Devi Vrinda ki Kahani : भगवान विष्णु और वृंदा की कहानी

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देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह

भगवान विष्णु, राक्षस जालंधर और वृंदा की कहानी

जालंधर एक भयंकर और क्रूर राक्षस था. चूंकि वह सागर का जातक पुत्र था, इसलिए लक्ष्मी जी उसे अपना भाई मानती थीं. जालंधर की पत्नी वृंदा बहुत तपस्वी और पतिव्रता नारी थीं. जालंधर समझ गया था कि वृंदा के तप के कारण कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इसी बात का फायदा उठाकर उसके पाप और अत्याचार बढ़ते जा रहे थे. देवताओं के लिए जालंधर से जीतना असंभव हो गया था.

देवताओं ने भगवान शिव से शरण मांगी. तब जालंधर का युद्ध भगवान शिव से शुरू हुआ. जब वृंदा को इस बात का पता चला कि अब जालंधर का युद्ध सीधे भगवान शिव से शुरू हो गया है, तो उन्होंने घबराकर जालंधर की रक्षा के लिए एक कठोर तप करने का संकल्प ले लिया और त्रिदेवों की ही कठिन तपस्या करने बैठ गईं.

भगवान शिव जालंधर को मार सकते थे, लेकिन भगवान अपने ही बनाए नियम नहीं तोड़ते, जिस वजह से वे वृंदा के तप का मान रखने के लिए जालंधर को नहीं मार रहे थे. क्योंकि ये प्रकृति का ही बनाया हुआ नियम है कि जो तप करेगा, उसे शक्तियां प्राप्त होंगी. इसलिए भगवान शिव जालंधर से युद्ध करते रहे, ताकि वह किसी और का अनिष्ट न कर सके.

एक कलप सुर देखि दुखारे।
समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा।

तब ऐसे में देवताओं ने भगवान विष्णु से शरण मांगी और कहा कि, “जब तक वृंदा अपना तप बंद नहीं करेंगी, तब तक भगवान शिव जालंधर का वध नहीं करेंगे और ये युद्ध बढ़ता ही जाएगा. और अगर वृंदा का तप पूरा हो गया तो कहीं वे भगवान के भी हाथों जालंधर के न मरने का वरदान न मांग लें. भगवन, कुछ तो कीजिये, क्योंकि जालंधर जब तक जीयेगा, तब तक अत्याचार करेगा. निर्दोष प्राणियों को पीड़ित करेगा.”

तब भगवान विष्णु ने सभी देवताओं को आश्वासन दिया और कहा कि ‘जलंधर का वध आज ही होगा’. विष्णु जी की यह बात सुनकर उनकी पत्नी लक्ष्मी जी चिंता में आ गईं. तब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से उनकी चिंता का कारण पूछा. लक्ष्मी जी ने कहा कि, “प्रभु, मैंने जालंधर को अपना भाई माना है, ऐसे में उसके लिए मेरा चिंता करना स्वाभाविक ही है.”

तब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि, “जालंधर ने आज तक जितने मनुष्यों पर क्रूर अत्याचार किए हैं, वे सब भी किसी न किसी के भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि थे. क्या हमें अपनी शरण में आए प्राणियों की चिंता नहीं होनी चाहिए? क्या एक क्रूर और हिंसक सम्बन्धी पूरी मानवजाति से भी अधिक महत्वपूर्ण है? किसी शक्ति-सामर्थ्यवान का पाप और अधर्म ही उसके विनाश का कारण बनता है. सीमा से अधिक पाप बढ़ जाने पर किसी की भी तपस्या या शक्ति उसकी रक्षा नहीं कर सकती. सम्बन्धी के नाम पर एक चरित्रहीन, पापी, क्रूर, हिंसक को बचाने का प्रयास ही संसार में अधर्म को बल देता है.”

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भगवान विष्णु जी की बात सुनकर लक्ष्मी जी को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने जालंधर को मारने के लिए सहमति दे दी. तब भगवान विष्णु जी ने अपनी माया से एक मायावी जालंधर बनाकर वृंदा के पास भेज दिया. माया के बने उस जालंधर ने वृंदा से संकल्प को तोड़ देने का आग्रह किया. तब वृंदा ने अपना संकल्प तोड़ दिया और जालंधर की रक्षा के लिए कर रही तपस्या को भी बंद कर दिया और उसके साथ विहार करने लगीं.

