Ancient Indian Caste System (2) : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि क्या हैं?

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Brahmin Kshatriya Vaishya Shudra

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था 

जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥
(मनुस्मृति १०.६५)

अर्थात् – जन्म से सभी शूद्र होते हैं. कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को. इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं.

• अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए (मनुस्मृति ३.१०९).

मैत्रायणी संहिता में ब्राह्मण कुल के व्यक्ति से उसके माता-पिता का नाम पूछे जाने पर आपत्ति जताई गई है –

किं ब्राह्मणस्य पितरं किमु पृच्छसि मातरं।
श्रुतं चेदस्मिन् वेद्यं स पिता स पितामहः॥
(मैत्रायणी संहिता ४.८.१)

अर्थात्- ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य के माता-पिता का नाम क्यों पूछते हो? यदि उसमें श्रुत है तो वही उसका पिता है और वही पितामह है.

किं कुलेनोपदिष्टेन शीलमेवात्र कारणम्।
भवन्ति सुतरां स्फीताः सुक्षेत्रे कण्टकिद्रुमाः॥
(मृच्छकटिकम् ८.२९)

• कुल को बताने से क्या लाभ? (अनुचित कार्य को करने में) स्वभाव ही प्रमुख कारण होता है. उत्तम खेत में भी कांटेदार पौधे खूब विकसित होने लगते हैं.

• धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता- ये पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं. इनमें कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है (मनुस्मृति २. १३६).

• भले ही कोई ब्राह्मण हो (ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर चुका हो), लेकिन यदि वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता है तो वह शूद्र (अशिक्षित) ही है (मनुस्मृति २.१२६)

• शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए. अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या ग्रहण की जा सकती है और बुरे कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए (मनुस्मृति २.२३८).

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• शूद्र और वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराये (मनुस्मृति ३.११२).

• यदि कोई वृद्ध शूद्र सामने है तो धन, बंधु, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ठ विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए (मनुस्मृति २.१३७).

• वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है. यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है. सुशिक्षा (अच्छी शिक्षा) के बिना मनुष्य ‘मनुष्य’ नहीं बनता (मनुस्मृति २.१४८).

• अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले (वृद्ध), रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले- इनको सम्मान या अधिकार से वंचित न करें, क्योंकि ये किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं (मनुस्मृति ४.१४१).

जैसे- दासी पुत्र ऐलूष ऋषि जुआरी और चरित्रहीन थे, लेकिन बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक कल्याणकारी अविष्कार किये. ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९).

ऐतरेय ऋषि अपराधी के पुत्र थे, लेकिन उच्च कोटि के ब्राह्मण बने एवं उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की. ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण आवश्यक माना जाता है.

मातंग ऋषि चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने, वहीं ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना.

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥
(मनुस्मृति ८.३३७-३३८)

किसी गंभीर अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड, वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा और ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं.

आप यहाँ समझ सकते है कि शूद्र के लिए किसी भी अपराध के लिए सबसे कम दंड का विधान बनाया गया था क्योंकि वह शिक्षित नहीं है. शूद्र दंड का नहीं, बल्कि शिक्षा का अधिकारी है. इसी बात को तुलसीदास जी ने लिखा है-

ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

ढोल गलत ध्वनि निकाल रहा है तो उसकी गलती नहीं, बजाने वाले की गलती है.
गंवार यानी अज्ञानी सही कार्य न कर सके तो उसकी क्या गलती?
पशु तो पशु है ही.
शूद्र तो सीखने के पड़ाव में है, अतः उससे कोई गलती हो जाए तो उसकी नहीं, सिखाने वाले की गलती है.
नारी हर उम्र में किसी न किसी की रक्षा में रहती है, अतः उससे कोई गलती हो जाये तो वह दंड की नहीं, बल्कि शिक्षा की अधिकारी है.

