाकाहार के बारे में प्राचीन शास्त्रों में विवेचना है. धर्मशास्त्रीय पक्ष यह था कि ब्रह्माजी ने कुछ वनस्पतियों को केवल भोजन के लिए ही उत्पन्न किया है जिनकी आयु ही उतनी होती है, अतः उनका उपभोग हिंसा नहीं है.
जैसे कि धान को लें, धान के पौधे को फसल पकने के बाद भी न भी काटें तो वह सड़ मर जाता है, अतः उस पौधे का एकमात्र उद्देश्य धान का “फल” प्रदान करना है. शाक खाने का अर्थ था पत्ते तोड़कर खाना न कि जड़ से उखाड़कर पूरे पौधे को खाना, और पत्ते भी इस तरीके से तोड़े जायें कि पौधा नष्ट न हो. वहीं, कन्द-मूल भी समय पर तोड़ें न जायें तो वे सड़ जाते हैं, किन्तु ऐसे पेड़-पौधों को काटना पाप माना जाता था जो फल देने के बाद भी जीवित रहते थे, जैसे कि आम का पेड़.
अण्डा खाना भ्रूण हत्या है जो कि बहुत बड़ा पाप है. मुर्गी कोई पेड़ नहीं है जिस पर अण्डे नाम के फल लगते हैं. मानवजाति में भी हर बालिग और स्वस्थ नारी एक मास में एक बार अण्डा देती है जिसका हर मास तो फर्टिलाइजेशन होता नहीं, तो क्या उसे शाक-सब्जी मानकर खाया जाये?
अमेरिका के कुछ वीगन लोगों ने शाकाहार की नयी परिभाषा चलाई, जिसमें दूध को ‘शाकाहार’ में नहीं गिना जाता क्योंकि दूध शाक नहीं है और पशु से प्राप्त होने वाला माँस की तरह पदार्थ है. इस परिभाषा में जानबूझकर इस तथ्य को अनदेखा किया जाता है कि माँस हिंसा द्वारा प्राप्त होता है, जबकि दूध के लिए पशुवध नहीं होता.
गाय का बछड़ा भरपेट दूध पी ले, उससे पहले ही गाय का दूध हम दुह लें, तो यह बहुत बड़ी हिंसा है — शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, जो आर्यावर्त के 95 प्रतिशत आर्यों का वेद है. बछड़ा तरसता रहे और उसकी माता का दूध आप दुहकर ले जायें, यह बहुत बड़ी हिंसा है — शतपथ ब्राह्मण में इसे गोहत्या के समान कहा गया है.
जिस वर को कन्या नापसन्द करे उसके साथ कन्या का जबरन विवाह हिंसा है. राष्ट्र और धर्म खतरे में हो तो उसकी रक्षा हिंसा नहीं है. अबला, वृद्ध और बच्चों की रक्षा हिंसा नहीं है. अत्याचारी राक्षसों का वध हिंसा नहीं है. नालंदा का नाश कराने वाले धर्मरक्षा तथा आत्मरक्षा से विमुख बौद्धों और गांधीवादियों तथा आज के देशद्रोही नेताओं और छद्म-बुद्धिजीवियों को थप्पड़ मारकर सबक सिखाना हिंसा नहीं है, क्योंकि ऐसे ही पागलों के कारण राष्ट्र और धर्म का नाश होता है.
— Vinay Jha (facebook)
(vedicastrology.wikidot.com)
इसलिए सभी मित्रों से हमारा यह निवेदन है कि कृपया पशु-पक्षियों में अपना भोजन देखना बंद कर दें, क्योंकि दर्द उन्हें भी होता है, मदद के लिए गुहार वे भी लगाते हैं, वे भी गिड़गिड़ाते हैं, बस अंतर इतना है कि हम उनकी भाषा को समझ नहीं पाते.
निर्दोष प्राणियों पर दया दिखाने से मनुष्य कमजोर नहीं बनता, बल्कि और भी वीर कहलाने लगता है, क्योंकि जो निर्दोषों की रक्षा कर सकता है, वही असली वीर कहलाता है, जो क्रूरता का दमन करता है, वही वीर है.
गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में लिखते हैं कि-
जब से श्रीराम ने पंचवटी में निवास किया, तब से वहां के सभी मुनि, पशु पक्षी सब निडर और आनंदित होकर रहने लगे (क्योंकि श्रीराम राक्षसों से और हिंसकों से सब प्रकार के निर्दोष प्राणियों की रक्षा कर रहे थे).
