Ramayan : जब श्रीराम पूछते हैं- ‘माँ! क्या अनजाने में मुझसे कोई अपराध हो गया है…?’

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Ramayan

Shri Ram Vanvas Katha

राजा दशरथ माता कैकेयी से कहते हैं कि, “मैं अपने सत्कर्मों और राम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उसे पूर्ण करूंगा, फिर चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें.”

तब माता कैकेयी राजा दशरथ जी से अपने दो वर मांग लेती हैं. वे कहती हैं-

“महाराज! मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक, और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं आपसे हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए. तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें. हे नरश्रेष्ठ! आप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं आज ही राम को वन की ओर जाते हुए देखूं.”

माता कैकेयी के ऐसे वचन सुनकर महाराज दशरथ के हृदय में ऐसा शोक हुआ, उनसे कुछ कहते ही न बना मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो. पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि क्या यह सब सच में हो रहा है? फिर वे स्वयं को संभालते हुए माता कैकेयी से कहते हैं-

“देवी! राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है. मैं ही अपने मन में बड़े-छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था. मुझे भरत का राज्याभिषेक स्वीकार है, पर राम को वनवास क्यों? राम ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? राम तो तुम्हारी सेवा भरत से भी अधिक करता है और तुम भी सबसे अधिक प्रेम राम से ही करती आई हो. तुम्हारी दृष्टि में तो राम और भरत दोनों ही समान थे, फिर आज ऐसा क्यों?”

लेकिन माता कैकेयी एक नहीं सुनतीं और कहती हैं-

“मेरा वचन सुनते ही आपको बाण सा लगा तो आप सोच-समझकर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिए, हाँ कीजिए, नहीं तो ना ही कर दीजिए. आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा करने में प्रसिद्ध हैं! आपने ही सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था. अब भले ही न दीजिए. सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए. मैं राम को आज ही वन की ओर जाते हुए देखना चाहती हूँ, नहीं तो विषपान कर अपने प्राण त्याग दूँगी.”

राजा दशरथ व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, उनका कंठ सूख गया, मुख से बात नहीं निकलती. कुछ देर बाद श्रीराम कक्ष में प्रवेश करते हैं.

श्रीराम ने पिता को माता कैकेयी के साथ एक सुंदर आसन पर बैठे हुए देखा. राजा दशरथ विषाद में डूबे हुए थे. उनका मुंह सूख गया था. निकट पहुंचने पर श्रीराम ने विनीत भाग से पहले अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उसके बाद उन्होंने माता कैकेयी के चरणों में मस्तक झुकाया.

उस समय दीन दशा में पड़े हुए राजा दशरथ एक बार “राम” कहकर चुप हो गए. इससे आगे उनसे बोला नहीं गया. उनके नेत्रों में आंसू भर आए. अतः वे श्रीराम की ओर न तो देख सके और न ही उनसे कोई बात कर सके. राजा दशरथ का ऐसा अभूतपूर्व रूप देखकर श्रीराम को भी भय लगा. वे देखते हैं कि राजा की इंद्रियों में प्रसन्नता नहीं थी. वे शोक और संताप में डूबे हुए थे, बारंबार लंबी सांसे भरते थे और मन में बड़ी व्याकुलता थी.

राजा के इस शोक का क्या कारण है, यह सोचते हुए श्रीराम अत्यंत चिंता में आ गये. श्रीराम सोचने लगे कि “आज ऐसी क्या बात हो गई, जिससे पिताजी मुझसे प्रसन्न होकर बोल नहीं रहे हैं. इससे पहले तो यदि पिताजी कभी कुपित भी होते थे, तो भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाते थे, तो आज मेरी और देखकर भी इन्हें प्रसन्नता क्यों नहीं हो रही है?” यह सोचकर श्रीराम का मन व्याकुलता से भर उठा. वे माता कैकयी को प्रणाम करके उन्हीं से पूछने लगे-

“माँ! क्या मुझसे अनजाने में कोई अपराध हो गया है, जिससे पिताजी आज मुझसे नाराज हो गए हैं? कृपया आप ही मुझे बताइये न और आप ही इन्हें मना दो. ये तो सदा मुझसे प्रेम करते थे, तो आज इनका मन प्रसन्न क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? देखता हूं कि ये तो आज मुझसे बोलते तक नहीं. इनके मुख पर विषाद छा रहा है और ये अत्यंत दुखी हो रहे हैं. माँ! पिताजी को कोई शारीरिक व्याधिजनित संताप अथवा मानसिक चिंता तो पीड़ित नहीं कर रही है या किसी के साथ कुछ अमंगल तो नहीं हुआ है?”

