क्या प्राचीन भारत में कोई मनुष्य मांस नहीं खाता था? मांसाहार को लेकर क्या थे नियम?

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Vegetarian and Non vegetarian

Non veg Allowed in Hinduism

आज बहुत से लोग तर्क देते हैं कि आदिकाल में मनुष्य मांसाहारी था, जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरता था. तब (आदि)मानव कुछ नहीं जानता था, धीरे-धीरे शिकार करने के लिए हथियार बनाये और जानवरों का मांस खाकर अपना पेट भरता था, बाद में अग्नि की खोज की तो मांस को पकाकर खाने लगा….

यदि इन तर्कों की मानें तो क्या उस काल में पेड़ों पर फल-फूल नहीं लगते थे? जमीन में कंद-मूल नहीं होते थे? भूख लगने पर हथियार बनाकर, जानवरों के पीछे भागकर उन्हें मारना सरल था बजाय इसके कि पेड़ों से फल-फूल तोड़कर खा लिए जाएँ..? यदि उस समय के आदिमानव को पेड़ों के फल-कंद-मूल आदि का ज्ञान नहीं था, तो उस समय के आदिमानव को यह ज्ञान किसने दिया था कि जानवरों को मारकर उनका मांस खाया लो?

मांसाहारी इतिहासकार मेहनत तो बहुत करते हैं यह साबित करने के लिए कि आदिमानव मांसाहारी था, लेकिन जीव-वैज्ञानिकों से ही पूछ लीजिये कि मनुष्य शाकाहारी परिवार से निकला है या मांसाहारी परिवार से? उनके विचार नहीं बल्कि प्रमाण पूछिए. आधुनिक विज्ञान यही कहता है कि मनुष्य प्राइमेट परिवार से आया है जो शाकाहारी परिवार है, जैसे बन्दर, लंगूर आदि.

ईराक की एक खुदाई में 70 हजार साल पहले भी दाल-रोटी और शाकाहारी खाना खाने के चिन्ह मिले हैं. इस रिपोर्ट के बारे में बताने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल में पोस्टडॉक्टोरल रिसर्च एसोसिएट केरेन काबुकू का कहना है कि, “जांच के लिए भेजे गए सैंपल्स को देखने के बाद लगता है कि दाल काफी गाढ़ी बनाई जाती थी, और रोटियां बीजों को पीसकर बनाए गए आटे की बनी हुई थीं.”

अभी और खोज होने दीजिये, और खुदाई होने दीजिये, आप जितना पीछे जायेंगे, आपको उतना अधिक शाकाहार ही मिलेगा. मनुष्य सभ्य से असभ्य ही बनता गया है.

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हमारे शास्त्रों-ग्रंथों के अनुसार, सतयुग में कोई मांसाहार नहीं करता था. और द्वापरयुग तक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मांसाहार नहीं करते थे, शूद्र-चाण्डाल आदि करते थे. तो ऐसा नहीं है कि प्राचीन समय में कोई मांस नहीं खाता था. लेकिन कोई भी मनुष्य धर्म या भगवान् के नाम पर मांस कभी नहीं खाता था. ऐसा कार्य तो राक्षस ही करते थे, जैसे अहिरावण के द्वारा पूजा-अनुष्ठान में बलि का उल्लेख मिलता है.

वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में एक व्याध का उल्लेख आता है जिसे वाल्मीकि जी ने श्राप दिया था, क्योंकि उसने वाल्मीकि जी के सामने एक पक्षी की हत्या कर दी थी. तो इसका अर्थ है कि उस समय भी व्याध होते थे और वे मांस भी खाते ही होंगे. व्याध योनि को शूद्र योनि में रखा गया है.

इसी के साथ, वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर राक्षसों की पहचान मांसभक्षियों के रूप में भी बताई गई है-

दशकोटिसहस्राणिरक्षसांकामरूपिणाम्।
मांसशोणितभक्ष्याणांलङ्कापुरनिवासिनाम्॥
(6.19.15)

“लंकापुरी में 10 कोटि सहस्त्र राक्षस बसते हैं. ये कामरूपी राक्षस मांस खाते और रक्त पीया करते हैं.”

लेकिन आज के मांसभक्षियों की तरह उस समय के किसी भी राक्षस ने यह कभी नहीं कहा कि ‘भगवान् भी मांस खाते हैं, अतः हम भी खा सकते हैं.’ वाल्मीकि रामायण में राक्षसों ने श्रीराम की पहचान ‘फल-मूल खाने वाले तपस्वी’ के रूप में ही बताई है. जैसे शूर्पणखा अपने भाई खर को श्रीराम और लक्ष्मण जी का परिचय देते हुए कहती है कि-

फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ धर्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥
(3.19.15)

“फल-मूल खाने वाले, जितेन्द्रिय, तपस्वी और धर्माचारी राम और लक्ष्मण नाम के दो भाई महाराज दशरथ के पुत्र हैं.”


