Saptrishi ke Naam : वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों का संक्षिप्त परिचय

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पुराणों में सप्तर्षियों की भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है. विष्णु पुराण के अनुसार वर्तमान सातवें मन्वंतर में सप्तर्षित्व के नाम इस प्रकार हैं- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज. इसके अलावा अन्य पुराणों के अनुसार सप्तर्षियों की नामावली इस प्रकार है- क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वसिष्ठ और मरीचि. वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे इस प्रकार है- वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव व शौनक. विष्णु पुराण के अनुसार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सात प्रमुख ऋषियों के बारे में विवरण संक्षेप में इस प्रकार है-

महर्षि विश्वामित्र (Maharishi Vishwamitra)

पुरुषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र का नाम कौन नहीं जानता. इन्होने अपने पुरुषार्थ से, अपनी कठिन तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व को प्राप्त किया. राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिए पूजनीय व वंदनीय बने और सप्तर्षियों में स्थान प्राप्त किया. इन्हें अपनी प्रज्ञा से अनेक मंत्रस्वरूपों का दर्शन हुआ, इसलिए ये ‘मंत्रदृष्टा ऋषि’ कहलाये. ऋग्वेद के दस मंडलों में तृतीय सूक्त, जिसमें ६२ सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों के दृष्टा महर्षि विश्वामित्र ही हैं, इसीलिए तृतीय मंडल ‘वैश्वामित्र मंडल’ कहलाता है. भगवती गायत्री कैसी हैं, उनका क्या स्वरूप है, उनकी आराधना कैसे करनी चाहिए, यह विश्व को सर्वप्रथम विश्वामित्र जी ने ही बताया.

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तपस्या के धनी विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से नवीन स्वर्गलोक की रचना जैसे असंभव कार्य भी किये. महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा से सत्यधर्म के आदर्श राजा हरिश्चंद्र की कीर्ति सदा के लिए अमर हो गई. क्षमा की मूर्ति महर्षि वशिष्ठ जी के साथ विश्वामित्र जी का जो विवाद हुआ, प्रतिस्पर्धा हुई, वह भी लोकशिक्षा का ही एक रूप है. भगवान् श्रीराम की चिन्मय लीलाओं के वे मूल प्रेरक रहे तथा लीला-सहचर भी बने. महर्षि विश्वामित्र के आविर्भाव का विस्तृत आख्यान पुराणों तथा महाभारत आदि में आया है. ये चंद्रवंशी महाराज गाधि के पुत्र कहे जाते हैं. आज भी सप्तर्षियों में स्थित होकर महर्षि विश्वामित्र जगत कल्याण में निरत हैं.

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महर्षि वशिष्ठ (Maharishi Vashishtha)

वैदिक मंत्रदृष्टा आचार्यों में महर्षि वशिष्ठ का स्थान सर्वोपरि है. ऋग्वेद के सप्तम मंडल को ‘वाशिष्ठ मंडल’ कहा जाता है. इस मंडल के मंत्रों के दृष्टा महर्षि वशिष्ठ ही हैं. ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, तथा पुराणों में मित्रावरुण के तेज से इनके आविर्भूत होने की कथाएं हैं. महर्षि वशिष्ठ श्रीराम के गुरु थे और सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित भी.

महर्षि वशिष्ठ की पत्नी देवी अरुंधति महान तपस्विनी व महान पतिव्रता हैं. सप्तर्षि मंडल में महर्षि वशिष्ठ जी के साथ देवी अरुंधति भी उनके साथ विद्यमान रहती हैं. अरुंधती और वशिष्ठ का जोड़ा एक आदर्श दम्पति में गिना जाता है. भारत में नवविवाहित जोड़े द्वारा अरुंधती व वशिष्ठ तारा समूह को देखने की परंपरा रही है. इनका योग वाशिष्ठ ग्रन्थ अध्यात्मज्ञान का प्रमुख ग्रन्थ है. महर्षि वशिष्ठ की मंत्रशक्ति, योगशक्ति, दिव्यशक्ति व तपस्या की कोई सीमा नहीं. इनका उदात्त दिव्य चरित्र परम पवित्र है.

