Mahishasur Vadh ki Katha
माता पार्वती (Maa Parvati) पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं, अतः उन्हें गिरिनन्दिनी कहा जाता है. उन्हें नन्दितमेदिननि अर्थात मेदिनी (पृथ्वी) को आनंदित करने वाली कहा गया है. देवी को विश्वविनोदिनि भी कहा गया है क्योंकि वे समय-समय पर पृथ्वी का भार उतारती हैं, अपने अनेक रूपों से विविध लीलाएं रचती हैं एवं अपनी उन्मुक्त, मनोहारी लीलाओं से विश्व को विनोदित रखती हैं. लोग पर्व-त्योहार मनाते हैं, विभिन्न कलाओं से देवी को प्रसन्न करने के प्रयत्न करते हैं तथा स्वयं भी मुदित होते हैं.
जगत में दुष्टों के अत्याचार अधिक बढ़ जाने पर महाशक्ति का आविर्भाव (प्राकट्य) होता है. देवी या देवता उसी को वरदान देते हैं, जिन पर वे प्रसन्न होते हैं. पर देवी का प्रकट होना स्वयं ही एक वरदान है. महिषासुर से त्रस्त देवताओं के सम्मुख देवी का प्रकट होकर उन्हें अभय देना, युद्ध में उनके शत्रुओं का वध कर देना, देवों का अभीष्ट सिद्ध करना आदि सुरों पर वरदानों का वर्षण है. जब वे देवों का अभीष्ट सिद्ध करती हैं, तब वे हर्षित होती हैं. दुराचारी असुर हों या कोई अन्य, देवी पक्षपातरहित रहती हैं. चाहे उनकी उपासना करने वाले मुनिजन ही क्यों न हों, पर आचरण की और चरित्र की भ्रष्टता देवी को क्रोधित करती है, और इसीलिए माँ को ‘दुर्मुनिरोषिणि’ भी कहा गया है.
मां दुर्गा केवल कोपमयी ही नहीं, कृपामयी भी हैं. क्रोध से भरी हुई देवी को रण में शत्रुओं का विनाश करते हुए देखकर शत्रुओं की पतिव्रता पत्नियों के हृदय सिहर उठते हैं. तब वे भयभीत होकर अपने सौभाग्य की रक्षा के लिए देवी की शरण में आती हैं. माँ दुर्गा अखण्ड सुहाग की भी देवी हैं. उन्हें सर्वमंगला कहा जाता है. वे पतिव्रता पत्नियों के स्वामियों को अभय प्रदान कर देती हैं, अर्थात् उनके प्राणों का हरण नहीं करतीं. इस प्रकार दैत्य-समूह को आतंकित करने से ‘भयंकरी’ एवं देव-समाज को आनन्दित करने से ‘शुभंकरी’ हैं.
दैत्यराज महिषासुर वध की कथा व सन्देश (शिक्षा)
त्रिलोकी को त्रस्त करने वाले महिषासुर नामक दैत्य का जन्म असुरराज रम्भ और एक महिष (भैंस) त्रिहायिणी से हुआ था. रम्भ दनु का पुत्र था. दनु के पुत्र दानव कहलाये. महिषासुर को एक धोखेबाज राक्षस के रूप में जाना जाता है, जो आकार बदलकर बुरे कार्य किया करता था. वह अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार कभी मनुष्य तो कभी भैंस का रूप ले सकने में समर्थ था. वह अनेक रूप रच लेता था.
दैत्यों को कामरूप माना गया है, जिसका अर्थ है कि वे अपनी कामना के अनुरूप छद्मरूप धारण कर उत्पात मचाते रहते हैं. मानव-जीवन के विकास के लिये महिषासुर का तथा मद में अन्धे उसके साथियों का वध मां दुर्गा के हाथों हुआ और इसीलिए देवी को ‘दनुजनिरोषिणि’ कहा जाता है. देवी-भागवत में महिषासुर-वध की कथा के अनुसार देवताओं को महाभयंकर महिषासुर के त्रास से मुक्त कराने के लिए देवी का आविर्भाव हुआ था, जो कि वरदान पाकर दुर्धर्ष हो गया था.
महिषासुर ने घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनसे अमर होने का वरदान माँगा. तब ब्रह्माजी ने उससे कोई अन्य वर मांगने के लिए कहा, पर दैत्यराज की अमर होने की लालसा बलवती थी, अतः उसने वर माँगा कि देव, दानव व मानव- इन तीनों में से किसी भी पुरुष द्वारा मेरी मृत्यु न हो सके, और कोई स्त्री तो मुझे नहीं मार सकती. वरदान प्राप्त कर लेने के बाद उसने पृथ्वी को जीत लिया और स्वर्गलोक पर आक्रमण करके इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया.
