Women in Hinduism : सनातन धर्म में नारी की महिमा और उसके अधिकार

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(Nari) Women in Hinduism

हिन्दू सनातन धर्म तो वह धर्म है, जहां नारी के बिना ईश्वर भी अपने स्वरूप से आधे रह जाते हैं और पूरे रूप में ‘अर्धनारीश्वर’ कहलाते हैं. हिन्दू सनातन धर्म तो वह धर्म है, जिसमें लाखों लोग हर साल कम से कम 18 दिन स्त्री-शक्ति की आराधना में व्रत रखते हैं, वहां नारी का सम्मान प्रमाणों से सिद्ध किया जाना चाहिए?

सनातन धर्म में भगवान् को माता और पिता दोनों कहा गया है. उनका मातृरूप भी है और पितृरूप भी. जिस सम्प्रदाय में शक्ति की उपासना नहीं, वह सम्प्रदाय नीरस है. शिव में ‘इ’ शक्ति का ही प्रतीक है. भगवान् विष्णु जी अपनी पत्नी लक्ष्मीजी को अपनी पराशक्ति कहते हैं (वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस). राधा जी को श्रीकृष्ण की और सीता जी को श्रीराम की पराशक्ति कहा गया है. सीता के बिना राम और राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं. नटेश्वर शक्ति के बिना अर्धाङ्ग हैं. वाग्व्यवहार में भी पहले स्त्री का नाम आता है- राधाकृष्ण, सीताराम, गौरीशंकर, शची-पुरन्दर, माता-पिता आदि.

आज कुछ खास वर्गों द्वारा वेदों, मनुस्मृति पर नारी-विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है. कुप्रचारों के फंसकर और बिना अध्ययन किये ही आप आरोप तो चाहे किसी पर भी लगा सकते हैं, पर यदि वाकई में आप सही जगह से सही चीजों को ही पढ़ने में रुचि लेते हैं तो आप पायेंगे कि नारी के अधिकारों, स्त्री-पुरुष समानता और समाज के सभी वर्गों की समानता का जितना पक्ष राजर्षि मनु ने या सनातन हिन्दू धर्म ने रखा है, उतना आपको किसी और पंथ या सम्प्रदाय में देखने को मिल ही नहीं सकता.

मनुस्मृति में नारी के अधिकार (Nari in Manusmriti)

“जहां नारी जाति की पूजा होती है (अर्थात नारी का सम्मान होता है) वहां देवता निवास करते हैं (अर्थात वहां सुख, यश और उन्नति वास करती है). जहां नारी का सम्मान नहीं होता, वहां सब प्रकार के धर्म-अनुष्ठान भी विफल हो जाते हैं. कल्याण चाहने वाले पिता, भ्राता, पति, देवर आदि सभी को उचित है कि वे नारी को अलंकार-आभूषण आदि से भूषित करें और उनका सम्मान करें. जिस घर में स्त्रियां दुखी रहती हैं, शीघ्र ही उस कुल का नाश हो जाता है. जिस घर में स्त्रियां सुखपूर्वक रहती हैं, वह घर उन्नति करता है. जो पुरुष अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है, वहीं यदि पत्नी प्रसन्न रहती है तो पूरा परिवार प्रसन्न रहता है.”
(मनुस्मृति ३.५५ से ६२)

कन्याओं को योग्य पति का स्वयं चुनाव करने का निर्देश, स्वयंवर का अधिकार और स्वतंत्रता (मनुस्मृति ९.९०-९१), विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार (मनुस्मृति ९.१७६,९.५६-६३), विवाह स्त्रियों के आदर और स्नेह का प्रतीक है. विवाह में किसी भी प्रकार का लेन-देन अनुचित है (मनुस्मृति ३.५१-५४). स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना के लिए राजर्षि मनु का सुझाव है कि जीवनभर अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, परन्तु गुणहीन, या दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए (मनुस्मृति ९.८९). पुत्री परम स्नेही की पात्री है, वह कभी कुछ अनुचित भी कर दे, तो पिता उस पर क्रोध न कर उसे शिक्षा दे (मनुस्मृति ४.१८५).

