Ancient Indian Caste System (1) : वर्ण और जाति में क्या अंतर है? सवर्ण, सूत आदि क्या हैं?

brahmin kshatriya vaishya shudra dalit kya hai, difference between varna and jati me antar indian caste system, जाति और वर्ण व्यवस्था में अंतर

Difference Between Varna and Jati

वर्ण क्या है- वर्ण शब्द ‘वृञ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘चयन करना’ या ‘वरण करना’.

यास्क मुनि निरुक्त में लिखते हैं-

‘वर्णो वृणोतेः’ (निरुक्त २.३)
अर्थात् – वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये.

वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतंत्रता दी गई है कि वह किसी भी वर्ण का चुनाव कर सकता है.

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्राह्मणाः पूर्वसृष्टा हि कर्मभिर्वर्णतां गताः॥
(महाभारत शान्तिपर्व १२.१८८.१०)

सारा मनुष्य जगत् एक ही ब्रह्म की सन्तान है. वर्णों में कोई भेद नहीं है. श्रीब्रह्मा जी के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले पूर्णतः ब्राह्मण ही था. मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ.

एक वर्णामिदं पूर्व विश्वमासीद युधिष्ठिर।
कर्मक्रिया विभेदेन चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितम्।
(महाभारत)

इस संसार में पहले एक ही वर्ण था. पीछे गुण और कर्म भेद के कारण चार वर्ण बने.

इत्येतैःकर्मभिर्व्यस्ताः द्विजा वर्णान्तरं गताः।
धर्मोयज्ञक्रिया तेषाँ नित्यंच प्रतिषिध्यते॥
(महाभारत शान्तिपर्व १८८.१४)

कार्य भेद के कारण ब्राह्मण ही पृथक-पृथक वर्णों के हो गये. इसलिए धर्म-कर्म और यज्ञ क्रिया उनके लिए भी विहित हैं और कभी निषेध नहीं किया गया है (अर्थात विद्या तथा धर्म कार्यों पर चारों वर्णों का अधिकार है).

जातिरिति च न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः।
न जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारप्रकल्पिता॥
(नीरालम्बोपनिषद १०)

(शरीर के) चर्म, रक्त, मांस, अस्थियों और आत्मा की कोई जाति नहीं होती है. उसकी (मानव, पशु-पक्षी आदि जाति की) प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त की गई है.

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः।
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः॥

“जन्म से प्रत्येक मनुष्य शूद्र, संस्कारों से द्विज, वेद के पठान-पाठन से विद्वान् और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण कहलाता है.”

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥
(भगवद गीता अध्याय १८ श्लोक ४१)

“हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा (जन्म से नहीं) विभक्त किये गये हैं.”

जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥
(मनुस्मृति १०.६५)

अर्थात् – जन्म से सभी शूद्र होते हैं. कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को. इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं.

ब्रह्मणस्तु समुत्पना: सर्वे ते किं नु ब्राह्मणा।
न वर्णतो न जनकाद् ब्राह्मतेज: प्रपध्यते॥
(शुक्रनीति १.३९)

संपूर्ण जीव ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण हो जाते हैं क्या? नहीं, क्योंकि ब्राह्मण-पिता से ब्रह्मतेज की प्राप्ति नहीं हो सकती है, अर्थात ब्राह्मण के घर जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है.

कर्मशीलगुणाः पूज्यास्तथा जातिकुले न हि।
न जात्या न कुलेनैव श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते।
(शुक्रनीति २.५५)

मनुष्य कर्मशीलता और गुणों से सम्मानीय और पूजनीय होता है, किसी विशेष जाति और कुल में जन्म लेने से नहीं. किसी भी जाति कुल में पैदा होने से कोई श्रेष्ठ नहीं होता है.

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते।
(स्कन्दपुराण नागरखण्ड २३९.३१)

प्रत्येक बालक चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो, जन्म से शूद्र ही होता है.

जब किसी मनुष्य का जन्म होता है तो वह गुणहीन और अशिक्षित होता है, इसलिए जन्म से प्रत्येक मनुष्य शूद्र ही होता है.