यह देखकर भगवान शिव ने जालंधर को चेतावनी दी, लेकिन जालंधर नहीं माना और भगवान शिव पर प्रहार करने के लिए लपका. तब भगवान शिव ने जालंधर का वध कर दिया और उसका सिर काट दिया.

वहीं, वृंदा ने जैसे ही मायावी जालंधर के चरण स्पर्श किए, वह मायावी जालंधर गायब हो गया और असली जालंधर का कटा सिर वृंदा के सामने आ गिरा. यह देखकर पहले तो वृंदा कुछ समझ न सकीं. फिर उन्होंने अपने तपोबल से पूरी बात का पता लगा लिया, जिस पर वृंदा को अत्यंत क्रोध आया. वृंदा ने बहुत ही गुस्से में भगवान विष्णु का आवाहन किया.

जालंधर भले ही एक अत्याचारी राक्षस था, लेकिन वृंदा एक देवी के समान पवित्र थीं, साथ ही वह भगवान विष्णु जी की बड़ी भक्त थीं. लेकिन इस समय वह श्रीहरि से ही बहुत नाराज थीं.

सब ओर जालंधर के मरने की प्रसन्नता थी, लेकिन वृंदा की दशा पर सबको दुःख था. भगवान विष्णु जानते थे कि आगे क्या होने वाला है, फिर भी वो वृंदा के आवाहन पर उनके सामने साकार रूप में प्रकट हुए. वृंदा ने जैसे ही भगवान विष्णु को देखा, वे उन पर बरस पड़ीं.

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥

वृंदा ने कहा कि, “मेरे तप और पतिव्रत धर्म में कोई कमी नहीं थी. मैंने सदैव आपकी ही भक्ति की है, फिर भी आपने मेरे साथ ऐसा छल किया? आपने अपनी माया से मेरे साथ छल करके मेरे पति का वध करवाने में सहयोग किया. आपका ये रूप अत्यंत कठोर है. इसलिए मैं आपको शाप देती हूं कि आप कठोर पाषाण के ही बन जाएं.”

भगवान का अर्थ है- जो हर तरह से पूर्ण हैं, उनके द्वारा कभी कोई भूल या पाप नहीं हो सकता, इसलिए उन पर किसी का शाप भी नहीं चढ़ता. लेकिन भगवान अपने सच्चे भक्तों का मान रखने के लिए उनका शाप भी ग्रहण कर लेते हैं. उन्होंने ऐसा कई बार किया है और इस बार भी ऐसा ही किया. अपनी भक्त वृंदा का मान रखने के लिए भगवान विष्णु जी ने कहा, “तथास्तु”.

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना।
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥

और ऐसा कहकर भगवान विष्णु पत्थर की मूर्ति बनकर वृंदा के सामने खड़े हो गए. ये देखकर सब जगह हाहाकार मच गया. तभी माता लक्ष्मी जी रोते हुए वृंदा के सामने आईं और हाथ जोड़कर वृंदा से प्रार्थना करने लगीं. उन्होंने जालंधर के पाप और अत्याचारों की भी पूरी कहानी कही, साथ ही कहा कि, “जब तक आप अपना शाप वापस नहीं लेंगी, तब तक मेरे पति श्रीहरि अपना वास्तविक स्वरूप ग्रहण नहीं करेंगे”.

तब वृंदा ने भगवान विष्णु जी से अपना शाप वापस लेते हुए उनसे प्रार्थना की कि वे अपने वास्तविक रूप में वापस आ जाएं. भगवान विष्णु द्वारा अपना वास्तविक रूप ग्रहण करने के बाद वृंदा ने उनसे क्षमा मांगते हुए कहा, “यह जानते हुए भी कि पाप चाहे कितने ही जतन कर ले, धर्म के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सकता, फिर भी मैं अपने पति को अधर्म के रास्ते पर चलने से न रोक सकीं. और इसी कारण न मैं अपना तप पूरा कर सकीं और न अपने पति को बचा सकीं. मुझसे भूल हुई है. फिर भी संसार के सामने मेरा मान रखने के लिए आपने मेरा शाप स्वीकार कर लिया?”