स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों जैसे हत्या, अपहरण, ब.ला.त्का.र आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड और देश निकाला आदि का प्रावधान है. ब.ला.त्का.रियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड के बाद देश निकाला का आदेश (मनुस्मृति ८.३२३, ९.२३२, ८.३४२). मनु ने कन्या के विक्रय का घोर विरोध किया है (मनुस्मृति ९.९८.१०२). जो नारी संतानहीन हो, जिसके कुल में कोई न हो, विधवा या रोगिणी हो, उसकी सब लोग रक्षा करें (मनुस्मृति ८.२८). जो सगे-संबंधी स्त्री के जीवनकाल में उसका धन-हरण कर लें, राजा उसे चोर के समान दंड दे (मनुस्मृति ८.२९).

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वेदों में नारी (Nari in Vedas)

वेदों के मुख्य विषय ज्ञान, कर्म और उपासना हैं, जो समस्त मनुष्य जाति के लिए हैं, यानी स्त्री-पुरुष दोनों के लिए. जो कुछ है सबके लिए है. वेद इतिहास नहीं हैं, जिससे स्त्री और पुरुष वर्ग के विषय में कुछ विशेष चर्चा और विषय आयें, तथापि उनमें इतिहास के बीज और साधन-सामग्री अवश्य हैं.

यमस्मृति में कहा गया है कि- “पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्यापनं च वेदानां गायत्रीवचनं तथा॥” अर्थात पूर्वकाल में कुमारियों का उपनयन, वेदारम्भ तथा गायत्री उपदेश होता था. अथर्ववेद संहिता नारी के उपनयन संस्कार एवं विद्याध्ययन के अधिकार का समर्थन करती हैं.

इसी के साथ, नारी को यज्ञ में भाग लेने व यज्ञ करने तथा दूसरों को यज्ञ कराने की स्वतंत्रता भी देती है (अथर्ववेद ६.१२२.५). “ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्” (अथर्ववेद ३.२४.११.१८) अर्थात कन्या भी (पुरुषों के समान) ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करें और उसके बाद विवाह करें. तैत्तरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि “गृहस्थ पुरुष पत्नी के बिना यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है.”

वैदिक शिक्षा के अंतर्गत कन्या को युद्धविद्या, परा एवं अपरा विद्या, गणित, शिल्प, नृत्य-संगीत इत्यादि विद्याओं में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था. वैदिक सूक्त में विश्पला, वध्रिमती, मुद्गलानी आदि स्त्री योद्धाओं का वर्णन प्राप्त होता है (१०.१०२). ऋग्वेद में नृत्य-संगीत में कुशल नारियों का वर्णन भी मिलता है (ऋग्वेद १.९२.४). वेदों से ज्ञात होता है कि स्त्रियां सुन्दर वस्त्र, आभूषण, माला, हार, वलय और आयुध धारण करती थीं.

यजुर्वेद में कन्याओं को सुशिक्षित करने के लिए उपदेश भी प्राप्त होते हैं (यजुर्वेद १२.५३). अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करने वाली कन्याओं द्वारा शिक्षा की परिसमाप्ति के बाद योग्य वर को प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है (अथर्ववेद ११.५.१८). इसी के साथ, वैदिक काल में पुनर्विवाह एवं विधवा विवाह के संकेत भी प्राप्त होते हैं (ऋग्वेद १०.८५.४१).

विवाह के क्षेत्र में भी नारी सशक्त थी. बाल विवाह का प्रचलन नहीं था. कन्याओं का विवाह परिपक्वावस्था में ही होता था तथा विवाह के संबंध में स्वयं निर्णय लेने के लिए भी स्वतंत्र थीं. ऋग्वेद में कहा गया है कि उस समय विवाह योग्य किसी भी युवती को अपने मनोनुकूल वर चुनने की स्वतंत्रता थी (ऋग्वेद १०.२७.१२), जैसे कि सावित्री और शकुंतला के संबंध में हमें यही उल्लेख देखने को मिलता है.