इसके बाद वह कैसे कर्म करता है, इसके आधार पर उसका वर्ण तय होता है. कोई शूद्र वेदपाठ करने या ज्ञान इकठ्ठा कर लेने मात्र से ब्राह्मणत्व को प्राप्त नहीं कर लेता है. ब्राह्मणत्व की प्राप्ति सदाचार से ही हो सकती है. सदाचारी मनुष्य यदि अज्ञानी भी हो तो भी वह शिक्षित और शिष्ट ही कहलाता है, वहीं दुष्ट मनुष्य यदि ज्ञानी भी हो तो भी वह अशिक्षित और अशिष्ट ही कहलाता है.

Read Also : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि क्या हैं?

भले ही कोई ब्राह्मण हो (ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर चुका हो), लेकिन यदि वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता है तो वह शूद्र (अशिक्षित) ही है (मनुस्मृति २.१२६).

न योनिनोपि संस्कारो न श्रुतंन च संततिः
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम्॥
सर्वोष्य त्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शुद्रो पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति॥
(महाभारत- अनुशासन पर्व १४३. ५०-५१)

भगवान शिव ने कहा है कि ‘ब्राह्मणत्व की प्राप्ति न तो जन्म से, न संस्कार से, न शास्त्रज्ञान से और न सन्तति के कारण हो सकती है. ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है. लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पदपर बना हुआ है. सदाचार में स्थिर रहने वाला शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है (अर्थात फिर वह शूद्र नहीं रह जाता है).’

इसीलिए रामद्रोही रावण ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद भी राक्षस कहलाया और तुलसीदास जी ने उसे शूद्र ही कहा है, जबकि उन्होंने रामभक्त जटायु, वानर आदि को भी विप्र कहा है. और इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है कि-

पूजहि विप्र ज्ञान-गुण हीना।
सूद्र न पूजहि वेद प्रवीणा।।

रामभक्त और रामद्रोही-

श्रीराम धर्म, मर्यादा और नीति के अवतार हैं. अतः जो कोई भी धर्म, मर्यादा, नीति आदि का उल्लंघन करता है, वह ‘रामद्रोही’ है और जो इनका अनुसरण करता है, वह ‘रामभक्त’ है.

भाविताः पूर्णजा तीषु कर्मभिश्चशुभाशुभैः॥ (वायुपुराण)

सृष्टि के आदिकाल में कर्मों के शुभ या अशुभ होने के अनुसार वर्ण बनाये गये थे.


सवर्ण क्या है- ‘सवर्ण’ का अर्थ है वर्ण-सहित. अर्थात् वर्णव्यवस्था के अंतर्गत चारों वर्ण सवर्ण हैं. ‘अवर्ण’ वह है जो चारों वर्णों से बाहर हो.

दस्यु वे लोग थे जो धर्म को नहीं मानते थे (अर्थात अधर्म करते थे).

दृश्यते मानुषेषु लोक सर्वे वर्णेषु दस्यवः।
(महाभारत शांतिपर्व ६५.२३)

अर्थात् – सभी वर्गों में और सभी आश्रमों में दस्यु पाये जाते हैं (अतः ‘दस्यु’ शब्द किसी वर्ण विशेष का नाम नहीं था).


जाति क्या है?

‘जाति’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘जनि’ धातु से हुई है.

आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या (न्याय दर्शन २.२.६५)
अर्थात् – जिन व्यक्तियों की आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है, उन सबकी एक जाति है.

वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं-

या समानां बुद्धिम प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु,यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते, योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्। यच्च केषाघिद भेदं कुतश्चिद्भेदं करोति तत् सामान्य विषा जातिरिति।

अर्थात् – भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समानता उत्पन्न करने वाली जाति है. इस जाति के आधार पर अनेक वस्तुयें आपस में पृथक् नहीं होती हैं अर्थात् एक ही नाम से बोली जाती हैं, जैसे गायें कितनी ही प्रकार की हों, तो भी सबको गाय ही कहते हैं.

वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात्।
ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात्॥
नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत्।
आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते॥
(महापुराण ७४.४९१-४९५)

मनुष्यों के शरीरों में न कोई आकृति भेद है और न ही गाय और घोड़े की भांति उनमें कोई जाति भेद है. आकृतिका भेद न होने से मनुष्य में जाति भेद की कल्पना व्यर्थ है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ऐसे जीवों के समूह को एक ‘जाति’ कहा जाता है जो एक-दूसरे के साथ संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हों, और जिनकी संतान स्वयं आगे संतान जनने की क्षमता रखती हो. उदाहरण के लिए, एक घोड़ी और बैल आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते, इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं.