क्या सभी लोग मांसाहार करते थे?

इसे समझने के लिए महाभारत को देखना चाहिए, जहाँ बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं.

‘व्याध गीता’ (Vyadh Gita) महाभारत (मार्कण्‍डेयसमास्‍या पर्व) का एक भाग है. इसमें एक शूद्र व्याध ने एक ब्राह्मण संन्यासी को शिक्षा दी है, जिसके कुछ तथ्य उल्लेखनीय हैं. इसमें एक पतिव्रता स्त्री के कहने पर कौशिक ब्राह्मण एक व्याध के पास शिक्षा लेने के लिए जाते हैं. जब वे उस व्याध के नगर में जाते हैं और सब लोगों से उसके बारे में पूछकर उसके कसाईखाने पर पहुँच जाते हैं, तब ब्राह्मण को देखते ही वह व्याध उनसे कहता है कि-

“भगवन्! यह स्‍थान आपके ठहरने योग्‍य नहीं है. यदि आपकी रुचि हो तो हम दोनों हमारे घर पर चलें” (अध्याय 207|16). व्‍याध का घर बहुत सुंदर था. वहाँ पहुँचकर उस व्‍याध ने ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन दिया और अर्ध्‍य देकर उस ब्राह्मण की आदर सहित पूजा की.

सुखपूर्वक बैठ जाने पर ब्राह्मण ने व्‍याध से कहा- “तात! यह मांस बेचने का काम निश्‍चय ही तुम्‍हारे योग्‍य नहीं है. मुझे तो तुम्‍हारे इस घोर कर्म से बहुत संताप हो रहा है” (अध्याय 207|19).

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तब वह व्‍याध कहता है- “ब्रह्मन्! यह काम मेरे बाप-दादों के समय से होता चला आ रहा है. वही धंधा मैंने भी अपनाया है” (अध्याय 207|20). वह व्याध आगे यह भी बताता है कि, “ब्रह्मन्! मैं स्‍वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करता. मैं स्‍वयं मांस कभी नहीं खाता. सदा दूसरों के मारे हुए सुअर और भैंसों का मांस बेचता हूँ” (अध्याय 207|32,33).

“ब्रह्मन्! मैं जो यह मांस बेचने का व्‍यवसाय कर रहा हूं, वास्‍तव में यह अत्यंत घोर कर्म है, इसमें संशय नहीं है. किंतु ब्रह्मन्! दैव बलवान् है. पूर्वजन्‍म में किये हुए कर्म का ही नाम दैव है. यह जो कर्मदोषजनित व्‍याध के घर जन्‍म हुआ है, यह मेरे पूर्वजन्म में किये हुए पाप का ही फल है” (अध्याय 208|1,2).

“मैं जिन मारे गये प्राणियों का मांस बेचता हूं, उनके जीते-जी यदि उनका सदुपयोग किया जाता तो बड़ा धर्म होता. मांस-भक्षण में तो धर्म का नाम भी नहीं है” (अध्याय 208|4,5).

“ब्रह्मन्! जो क्रूर कर्म में लगा हुआ है, उसे सदा यह सोचते रहना चाहिये कि ‘मैं शुभ कर्म करूँ और किस प्रकार इस निंदित कर्म से छुटकारा पाऊं. बार-बार ऐसा करने से उस घोर कर्म से छूटने के विषय में कोई निश्चित उपाय प्राप्‍त हो जाता है” (अध्याय 208|11).

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तो व्याध गीता से पता चलता है कि ब्राह्मण न तो मांसभक्षण करते थे और न ही मांस का व्यापार. वह व्याध जानता था कि बेवजह की जीवहत्या करने और मांसभक्षण करने में महान अधर्म है, इसलिए वह स्वयं न तो जीवहत्या करता था और ही मांसभक्षण करता था, केवल अपने पूर्वजों के धंधे को अपनाकर मांस बेचकर अपनी जीविका चलाता था. लेकिन वह उसे भी अत्यंत घोर कर्म बताता है, क्योंकि वह व्याध ज्ञानी था.

महाभारत (अनुशासन पर्व अध्याय 115) में ही भीष्म पितामह ने कहा है कि-

आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च घातकाः सर्व एव ते॥

“जो मनुष्‍य हत्‍या के लिये पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खाने वाले ही माने जाते हैं. अर्थात वे सब खाने वाले के समान ही पाप के भागी होते हैं.”