महर्षि भरद्वाज (Maharishi Bhardwaj)

वैदिक ऋषियों में महर्षि भरद्वाज का अति उच्च स्थान है. ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा महर्षि भरद्वाज कहे जाते हैं. इस मंडल में ऋषि भरद्वाज के ७६५ मंत्र हैं. अथर्ववेद में भी भरद्वाज के २३ मंत्र मिलते हैं. भरद्वाज ऋषि के पिता बृहस्पति व माता ममता थीं. वाल्मीकि रामायण के अनुसार भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे व पुलस्त्य ऋषि की पत्नी इडविडा इनकी पुत्री थीं.

महर्षि भरद्वाज के गहन अनुभव व शिक्षा के आयाम अतिव्यापक थे. आचार्य चरक के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान इंद्र ने भरद्वाज को दिया था. आयुर्वेद के गहन अध्ययन के आधार पर भरद्वाज ने आयुर्वेद संहिता की रचना भी की थी. आयुर्वेद की प्रयोगों में वे परम निपुण थे. उन्होंने ऋषियों में सबसे अधिक आयु प्राप्त की. ऐतरेय आरण्यक (१|२|२) में उन्हें ‘दीर्घजीवितम’ कहा गया है. ऋषि भरद्वाज ने ‘यंत्रसर्वस्व’ नामक बृहद ग्रन्थ की भी रचना की थी. इसी ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि द्वारा ‘विमानशास्त्र’ के नाम से प्रकाशित कराया गया है. इस ग्रन्थ में विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन किया गया है.

महर्षि भरद्वाज ने ‘सामगान’ को देवताओं से प्राप्त किया था तथा ‘बृहत्साम’ को आत्मसात किया था. यह बात महर्षि भरद्वाज की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों को दर्शाती है. भरद्वाज ने महर्षि भृगु से धर्मशास्त्र का उपदेश प्राप्त किया तथा ‘भरद्वाज स्मृति’ की रचना की. महाभारत के शांतिपर्व (२१०|२१) के अनुसार ऋषि भरद्वाज ने धनुर्वेद पर प्रवचन किया था. वहीं पर यह भी कहा गया है कि भरद्वाज ने ‘राजशास्त्र’ का प्रणयन किया था (५८|३). कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के रचनाकारों में ऋषि भरद्वाज की प्रशंसा की है.

महर्षि अत्रि (Maharishi Atri)

ऋग्वेद के पञ्चम मंडल के दृष्टा महर्षि अत्रि हैं, अतः इस मंडल को ‘आत्रेय मंडल’ कहा जाता है. इस मंडल में ८७ सूक्त हैं. पुराणों के अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं तथा इनका प्रादुर्भाव उनके चक्षुभाग से हुआ है. सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि को भी स्थान प्राप्त है, साथ ही इन्हें ‘प्रजापति’ भी कहा गया है. एक ओर जहाँ उन्होंने वैदिक ऋचाओं का दर्शन किया, वाही दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को सदाचार एवं धर्माचरणपूर्वक एक उत्तम जीवनचर्या के प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित किया. महर्षि अत्रि का कहना है कि वैदिकमंत्रों के अधिकारपूर्वक जप से सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं.

महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया जी हैं, जिनके तपोबल के प्रभाव से त्रिदेव भी नन्हे शिशु बन गए थे और इनका पुत्र बनना स्वीकार किया. सती अनुसूया की गणना सोलह सतियों में की जाती है. जहाँ महर्षि अत्रि ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मंत्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं, तो वहीं दिव्य तेज से संपन्न देवी अनसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं. अपनी वनवास की यात्रा में भगवान् श्रीराम और माता सीता महर्षि अत्रि और देवी अनसूया जी के आश्रम में भी पधारे थे.