एतदेव व्रतं कृत्स्नं षण्मासाञ् शूद्रहा चरेत्।
वृषभैकादशा वापि दद्याद्विप्राय गाः सिताः॥
(मनुस्मृति ११.१३०)

“यदि किसी शूद्र का वध हो जाये तो छः मास पर्यन्त शूद्र-हत्या का प्रायश्चित करे और बैल, दस गौ ब्राह्मण को (जो ब्राह्मणत्व प्राप्त कर चुके हैं और सदाचारी हैं) दें.”

अतः शूद्रहत्या में ब्राह्मण-हत्या जैसा ही प्रायश्चित करने का विधान था.


जिसे शिक्षा से भी विद्या न आई हो, भला वह अपनी जीविका किस प्रकार चलाएगा? बिना ज्ञान के वह कौन सा कार्य करेगा?

विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥
(मनुस्मृति ९.३३४)

“वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी (लाभदायक) कर्त्तव्य है.”

यहां सेवाकार्य का अर्थ गुलामी करने या दासता से नहीं है, बल्कि जो मनुष्य वैश्यत्व या क्षत्रियत्व या ब्राह्मणत्व प्राप्त कर चुके हैं, उनके यहां नौकरी करने से है, ताकि शूद्र में भी उन तीनों वर्णों के गुण आ सकें, या वह उन तीनों वर्णों से सीखता रहे और जीवन के लिए स्वयं को तैयार कर सके (क्योंकि हम जिनके साथ रहते हैं, उन्हीं के जैसे बन जाते हैं). निश्चित सी बात है कि अशिक्षित मनुष्य अशिक्षित के पास ही तो जाएगा नहीं. उसी के पास जाएगा, जो उससे अधिक ज्ञान रखते हों. वह क्षत्रिय के पास जायेगा तो क्षत्रियत्व को ग्रहण करेगा, ब्राह्मण के पास जायेगा तो ब्राह्मणत्व को ग्रहण करेगा.

जैसे- महाभारत के वनपर्व में हनुमान जी जब भीम में बल का अहंकार देखते हैं, तब वे भीम से कहते हैं कि –
“क्या तुम्हें धर्म का बिल्कुल ज्ञान नहीं? मालूम होता है कि तुमने कभी विद्वानों की सेवा नहीं की…”

सेवाकार्य का नियम शूद्रों के लिए है, अतः सभी मनुष्यों के लिए है क्योंकि जन्म से तो प्रत्येक मनुष्य शूद्र है. मनुष्य जन्म लेने के बाद शिक्षा का समय आने पर किसी के पास तो जाएगा ही दीक्षा लेने के लिए. वह गुरुकुलों में जाता था. शिष्य कोई भी विद्या या कुशलता प्राप्त करने के लिए गुरु की सेवा करता था, साथ ही उनसे सीखता भी रहता था. वह अपनी रुचि और कर्मों के अनुसार कोई भी वर्ण धारण कर सकता था.

जो मनुष्य कोई विशेष विद्या प्राप्त न कर सके, तो वह कोई भी कार्य कर सकता था, कहीं भी किसी के भी यहाँ नौकरी कर सकता था, जिसमें भी वह कुशल हो. यदि कोई शूद्र सदाचारी है तो फिर वह शूद्र की श्रेणी में आता ही नहीं, वह अपने स्वभाव और कर्मों के अनुसार ब्राह्मण ही कहलाता है, जैसा कि भगवान शिव ने कहा है.

शूद्र यदि किसी भी वर्ण के यहां नौकरी करता था तो मनुस्मृति में उसे बाकायदा पूरा वेतन देने की भी व्यवस्था बनाई गई थी.

राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।
प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥
(मनुस्मृति ७.१२५)

राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेवकों, स्त्रियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे.

स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लमेतैव वेतनम्।
(मनुस्मृति ८.२१६)

यदि अवकाश से लौटने के बाद भृत्य अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को पूर्ण कर देता है, तो वह लम्बे अवकाश का वेतन पाने का अधिकारी है अर्थात् भृत्य का दीर्घ अवकाश होने पर भी वेतन दिया जाना चाहिए.

• शरीर और मन से शुद्ध-पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है (मनुस्मृति ९.३३५).

• अपने सेवकों को भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें (मनुस्मृति ३.११६).

