जब हनुमान जी और रावण का हुआ आमना-सामना, हनुमान जी ने कैसे जलाई सोने की लंका?

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Hanuman ji ne Lanka Jalai (Lanka Dahan Ramayan)

जब हनुमान जी सीता जी का पता लगाने के लिए लंका में आते हैं, तब उनका युद्ध रावण के प्रिय पुत्र मेघनाद के साथ भी होता है. जब मेघनाद हनुमान जी से जीतने में स्वयं को असमर्थ महसूस करता है, तब वह हनुमान जी को सीधे ब्रह्मास्त्र से बाँध देता है. चूंकि कोई भी शक्ति हनुमान जी को नहीं बाँध सकती, लेकिन हनुमान जी ब्रह्मास्त्र का मान रखने के लिए चुपचाप बंध जाते हैं, साथ ही वे यह भी सोचते हैं कि इस बहाने रावण से मिलने और उससे बात करने का अवसर अपने-आप ही मिल जाएगा.

हनुमान जी तिरस्कार के साथ रावण के सामने लाए जाते हैं. बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और तमाशा देखने के लिए सभा में आ गए. हनुमान जी ने देखा कि भयभीत देवता और दिक्पाल सब हाथ जोड़े रावण की भौं ताक रहे थे. हनुमान जी रावण का वैभव और उसका तेज देखकर सोचने लगते हैं-

“अहो! कैसा आश्चर्यजनक तेज है इस राक्षस का. यदि इसमें अधर्म न होता, यदि इसने लोकनिन्दित क्रूरतापूर्ण निष्ठुर कर्म न किए होते, तो यह सम्पूर्ण देवलोक का संरक्षक बन सकता था.”

और इसी प्रकार, हनुमान जी को देखकर रावण का हृदय भी आशंकाओं से बैठ गया. वह सोचने लगा-

“कैसा अद्भुत तेज है इस वानर में. यह वानर जैसा दिखाई तो देता है, पर इतना तेज… क्या वानर के रूप में साक्षात् भगवान नंदी ही यहां आ गए हैं?”

रावण क्रोध से लाल होकर हनुमान जी से उनका परिचय और लंका में आने का उद्देश्य पूछता है. हनुमान जी अपना पूरा परिचय देते हुए बताते हैं कि वे श्रीराम के दूत हैं और माता सीता की खोज में यहां आए हैं. हनुमान जी रावण को श्रीराम और सीता जी का असली रहस्य बताते हुए, उनकी शक्तियों और प्रभाव के बारे में भी बताते हैं.

हनुमान जी ने रावण को दी यह सलाह

हनुमान जी रावण को विनम्रतापूर्वक यह सलाह भी देते हैं कि-

“हे राजन! आपने भारी तपस्या करके ऐसा अद्भुत ऐश्वर्य और महान शक्तियां प्राप्त की हैं, उनका विनाश करवाना उचित नहीं है. श्रीराम को क्रोध दिलाकर आज तक कोई सुखी नहीं रह पाया है. तीनों लोकों की कोई भी शक्ति श्रीराम पर विजय नहीं पा सकती. माता सीता राक्षसों के लिए काल का रूप धारण करके आई हैं. श्रीराम से शत्रुता लेने वाले को कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती. इसलिए माता जानकी को सम्मान सहित वापस भेज देने में ही आपकी और सभी राक्षसों की भलाई है. आप जैसे बुद्धिमान पुरुषों को ऐसा अधर्म शोभा नहीं देता, इसलिए मेरी सलाह मान लीजिये.”

पर अपने अहंकार में डूबे हुए रावण को हनुमान जी की सलाह अच्छी न लगी, बल्कि उसका क्रोध और भी बढ़ गया. वह बोला, “अधम! मुझे शिक्षा देने चला है? तू जानता भी है मुझे? लगता है तेरी मृत्यु निकट आ गई है… वध कर दो इस चपल वानर का.”

रावण हनुमान जी का वध करने का आदेश दे देता है. तब विभीषण सहित बाकी सभासद रावण को यह सलाह देते हैं कि-

“महाराज! दूत को मारना उचित नहीं, क्योंकि दूत सदा अपने स्वामी के अधीन होता है और अपने स्वामी के ही हित की बात करता है, अतः वह वध योग्य नहीं होता. साथ ही दूत को मार देने से उसके स्वामी का भेद जानना भी कठिन हो जाएगा. इसका वध करने में हमारा कोई लाभ नहीं. जिसने इसे भेजा है, उन्हें ही प्राण दण्ड दिया जाए, अतः इसे कोई और दण्ड देकर इसे इसके स्वामी के पास चुनौती के रूप में भेज देना चाहिए.”