यो हि खादति सांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्।
सदा भवति वै पापः प्राणिहन्ता तथैव सः॥

“जो जीवित रहने की इच्‍छा वाले प्राणियों को मार कर अथवा उनके स्‍वयं मर जाने पर उनका मांस खाता है, वह न मारने पर भी उन-उन प्राणियों का हत्‍यारा ही समझा जाता है.”

और यही बात मनुस्मृति में भी कही गई है कि-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चैति घातकाः॥
(मनु. ५/५१)

“पशुओं की हत्या की अनुमति देने वाला, या शस्त्र से जीवों को मारने वाला या मांस को काटने वाला, या मांस को खरीदने वाला, या मांस को बेचने वाला, या मांस को पकाने वाला या परोसने वाला और खाने वाला- ये सब प्रकार के जन घातक हैं.”

शूद्रों को ऐसे निंदनीय कर्म (मांसाहार और मांस बेचने का व्यवसाय) करने की मनाही नहीं थी, और ऐसे ही अनुचित कर्म करने के कारण भी वे शूद्र वर्ण में आते थे. जो लोग मजबूरी में नहीं, बल्कि केवल अपने स्वार्थ के लिए, अपने स्वाद के लिए ही जीवहत्या और मांसाहार करते थे, उन्हें राक्षस ही कहा जाता था और जो लोग मजबूरी में या परम्परानुसार या अज्ञानतावश ऐसे व्यवसाय और कर्म करने को तैयार हो जाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण में रखा जाता था.

ब्राह्मणों को इसलिए भी पूजनीय कहा गया है क्योंकि भयंकर दरिद्रता आ जाने पर भी वे कोई भी अनुचित कार्य करने को तैयार नहीं होते थे, जैसे कि सुदामा.

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जन्म से प्रत्येक मनुष्य ही शूद्र है, क्योंकि आरम्भ में मनुष्य के पास उचित-अनुचित आदि में भेद करने और समझने की क्षमता नहीं होती, और तब वह उन्हीं कार्यों को प्राथमिकता देता है, जिसे वह अपने लिए उचित समझता है. वह दूसरों के बारे में नहीं सोचता. और इसीलिए मनुष्य को शूद्रता से ऊपर उठने के लिए कहा गया है. आरम्भ में यह शूद्रता मनुष्य का दोष नहीं मानी जाती, लेकिन जो मनुष्य जानबूझकर अपने ही स्वार्थ के लिए इस शूद्रता को पकड़े रखता है, उसी से दूर रहने या उसे दंड देने के लिए कहा गया है, न कि किसी जाति या वर्ग से.

प्रोफेसर पैट्रिक ओलिवेल (Patrick Olivelle) के अनुसार-

“हिंदू धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों में विभाजित करती है. वैदिक युग के साहित्यों में किसी भी वर्ण द्वारा वेदों के अध्ययन पर प्रतिबंध जैसी बात नहीं मिलती है. हमें ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है कि व्यक्तियों के समूह या वर्ण या जाति के संदर्भ में शुद्ध/अशुद्ध शब्द का प्रयोग किया गया हो. हिंदू धर्म-शास्त्र ग्रंथों में शुद्धता-अशुद्धता की चर्चा जरूर की गई है, लेकिन केवल व्यक्ति के नैतिक, अनुष्ठान और जैविक दोषों जैसे भोजन में मांस और शौच (शुद्धता) के संदर्भ में. मूल ग्रंथों में अशुद्धता का एकमात्र उल्लेख उन लोगों के बारे में है, जो गंभीर पाप या अपराध करते हैं, जो बर्बर और अधार्मिक या अनैतिक हैं, उन्हें ही ‘गिरे हुए लोग’ और ‘अशुद्ध’ कहा गया है.”

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राजा लोग या क्षत्रिय लोग शिकार पर जाते थे, तो अपनी शस्त्रविद्या के अभ्यास के लिए, लेकिन उसकी अति होने पर वे दुर्भाग्य का भी शिकार हो जाते थे.

जैसे कि राजा दशरथ जी अपनी मृत्यु के समय कौशल्या जी से स्वयं ही कहते हैं कि, “यदि अपनी धनुर्विद्या के अहंकार में मैं शिकार न खेलता, तो न मुझसे श्रवण कुमार की हत्या जैसा भयंकर पाप होता और न आज मुझे यह दिन देखना पड़ता. कर्म ही सबसे शक्तिशाली है.”