कन्याओं को व्यवहारिक और नैतिक शिक्षा दी जाती थी. राजकुमारियों को राजधर्म की शिक्षा दी जाती थी. सीता जी राजधर्म में परिनिष्ठित थीं (२.२६.४). उन्हें क्षात्रधर्म का पूर्णतया बोध था (३.२०.२). उनका पौराणिक ज्ञान पर्याप्त था (५.२४.९-१०). उन्हें संस्कृत और प्राकृत भाषा का पूरा ज्ञान था (५.३०.१७-९).

स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है (यजुर्वेद २०.९). शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें. जैसे राजा लोगों के साथ न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हो (यजुर्वेद १०.२६). हे नारी! तुम हमें बुद्धि से धन दो. विदुषी, सम्माननीय, विचारशील और प्रसन्नचित्त स्त्री सम्पत्ति की रक्षा और वृद्धि करके घर में सुख लाती है (अथर्ववेद ७.४८.२).

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महत्वपूर्ण तथ्य

देवतिर्यङ्मनुष्यादौ पुन्नामा भगवान्हरिः।
स्त्रीनाम्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोर्विद्यते परम्॥

सामान्य रूप में देव समाज, तिर्यङ्कयोनि तथा मानव समाज के पुरुषत्व में भगवान् विष्णु की अभिव्यक्ति है एवं स्त्रीत्व में लक्ष्मी की. इसके अतिरिक्त जिन महिलाओं ने राष्ट्र की रक्षा की है तथा त्याग, तपस्या, सात्विकता, सेवा भगवद्भक्ति आदि के द्वारा समाज में एक आदर्श स्थापित किया है, वे जगन्माता की विशिष्ट विभूतियाँ हैं.

हिन्दू धर्म में पति-पत्नी एक-दूसरे के सखा और सहधर्मी हैं. दोनों का समान स्थान है. कहीं कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है. पाणिग्रहण के बाद प्रत्येक कर्म में दोनों का सहयोग अपेक्षित है. पत्नी लक्ष्मी का स्वरूप है, अतः इनका सम्मान करना चाहिए (शतपथ ब्राह्मण १३.२.६.७). विवाह के समय वर वधू का दाहिना हाथ पकड़कर कहता है कि-

अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोऽहम्।
सामहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्।

“प्रिये! मैं विष्णु हूँ, तुम लक्ष्मी हो. तुम त्रिदेवी हो और मैं त्रिदेव. मैं सङ्गीतमय सामवेद हूँ और तुम कवितामयी ऋचा हो, मैं द्यौ (अंतरिक्ष) हूँ और तुम पृथ्वी.”

“मैं अपने सौभाग्य के लिए तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ.” (अथर्ववेद १४.१.५०)

सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाथास्तं वि परेतन॥

“यह परम कल्याणमयी वधू यहां बैठी है. गुरुजनों तथा देवों, आप सब यहां आयें, वधू को कृपादृष्टि से देखें तथा उसे सौभाग्यसूचक आशीर्वाद देकर अपने-अपने स्थान को पधारें.”

नृप सब भाँति सबहि सनमानी।
कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं।
राखेहु नयन पलक की नाई॥

“राजा दशरथ ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर तीनों रानियों को बुलाया और कहा- बहुयें पराये घर आई हैं. इन चारों को इस प्रकार से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना).”

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:
स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते
स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति:॥
(अ.११।६)

समस्त विद्या और सब स्त्रियां देवी का ही रूप हैं. सभी ग्राम्य देवियां और समस्त विश्वस्थिता स्त्रियां प्रकृति माता की अंशरूपिणी हैं. शास्त्रों में नारी की निंदा कहीं नहीं है. दुष्ट, अधर्मी और कामी की निंदा है, फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री.