“पिताजी को असंतुष्ट करके अथवा उनकी आज्ञा न मानकर इन्हें क्रोधित अथवा निराश करके मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रहना चाहूंगा. मनुष्य जिसके कारण इस जगत में अपना (जन्म) देखता है, उस प्रत्यक्ष देवता पिता के जीते-जी वह उसके अनुकूल बर्ताव क्यों न करेगा? माँ! कहीं आपने ही तो पिताजी से कोई कठोर बात नहीं कह दी, जिससे उनका मन दुखी हो गया है. बताओ न माँ! किस कारण से पिताजी के मन में आज इतना संताप है. पिताजी की ऐसी अवस्था तो मैंने पहले कभी नहीं देखी.”

श्रीराम के इस प्रकार बार-बार पूछने पर माता कैकेयी इस प्रकार बोलीं-

“राम! महाराज तुमसे कुपित नहीं हैं और न ही इन्हें कोई कष्ट हुआ है. दरअसल, इनके मन में ऐसी बात है जिसे ये तुम्हारे डर से कह नहीं पा रहे हैं, क्योंकि तुम इनके प्रिय हो. ये तुमसे कोई भी अप्रिय बात नहीं कहना चाहते, परंतु इन्होने जिस कार्य के लिए मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिए.”

“इन्होंने पहले तो मेरा सत्कार करते हुए मुझे मुंहमांगा वरदान दिया और अब ये अज्ञानी मनुष्य की भांति उसके लिए पश्चाताप कर रहे हैं. इन्होंने पहले “मैं दूंगा” ऐसी प्रतिज्ञा करके मुझे दो वर दे चुके थे, और अब उसके निवारण के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं. पानी निकल जाने के बाद उसे रोकने के लिए बांध बांधने की निरर्थक चेष्टा कर रहे हैं.”

“राम! सत्य ही धर्म की जड़ है, यह सत्पुरुषों का भी निश्चय है. कहीं ऐसा न हो कि ये महाराज तुम्हारे कारण मुझ पर कुपित होकर अपने उस सत्य को ही छोड़ बैठें. जैसे भी इनके सत्य का पालन हो, वैसा तुम्हें अवश्य करना चाहिए. राम! तुम पहले निश्चय कर लो, महाराज तुमसे जिस बात को कहना चाहते हैं, वह शुभ हो या अशुभ, यदि तुम सर्वथा उसका पालन कर सको, तो मैं सारी बात तुमसे कहूं. यदि तुम प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सको, तो मैं तुम्हें सब कुछ खोलकर बता दूंगी, क्योंकि ये तो तुमसे स्वयं कुछ नहीं कहेंगे.”

माता कैकई की कही हुई बात सुनकर श्रीराम के मन में बड़ी व्यथा हुई. उन्होंने माता कैकई से कहा-

“माता! आप तो अपने राम को जानती ही हो. आपको मेरे प्रति ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए. मैं महाराज के कहने से अग्नि में भी कूद सकता हूं, तीव्र विष ग्रहण कर सकता हूं और समुद्र में भी गिर सकता हूँ. महाराज मेरे पिता, गुरु और हितेषी हैं. मैं उनकी आज्ञा पाकर क्या नहीं कर सकता? इसलिए माता! मुझे पिताजी के दुःख का कारण कहो, ताकि मैं उसका निवारण कर सकूं. महाराज को जो चाहिए, वह मुझे बताइए. मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि उसे पूर्ण अवश्य करूंगा. राम कभी दो तरह की बातें नहीं करता.”

श्रीराम के सरल स्वभाव और सत्यवादिता पर माता कैकई को भी पूरा विश्वास था. अतः उन्होंने अपने दो वर मांगने की पूरी बात श्रीराम को बता दी और बोलीं-

“राम! यदि तुम अपने पिता को सत्यप्रतिज्ञ बनाना चाहते हो और उनकी चिंता को दूर करना चाहते हो, तो मेरी बात ध्यान से सुनो. तुम पिता की आज्ञा के अधीन रहो. जैसी इन्होंने प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार तुम्हें 14 वर्षों के लिए वन में प्रवेश करना चाहिए. महाराज ने तुम्हारे लिए जो यह अभिषेक का सामान जुटाया है, उन सबके द्वारा यहां भरत का अभिषेक किया जाए और तुम इस अभिषेक को त्यागकर 14 वर्षों तक वन में रहते हुए जटा और वल्कल वस्त्र धारण करो.”

“बस इतनी ही बात है. ऐसा करने से तुम्हारे वियोग का कष्ट सहन करना पड़ेगा, यह सोचकर महाराज करुणा में डूब रहे हैं और तुम्हारी ओर देखने का साहस नहीं कर पा रहे हैं. इधर पुत्र का स्नेह है और उधर वचन पालन. राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं. यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य कर इनके कठिन क्लेश को मिटाओ. तुम महाराज की आज्ञा का पालन करो और इनके सत्य की रक्षा करके इन्हें संकट से उबार लो.”

