Who is Indra Dev in Rigveda
ऋग्वेद के लगभग 250 सूक्तों में ‘इंद्र’ का उल्लेख किया गया है. लेकिन इंद्र का उल्लेख और वर्णन किन-किन अर्थों में किया गया है, यह बता पाना तो बहुत मुश्किल है. दरअसल, आज सनातन धार्मिक ग्रंथों में जो हिंदी टीकाएं या अर्थ-अनुवाद दिए गए हैं, वे मात्र शब्दार्थ हैं. उन्हें भावार्थ, गूढ़ार्थ और तत्वार्थ समझने की भूल बिल्कुल न करें, क्योंकि शब्दार्थ और भावार्थ में बहुत अंतर होता है.
पुराणों में उल्लिखित हमारे आराध्यों, देवी-देवताओं का स्वरूप, उनके अस्त्र-शस्त्र, वाहन, कार्य इत्यादि गूढ़ अर्थ रखते हैं. जब हम उन्हें डिकोडेड कर समझेंगे, तभी उनके असली अर्थ को समझ पाएंगे. यहां अलग-अलग ग्रंथों में इंद्र शब्द का उल्लेख हिंदी अर्थों में किस-किस प्रकार किया गया है, उसी का उल्लेख किया जा रहा है-
ऋग्वेद और उपनिषदों में ‘इंद्र’ का उल्लेख
ऋग्वेद से उपनिषदों तक, इंद्र का उल्लेख शत्रुसंहारक के रूप में किया गया है. वैदिक साहित्यों में इंद्र की ख्याति युद्ध के देवता के रूप में है. ऋग्वेद में इंद्र को वृत्तासुर का विनाशक, शम्बर नामक दैत्य के पुरों का नाश करने वाला, रथियों में सर्वश्रेष्ठ, वाजिपतियों का स्वामी, दुष्ट दलनकर्ता, शत्रुओं को खदेड़ने वाला, महान बलवान, देवताओं में महान बलशाली और वीरों के साथ युद्ध में विजयी बतलाया गया है. इंद्र के प्रभाव को आकाश से भी अधिक श्रेष्ठ, और उनकी महिमा को पृथ्वी से भी अधिक विस्तीर्ण बताया गया है.
उपनिषदों में इंद्र को अन्य देवताओं से श्रेष्ठ कहा गया है. छांदोग्य उपनिषद के अनुसार, इंद्र ने प्रजापति के पास 101 वर्षों तक ब्रह्मचर्यपूर्वक वास करते हुए ज्ञान प्राप्त किया था. सभी देवताओं में इंद्र ने ही ब्रह्म को सर्वप्रथम जाना था.
कौषीतकि उपनिषद के अनुसार, दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन इंद्र के पास ज्ञान प्राप्त करने गए थे. इसी उपनिषद में इंद्र को ब्रह्ममंदिर के द्वार का रक्षक भी कहा गया है. एक स्थान पर तो उन्हें प्रज्ञा का साक्षात् प्राण रूप, आयु और अमृत भी कहा गया है.
ब्राह्मण ग्रंथों में इंद्र को ‘सूर्य’, ‘वाणी’ और ‘मन का राजा’ भी कहा गया है. स्वरों को इंद्र की आत्मा (छांदोग्य उपनिषद) और प्राण को स्वयं इंद्र कहा गया है (कठोपनिषद). ऐतरेय उपनिषद में इंद्र को आत्मा और सर्वदेवमय भी कहा गया है. इंद्र के आश्रित होकर ही समस्त रुद्रगण जीवन धारण करते हैं (छांदोग्य उपनिषद).
देवलोक को इंद्रलोक से ओतप्रोत बताते हुए कहा गया है कि दक्षिण नेत्र में विद्यमान पुरुष इंद्र ही है (वृहदारण्यक). इंद्र का प्रिय धाम स्वर्ग है और वायुमंडल में विद्यमान पुरुष भी इंद्र ही है (कौषीतकि उपनिषद).
इंद्र सूक्त के अनुसार, इंद्र का समस्त स्वरूप स्वर्णिम और अरुण है. वे वेगगामी, मेघतुल्य वृष्टि करने वाले, संयमी, साहसी, सहज ओजस्वी हैं. ये सर्वाधिक सुन्दर रूपों और सूर्य की अरुण आभा को धारण करते हैं और इसलिए इन्हें ‘हिरण्य’ भी कहा गया है.