स्त्रियों के लिए कहा गया है कि वे स्वयं को केवल कामवासना की तृप्ति का साधन न बनने दें. पुत्री, बहन, माता, गृहिणी एवं पति की मित्र के तौर पर अपने गौरव की रक्षा करें.

“हे वधू! अपने पति के परिवार की रानी बनो और सभी की प्रबंधक बनो.” (अथर्ववेद -१४.१.२०)

“हे वधू! ऐश्वर्य की अटूट नाव पर चढ़कर अपने पति को सफलता के तट पर ले चलो.” (अथर्ववेद २.३६.५)

“सुनिश्चित करें कि स्त्रियां कभी दुःख से रोएं नहीं. उन्हें सभी बीमारियों से मुक्त रखें और उन्हें पहनने के लिए सुन्दर वस्त्र और आभूषण दें.” (अथर्ववेद १२.२.३१)

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥

पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोग इस श्लोक का यह अर्थ निकालते हैं कि नारी को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए. और इस अर्थ के आधार पर वे यह कुप्रचार करते रहते हैं कि हिन्दुओं ने नारी के अधिकारों और स्वतंत्रता की हत्या की है. जबकि इस श्लोक के द्वारा नारी की रक्षा का उत्तरदायित्व उसके पिता, भाई, पति और पुत्र पर डाला गया है. रक्षण परतंत्रता या बंधन नहीं होता, वरन यह समाज में उपस्थित मानव के भेष में घूम रहे राक्षसों से रक्षा का विमर्श और कवच होता है. बाल्यकाल में पिता, युवावस्था में भाई और पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करे. वीर पुरुष इसे अपने ऊपर भार नहीं समझते, बल्कि नारी की रक्षा को वे अपना कर्तव्य समझते हैं. यह श्लोक कहता है कि मानव समाज को नारी का आदर तथा उसकी रक्षा करनी चाहिए.

महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं-

भर्तृभ्रातृपितृज्ञाति श्वश्रूश्वशुरदेवरैः।
बन्धुभिश्च स्त्रियः पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः॥
(याज्ञवल्क्यस्मृतिः १.८२)

“पति, भ्राता, पिता, कुटुम्बी, सास, ससुर, देवर, बंधु-बान्धव- इस प्रकार स्त्रियों के सभी सम्बन्धियों का कर्तव्य है कि वे उसका सभी प्रकार से सम्मान करें.”

भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं ही कहते ही हैं कि ‘पुरुष होने की पहली शर्त है नारी का सम्मान’. जो पुरुष विपत्ति में पड़ी स्त्री की आतताइयों से रक्षा करता है, उससे बढ़कर पुण्यात्मा पुरुष कोई नहीं. स्त्री की रक्षा करने वाला पुरुष अपने धर्म की रक्षा करता है. हम अपने इतिहास में जितने भी वीर पुरुषों के बारे में पढ़ते हैं, जैसे महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, छत्रसाल आदि… उन सभी ने भी यही धर्म निभाया है.

न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।

घर को घर नहीं कहते. जहां गृहिणी रहती है, वही घर कहलाता है. भारतीय नारी विकट परिस्थितियों में भी परिवार को एकजुट रखती है. नारी की सक्रिय भूमिका के संकुचित होने के दुष्प्रभाव केवल नारी जाति तक ही सीमित नहीं रह जाते, वे समस्त मानव मात्र को समान रूप से प्रभावित करते हैं. बिना नारी के सक्रिय सहयोग के गृहस्थ व मुनिधर्म दोनों में से किसी का भी निर्वाह नहीं हो सकता है.