समानप्रसवात्मिका जातिः (न्याय दर्शन २.२.१९)
अर्थात् – समान प्रसव हों, वह जाति कहलाती है.

जाति व्यवस्था ईश्वर द्वारा बनाई हुई है. हम सब मनुष्य जाति के हैं. इसी प्रकार घोड़े, गाय, बैल, कुत्ते इत्यादि की अलग-अलग जाति हैं.

शरीरस्य न संस्कारों जायते न च कर्मणः।
आत्मन: कारयेदीक्षामनादिकुलकुण्डलीम्‌॥
(कुलार्णव तंत्र १४.८१)

शरीर का न तो संस्कार होता है न उसकी कोई जाति होती है न कोई कर्म. आत्मा की ही दीक्षा होती है जो कि अनादि कुलकुंडली है.

गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थो5पि काकः कि गरुडायते॥
(चाणक्य नीति १७.६)

व्यक्ति को महत्ता उसके गुण प्रदान करते हैं, वह नहीं जिन पदों पर वह काम करता है. क्‍या एक ऊँचे भवन पर बैठे कौवे को गरुड़ कहा जा सकता है?

लंका का राजा रावण पुलस्त्य ऋषि के वंश में उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मणोपेत क्षत्रिय था. अन्यायी और दुराचारी होने के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया (वाल्मीकि-रामायण – बालकांड एवं उत्तरकांड)


इस प्रकार हम देख सकते हैं कि वैज्ञानिक आधार पर या शारीरिक आधार पर हम सब प्राणियों में जो असमानताएं हैं, उसे जाति कहते हैं. जो जिस जाति में उत्पन्न हुआ है, उसे बदला नहीं जा सकता है, क्योंकि वह प्रकृति प्रदत्त है. जैसे मनुष्य जाति, पशु जाति आदि. इसके बाद पुरुष जाति, नारी जाति, गाय की प्रजाति, घोड़े की प्रजाति, कुत्ते की प्रजाति आदि.

चूंकि शारीरिक आधार पर तो मनुष्य में कोई भेद नहीं है, लेकिन गुण, कर्म, रुचि, योग्यता, व्यवहार, आचरण, अच्छाई, बुराई आदि के आधार तो अनेक भेद हैं. यहां तक कि एक ही परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के जैसे नहीं होते. इन्हीं के आधार पर मनुष्य में कई भेद हैं, जिसे चार वर्णों में बाँट दिया गया है. ये प्रकृति प्रदत्त नहीं है, अतः इन्हें बदला जा सकता है.

वर्ण व्यवस्था में वर्णों का निर्धारण गुण, कर्म, योग्यता, आचरण आदि होते हैं. वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था जन्म पर आधारित है. वर्णव्यवस्था का निर्धारण मनुष्य के अपने कर्मों द्वारा होता है, अतः किसी भी कुल में उत्पन्न हुए बालक या बालिका या कोई भी व्यक्ति अपनी रुचि, गुण, कर्म और योग्यता के आधार पर किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का निर्धारण माता-पिता से होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य जाति को ग्रहण नहीं कर सकता है.


क्या शूद्रों के वेदपाठ करने या यज्ञादि करने पर रोक थी?

आज कई विद्वानों के भाष्य तथा कुछ शास्त्रों में ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है कि यदि शूद्र और स्त्री वेदाध्ययन करें तो उसे कठोर दंड दिया जाए, लेकिन यह सब प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि ये वेद विरोधी हैं. वेदों की कई ऋचाओं की रचना तो स्त्रियों ने ही की है, तो फिर स्त्रियों को वेदाध्ययन करने पर रोक कैसे?

मध्वाचार्य ने महाभाग करते हुए संकेत किया था कि शास्त्र वही है, जो वैदिक ग्रंथों से विरोधाभास न करें, और यदि कोई करता है तो उस भाग को प्रक्षिप्त ही माना जाएगा.