फिर वृंदा ने कहा कि, “भगवन! मैं अपना यह जीवन समाप्त करना चाहती हूं. लेकिन उससे पहले मैं आपसे यह वरदान चाहती हूं कि मैं जिस रूप में भी जन्म लूं, उस रूप में आपकी भक्ति ही करूं.”

तब भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि, “तुमने सदा अपने धर्म का ही पालन किया है, इसलिए तुम दोषों से रहित हो. तुम एक सच्ची भक्त हो, पवित्र और महान तपस्विनी हो और इसीलिए मैंने तुम्हारा शाप स्वीकार किया. मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम जो नया रूप धारण करोगी, वह सदा-सदा के लिए पूजनीय होगा. तुम एक माता की तरह सबकी रक्षा करने वाली होगी. तुम्हारी नित्य पूजा करने वाले मनुष्य के घर में धन और आरोग्य बना रहेगा. तुमने मुझे जो शाप दिया था, उसका मान रखते हुए मैं अपने एक रूप में पत्थर के रूप में भी रहूँगा और मेरी हर पूजा में तुम्हारी भी उपस्थिति रहेगी.”

यह सुनकर वृंदा ने भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को प्रणाम किया और अपना शरीर त्याग दिया. उनकी चिता की राख से एक दिव्य पौधा उत्पन्न हुआ, जिसे ‘तुलसी’ नाम दिया गया. तुलसी का अर्थ होता है- पवित्र और अद्वितीय. आज भी हम सब तुलसी के सभी गुणों से पूरी तरह परिचित नहीं हैं.

तुलसी के पौधे को देखकर भगवान विष्णु ने कहा कि, “आज से मेरा एक रूप पत्थर का भी होगा, जिसे शालिग्राम के नाम से जाना जाएगा. शालिग्राम को तुलसी के साथ ही पूजा जाएगा और बिना तुलसी के मैं प्रसाद स्वीकार नहीं करूंगा.”

तब से शालिग्राम और तुलसी की साथ-साथ पूजा होती है. यह घटना कार्तिक मास की है, अतः कार्तिक मास में देवउठनी एकादशी के दिन लोग शालिग्राम और तुलसी की एक साथ पूजा करते हैं.

यह भी कहा जाता है कि वृंदा ने अपने पिछले जन्म में भगवान विष्णु जी की पत्नी कहलाने की इच्छा से भारी तप किया था. उसी तप का फल देने के लिए श्रीहरि ने अपने शालिग्राम स्वरूप में वृंदा (तुलसी) को अपनी पत्नी के रूप में भी स्वीकार किया और इसीलिए शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाया जाता है.

शालिग्राम और उनकी पूजा

शालिग्राम का प्रयोग भगवान के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है. इसमें अपार एनर्जी होती है. इसको घर में रखने के बहुत चमत्कारिक लाभ होते हैं. इसकी प्रतिदिन विधिवत पूजा से घर में लक्ष्मी जी का वास होता है. जिस घर में शालिग्राम तुलसीदल, शंख और शिवलिंग के साथ बना रहता है, उस घर में सम्पन्नता भी बनी रहती है.

घर में केवल एक ही शालिग्राम रखना चाहिए. शालिग्राम को प्रतिदिन पंचामृत से स्नान कराया जाता है. रोज सफेद चंदन लगाया जाता है और वह चंदन भी असली ही होना चाहिए. शालिग्राम को प्रतिदिन तुलसीदल अर्पित करना चाहिए. बिना तुलसी के शालिग्राम की पूजा नहीं हो सकती है. शालिग्राम की पूजा दोनों बेला यानी सुबह-शाम की जाती है.

शालिग्राम पवित्रता और सात्विकता का प्रतीक है. इसकी पूजा करते समय मांस-मदिरा और बुरे विचारों से बिल्कुल दूर रहना चाहिए. जो व्यक्ति स्वयं को मांस-मदिरा, गाली-गलौच, स्त्री का अपमान आदि बुराइयों से दूर न रख सकता हो, उसे अपने घर में शालिग्राम को भी नहीं रखना चाहिए, नहीं तो लाभ के स्थान पर बहुत नुकसान देखने को मिलते हैं.

देखें : देवताओं द्वारा भगवान विष्णु जी की स्तुति

देखें : माता अनसूया जी की कथा

देखें : भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों चुराए थे गोपियों के वस्त्र


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