Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 15 : भगवद्गीता – पन्द्रहवाँ अध्याय (पुरुषोत्तम योग)

bhagavad gita, bhagwat geeta adhyay 1, bharat in mahabharat, mahabharat kab hua tha date kalyug kab start hua, mahabharat ka yuddh kyon hua, कब हुआ था महाभारत का युद्ध?, gita 6 atma sanyam yog, satvik rajsik tamasik, geeta chapter 15 shlok
महाभारत की ऐतिहासिकता

Geeta Chapter 15 Shlok (Sanskrit Hindi)

भगवद्गीता के १४वें अध्याय में ५वें से १८वें श्लोक तक तीनों गुणों (सत, रज, तम) के स्वरूप, उनके कार्य एवं उनकी बंधनकारिता का और बँधे हुए मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करके १९वें और २०वें श्लोकों में उन गुणों से अतीत होने का उपाय और फल बताया गया है. उसके बाद अर्जुन के पूछने पर २२वें से २५वें श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों और आचरणों का वर्णन करके २६वें श्लोक में सगुण परमेश्वर के अव्यभिचारी भक्तियोग को गुणों से अतीत होकर ब्रह्मप्राप्ति के लिये योग्य बनने का सरल उपाय बताया गया.

अतएव भगवान में अव्यभिचारी भक्तियोग रूप अनन्य प्रेम उत्पन्न कराने के उद्देश्य से अब उस सगुण ईश्वर पुरुषोत्तम भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीत होने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत-शरणागति का वर्णन करने के लिये १५वें अध्याय का आरम्भ किया जाता है. यहाँ पहले संसार में वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से तीन श्लोकों द्वारा संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए वैराग्यरूप शास्त्र द्वारा उसका छेदन करने के लिये कहते हैं.

भगवद्गीता – पञ्चदश अध्याय (Gita 15 Purushottam Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 15 Shlok in Sanskrit)

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥२॥

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं
असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥३॥

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥४॥

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥५॥

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥६॥
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥७॥

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥८॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥९॥

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१०॥
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥११॥

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१२॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१३॥

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१४॥
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनञ्च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५॥

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१९॥

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥२०॥


भावार्थ (पन्द्रहवाँ अध्याय) (Gita 15 Purushottam Yoga)

(Bhagwat Geeta Adhyay 15 in Hindi)

भगवान श्रीकृष्ण बोले- आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूपी पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है॥1॥

यद्यपि यह संसारवृक्ष परिर्वतनशील होने के कारण नाशवान, अनित्य और क्षणभंगुर है, तो भी इसका प्रवाह अनादिकाल से चला आता है. इसके प्रवाह का अंत भी देखने में नहीं आता, इसलिये इसे अव्यय अर्थात अविनाशी कहते हैं क्योंकि इसका मूल (ईश्वर) अविनाशी है, लेकिन वास्तव में यह संसार वृक्ष अविनाशी नही है.

आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पन्न होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचे ब्रह्मलोक में वास करने के कारण, हिरण्यगर्भरूप ब्रह्माजी को परमेश्वर की अपेक्षा ‘अधः’ कहा गया है और वही इस संसार का विस्तार करने वाले हैं, इस कारण उन्हें इस संसार रूपी वृक्ष की मुख्य शाखा कहा गया है, और इस संसार वृक्ष को ‘अधःशाखा वाला’ कहते हैं. पत्ते वृक्ष की शाखा से उत्पन्न एवं वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं.
उसी प्रकार वेद भी इस संसार रूपी वृक्ष की मुख्य शाखारूप ब्रह्माजी से प्रकट हुए हैं और वेदाविहित कर्मों से ही संसार की वृद्धि और रक्षा होती है, इसलिये वेदों को पत्तों का स्थान दिया गया है. आगे के श्लोक में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- ये पाँचों स्थूलदेह और इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने के कारण उन शाखाओं की ‘कोंपलों’ के रूप में कहे गए हैं.

उस संसार वृक्ष की तीनों गुणोंरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोग रूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक्‌ आदि योनिरूप शाखाएँ (मुख्य शाखा रूप ब्रह्माजी से सम्पूर्ण लोकों सहित देव, मनुष्य और तिर्यक्‌ आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है, इसलिए उनका यहाँ ‘शाखाओं’ के रूप में वर्णन किया है) नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता-ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं॥2॥

अच्छी और बुरी योनियों की प्राप्ति गुणों के संग से होती है एवं समस्त लोक और प्राणियों के शरीर तीनों गुणों के ही परिणाम हैं. अहंता, ममता और वासनारूप मूलों को केवल मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली कहने का कारण यह है कि अन्य सब योनियों में तो केवल पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगने का ही अधिकार है, जबकि मनुष्य योनि में नवीन कर्मों के करने का भी अधिकार है.

इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता और न अंत है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है (यह क्षणभंगुर और नाशवान है) इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप (ब्रह्मलोक तक के भोग क्षणिक और नाशवान हैं, ऐसा समझकर, इस संसार के समस्त विषयभोगों में सत्ता, सुख, प्रीति और रमणीयता का न भासना ही ‘दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र’ है) शस्त्र द्वारा काटकर (स्थावर, जंगमरूप यावन्मात्र संसार के चिंतन का तथा अनादिकाल से अज्ञान द्वारा दृढ़ हुई अहंता, ममता और वासना रूप मूलों का त्याग करना ही संसार वृक्ष का अवान्तर ‘मूलों के सहित काटना’ है.)॥3॥

किसी जीव को यह ज्ञात नहीं है संसार की यह प्रकट होने और लय होने की परम्परा कब से आरम्भ हुई कब तक चलती रहेगी. स्थितिकाल में भी यह निरंतर बदलता रहता है. जो रूप पहले क्षण में है, वह दूसरे क्षण में नहीं रहता. इस प्रकार इस संसार वृक्ष का आदि, अंत और स्थिति- तीनों ही उपलब्ध नहीं होते. शास्त्रों में इस संसार का जैसा स्वरूप वर्णित किया गया है और जैसा देखा-सुना जाता है, वैसा तत्त्व ज्ञान होने के बाद नहीं पाया जाता (जिस प्रकार आँख खुलने के बाद स्वप्न का संसार नहीं पाया जाता).

उसके बाद उस परम-पदरूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिए, जिसमें गए हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते (जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं) और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन (ध्यान) करना चाहिए॥4॥

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूपी दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं॥5॥ जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम (‘परम धाम’ का अर्थ गीता के अध्याय 8 श्लोक 21 में देखना चाहिए) है॥6॥

इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश (आकाश) घटों में पृथक-पृथक की भांति (अलग-अलग खण्ड की तरह) प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों (प्राणियों) में एकीरूप से स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है॥7॥

जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, वैसे ही देह आदि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है- उसमें जाता है॥8॥ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके, अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है॥9॥

शरीर को छोड़कर जाते हुए को, अथवा शरीर में स्थित हुए को, अथवा विषयों को भोगते हुए को- इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं॥10॥ यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जान पाते॥11॥

सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तुम मेरा ही तेज जानो॥12॥ और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों (प्राणियों) को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ॥13॥ मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥14॥

भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य, ऐसे चार प्रकार के अन्न होते हैं. उनमें जो चबाकर खाया जाता है, वह ‘भक्ष्य’ है- जैसे रोटी आदि. जो निगला जाता है, वह ‘भोज्य’ है- जैसे दूध आदि तथा जो चाटा जाता है, वह ‘लेह्य’ है- जैसे चटनी आदि और जो चूसा जाता है, वह ‘चोष्य’ है- जैसे ईख आदि.

मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय आदि दोषों को हटाने का नाम ‘अपोहन’ है) होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य (सर्व वेदों का तात्पर्य परमेश्वर को जानने का है, इसलिए सब वेदों द्वारा ‘जानने के योग्य’ एक परमेश्वर ही है) हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ॥15॥ इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार के पुरुष हैं. इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है॥16॥

गीता के अध्याय 7 श्लोक 4-5 में जो अपरा और परा प्रकृति के नाम से कहे गए हैं तथा अध्याय 13 श्लोक 1 में जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के नाम से कहे गए हैं, उन्हीं दोनों का यहाँ क्षर और अक्षर के नाम से वर्णन किया गया है.

इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है॥17॥ क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग- क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ॥18॥

भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझे इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है॥19॥ हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है॥20॥

Read Also :

श्रीमद्भगवद्गीता – चौदहवाँ अध्याय (संस्कृत-हिंदी)

श्रीमद्भगवद्गीता – सोलहवाँ अध्याय (संस्कृत-हिंदी)



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Prinsli World 179 Articles
A Knowledge and Educational platform that offers quality information in both English and Hindi, and its mission is to connect people in order to share knowledge and ideas. It serves news and many educational contents.

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*