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महर्षि कश्यप (Maharishi Kashyap)

महर्षि कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि हैं, जिनका उल्लेख ॠग्वेद में हुआ है. इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है. ऋषि कश्यप ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के ज्येष्ठ पुत्र हैं. इनकी माता का नाम कला था. महर्षि कश्यप को भी प्रजापति कहा जाता है. इनके वंशज सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए. महाभारत और पुराणों में देवों तथा असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ‘ब्रह्माजी के सात मानस पुत्रों में से एक मरीचि थे जिनसे ऋषि कश्यप उत्पन्न हुए.’ एक परम्परा के अनुसार देव, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, रक्षा, नाग इन सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई. माना जाता है कि त्रेतायुग में महर्षि कश्यप ही राजा दशरथ और द्वापरयुग में कश्यप ही पिता वसुदेव (भगवान श्रीकृष्ण के पिता) थे.

कस्यप अदिति महातप कीन्हा।
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा।
कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥

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महर्षि जमदग्नि (Maharishi Jamdagni)

भृगुवंशी ऋचीक व सत्यवती कौशिकी के पुत्र महर्षि जमदग्नि की गणना सप्तऋषियों में होती है. इनकी पत्नी का नाम रेणुका था. भगवान् विष्णु जी के अंशावतार भगवान् परशुराम महर्षि जमदग्नि व रेणुका के ही पुत्र हैं. इनका आश्रम सरस्वती नदी के तट पर था.

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब पृथ्वी पर हैहयवंशीय राजाओं का आतंक एवं अत्याचार बढ़ जाता है, तब सभी लोग इन राजाओं द्वारा त्रस्त हो जाते हैं. संतजन असुरक्षित हो जाते हैं. ये राजा लोग उद्दंड होकर धर्म-कर्म के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न करने लगते हैं. ऐसे समय में भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं जिससे प्रसन्न होकर भगवान वरदान स्वरूप उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हैं और उनकी पत्नी रेणुका से उन्हें पाँच पुत्र प्राप्त होते हैं जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम. इन सभी में परशुराम जी उन हैहयवंशी राजाओं का अंत करते हैं.

ऋषि जमदग्नि जी की पत्नि रेणुका एक पतिव्रता एवं आदर्श स्त्री थीं, किंतु एक भूल के परिणामस्वरूप दोनों के संबंधों में अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो गई, जिस कारण ऋषि ने उन्हें मृत्यु का दण्ड दे दिया. उन्होंने अपने पुत्रों को रेणुका का वध करने का आदेश दे दिया. लेकिन कोई पुत्र तैयार नहीं हुआ. पिता के कहने पर परशुराम ने उनकी बात मान ली. इस आज्ञाकारिता से प्रसन्न पिता ने जब वर मांगने को कहा तो परशुराम ने माता को पुनर्जीवित करने का निवेदन किया.

इस पर ऋषि जमदग्नि ने अपने तपोबल से रेणुका को पुनर्जीवित कर दिया. रेणुका तो फिर जीवित हो गईं, लेकिन परशुराम मां की हत्या के प्रयास के कारण आत्मग्लानि से भर उठे. मां पर परशु प्रहार करने के अपराधबोध से वे इतने ग्रस्त हुए कि उन्होंने पिता से अपने पाप के प्रायश्चित का उपाय पूछा. तब ऋषि जमदग्नि ने अपने पुत्र परशुराम को जिन-जिन स्थानों पर जाकर पापविमोचन तप करने का निर्देश दिया, उन स्थानों में परशुरामकुण्ड सर्वप्रमुख है.

महर्षि गौतम (Maharishi Gautam)

महर्षि गौतम सप्तर्षियों में से एक वैदिक काल के एक ऋषि व मंत्रदृष्टा हैं. ऋग्वेद में उनके नाम से अनेक सूक्त हैं. ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, धर्मशास्त्र, वृहदारण्यक, उपनिषद, कठोपनिषद, छान्दोग्योपनिषद्, देवीपुराण, शिवपुराण, महाभारत रामायण व उनके प्राचीन ग्रन्थों में गौतम की चर्चा है. यद्यपि यह कहना कठिन है कि सभी गौतम एक हैं. स्मृतियों में भी अनेक गौतम दिखाई देते हैं. महर्षि गौतम के जीवन के बारे में विरोधाभास कथाऐं व सूत्र मिलते हैं.