देवताओं का सहायता के लिए भगवान् के पास जाना और देवी का प्राकट्य
भयातुर देवतागण त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे एवं अपनी रक्षा एवं सहायता के हेतु प्रार्थना की और यहीं से आरम्भ होती है देवी के प्राकट्य की कथा. सभी देवताओं ने मिलकर महिषासुर के विनाश के लिए पराशक्ति से प्रार्थना की कि वह उन सब के तेजांश से तेजपुंज स्वरूपिणी नारी के रूप में प्रकट हों.
तब भगवान शिव के शरीर से महाप्रचंड तेज प्रकट हुआ जो भयंकर रूप वाला, पर्वत के समान विशाल तथा साक्षात दूसरे तमोगुण जैसा था. भगवान विष्णु के शरीर से सत्वगुणसम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यंत दीप्तिमान तेजोराशि प्रकट हुई. ब्रह्माजी के मुख से एक असह्य तेजपुंज प्रकट हुआ. इसके बाद इंद्र सहित सभी अन्य देवताओं के शरीरों से भी अतिशय प्रदीप्त तेज का प्रादुर्भाव हुआ. दूसरे हिमालय पर्वत के समान विशाल उस महादिव्य तेजोराशि से सभी के देखते ही देखते एक अत्यंत सुंदर तथा महतेजस्विनी नारी प्रकट हो गई, जिन्हें शक्ति के नाम से भी जाना जाता है.
वह त्रिगुणात्मिका अर्थात् सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण से युक्त थीं, त्रिवर्णा अर्थात् तीन वर्णों (रंगों) वाली थीं, अठारह भुजाओं वाली, काले नेत्रों वाली, उज्जवल मुखवाली, अपूर्व कान्ति से संपन्न साक्षात् मां दुर्गा थीं. महिषासुर के वध के लिए सभी देवताओं द्वारा देवी को विविध आयुध (अस्त्र-शस्त्र) प्रदान किये गये, जो दैत्यों व उनके राजा महिषासुर का संहार करने में समर्थ थे.
भगवान शिव ने त्रिशूल, भगवान विष्णु ने अत्यंत तेजोमय चक्र, ब्रह्माजी ने गंगाजल से परिपूर्ण एक कमण्डलु, यमराज ने अपने कालदंड से उत्पन्न हुआ एक दंड, त्वष्टा ने कौमोदकी गदा, वरुण ने घोर शब्द करने वाला मंगलमय शंख एवं पाश, अग्नि ने मन के समान गति करने वाली एक शक्ति आदि देवी को प्रदान किये.
देवी ने संग्राम के लिए सहस्रों भुजाएं धारण कर लीं. उनके हाथों में वे शस्त्राशस्त्र अनेक प्रकार की टंकार और रणकार उत्पन्न करते थे. वह ध्वनि देवी के विजय घोष के समान थी, जो युद्ध के लिए तैयार देवी को प्रसन्न कर रही थी. सिंह पर सवार, सर्वाभूषणों से सुसज्जित देवी शतशोभामयी लग रही थीं. देवी को इस प्रकार देखकर सब देवता भी बहुत विस्मित हुए और नमन कर उनकी स्तुति करने लगे एवं उन्हें महिषासुर द्वारा किये गए उपद्रवों तथा त्रास के बारे में बताकर करुण स्वर में उनसे रक्षा की प्रार्थना की. सभी देवताओं द्वारा नमस्कृत देवी ने उनसे मंद हास बिखेरते हुए कहा- “हे देवगण! भय का त्याग करो”.
देवी के अट्टाहस से दैत्यों का भयभीत होना
संपूर्ण विश्व को मोह में पड़ा हुआ देखकर देवी ने अट्टहास किया, जो दैत्यों को भयभीत करने वाला था. इस अट्टहास को सुनकर दैत्यराज महिषासुर ने क्रोधित होकर अपने दूतों को उस हास ध्वनि के उद्गम-स्थल का पता लगाने के लिए भेजा. दूतों ने जब अठारह भुजाओं वाली, दिव्यविग्रहमयी, उत्तम आयुधों से सज्जित देवी को देखा तो वे भयभीत होकर वहां से भाग खड़े हुए एवं महिषासुर से जाकर बोले कि यह हास की ध्वनि किसी अद्भुत स्त्री की है जो श्रृंगार, वीर, रौद्र एवं अद्भुत रस के साथ हास्यरस से भी परिपूर्ण है.