रावण को यह सलाह अच्छी लगी. वह हनुमान जी का उपहास करते हुए कहता है-

“बंदरों को अपनी पूँछ से बड़ी ममता होती है. अतः तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर आग लगा दो. पूँछ में आग लगाकर इसे सड़कों-चौराहों सहित पूरे नगर में भी घुमाओ, ताकि जली पूँछ वाला वानर देखकर सबका मनोरंजन हो. जब बिना पूँछ का यह बंदर अपने स्वामी के पास जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा, जिनकी इसने बड़ी प्रशंसा की है. जरा मैं भी तो देखूँ उनकी प्रभुता (सामर्थ्य).”

रावण का आदेश सुनकर हनुमान जी ने किया यह विचार

यह सुनकर हनुमान जी मन ही मन मुस्कुराते हैं और सोचते हैं कि, “लंका में मेरा अब ऐसा कौन सा कार्य बाकी रह गया, जो मेरे साथ ऐसा होने जा रहा है. लगता है कि अब इस दुर्ग (किले) का विध्वंस करना ही शेष रह गया, इसीलिए अवश्य ही मां सरस्वतीजी ने इसे ऐसी बुद्धि दी होगी.”

और फिर जब तक पूँछ में आग नहीं लग जाती, तब तक अनेक प्रकार से अपमान होने पर भी हनुमान जी कुछ नहीं बोलते. हनुमान जी की पूँछ में तेल-घी से भीगा हुआ कपड़ा लपेटा जाता है. नगरवासी तमाशा देखने आ गए. वे हनुमानजी को पैरों से ठोकर मारते और उनकी हँसी उड़ाते. ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं.

यह सब देखकर हनुमान जी का हृदय रोष से भर गया, पर वे कुछ नहीं बोले और मुस्कुराते रहे. उन्होंने किसी को अपमान करने से नहीं रोका. हनुमानजी को नगर-चौराहों में घुमाकर उनकी पूँछ में आग लगा दी जाती है. पूँछ में आग लगते ही हनुमान जी अपने बंधनों को खोलकर सोने की अटारियों पर चढ़ जाते हैं… और फिर क्या हुआ, वह तो सब जानते ही हैं. महाबली वीरवर हनुमान जी प्रलयकाल के मेघों की तरह भयानक गर्जना करने लगे.

भयंकर गर्जना करते हुए हनुमान जी ने जलाई लंका

हनुमान जी के क्रोध-बल से अभिभूत हुई वह नगरी (रावण के महल और विभीषण सहित कुछ घरों को छोड़कर) आग की ज्वालाओं से घिर गई. वायु उस अग्नि को सभी घरों में फैलाने लगी. आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही थीं. सोने, मोतियों, मणियों से बने और रत्नों से सजे ऊंचे-ऊंचे प्रासाद और भवन के फाटक फट-फटकर गिरने लगे.

स्वर्ण सहित सभी प्रकार की धातुएं पिघल-पिघलकर बही जा रही थीं. नाना प्रकार के धड़ाकों के शब्द बिजली की कड़क को भी मात दे रहे थे. नगर में सब बेहाल हो गए. सब ‘हाय-हाय-बचाओ-बचाओ’ चिल्लाते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे. हनुमान जी ने नगर की सभी बहुमूल्य संपत्ति और अस्त्र-शस्त्र नष्ट कर डाले. उनका क्रोध बढ़ा हुआ था.

उस समय हनुमान जी कालाग्नि के समान प्रतीत हो रहे थे, जिन्हें देखकर सब भय से थर्रा उठे. चारों ओर यही पुकार सुनाई पड़ रही थी, “हाय! अपने राजा के किए का दंड हम सबको भुगतना पड़ रहा है. हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई और ही है. यह साक्षात काल ही तो नहीं आ गया? या भगवान विष्णु ही तो वानर का रूप धारणकर राक्षसों का वध करने नहीं आ गए? हमें छोड़ दो, हमें क्षमा कर दो, हम शपथ लेते हैं कि आज के बाद से हम वानर के चित्र से भी दूर रहेंगे.”

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