अतः वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ‘सेवक’ का अर्थ ‘गुलाम’ नहीं है, क्योंकि गुलामी करने और नौकरी करने में अंतर होता है. दास गुलामी करता है और उसे उसके काम के बदले कुछ नहीं मिलता, जबकि जो नौकरी करता है जैसे हम और आप, उसे उसके काम के बदले धन मिलता है, साथ ही वह काम को सीखता भी है.

अब यदि कोई कहे कि शूद्र का काम साफ-सफाई होता था, तो इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं. वाल्मीकि रामायण में अयोध्या के नागरिकों के वर्णन में सब कुछ लिखा है, लेकिन ऐसी कोई बात नहीं लिखी है. प्राचीन भारत के लोग सनातन धर्म का पालन करते थे, अतः हर एक व्यक्ति प्रकृति की रक्षा करना, चारों तरफ साफ-सफाई रखना आदि स्वयं की ही जिम्मेदारी समझता था. और इसके लिए बहुत सारे वैदिक नियम भी देखने को मिलते हैं. आज की तरह ऐसी छोटी मानसिकता तो किसी में नहीं होती थी कि “मैं कचरा या गंदगी फैलाऊं और कोई दूसरा आएगा साफ करने के लिए”.

श्रीराम-सीता जी और लक्ष्मण जी जब वनवास को गए थे, तो क्या वे अपने साथ किसी शूद्र को अपनी सेवा के लिए ले गए थे? क्या कभी सुना है कि किसी भी आश्रम में कोई ऋषि-मुनि अपनी सेवा के लिए शूद्रों को रखते थे? (और ‘ऋषि-मुनि’ का अर्थ ‘ब्राह्मण’ नहीं होता). कोई अपनी मर्जी से करना चाहता है तो कर सकता था, लेकिन ऐसा कोई नियम नहीं था.

क्या शूद्र अछूत थे?

अशिक्षित शूद्रों को मंत्रिपरिषद में भी स्थान मिलता था. अब यदि वह अछूत होता तो ऐसी व्यवस्था कैसे संभव होती, क्योंकि वे सभी मंत्रियों से मिलते-जुलते भी रहते थे-

चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्नातकान् शुचीन्॥
क्षत्रियांश्च तथैवाष्टौ बलिनः शस्त्रपाणिनः॥
वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नाने कविंशतिसंख्यया।
त्रींश्च शूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके
(महाभारत शांतिपर्व ९०.१५)

मंत्री कैसे व्यवस्थित करने चाहिये- चार ब्राह्मण जो वैद्य विद्वान्, वेद स्नातक एवं पवित्र हों, आठ क्षत्रिय जो बलवान् और शस्त्रधारी हों, इक्कीस वैश्य जो धन-धान्य से सम्पन्न हों, तीन शूद्र जो प्रथम से विनीत और पवित्र हों.

इससे सिद्ध होता है कि शूद्र मंत्री भी होते थे और वे गरीब नहीं होते थे.

वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 6 श्लोक 17 में अयोध्या का वर्णन करते हुये लिखा है कि-

“(अयोध्या में) चारों वर्गों के लोग देवता और अतिथियों के पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे.”

शूद्र होना कोई गलत बात नहीं, क्योंकि मनुस्मृति के अनुसार शूद्र आर्य (श्रेष्ठ) हैं. जन्म से तो हर व्यक्ति शूद्र ही होता है (और मनुष्य अछूत नहीं है). बाद में कर्म के अनुसार अन्य वर्ण को धारण करता है.

उपनिषदों में शूद्रों को पृथ्वी के समान कहा गया है-

स नैव व्यभवत्स शौद्रं वर्णममृजत पूषणमियं
वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् १.४.१३)

यह शूद्र वर्ण पोषण करने वाला है और साक्षात्‌ इस पृथ्वी के समान है, क्योंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, वैसे ही शूद्र भी सबका भरण-पोषण करता है. इसलिए पृथ्वी को शूद्रदेव कहा गया है, क्‍योंकि वह हमें अन्न देती है, आश्रय देती है और हमारा पोषण करती है.

तो अछूत या अशुद्ध कौन थे?