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स्त्री का अनादर नहीं

दरअसल, शास्त्रों का गलत अर्थ निकालकर उनकी निंदा वे लोग करना चाहते हैं जिन्हें अश्लीलता ही पसंद है. जैसे आज पूरा सोशल मीडिया भाभी-देवर और जीजा-साली के अश्लील पोस्टों से भरा पड़ा है. वहीं, श्री लक्ष्मण जी का यह वाक्य देखिये-

एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले॥
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।

(जब सुग्रीव जी श्रीराम को सीता जी के आभूषण दिखाते हैं, तब श्रीराम उन सभी आभूषणों को पहचान जाते हैं और लक्ष्मण जी को भी दिखाते हैं, तब लक्ष्मण जी रोते हुए कहते हैं) “भैया! मैं इन बाजूबंदों को तो नहीं जानता और न ही इन कुण्डलों को ही पहचान पाता हूं कि ये किसके हैं, परंतु प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करने के कारण मैं इन नूपुरों को अवश्य पहचानता हूं. ये वही हैं जो मेरी माता सीता के चरणों की शोभा बढ़ाते थे.” (वाल्मीकि रामायण – किष्किन्धाकाण्ड)

भगवान श्रीराम बालि से कहते हैं, “छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और बेटी- ये चारों समान हैं. और जो कोई भी इन्हें बुरी नजर से देखता है, वह अधर्मी है.”

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सीता जी का हरण कर ले जा रहे रावण से जटायु कहते हैं-

“कोई भी राजा भला पराई स्त्री का स्पर्श कैसे कर सकता है? महाबली रावण! राजाओं को तो सभी स्त्रियों की विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए. पराई स्त्री के स्पर्श से जो नीच गति प्राप्त होती है, उसे अपने आप से दूर हटा दो. जैसे पराये पुरुषों से अपनी पत्नी की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की स्त्रियों की भी रक्षा करनी चाहिए.”

पूरी रामायण पढ़ लीजिए. श्रीराम ने किसी भी ऐसे व्यक्ति का पक्ष या साथ कभी नहीं दिया जिसकी मानसिकता स्त्रियों के लिए अच्छी न हो. बाली सुग्रीव से अधिक शक्तिशाली था और रावण को अकेले ही हरा सकता था. बाली ने सुग्रीव को केवल राज्य से निकाला होता तो कोई बात नहीं थी, पर उसने सुग्रीव की पत्नी के साथ जो किया, उस कारण श्रीराम ने उसका पक्ष कभी नहीं लिया, अपने युद्ध में उसका साथ नहीं लेना चाहा, उसे अधर्मी ही माना.

रावण कितना ही बड़ा शिवभक्त क्यों न हो, कितना ही ज्ञानी, तेजस्वी और शक्तिशाली क्यों न हो, पर स्त्रियों के प्रति उसकी जैसी मानसिकता थी, उसके कारण उसे भगवान शिव की भी कृपा नहीं मिल सकी. हमारी परम्परा में रावण की छवि एक ऐसे शक्तिशाली, बलिष्ठ और ज्ञानी पुरुष की है, जो अपने अधर्म के कारण पतन को प्राप्त हुआ. रावण के रूप में धर्मज्ञान यह है कि यदि आचरण में धर्म न हो, स्त्रियों के प्रति सम्मान न हो, तो हमारा ज्ञान, कुलवंश, शक्ति, ऐश्वर्य सब महत्वहीन हैं.

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प्राचीन भारत में स्त्री-शिक्षा (Women’s Education in Ancient India)

कुछ लोग हमसे यह सवाल पूछते हैं कि क्या प्राचीन भारत में या वैदिक काल में साधारण स्त्रियों के लिए शिक्षा का प्रावधान था?

माता कैकेयी राजा दशरथ के साथ युद्ध में गई थीं और कुशलतापूर्वक लड़ी थीं, क्या यह बिना शिक्षा और समानता के संभव है? राजा जनक की सभा में गार्गी का महर्षि याग्यवल्क्य से शास्त्रार्थ, क्या यह बिना शिक्षा और समानता के संभव है? सीता जी वैदिक विधि से पूजा-अनुष्ठान करती थीं (वाल्मीकी रामायण ५.१५.४८), क्या यह बिना वेदों की शिक्षा के संभव है? माता कौशल्या मंत्र-पाठ पूजन और अग्निहोत्र करती थीं.