ऐसा अप्रिय और कष्टदायक वचन सुनकर भी श्रीराम व्यथित नहीं हुए और उन्होंने माता कैकेई से कहा-

“अच्छा माँ! ऐसा ही होगा. मैं धन का उपासक होकर संसार में नहीं रहना चाहता. मुझ पर विश्वास रखो, मैं महाराज की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए जटा और वल्कल धारण करके वन में रहने के लिए अवश्य वहां चला जाऊंगा, परंतु मैं बस इतना जानना चाहता हूं कि दुर्जय (जिसे जीतना कठिन हो) तथा शत्रु का दमन करने वाले महाराज मुझसे पहले की तरह प्रसन्नतापूर्वक बात क्यों नहीं कर रहे? मेरे मन को एक ही दुख अधिक जला रहा है कि इतनी सी बात पिताजी ने मुझसे स्वयं क्यों नहीं कही?”

“माता! वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सब प्रकार से कल्याण ही है. उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और आपकी सम्मति. और मेरे प्राण प्रिय भरत का राज्याभिषेक होगा. इन सब बातों को देखकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि आज विधाता सब प्रकार से मेरे अनुकूल हैं. यदि ऐसे कार्य के लिए भी मैं वन को न जाऊँ तो मूर्खों के समाज में सबसे पहली गिनती मेरी करनी चाहिए. मां! आप मेरी ओर से विश्वास दिलाकर पिताजी को आश्वासन दीजिए. इतनी सी बात के लिए पिताजी इस प्रकार दुखी क्यों हो रहे हैं?”

“माता! मुझे केवल एक ही दुःख विशेष रूप से हो रहा है, महाराज को इतना व्याकुल देखकर. इस थोड़ी सी बात के लिए ही पिताजी को इतना भारी दुःख हो? माता! मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता. क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह सागर हैं. अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते. आपको मेरी सौगंध है, माता! आप मुझसे सच-सच बताओ.”

श्रीराम की बात सुनकर माता कैकयी बहुत प्रसन्न हुईं. उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीराम आज ही वन को अवश्य चले जाएंगे. अतः श्रीराम को शीघ्र जाने की प्रेरणा देते हुए वे बोलीं-

“तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है. राम! तुम्हारा विलम्ब करना मुझे ठीक नहीं लगता. जितना शीघ्र संभव हो, तुम्हें यहां से वन को चले जाना चाहिए. तुम्हारे पिता लज्जा के कारण तुमसे स्वयं कुछ नहीं कह रहे, परंतु यह कोई विचार करने योग्य बात नहीं है. तुम इनका दुख अपने मन से निकाल दो. राम! तुम जब तक अत्यंत उतावली के साथ इस नगर से वन को नहीं चले जाते, तब तक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे.”

माता कैकयी की बात सुनकर श्रीराम कहते हैं-

“माता! आपका मुझपर पूर्ण अधिकार है. मैं आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूं. फिर भी मैं आपसे भी इतना कहना चाहता हूं कि आपने स्वयं मुझसे न कहकर इस कार्य के लिए पिताजी से क्यों कहा? इन्हें कष्ट क्यों दिया? इससे ऐसा जान पड़ता है कि आप मुझमें कोई गुण नहीं देखती हैं. अच्छा! अब मैं माता कौशल्या से आज्ञा ले लूं और सीता को भी समझा-बुझा लूँ. इसके बाद मैं आज ही दंडकवन की यात्रा करूंगा. आप ऐसा प्रयत्न करना जिससे भरत इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें, क्योंकि यही सनातन धर्म है.”

इतने में राजा की मूर्छा दूर हुई, उन्होंने ‘राम, राम’ फिरकर करवट ली. श्रीराम ने उन्हें संभालकर बैठाया. उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली. शोक के वश होने के कारण राजा कुछ कह नहीं सके. तब श्रीराम उनकी चिंता को दूर करते हुए कहते हैं-

“पिताजी! इस अत्यंत तुच्छ बात के लिए आपने इतना दुःख पाया? मुझे किसी ने पहले यह बात क्यों नहीं बताई? आपको इस दशा में देखकर मैंने माता से पूछा. उनसे सारा प्रसंग सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई. पिताजी! इस मंगल के समय प्रेमवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए. आपकी आज्ञा का पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा.”

राजा दशरथ जी ने शोकवश कोई उत्तर नहीं दिया. श्रीराम महाराज दशरथ और माता कैकई के चरणों में प्रणाम करके उस भवन से निकल जाते हैं.

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि सारे राज्य और परिवार को छोड़कर श्रीराम वन को जाने वाले थे, फिर भी किसी ने भी उनके चित्त में किसी प्रकार का कोई विकार नहीं देखा. वे सबके सामने प्रसन्नता के साथ वन में जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, जिससे किसी को ऐसा न लगे कि श्रीराम को कष्ट पहुंचाया जा रहा है या श्रीराम दुखी हैं. अपने मन को वश में रखने वाले श्रीराम ने अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता नहीं छोड़ी, जिससे किसी को कोई चिंता न हो. वे पहले की भांति सभी लोगों का सम्मान करते हुए अपनी माता कौशल्या के पास गए और वहां भी अपने मुख पर कोई विकार प्रकट नहीं होने दिया.

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