प्रकृति के अर्थ में इंद्र
अपने प्राचीन प्रतीकों को देखिये! सूर्य प्रकाश के देवता हैं, चंद्र शीतलता के, पवन देव वायु के देवता हैं और वरुण देव जल के… और इंद्र इन समस्त शक्तियों के नियामक हैं. लोगों ने इन देवताओं के नाम से प्रकृति का सम्मान किया और प्रकृति को पूजा है.
सृष्टि के प्रशासन से संबंधित देवी-देवताओं की सूची बहुत लंबी है. 33 कोटि देवी-देवता सृष्टि के विशाल प्रजातंत्र को चलाते हैं. सृष्टि के विधान में या सृष्टि को चलाने में सभी प्राणी जिनमें पशु-पक्षी आदि भी शामिल हैं, किसी न किसी प्रकार अपना-अपना योगदान देते रहते हैं. इसी तालमेल को आज हम इकोलॉजिकल बैलेंस कहते हैं.
इंद्र एक पदवी है
हम मनुष्य जिन इंद्र की पूजा करते हैं, या प्राचीन समय में लोग जिन इंद्र की पूजा करते थे, वे इंद्र स्वर्गलोक के अधिपति और देवताओं में सर्वश्रेष्ठ रहे हैं. वे एक अच्छे और बलशाली राजा रहे हैं, और जिन्होंने भारी तपस्या कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके ही इंद्र का पद प्राप्त किया था. जिनके बाद से ही स्वर्गलोक पर राज करने वाले को ‘इंद्र’ नाम ही दे दिया जाता है.
100 अश्वमेध यज्ञ करके या अपनी शक्तियों को बढ़ाकर कोई असुर भी इंद्र पद प्राप्त कर ले, तो हम उसकी पूजा थोड़ी न करने लगेंगे. इस प्रकार हम इंद्र के रूप में किसी निश्चित देवता की नहीं, बल्कि उस पदवी की पूजा और सम्मान करते हैं.
यह पद प्रत्येक कल्प और मन्वंतर में बदलता रहता है. बताया जाता है कि अब तक 14 इंद्र हो चुके हैं- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बलि, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि. इंद्र आदित्य में गिने जाते है.
असुरों के राजा बलि भी एक कल्प में इंद्र की पदवी धारण कर स्वर्गलोक पर राज करते हैं, वहीं रावण का पुत्र मेघनाद भी इंद्र को जीतकर ‘इंद्रजीत’ कहलाया. इसी प्रकार नहुष नाम के एक राजा की कहानी भी मिलती है, जिसने 100 अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करके कुछ काल के लिए इंद्र की पदवी प्राप्त की थी, लेकिन उसके पापकर्मों के कारण उसे दंड देकर इंद्र पद से हटा दिया गया था.
इस प्रकार जो भी व्यक्ति उस पद पर आरूढ़ हो जाता है, उसके हाथ में स्वर्गलोक की सर्वोच्च सत्ता आ जाती है, लेकिन यह सत्ता बदलती रहती है.
हर समूह के राजा को भी इंद्र कहा जाता है, जैसे- मृगेंद्र, गजेंद्र, नरेंद्र, महेंद्र.
पाणिनि के अष्टाध्यायी में ‘इंद्र’
पाणिनि ने अपने ‘अष्टाध्यायी’ में इंद्र को इन्द्रियों का शासक बताया है. मन सबसे प्रबल इन्द्रिय है.
‘ऋग्वेद में इंद्र की बुद्धि की प्रशंसा की गई है. इंद्र को श्रुति और ज्ञान भी कहा गया है…’, यदि इसे हम इन्द्रियों के अर्थ में समझें तो इंद्रियों के द्वारा ही हमें बाहरी विषयों- रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का तथा आभ्यंतर विषयों- सु:ख दु:ख आदि का ज्ञान प्राप्त होता है. इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते. और इसीलिए इंद्र को रात्रि के अंधकार रूपी दानव का वध करने वाला और प्रकाश को जन्म देने वाला कहा गया है. वहीं, अप्सराएं वृत्तियों का प्रतीक हैं.