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं।
मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥
यदि कोई आप पर हमला करे, या जो हमारे या दूसरों के लिए संकट हों, फिर चाहे वह पशु हो या मनुष्य, तो स्वयं की रक्षा में हमलावर की मृत्यु कारित करना सबका अधिकार है, लेकिन अपने स्वाद के लिए या धर्म के नाम पर निर्दोष प्राणियों को काट डालना आखिर कहां तक न्यायोचित है?
कोई बहुत मजबूरी हो तो बात अलग है, लेकिन आज कोई भी व्यक्ति मांसाहार मजबूरी के लिए नहीं करता, अपने स्वाद के लिए ही कर रहा है. यदि स्वाद के लिए मांस खाने वाले लोग शाकाहार को प्राथमिकता देने लगें, तो पृथ्वी पर केवल निर्दोष प्राणियों की ही नहीं, पर्यावरण की भी रक्षा होगी, क्योंकि सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं.
मैं एक लाइन में कहूँ तो मैं केवल निर्दोष पशुओं के साथ होने वाली क्रूरता के खिलाफ हूँ, फिर चाहे वो धर्म के नाम पर हो या भोजन आदि के नाम पर. जिस प्राणी का हमारे-आपके धर्म और भगवान से कोई लेना-देना ही नहीं है, उसे धर्म के नाम पर बेरहमी से काटे जा रहे हो. और ईश्वर की तरफ से देश में सब प्रकार की खाने की चीजें बनाए जाने के बाद भी आप प्राणियों की हत्या कर करके खाए जा रहे हो. क्या यह सब सही हो रहा है?
सुत्त पिटक के खुद्दक निकाय के सुत्तनिपात में गौतम बुद्ध (Gautam Buddh) ने बताया है कि-
“पहले संसार में केवल तीन प्रकार के दुख थे- इच्छा, भूख और जरा (बुढ़ापा), लेकिन पशुवध के आ जाने से संसार में 98 प्रकार के दुख हो गए हैं.”
गायों के साथ अत्याचार (Cruelty to Cows)
मैं वीगनवाद का समर्थन नहीं करती, और इसके कई कारण हैं, लेकिन इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी तरफ से कुछ कहना चाहूं, उससे पहले कुछ और भी कहना चाहती हूँ-
हमारे यहाँ गाय के दूध, घी, मक्खन, दही, गोबर आदि सबका महत्त्व बताया गया है. हम दही से पंचामृत बनाते हैं, घी से ही पूजा, आरती, हवन आदि करते हैं. त्योहारों पर गोबर को घर में लीपते हैं, उसके बने कंडों से हवन आदि भी करते हैं.
भारत भगवान श्रीकृष्ण का देश है, जिन्हें ‘गोविन्द’ भी कहा जाता है. गोवर्धनलीला के बाद श्रीकृष्ण इंद्र को क्षमा करने के मूड में बिल्कुल नहीं थे, लेकिन सुरभि माता के केवल एक बार कहने पर ही तुरंत इंद्र को क्षमा कर दिया था, ऐसी है गऊ माता की महिमा. भारत वह देश है, जहाँ यह माना जाता है कि गाय में 33 कोटि देवता निवास करते हैं. यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में गाय को प्रसन्न कर ले, तो सारे देवता उसके वश में हो जाते हैं.
लेकिन उसी भारत देश में आज डेयरी उद्योगों (Cow in dairy industries) में गायों के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक,
पशुओं को एक साथ छोटी-सी जगह में बांध कर रखा जाता है. मादा पशुओं को दूध उत्पादन के लिए एक वर्ष में कम से कम एक बार बच्चा देने के लिए मजबूर किया जाता है (लगातार कृत्रिम रूप से गर्भवती करके). उस कारण से पशुओं की जीवन अवधि बहुत प्रभावित होती है. आदर्श परिस्थिति में, मवेशियों की आयु लगभग 25 वर्ष होती है, लेकिन कृत्रिम साधनों के चलते उनका जीवनकाल केवल 10 वर्ष का ही होकर रह गया है.
पैदा होते ही बछड़ों को अपनी माताओं से अलग और प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जो माँ और बछड़े दोनों के लिए दर्दनाक और दुखद है. मां के दूध का उपयोग मानव उपभोग के लिए किया जाता है. नर बछड़े को अक्सर डेयरी उद्योगों में बोझ माना जाता है, क्योंकि वह दूध का उत्पादन करने में असमर्थ होता है.
नर बछड़ों और अनुत्पादक, बाँझ मादाओं को बेकार माना जाता है. उन्हें या तो छोड़ दिया जाता है या फिर वध होने के लिए भेज दिया जाता है. स्वस्थ मादाओं को पाला जाता हैं और फिर उन्हें उसी दूध से वध चक्र के माध्यम से गुजरना पड़ता है. एक-एक बूँद दूध निकाल लेने के बाद निर्बल और बांझ हो चुकी गायों और भैंसों को मार दिया जाता है.