दैत्यराज ने अपनी कामवासना के वशीभूत होकर उस अद्भुत सुंदरी को पाना चाहा, अत: उसने फिर वहां अपने दूत भेजे. दैत्यराज का संदेश लेकर जब भी उसका कोई दैत्य देवी के पास जाता, तब वे इसी प्रकार जोर से हंस पड़तीं और दैत्यराज महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारतीं. महिषासुर के द्वारा भेजे गए प्रत्येक दूत के आने पर वे हंस दिया करती थीं. उस हंसी में एक प्रकार से असुर-सर्वनाश की सूचना थी, साथ ही दुरात्मा-दुष्टों के संहार का प्रबल निश्चय एवं विजय का उद्घोष था. यह देखकर उत्साहित देवों ने भी भगवती की जय जयकार का उद्घोष किया, जिसे सुनकर दैत्य भी भयभीत हो गये.
जब महिषासुर ने भी प्रकार देवी का हास और देवों का उद्घोष सुना तो वह और भी अधिक क्रोधित हो उठा और अपने मंत्री को यह आदेश दिया कि उस सुंदरी का पूरा परिचय प्राप्त करे और किसी भी प्रकार से उसे पकड़कर लाये. मंत्री द्वारा महिषासुर का सन्देश देने पर देवी ने मेघ के समान गंभीर वाणी में उससे कहा कि-
“हे मंत्रीश्रेष्ठ! मैं देवताओं की जननी महालक्ष्मी स्वरूपा शक्ति हूँ. क्योंकि महिषासुर के अत्याचारों से पीड़ित एवं यज्ञभाग से बहिष्कृत देवताओं ने मुझसे उसका वध करने की प्रार्थना की है, अतः सब दैत्यों को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है. मैं उसका वध करने के लिए बिना किसी सेना के यहां आई हूं. अब तुम उस दुराचारी से जाकर कह दो कि यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताललोक चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हारा शरीर नष्ट-भ्रष्ट कर दूँगी.”
मंत्री ने जाकर यह बात दैत्यराज महिषासुर को बताई. इस प्रकार की चुनौती सुनकर महिषासुर ने अपने सभी मंत्रियों (ताम्र, दुर्मुख, दुर्धर, दुर्मद, विरूपाक्ष, वाष्कल, असिलोमा, विडालाक्ष एवं चिक्षुर् इत्यादि) के साथ परामर्श किया. उसके बाद उसने ताम्र को देवी के पास भेजा. तब देवी ने घोर गर्जना कर उसे उत्तर देते हुए कहा कि “तुम उस मरणोन्मुख महिषासुर के पास लौट जाओ और उससे कहो कि स्वयं आकर मुझसे युद्ध करे, और यदि अपने प्राणों से मोह हो तो अपने साथियों के साथ तुरंत पाताल लोक चले जाओ”. ताम्र भी भयभीत होकर वहां से भाग खड़ा हुआ.
या देखकर महिषासुर ने अत्यंत क्रोध के साथ युद्ध की घोषणा कर दी. पर वह स्वयं नहीं गया. पहले उसने दुर्मुख और वाष्कल को भेजा. देवी के ललकारने पर उन दोनों ने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें देवी ने दोनों का वध कर दिया . तब सेनापति चिक्षुर् को देवी के पास भेजा गया. वह भी अपनी दैत्य-सेना सहित मारा गया. उसके बाद असिलोमा तथा विडालाक्ष भी सेना सहित मृत्यु को प्राप्त हो गए.
अंत में महिषासुर स्वयं रणभूमि की ओर चला, पर इससे पहले उसने एक आकर्षक मनुष्य का रूप धारण कर कर लिया. अब भी उसकी मूढ़ बुद्धि में यही बात थी कि इस मनमोहक रूप से वह देवी को अपनी ओर आकर्षित कर लेगा. भगवती के सामने जाकर उसने रसपूर्ण बातों से देवी को अपने साथ जुड़ने एवं प्रीति-संयोग की बातें कहीं.