संस्कृत और भारतीय धर्मों के एक प्रोफेसर पैट्रिक ओलिवेल (Patrick Olivelle) के अनुसार-

“हिंदू धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों में विभाजित करती है. वैदिक युग के साहित्यों में किसी भी वर्ण द्वारा वेदों के अध्ययन पर प्रतिबंध जैसी बात नहीं मिलती है. हमें ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है कि व्यक्तियों के समूह या वर्ण या जाति के संदर्भ में शुद्ध/अशुद्ध शब्द का प्रयोग किया गया हो. हिंदू धर्म-शास्त्र ग्रंथों में शुद्धता-अशुद्धता की चर्चा जरूर की गई है, लेकिन केवल व्यक्ति के नैतिक, अनुष्ठान और जैविक दोषों (जैसे भोजन में मांस, पेशाब और शौच) के संदर्भ में. मूल ग्रंथों में अशुद्धता का एकमात्र उल्लेख उन लोगों के बारे में है, जो गंभीर पाप या अपराध करते हैं, जो बर्बर और अधार्मिक या अनैतिक हैं, उन्हें ही ‘गिरे हुए लोग’ और ‘अशुद्ध’ कहा गया है.”


महाभारत में वर्ण व्यवस्था 

न योनिनोपि संस्कारो न श्रुतंन च संततिः
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥
सर्वोष्य त्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शुद्रो पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति॥
(महाभारत- अनुशासन पर्व १४३. ५०-५१)

भगवान शिव ने कहा है कि ब्राह्मणत्व की प्राप्ति न तो जन्म से, न संस्कार से, न शास्त्रज्ञान से और न सन्तति के कारण हो सकती है. ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है. लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पदपर बना हुआ है. सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है.

कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद्भ्रश्यति वै द्विजः।
ज्येष्ठं वर्णमनुप्राप्य तस्माद्रक्षेत वै द्विजः ॥
ब्राह्मण्यात् स परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते।
स द्विजो वैश्यतामेति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।
एभिस्तु कर्मभिर्देवि शुभैराचरितैस्तथा।
शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत्॥

(महाभारत अनुशासन पर्व १४३.७.९.११.२६)

अर्थात्- दुष्कर्म करने से द्विज वर्णस्थ अपने वर्णस्थान से पतित हो जाता है. अतः बड़े वर्ण को प्राप्त करने के बाद द्विज को उसकी रक्षा करनी चाहिये (उसके अनुरूप ही आचरण करना चाहिये). क्षत्रियों जैसे कर्म करने वाला ब्राह्मण क्षत्रिय वर्ण का हो जाता है. वैश्य वाले कर्म करने वाला द्विज वैश्य हो जाता है एवं शूद्र का काम करने वाला वैश्य, शूद्र वर्ण का हो जाता है. हे देवी! शुभ आचरण से शूद्र, ब्राह्मणवर्ण को प्राप्त कर लेता है और वैश्य, क्षत्रिय वर्ण को (इसी प्रकार अन्य वर्णों का भी परस्पर वर्ण-परिवर्तन हो जाता है).

दुर्लभं तमलब्धवा हि हन्यात् पापेन कर्मणा॥
न शूद्रा भगवद्भक्त विप्रा भागवताः स्मृताः॥
(महाभारत शान्तिपर्व २१९)

पुण्य कर्म करने से उच्च वर्ण प्राप्त होता है और पाप कर्म करने से नीचता प्राप्त होती है. जो ईश्वर के सच्चे भक्त हैं वे ब्राह्मण ही हैं, उन्हें शूद्र नहीं कहना चाहिये.

महाभारत के वनपर्व में जब युधिष्ठिर से पूछा गया कि यदि किसी शूद्र में ब्राह्मण के लक्षण हैं तो वह क्या कहलायेगा? इस पर युधिष्ठिर ने कहा-

शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः॥
(महाभारत – वनपर्व १७७.२०)

अर्थात् – यदि किसी शूद्र में ब्राह्मणीय लक्षण हैं तो वह ब्राह्मण ही है और यदि किसी ब्राह्मण में ब्राह्मणीय लक्षण का अभाव है तो वह ब्राह्मण न होकर शूद्र है.