महर्षि गौतम ‘अक्षपाद गौतम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं. ये ‘न्याय दर्शन’ के प्रथम प्रवक्ता माने जाते हैं. अक्षपाद गौतम ने ‘न्याय दर्शन’ का निर्माण नहीं किया, पर न्याय दर्शन का सूत्रबद्ध, व्यवस्थित रूप पहली बार अक्षपाद के ‘न्यायसूत्र’ में ही मिलता है. शब्दार्थ परिजात कोष में बताया है कि अक्षपाद एक प्रसिद्ध दार्शनिक हुए और इनका दूसरा नाम गौतम है, जिन्होंने न्यायशास्त्र की रचना की. स्कन्दपुराण के अनुसार अहल्या पति गौतम का नाम ही अक्षपाद है.

महर्षि गौतम परम तपस्वी एवं संयमी थे. एक बार ईर्ष्या के कारण इन पर गौहत्या का मिथ्या आरोप लगा. तब इन्होंने तपस्या करके भगवान् शिव को प्रसन्न किया और नासिक में त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की. महर्षि गौतम की पत्नी का नाम अहल्या था, जो कि ब्रह्मदेव की मानसपुत्री थीं. गौतम और अहिल्या के पुत्र तथा पुत्री के नाम क्रमश: शतानन्द व विजया था. शतानंद राजा जनक के राजपुरोहित थे. अहिल्या महर्षि के शाप से पाषाण (कहीं भी गमन न करने वाली तपस्विनी) बन गई थीं. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अहिल्या का शापमोचन किया. पांच सतियों व पंचकन्याओं में अहल्या का प्रथम स्थान है.

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, अहल्या किसी कमजोर क्षण में परपुरुष (इंद्र) पर मोहित हो जाती हैं और उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लेती हैं. गौतम ऋषि को जब इस बात का पता चलता है, तब उन्हें क्रोध भी आता है और निराशा भी होती है. तब वे अहल्या को यह शाप देते हैं कि “तुम इसी आश्रम में समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर कई हजार वर्षों तक तप करोगी. और जब भगवान् श्रीराम इस वन में आएंगे, तब तुम पवित्र हो जाओगी. उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तुम्हारे सभी दोष दूर हो जायेंगे और तब तुम प्रसन्नतापूर्वक अपना पूर्व शरीर धारण कर मेरे पास पहुँच जाओगी.”

ऐसा कहकर गौतम ऋषि स्वयं भी कठिन तप करने के लिए हिमालय पर चले जाते हैं. गौतम ऋषि किसी अन्य स्त्री से विवाह नहीं करते और तपस्या में लीन रहकर अहल्या के दोषमुक्त व शापमुक्त होने की प्रतीक्षा करते हैं. और तब अहल्या भी भगवान् श्रीराम के आने तक वहीं अटल रहकर तपस्या करती रहती हैं और पश्चाताप करती हैं. भगवान् श्रीराम का दर्शन करने से जब उनके शाप का अंत हो जाता है, तब वे सबको दिखाई देने लगती हैं. तब श्रीराम और लक्ष्मण जी ने अहल्या के चरणों का स्पर्श किया.

इंद्र, गौतम और अहल्या की यह कथा वस्तुतः एक रूपक भी कही जाती है. इन्द्र सूर्य का प्रतीक है और अहल्या रात्रि तथा गौतम चन्द्र का प्रतीक है. इन्द्र रूपी सूर्य से अहल्या रूपी रात्रि का घर्षण हुआ. यह एक निसर्ग दृश्य है. शतपथ ब्राह्मण व जैमिनी ब्राह्मण में इस आख्यान को इसी अर्थ में कहा गया है.

Credit With : Pushkar Singh (Intersted in research related to Hindu philosophy, history and biology)


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