हर एक व्यक्ति की सभी सांसारिक इन्द्रियों की ऊर्जा का जो स्रोत (Source of Energy) है, उसे इंद्र कहा गया है. और जब कोई भी व्यक्ति तपस्या करता है, तो इसका अर्थ कि वह व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को कंट्रोल करने का प्रयास करता है. तब इन्द्रियों की सत्ता कमजोर पड़ती है (इंद्र का आसन डोलने लगता है). तब इन्द्रियां उस व्यक्ति पर पलटकर वार (बैक फोर्स) करती हैं. और उस समय इन्द्रियां सबसे ज्यादा अटैक मानसिक रूप से करती हैं, क्योंकि मन सबसे प्रबल इन्द्रिय है.
इसे इस उदाहरण से समझिए- जब आप पढ़ाई करने बैठते हैं, या किसी मंत्र-जप में ध्यान लगाने बैठते हैं, तब क्या आपका मन पूरी तरह पढ़ाई या ध्यान में ही लग जाता है? नहीं.. बल्कि आपका मन कई बार इधर-उधर भटकता रहता है.
एक प्रयोग करके देखिए- यदि कोई पंडित आपको कोई मंत्र देकर कहे कि ‘इस मंत्र का जप करते समय मन में बंदरों का ख्याल नहीं आना चाहिए’, और यदि आप भी कह देते हैं कि ‘मैं भला क्यों बंदरों के बारे में सोचने लगा..’ तो आप देखिएगा कि जैसे ही आप उस मंत्र का जप करने बैठेंगे और ध्यान लगाएंगे, तब उस समय आपके मन में बंदर ही आएंगे.
इस प्रकार हम देखें तो हमारे सनातन ग्रंथों में कई कहानियाँ प्रतीकात्मक भी हैं कि किस प्रकार एक प्रकृति दूसरी प्रकृति को या एक शक्ति दूसरी शक्ति को प्रभावित करती है या नियंत्रित करने का प्रयास करती है.
इंद्र एक रूपक भी है. जैसे इंद्र देवताओं के राजा हैं, जिनके पास धन-ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं. हर प्रकार की सुख-सुविधा है, और यही कारण है कि वह अपनी इस पदवी को गंवाने के भय से सदैव चिंतित रहते हैं. ऐसा व्यक्ति अपने पद को बचाने के लिए आवश्यकतानुसार साम, दाम, दण्ड, भेद सभी हथियारों का प्रयोग कर डालता है, यदि वह अपनी सत्ता के विरुद्ध कोई भी खतरा पनपते हुए देखता है.
ऐसे व्यक्ति को हर किसी की मेहनत और तपस्या देखकर डर ही लगता है और इसी डर में वह व्यक्ति कई गलतियां कर बैठता है. और यही स्थिति साधारण मनुष्यों की है. इंद्र से सम्बंधित कहानियों के माध्यम से मानव जाति को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार सब कुछ होते हुए भी, और अधिक पाने की लालसा या अति महत्वकांक्षा साधारण मनुष्य की मनोवृत्तियों को इधर-उधर भटकाती ही रहती हैं.
इन्द्र को ‘सहस्रलोचन’ क्यों कहा जाता है?
‘सहस्रलोचन’ का शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए. ‘सहस्राक्ष’ शब्द का संस्कृत-हिंदी कोश के अनुसार एक अर्थ होता है जागरूक अथवा सजग. सहस्त्र नेत्रों (हजार आंखों) वाला होना से जागरूकता के अर्थ का बोध होता है. वेदों के दर्शन को पुराणों में कथाओं के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है. पुराणों की कथाएं पढ़ने पर ज्ञात होता है कि देवराज इंद्र को अनेक कारणों से सजग रहना पड़ता है, जैसे देवासुर-संग्राम में, लोक में किसी की कठोर तपस्या से, स्वर्ग की रक्षा और कभी इंद्रासन की चिंता. रामायण की कथानुसार वे श्रीराम-रावण युद्ध के समय प्रभु श्रीराम के लिए दिव्यरथ एवं अपना सारथि भेजते हैं… आदि.
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