महिषासुर का ऐसा आचरण देखकर देवी को हंसी आ गई और बोलीं, “हे दैत्यराज! मैं परम पुरुष की इच्छा-शक्ति हूँ और जगत् को रचती हूँ. मेरा न कभी जन्म हुआ है और न ही मेरा कोई रूप है, देवताओं की रक्षा के लिए मुझे मूर्तिवान होना पड़ता है. तुम मंदबुद्धि हो, इसीलिए परस्त्री-संयोग के लिए व्याकुल है, जो महादुःख देने वाला है. अब तुम मुझसे युद्ध करो या पाताललोक में जाकर रहो अन्यथा मैं तुम्हारा वध कर दूँगी.”
देवी के ऐसा कहने पर महिषासुर उनके साथ युद्ध के लिए तत्पर हो उठा. वह मनुष्य का रूप छोड़कर नये-नये अनेक रूप धारण कर देवी पर प्रहार करने लगा. उसके कई दैत्य देवी के सिंह का ग्रास बन गये. जब महिषासुर ने सिंह पर गदा चलाई, तो सिंह ने उसे भी अपने नखों से घायल कर दिया. देवी और महिषासुर के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा. देवी का क्रोध बहुत बढ़ गया था. उन्होंने क्रोध से लाल नेत्र कर अपने त्रिशूल से महिषासुर के आक्रमण का उत्तर दिया.
त्रिशूल के प्रहार से वह मूर्छित होकर गिर पड़ा पर कुछ ही क्षणों में फिर उठ बैठा और भयानक चीत्कार करते हुए देवी पर पदाघात करने के लिए दौड़ा. तभी देवी ने सहस्र धार वाले चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया और उसे युद्ध भूमि में गिरा दिया. इस प्रकार दैत्यराज महिषासुर का अंत हुआ और भगवती महिषासुरमर्दिनी कहलाईं. अपने राजा की मृत्यु से भयभीत शेष दानव अपने प्राण बचाकर पाताल लोक को भाग गए. वहीं, देवताओं ने आनंदसूचक जयघोष कर भगवती की स्तुति की. सभी से स्तुत होकर देवी अन्तर्धान हो गईं.
महिषासुर वध की कथा का क्या संदेश है-
महिष अर्थात् भैंस जड़ता की प्रतीक है. जड़ता मनुष्य में किसी भी नये कार्य के प्रति उत्साह उत्पन्न नहीं होने देती. जड़ता के कारण सामर्थ्य होने के बाद भी मनुष्य अपनी नियति को बदलने का साहस नहीं जुटा पाता. “जैसा है वैसा ठीक है” या “मैं क्या करूं” जैसे मनोभावों की असुर सेना हमारे अंदर बैठे देवताओं को अत्याचार सहन करने के लिए विवश कर देती है, और स्वर्ग से निष्कासित कर देती है. अपने मन के राज्य से भटका हुआ व्यक्ति अपने स्वर्गलोक के राज्य से भटके हुए इंद्र के समान है.
लेकिन जब हमारा मन दृढ़ निश्चय रूपी त्रिदेवों के पास जाता है तो हमारे अंदर शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है, और वह सिंह की पीठ पर सवार उस शक्ति के समान होता है, जो अकेला ही आसुरी या तामसिक शक्तियों के साथ युद्ध कर विजयी होता है. यह शक्ति सब के भीतर निहित है. जड़ता से लड़ने के लिए शरीर के प्रत्येक अंग से, मन-मस्तिष्क से चैतन्य के तेजांशों का निकलना बहुत आवश्यक है.
मनुष्य द्वारा जगाई हुई चेतना उसे अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर उसे जड़ता और तामसिक भाव रूपी महिषासुर पर विजय दिलाती है और अपना खोया हुआ स्वर्ग पुनः प्राप्त करता है. नहीं तो नकारात्मक भावों और भटकाव की स्थितियों से जूझते-जूझते वर्षों बीत जाते हैं, पर परिणाम कुछ भी नहीं निकलता. उस पर विजय पाने के लिए आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता है जो हमें चेतना की अंतर्धारा से जोड़ती है.
भगवान् श्रीराम भी कहते हैं कि ‘केवल पाशविक बल और अस्त्र-शस्त्रों की गिनती से युद्ध नहीं जीते जाते, किसी भी युद्ध में विजय पाने के लिए आध्यात्मिक शक्ति का होना परम आवश्यक है.’ कालिका पुराण में कहा गया है कि “उस देवी को नमन है जो सब प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं. देवी कामदा हैं एवं जड़ता का नाश करने वाली हैं. अतः महिषासुर के वध की कथा हमें शारीरिक और मानसिक रूप से सक्रिय रहने का संदेश देती है.
Credits with : Dr. Mrs. Kiran Bhatia
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