एक नकली बछड़ा मां की बगल में रखा जाता है, ताकि माँ दूध दे. नवजात बछड़े के सिर और पूंछ को शव से उखाड़ लिया जाता है और एक डंडे के सिरे पर जड़ दिया जाता है. मौत की गंध को घास और एक प्रकार के बाम से छिपा दिया जाता है, जिसकी मदद से दूध देने वाली मां (पशु) भ्रम में रहते हुए दूध देती है और बछड़े के अवशेष को बाजार में मांस के रूप में बेच दिया जाता है. कुछ लोग सोचते हैं, कि बछड़ा पैदा होते ही मर गया होगा, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई तो कुछ और ही होती है.
Milkman दूध निकालने के लिए गाय या भैंस के पास एक खाली बाल्टी ले जाता है, उसी दौरान भूसा भरा मरे हुए बछड़े का सिर भी ले जाता है, जिसे गाय तब तक चाटती रहती है, जब तक दूध निकाला जाता है. यह एक मां की भावनाओं के साथ बेहद क्रूर खिलवाड़ है जो मनुष्य द्वारा किया जाता है.
विज्ञापन और बातचीत के माध्यम से दूध और दुग्ध उत्पादों के बारे में यह जानकारी दी जाती है, कि डेयरी उत्पाद पूरी तरह स्वस्थ हैं और हमारे लिए बेहद जरूरी हैं, जबकि इनसे जुड़े स्वास्थ्य संबधी खतरों की कोई कभी बात नहीं करता.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक-
“गायों को ले जाने वाले लोग जानवरों को आगे बढ़ाने के लिए उनके जननांगों को चोट पहुंचाते हैं, उनकी दृष्टि को विकृत करने के लिए उनकी आंखों में मिर्च पाउडर रगड़ते हैं, और उन्हें कमजोर बनाने के लिए उनकी पूंछ तोड़ देते हैं. बूचड़खानों और मवेशियों के फार्मों में, जानवर को काटे जाने से पहले अचेत नहीं किया जाता है. उनकी जिंदा खाल उतारी जाती है.”
यानी कि जिस देश और संस्कृति में गाय को देवी और मां माना जाता है, उसी देश में आज गायें रोते-रोते भी थक जाती हैं. क्या यह सही हो रहा है? पूछिए श्रीकृष्ण से कि क्या वे ऐसे दूध से बने प्रसाद को ग्रहण करते हैं? पूछिए भगवान शिव से कि क्या वे ऐसे दूध या दही आदि को ग्रहण करते हैं?
मनुष्य के लालच की सीमा ही नहीं रह गई है. भौतिकवाद और भोगवाद ने समस्त जीवन मूल्यों को लील लिया है, और क्या कह सकते हैं! अपने सुख के लिए दूसरों को कितनी भी तकलीफ दी जाए, हमें फर्क ही नहीं पड़ता है!
क्या वीगनवाद सही है (Is Vegan Right or Wrong)?
एक अतिवाद दूसरे अतिवाद को जन्म देता है.
इतना अधिक दयालु और क्षमाशील हो जाना कि दुष्टों को भी क्षमादान दे दिया जाए, उनमें भी अच्छाई खोज ली जाए, तो यह अतिवाद है, जिसका भयंकर परिणाम भुगतना ही पड़ेगा.
और दया करुणा का इस हद तक त्याग कर देना कि निर्दोषों पर अत्याचार या बेजुबान प्राणियों पर भी अत्याचार होने लगें, तो यह भी अतिवाद है, जिसका भी भयंकर परिणाम भुगतना ही पड़ेगा.
आज यदि वीगनवाद को प्रोत्साहन दिया जा रहा है तो उसका एक कारण पशुओं के साथ हो रही अत्यधिक क्रूरता है. यदि यह क्रूरता न होती ऐसा कोई विचार आता भी नहीं.
द्वापरयुग तक घर-घर गायों को पालता था, उनके साथ कोई क्रूरता नहीं होती थी, मवेशी प्रसन्न मन से दूध देते थे, तो भारत में दूध-दही की नदियां बहती थीं और लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था. दूध देना बंद कर देने पर भी उन्हें मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता था. लेकिन आज उसी देश में गायें रोते-रोते बेहद दुखी मन से दूध दे रही हैं, तो क्या उनका दूध लोगों को फायदा पहुंचाएगा?