एतत्‌ ते गुह्ममाख्यातं यथा शूद्रो भवेद्‌ द्विजः।
ब्राह्मणो वा च्युतो घर्माद्‌ यथा शुद्ग॒त्वमाप्नुते॥
(महाभारत अनुशासन पर्व १४३.५९)

अर्थात- जिस प्रकार शूद्र धर्माचरण करने से ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता है, उसी प्रकार ब्राह्मण स्वधर्म का त्याग करके शूद्र हो जाता है.

महाभारत के वनपर्व में अरयण्कपर्व के अध्याय ३१३ में यक्ष एवं युधिष्ठिर का संवाद है, जिसमें बताया गया है कि व्यक्ति द्वारा आचरण ही वर्ण का निर्धारण करता है, कुल और जाति उसका आधार-कारण नहीं है.

यक्ष उवाच
राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राम्हण्यं केन भवति प्रब्रूह्येतत् सुनिश्चितम्।

युधिष्ठिर उवाच
श्रुणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशय:।
वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राम्हणेन विशेषत:।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।
पठका:पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तका:।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा य: क्रियावान स पण्डित:।
चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्त: स शूद्रादतिरिच्यते।

(महाभारत वनपर्व ३१३. १०७-११०)

यक्ष ने पूछा- “हे राजन! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राम्हणत्व की प्राप्ति होती है? कृपया निश्चय करके बतायें.”

युधिष्ठिर ने कहा- “तात यक्ष सुनो! न तो कुल, न स्वाध्याय और न शास्त्र श्रवण से ब्राम्हणत्व की प्राप्ति होती है. ब्राह्मणत्व की प्राप्ति मात्र आचार (आचरण) से प्राप्त होती है. इसमे संशय नहीं है. इसलिए सदाचार की यत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए! ब्राह्मण को तो उस पर विशेष दृष्टि रखनी चाहिए, क्योंकि जब तक सदाचार सुरक्षित है, तभी तक ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, तो समझो वह स्वयं नष्ट हो गया अर्थात फिर वह ब्राह्मण नहीं रहा. चारों वेद पढ़कर भी जो दुराचारी है, वह ब्राह्मण नहीं.”

आश्वमेधिक पर्व में ऋषि वैशम्पायन युधिष्ठिर से कहते हैं-

न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः।
चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व ११६.८)

“कुल, जाति से कोई पूजनीय नहीं है, व्यक्ति के अंदर का गुण ही कल्याणकारक होता है. यदि चाण्डाल भी वृत्तस्थ हो तो वह ब्राह्मण होता है.”

सत्यम दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता।
साधकानि सदा पुंसा जातिर्न कुलं नृप॥
(महाभारत वनपर्व १८१.४३)

“हे राजन! सत्य, आत्म-संयम, अनुशासन, दान, अहिंसा और धार्मिकता- ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य को समाज में उच्च सम्मान दिलाती हैं, न कि जाति या कुल.”

शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठतः।
वैश्यत्वं भवति ब्रह्मन्क्षत्रियत्वं तथैव च॥
आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते।
गुणास्ते कीर्तिताः सर्वे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥
( महाभारत वनपर्व २०३. ११-१२)

“शूद्रयोनि में उत्पन्न मनुष्य यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले ले, तो वह वैश्य तथा क्षत्रियभाव को प्राप्त कर लेता है. यदि शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति अपने अंदर ब्राह्मण गुण यथा सत्य, शम, दम (आत्म संयम) तथा आर्जव (सरलता) उत्पन्न कर लेता है, तो वह ब्राह्मण का पद प्राप्त करता है। इस प्रकार मैंने आपसे सम्पूर्ण गुणों का वर्णन किया है, अब और आप क्या सुनना चाहते हैं?”