स्त्रियाँ यदि दर्शन, तर्क, मीमांसा, साहित्य तथा विभिन्न विषयों की ज्ञाता न होतीं तो क्या वे वेदों की अनेक ऋचाओं की रचयिता हो पातीं? महाभारत में काशकृत्स्नी नाम की के विदुषी का उल्लेख है जिन्होंने मीमांसा दर्शन पर काशकृत्स्नी नाम के ग्रंथ की रचना की है.

जिस डाली पर बैठा उसी को काटने वाला व्यक्ति क्या कभी कालिदास बन सकता था, यदि उसके जीवन में विद्योत्तमा न होतीं? अपने समय के दो उद्भट विद्वानों शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ की निर्णायक को हम कितना जानते हैं? वह स्त्री ही थीं, इस शास्त्रार्थ के एक प्रतिभागी मण्डन मिश्र की पत्नी भारती. क्या निर्णायक कमतर विद्वान होता है?

ऋग्वेद में वैदिक विदुषियों का उल्लेख किया गया है जिन्होंने श्लोकों की भी रचनायें की हैं-
सूर्यासावित्री, घोषा काक्षीवती, सिकता निवावरी, इंद्राणी, यमी वैवस्वती, दक्षिणा प्रजापात्या, अदिति, वाक आम्मृणी, अपाला आत्रेयी, लोपामुद्रा, जुहू ब्र्म्हजायो, अगस्त्यस्वसा, विश्ववारा आत्रेयी, उवर्वी, सरमा देवशुनी, देवजामय: इंद्रमातर:, श्रद्धा कामायनी, नदी, सर्पराज्ञी, गोधा, शस्वती आंगिरसी, वसुक्रपत्नी, रोमशा ब्रम्हवादिनी.

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प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक श्री राजीव रंजन प्रसाद जी लिखते हैं-

अथर्ववेद की श्लोक रचयिता विदूषियाँ- सूर्यासावित्री, मातृनामा, इंद्राणी, देवजामय सर्पराज्ञी. इसी प्रकार उपनिषदों में भी मैत्रेयी एवं गार्गी जैसी विदुषियों का उल्लेख प्राप्त होता है. हारीत संहिता बताती है कि वैदिक समय में स्त्रीशिक्षा सहज प्रक्रिया थी. प्रमुखत: दो प्रकार की छात्रायें होती थीं- सद्योवधू (वे विवाह होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त कर लेती थीं) तथा ब्रम्हवादिनी (ब्रम्हचर्य का पालन करने वाली ये छात्रायें जीवनपर्यंत ज्ञानार्जन करती थीं).

शिक्षा ही नहीं, अनेक विदूषियाँ शिक्षिकाओं के दायित्व का भी निर्वहन करती थीं. आश्वालायन गृहसूत्र में गार्गी, मैत्रेयी, वाचक्नवी, सुलभा, वडवा, प्रातिथेयी आदि शिक्षिकाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं. शिक्षिका का जीवन व्यतीत करने वाली स्त्रियों के लिये उपाध्याया सम्बोधन प्राप्त होते हैं. इतना ही नहीं, पाणिनी ने विशेष रूप से शाला छात्राओं (छात्र्यादय: शालायाम) के भी होने का उल्लेख किया है.

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेखित है कि स्त्रियाँ वेद, दर्शन, मीमांसा आदि के अतिरिक्त नृत्य, संगीत, चित्रकला आदि की शिक्षा भी ग्रहण करती थीं. यही नहीं, जैन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि स्त्रियों को व्यावहारिक एवं लिखित रूप से शिक्षा प्रदान की जाती थी. समय बदलता रहा, बिगड़ता भी रहा, लेकिन मध्यकाल के कुछ पहले तक स्त्री शिक्षा के बहुत ही रुचिकर और उल्लेखनीय उदाहरण देखने को मिलते हैं.