और यदि कोई कहता है कि मैं पशुओं पर हो रही क्रूरता को रोकने के लिए दूध, घी, मक्खन आदि का त्याग करता हूँ, तो यह उसका एक भ्रम है कि इससे पशु क्रूरता रुक जाएगी. सच कहूँ तो ऐसा करना जिम्मेदारियों से भागना होगा, गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने के समान होगा, जिससे अपने ही बच्चे शकुनि जैसों के हाथों में चले जाते हैं.
आप करोड़ों प्रयास कर लीजिये, लेकिन आप राक्षसों को सुधार नहीं सकते. यदि बड़ी-बड़ी बातें करने से वाकई में राक्षस सुधर जाते, तो प्रेम की बांसुरी बजाने वाले श्रीकृष्ण कभी महाभारत न होने देते. राक्षसों का वध ही एकमात्र उपाय होता है.
यदि आप पशुओं पर हो रही क्रूरता को रोकने के लिए दूध, घी, मक्खन आदि का त्याग करने की सलाह सबको देंगे तो उससे आगे जाकर होगा यह कि उन्हें कोई पालेगा भी नहीं, और तब वही पशु राक्षसों के हाथों में ही जायेंगे. जैसे बांग्लादेश में हिन्दू गायों को नहीं पालते, और बकरीद पर सरेआम सैंकड़ों गायों को काट दिया जाता है.
इसलिए वास्तव में यदि आप पशुओं के साथ हो रही क्रूरता को रोकना चाहते हैं तो आपको लोगों को स्वास्थ्य के प्रति और मवेशियों को पालने को लेकर लाभ आदि पर चर्चा करनी चाहिए, क्रूर डेयरी उद्योगों से जुड़े स्वास्थ्य संबधी खतरों की बात की जानी चाहिए, क्योंकि वास्तव में इससे बहुत बीमारियां फैल रही हैं.
आप चाहें तो खुद भी या ग्रुप बनाकर मवेशियों को ठीक तरह से पालकर उनका दूध बेच सकते हैं और उसके लाभों पर चर्चा कर सकते हैं, जिससे भी आज के ये क्रूर डेयरी उद्योग हतोत्साहित होंगे.
यदि आप एक गाय भी पालेंगे, तो कम से कम वह गाय तो कसाई के हाथों में जाने से बच जायेगी. और इसीलिए सनातन संस्कृति में हर घर में गोसेवा की परंपरा रही है! यदि हर सनातनी के घर में गोसेवा होती, तो दूध का इस तरह का बाजारीकरण नहीं होता, और ऐसी घिनौनी और वीभत्स परिस्थिति नहीं आती!
इसलिए आपको शाकाहार को अपनाकर पशुओं की रक्षा की प्रेरणा देनी चाहिए, क्योंकि वीगन होना कोई समाधान नहीं है, सच कहूं तो यह वास्तविकता भी नहीं है. ये तभी रुकेगा जब सब अपनी जिम्मेदारी खुद निभाना सीखेंगे, जब गाय को अपने परिवार की तरह ही पालेंगे.
Navnish Kumar Singh जी हमें लिखते हैं कि-
“यदि लोग अपने यहां मवेशियों को पालते रहते, तो पराली जलाने की समस्या (Parali Burning) भी नहीं होती, सभी पालते तो अनैतिक तरीके से निकाला दूध नहीं पीना पड़ता और उस दूध से होने वाली हानि या स्वास्थ्य नुकसान भी नहीं झेलने पड़ते. देसी गाय के साथ कुछ समय भी बिताने पर कई प्रकार की बीमारियां वैसे ही भाग जाती हैं, रोज खुद से गाय के गोबर को उठाते तो अर्थिंग मिलता जो कि अभी टाइल-मार्बल जूता-चप्पल के कारण नहीं मिल पाता, शरीर में गया खाना बेहतर तरीके से हजम भी हो जाता जिससे बीमारियां होने का खतरा भी टल जाता. अगर कोई व्यक्ति दिल से मवेशियों को पाले तो उसका दर्द भी मालूम होता जिसके कारण मानवता खुद से ही जागती और आज हम प्राणियों के प्रति जितने क्रूर होते जा रहे हैं, उससे बच जाते.
और अंत में, गाय आप पर आने वाली समस्या के बारे में पहले ही जान जाती है और भगवान से उस समस्या को अपने ऊपर मांग अपने पालने वाले की रक्षा भी करती है. गाय पालने में बहुत फायदा है. बाकी के जानवर भी पालें, उनसे भी नफरत न करें कोई नहीं जानता कि कब किसकी बारी आ जाए और उस समय अफसोस हो अपने कुकृत्यों के लिए.”
Written By : Aditi Singhal (working in the media)
सनातन धर्म में शाकाहार और मांसाहार
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