प्रतीपस्य त्रयः पुत्रा जशिरे भरतर्षभ।
देवापिः शास्तनुरुचेब बाह्नीकश्च- महारथः॥
देवापिश्व प्रवत्नाज तेषां धर्महितेप्सया
शान्तनुददच महीं लेने बाह्नीकह्च महारथः॥
(महाभारत आदिपर्व ९४. ६१-६२)

राजा प्रतीप के तीन पुत्र हुए- देवापि, शान्तनु और महारथी. इनमें से देवापि वेदवक्ता बन गये और शान्तनु तथा महारथी बाल्हीक राजा बने.

यत्रार्ष्टिषेणः कौरव्य ब्राह्मण्यं संशितव्रतः।
तपसा महता राजन्प्राप्तवानृषिसत्तमः॥
सिन्धुद्वीपश्च राजर्षिर्देवापिश्च महातपाः।
ब्राह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रो महामुनिः।
(महाभारत शल्यपर्व ३९. ३६-३७)

“हे राजन! कुरुकुलोत्पन्न वृती राजा अरिष्टषेण ने महातप से ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया. राजर्षि सिन्धुद्वीप और महातपस्वी देवापि तथा मुनि विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया और ब्राह्मण हो गए.”

प्रायः स्वभावविहितो नृषां धर्मो युगे युगे॥

वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है. वही धर्म उनके लिए इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारी है.

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।
यदन्यत्रापि द‍ृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्॥
(श्रीमद भागवतम ७.११.३५)

नारद जी ने कहा, ‘यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण दिखाता है जैसा कि वर्णित है, तब भले ही वह एक अलग वर्ग में उत्पन्न हुआ हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार ही स्वीकार किया जाएगा.’

पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः।
ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥
(हरिवंश पुराण १.२९.८)

गृत्समद के पुत्र शुनक हुये, जिनसे शौनक वंश का विस्तार हुआ. शौनक वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग हुये.

एवञ्च सत्यादिकं यदि शूद्रेऽप्यस्ति तर्हि सोऽपि ब्राह्मण एव स्यात् शूद्रलक्ष्मकामादिकं न ब्राह्मणेऽस्ति नापि ब्राह्मणलक्ष्मशमादिकं शूद्रेऽस्ति। शूद्रोऽपि शमाद्युपेतो ब्राह्मण एव, ब्राह्मणोऽपि कामाद्युपेतः शूद्र एव॥

(महाभारत वनपर्व १८०.२३.२६)

यदि इस प्रकार के सत्य आदि लक्षण शूद्र में रहते हैं, तो निश्चय ही उनकी भी गणना ब्राह्मणों में होगी. कामादि शूद्रों के लक्षण ब्राह्मणों में नहीं रह सकते और शमादि ब्राह्मण-लक्षण शूद्रों में नहीं रहते. शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि शमादि गुणों द्वारा भूषित हैं तो वह निश्चय ही ‘ब्राह्मण’ है और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि कामादि गुणों से युक्त हैं तो निश्चय ही वह ‘शूद्र’ है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है.

हिन्सानृतप्रिया: लुब्धा: सर्वकर्मोपजीबिन:।
कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजा: शुद्रतां गता:॥
(महाभारत शांतिपर्व १८८.३)

जो शौच (शरीर और मन शुद्ध रखना) और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा एवं असत्य के प्रेमी हो गये. लोभवश सभी तरह के निम्न कर्म (बुरे कार्य) करके जीविका चलाने लगे और इसलिए जिनके शरीर का रंग काला पड़ गया, वे ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त हो गये.

कुलानि समुपेतानि गोभिः पुरुषतोऽर्थतः।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानिवृत्ततः॥
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद् यशः॥
(महाभारत उद्योगपर्व ३६.२८.२९)

यदि किसी कुल के पास गौ, अत्यधिक धन एवं सेवा के लिये बहुत से पुरुष सहायक हैं, लेकिन यदि वह कुल सदाचार से रहित है अर्थात् उनका आचरण अच्छा नहीं है, तो ऐसे पुरुष की अच्छे कुल में गणना नहीं की जा सकती है, लेकिन थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं.

कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमिव तु कारणम्।
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितश्च शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं चगच्छति।
ब्रह्मत्वभावः सुश्रोणि, समः सर्वत्र में मतः।
निगुणाँ निमलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः॥
(ब्रह्मपुराण)

जाति, संस्कार, श्रुति (वेदों) एवं स्मृति से कोई द्विज नहीं होता, केवल चरित्र से ही होता है. इस लोक में चरित्र से ही सबके ब्राह्मणत्व का विधान है. सद्वृत्त में स्थित शूद्र भी ब्राह्मणता को प्राप्त होता है. ब्राह्मण वही है जिसमें निर्मल, निर्गुण ब्रह्मज्ञान हो.


वेदों में वर्ण व्यवस्था 

रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि देहि रुचा रुचम्॥
(यजुर्वेद १८.४८)

हे ईश्वर! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिए (हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो. सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें. सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे).

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय।
(ऋग्वेद ५.६०.५)

ईश्वर कहता है कि ‘हे संसार के लोगों! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा. तुम सब भाई-भाई हो. सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो.’

मनुर्भव (ऋग्वेद १०.५३.६)
‘मनुष्य बनो.’

स हृदयं सांमनस्यं विद्वेषं कृणोमि वः अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जात्मिवा घ्या
(अथर्ववेद ३.३०.१)

‘हे मनुष्यों! तुम सब एक हृदय से, एक मन से, निद्वेश होकर रहो! एक-दूसरे से प्रेम करो.’

कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव॥
(ऋग्वेद मण्डल ९.११२.३)

मैं शिल्पविद्या की शक्ति रखता हूँ, पुनः वैद्य भी बन सकता हूँ, मेरी बुद्धि नम्र है अर्थात् मैं अपनी बुद्धि को जिधर लगाना चाहूँ, लगा सकता हूँ, (उपलप्रक्षिणी) पाषाणों का संस्कार करनेवाली मेरी बुद्धि मुझे मन्दिरों का निर्माता भी बना सकती है, इस प्रकार नाना कर्मों वाले मेरे भाव जो ऐश्वर्य को चाहते हैं, वे विद्यमान हैं. हम लोग इन्द्रियों की वृत्तियों के समान तस्थिम की ओर जाने वाले हैं, इसलिये हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! हमारी वृत्तियों को उच्चैश्वर्य्य के लिये प्रवाहित करें.

अर्थात् – मैं सूत बुनने वाला हूँ, मेरे पिता वैद्य और माता धान कूटती हैं, इस प्रकार अलग-अलग वर्ण वाले हम एक ही परिवार के हैं. हम सब समाज के पोषण में अपना-अपना योगदान देते हैं (एक ही परिवार के लोगों को अलग-अलग कर्म करते हुए अलग-अलग वर्ण का बताया गया है).

तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न। तत्र जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति। ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः, वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात्। एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति। तस्मात् न जाति ब्राह्मण इति॥

अर्थात् – क्या ब्राह्मण कोई जाति है? नहीं, यह नहीं हो सकता, क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है, जैसे- मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है. इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना ब्राह्मण घर में में जन्म लिए प्रकांड विद्वान् हुये हैं, अतः केवल कोई जाति विशेष ब्राह्मण नहीं हो सकती है.

ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।
(शतपथ १४.४.२.२३.२५, बृह0 उप0 १.४.११.१३)

आरम्भ में ब्राह्मण वर्ण ही अकेला था. अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुँमुखी समृद्धि नहीं हुई. आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया. उससे भी समाज की चहुँमुखी समृद्धि नहीं हुई. आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया, पर उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई. तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया गया. इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई.


अन्य शास्त्र

एकवर्णाः समभाषा एकरूपाश्च सर्वशः।
तासां नास्ति विशेषो हि दर्शने लक्षणेऽपि वा॥
(वाल्मीकि रामायण ३०.१९.२०)

आदि समय में सभी लोग एक ही तरह के वर्ण के थे, एक समान भाषा बोलने वाले थे, सभी व्यवहारों में एक सदृश थे. उनके वेश और लक्षणों में किसी प्रकार की भिन्नताएं नहीं थीं.

यात्यधोऽधो व्रजत्युच्चौर्नरः स्वैरेव कर्मभिः।
(हितोपदेश २.४८)

अपने ही कर्मों से मनुष्य ऊंचा चढ़ता और गिर जाता है.