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बारहवीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावती को गणित का अध्ययन कराने के लिये ‘लीलावती ग्रंथ’ की रचना की थी. परमार शासक उदयादित्य के झरापाटन अभिलेख में भी हर्षुका नाम की विदूषी का उल्लेख मिलता है.

आज अतिपिछड़ा कहे जाने वाले बस्तर क्षेत्र में नाग-शासकों के एक अभिलेख में विदूषी राजकुमारी मासकदेवी की जानकारी प्राप्त होती है जो किसानों के हित के लिये राज्यनियम परिवर्तित करवाती हैं.

महाकाव्य पृथ्वीराज रासो बताता है कि राजकुमारी संयोगिता न केवल विदूषी थीं बल्कि उन्होंने मदना नाम की शिक्षिका द्वारा संचालित कन्यागुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी. उनकी लगभग 500 सहपाठिनें विभिन्न राज्यों से आयी राजकुमारियाँ थीं.

यह अलग विषय है कि स्त्री-शिक्षा की परिपाटी कैसे खण्डित हुई अथवा इतिहास का मध्यकाल हमें कब और क्यों प्रगतिपथ से अलग कर पगडंडी पकड़ा देता है. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को पुराने पन्ने पलटने ही होंगे, साम्राज्यवादी ब्रिटेन की नकल करती अब भी संचालित हमारी अध्ययन-अध्यापन परिपाटी में मौलिकता कम है और शोर अधिक.

प्रश्न यह भी है कि स्त्री-असमानता और पिछड़ेपन के विचारधारापोषित बीन के पीछे बहुत ही भीनी बांसुरी भी निरंतर बज रही है, हम उसे क्यों सुनना नहीं चाहते? माना कि अंधेरे बहुत हैं, माना कि कड़वी सच्चाईयाँ और भी हैं, लेकिन उजाले की एक नदी कहीं जम गयी है, हम उसे क्यों पिघलाना नहीं चाहते?

क्या हमारा अतीत महिलाओं की शिक्षा के दृष्टिगत अत्यधिक निष्ठुर था अथवा वर्तमान की व्याख्या गहरे पानी में नहीं उतरतीं? तो क्या स्त्री शिक्षा की वर्तमान कसौटियों में वास्तविकतायें नहीं अपितु विचारधारायें कसी गयी हैं?

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आदर्श नारियां

शास्त्रों में सती-साध्वी नारियों की बड़ी महिमा गाई गई है. सती-साध्वी नारी में अपरिमित शक्ति होती है (‘सती नारी’ का अर्थ सीता-सावित्री जैसी नारियां हैं). सती का संकल्प अमोघ है. जो अपने धर्म की रक्षा करता है, ईश्वर, धर्म, देवता और संपूर्ण विश्व उसकी रक्षा करते हैं. रक्षा अपने मन की करनी चाहिए. यदि मन सुरक्षित है तो मृत्यु भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.

हम देवियों की बात न करके उन साधारण नारियों की बात करें, जिन्होंने असाधारण कार्य करके युगों-युगों के लिए सबके समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत कर दिया है, तो सावित्री जी ने अपने पातिव्रत्य बल से सत्यवान को यमराज से छुड़ा लिया था, सुकन्या ने अपने पातिव्रत्य बल से ऋषि च्यवन को फिर से युवा और सुंदर बना दिया था.

अनसूया के सामने तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की माया भी न चली. तीनों को शिशु बनना पड़ा. सती नारी के भय से सूर्य को भी रुक जाना पड़ा. शास्त्रों में अनगिनत कथाएं हैं. आधुनिक युग में भी देखें तो उत्तर से दक्षिण तक पूरे भारतवर्ष का इतिहास, वीर और महान नारियों की गौरव गाथा से भरा पड़ा है. रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, अहिल्याबाई, दुर्गाबाई, कर्माबाई, मीराबाई, रानी चेन्नम्मा, जीजाबाई, जयवंताबाई, अजबदे आदि अनगिनत वीर और महान नारियां हमारी आदर्श हैं.

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