ऋग्यजुःसामाथर्वाश्च भारतं पञ्चरात्रकम्।
मूलरामायणञ्चैव शास्त्रमित्याभिधीयते।
यच्चानुकूलमेतस्य तच्च शास्त्रं प्रकीर्तितम्॥
(ब्रह्मसूत्र १.१.३ पर मध्वाचार्य का भाष्य)

अर्थात् – श्रीमध्वाचार्य कहते हैं – “चारों वेदों, महाभारत, पञ्चरात्र तथा मूल वाल्मीकी रामायण को शास्त्र कहते हैं. जो इनके अनुकूल हों (अर्थात् जिनसे उक्त ग्रन्थों के अर्थों का विरोध न हो), उन्हें भी शास्त्र कहते हैं.”

श्रावयेच्चतुरोवर्णान् (महाभारत शांतिपर्व ३२७.४८)
अर्थात् – ‘चारों वर्णों को वेद पढ़ायें.’

धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।
इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥
(महाभारत शान्तिपर्व १८८.१५)

वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है. वेदवाणी चारों वर्ण वालों के लिए है.

चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति
(महाभारत वनपर्व १३४.११)

अर्थात् – ‘चारों वर्ण इस यज्ञ का संपादन कर रहे हैं.’

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥
पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥
(विष्णुपुराण 2.3.9, 21)

जम्बू द्वीप (भारतवर्ष) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं. उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है.

शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम्॥
(महाभारत शान्तिपर्व ६०.३८)

“हमने सुना है कि पैजवन नामक शूद्र ने ऐन्द्राग्नेय विधान से यज्ञ करके एक लाख दक्षिणा दी थीं.

आजकल यह जो खूब प्रचारित किया जाता है कि महाभारत के समय भारत में जाति व्यवस्था थी, द्रौपदी ने अपने स्वयंवर में कर्ण को ‘सूतपुत्र’ कहकर उसे अपमानित किया था, साथ ही उसे धनुष उठाने से मना कर दिया था, द्रोणाचार्य ने कर्ण को विद्या देने से मना कर दिया था, महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण द्रौपदी की हंसी थी, एकलव्य का अंगूठा वर्ण व्यवस्था के आधार पर कटवाया गया था… आदि विवादित विषय हैं, क्योंकि इन्हें लेकर अलग-अलग पांडुलिपियों में अलग-अलग तथ्य देखने को मिलते हैं.

सूत कौन थे?

क्या सूतों का समाज में सम्मान नहीं था? क्या सूतों को विद्या आदि का अधिकार नहीं था? इस बात की जानकारी तो महाभारत के आदिपर्व के प्रथम दो श्लोक ही दे देते हैं-

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको।
नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेः द्वादशवार्षिके सत्रे॥1॥
सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान्।
विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दनः॥2॥

महाभारत के आदिपर्व के पहले और दूसरे श्लोक में यह बताया गया है कि महाभारत की कथा नैमिषारण्य में हो रही है. उस अरण्य में 12 सालों तक लगातार चलने वाला एक ज्ञानसत्र चल रहा है. वहां कई ब्रह्मर्षि स्वाध्याय या वेदाध्ययन के बाद सुखपूर्वक बैठे हैं. तभी वहां ऋषि लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा पधारते हैं, जो सूतकुल को आनंदित करने वाले हैं. उनके आते ही सभी तपस्वी उन्हें घेर लेते हैं. सभी तपस्वी, सूतपुत्र उग्रश्रवा का अभिवादन स्वीकार कर, दिए गए आसन को ग्रहण कर बैठते हैं. फिर कुशलक्षेम के बाद वे सभी उग्रश्रवा से श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत की कथा सुनाने का आग्रह करते हैं, जिसे सुनने से पाप और भय का नाश होता है.

इन श्लोकों को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उस समय सूतों का कितना सम्मान था. भगवान श्रीकृष्ण भी तो सारथी बने थे अर्जुन के. भगवान श्रीराम की माता कैकयी भी देवासुर संग्राम में राजा दशरथ जी की सारथी बनी थीं. तो इस सभी तथ्यों को देखते हुए यह तो कहा ही नहीं जा सकता है कि उस समय समाज के इस वर्ग का सम्मान नहीं था और उन्हें अधिकार आदि से वंचित किया गया हो.


Read Also : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि क्या हैं?

Read Also : महाभारत का युद्ध कब हुआ था?

Read Also : सनातन धर्म से जुड़े तथ्य और सवाल-जवाब



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 268 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*