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुअ्चावमानयेत्‌।
श्वानं योनिशतं गत्वा चण्डालत्वमवाप्नुयात्‌॥
दीक्षया मोक्षदीपेन चण्डालोपि विमुच्यते।
(कुलार्णव तंत्र १४.८०, ११.७४)

जो अपने गुरु का सम्मान नहीं करता, वह चाण्डाल बन जाता है. दीक्षा से चाण्डाल भी मोक्ष प्राप्त करता है.

ब्रह्मनन्दमयं ज्ञानं कथयामि वरानने।
चाण्डालो नैव चाण्डालः पौल्कसो न च॑ पौल्कसः॥
सर्वे सम॑ विजानीयात्परमार्मेविनिश्चयात्‌।
(ज्ञानार्णव तंत्र २३.२८.२९)

ब्रह्मज्ञान का अधिकारी कौन है? किसी भी वर्ण के बीच कोई भेद नहीं है. चाण्डाल या पौलकसो को भी ब्रह्म के साथ एकीकरण प्राप्त होता है तथा सभी एक समान हैं.

यदि ज्ञानं भवेद एव सा देवो न तु मनुषः।
चाण्डालदिनीचजातौ स्थिरो व ब्राह्मणोत्तमः॥
(रुद्रयामल तंत्र ४८.१३१)

यदि किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है, तो वो देव समान है मनुष्य नहीं. चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्ति के बाद ब्राह्मण से उत्तम हो जाता है.


तो हम कह सकते हैं कि हमारे यहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का जो कॉन्सेप्ट था, वह एक की तुलना में दूसरे के बड़े/छोटे होने की वजह से नहीं, बल्कि मानव जीवन के पड़ावों का एक सीक्वेंस था.

रामचरितमानस में काकभुशुण्ड जी कहते हैं कि “मैं अपने पहले जन्म की कथा सुनाता हूँ. मैं शूद्र शरीर पाकर जन्मा…”

तो पहला जन्म शूद्र का ही क्यों? ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य का क्यों नहीं? तुलसीदास जी ने कोई भी बात इतनी सीधे-सीधे नहीं लिखी है, जितना सीधा-सीधा हम पढ़ लेते हैं.

हम देखते हैं कि हमारे जीवन में हर चीज का एक सीक्वेंस बनाया जाता है. जैसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष. यदि इस सीक्वेंस को उलट दिया जाये तो अराजकता आ जाएगी. शायद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का कॉन्सेप्ट भी कुछ ऐसा ही था. यह व्यक्ति की चेतना और कर्मों के स्तर से था.

छोटे बच्चे की शिक्षा कैसे शुरू की जाती है और कैसे आगे बढ़ाई जाती है? शुरुआत में उसे क्या पढ़ने को कहा जाता है और आगे बढ़ते-बढ़ते उसके विषयों को कैसे और किस क्रम में बढ़ाया जाता है. यदि बच्चे को कोई बड़ा फार्मूला बचपन में ही उसकी अज्ञानता की अवस्था में दे दिया जाए तो क्या वह उस फार्मूले का सही उपयोग समझ और कर पायेगा?

नहीं, बल्कि वह उसका दुरुपयोग करेगा, जैसे महाभारत में राजा परीक्षित को शाप देने वाले बालक शृंगी ऋषि से उनके पिता शमीक ऋषि ने कहा था कि ‘मुझे तुम्हें अभी शाप देने की विद्या नहीं सिखानी चाहिए थी. तुमने उस विद्या का दुरुपयोग करके इतने अच्छे राजा को शाप दे डाला.’

इसी प्रकार रावण, दुर्योधन, भस्मासुर जैसे दुष्टों को कोई सिद्धि नहीं देनी चाहिए क्योंकि ऐसे दुष्ट सिद्धि पाकर और भी अधिक खतरनाक हो जाते हैं. और ऐसे ही दुष्टों के लिए तुलसीदास जी ने लिखा है-

अधम जाति में विधा पाए।
भयहु यथा अहि दूध पिलाए।

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