वहीं, जब सीताजी ने श्रीराम को हिरण के पीछे भेजा, तो वे श्रीराम से दूर हो गईं और उसके बाद श्रीराम और सीताजी को भयंकर कष्ट उठाने पड़े. भगवान् की लीलाओं का कोई न कोई प्रयोजन होता है.

महाभारत में राजा पाण्डु एक योग्य राजा थे. लेकिन एक मृग का शिकार करने के कारण ही उनसे ऋषि की हत्या हुई और उन्हें भयंकर शाप मिला, जिससे वे अधिक समय तक जीवित ही न रह सके.

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-

स्त्रियोऽक्षा मृगया पानमेतत्कामसमुत्थितम्।
व्यसनं चतुष्टयं प्रोक्तं यै राजन्भ्रश्यते श्रियः॥
तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदाः।
विशेषतश्च वक्तव्यं द्यूते पश्यन्ति तद्विदः॥

“(पराई) स्त्रियों के प्रति आसक्ति, जुआ खेलना, शिकार खेलने का शौक और मद्यपान- ये चार प्रकार के भोग कामनाजनित भोग बताये गए हैं, जिनके कारण मनुष्य अपने धन-ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है. शास्त्रों के निपुण विद्वानों ने इन चारों को निंदनीय बताया है.” (महाभारत वनपर्व अध्याय 13 श्लोक 7,8)

“जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोयें होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में निवास करता है. जो मनुष्य मद्य और मांस में आसक्त हैं, उनसे भगवान् शिव बहुत दूर रहते हैं.” (स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्ध ३।५९-५३)

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क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य भी कर सकते हैं मांसाहार?

महाभारत के शांतिपर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 141वें अध्याय में विश्वामित्र और चाण्डाल के संवाद का वर्णन हुआ है, जिसमें बताया गया है कि आपत्तिकाल में अपने प्राण बचाने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी मांसभक्षण का सहारा ले सकते हैं.

इस कथा में भीष्म पितामह एक समय की ऐसी अवस्था का वर्णन करते हैं, जब दैववश संसार में बारह वर्षों तक भयंकर अनावृष्टि हो गई. प्रजाएँ बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जाने से प्रलयकाल-सा उपस्थित हो गया था. कितनी ही नदियाँ अदृश्‍य हो गईं. छोटे-छोटे जलाशय बिल्कुल ही सूख गये. पृथ्वी पर मांगलिक उत्‍सव, यज्ञ और स्‍वाध्‍याय सब बंद हो गया. खेती और गोरक्षा चौपट हो गयी, बाजार-हाट बंद हो गये.

अनाज और फल आदि भी नष्ट हो गये थे. धरती का बहुत बड़ा भाग उजड़कर निर्जन बन गया था. बालक और बूढे़ मर गये थे, गाय, भेड़, बकरी और भैंसें प्राय: समाप्‍त हो गई थीं, क्षुधातुर प्राणी एक-दूसरे पर आघात करते थे. ब्राह्मण नष्ट हो गये थे. ऐसे भयंकर समय में धर्म का नाश हो जाने के कारण भूख से पीड़ित हुए मनुष्‍य एक-दूसरे को भी खाने लगे.

विश्वामित्र भी भूख से बेहाल होकर आश्रम त्‍यागकर भक्ष्‍य और अभक्ष्‍य में समान भाव रखते हुए विचरने लगे. चूंकि बारह वर्षों से वर्षा न होने से पेड़-पौधे अनाज सब नष्ट हो गया था, अतः विश्वामित्र सोचने लगे कि इस समय तो प्राण बचाने के लिए जो भी मिल जायेगा, वह भी खा लूंगा लेकिन किसी भी प्रकार अपने प्राण बचाऊंगा.

भोजन की खोज में वे प्राणियों का वध करने वाले हिंसक चाण्‍डालों की बस्‍ती में जा पहुँचे, जहाँ सब ओर मुर्गों की, गदहों की आवाज गूँज रही थी. झुंड-के-झुंड कुत्ते वहाँ के घरों को घेरे हुए थे. भूख से पीड़ित विश्वामित्र आहार की खोज में वहाँ घर-घर घूमकर भीख माँगते फिरे, किन्तु उन्‍हें कहीं कुछ नहीं मिला.

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हालाँकि विश्वामित्र चाहते तो स्वयं भी किसी प्राणी की हत्या करके मांस खा सकते थे, लेकिन इससे उनका धर्म बिल्कुल ही नष्ट हो जाता, अतः जब वे भूख से अत्यंत बेहाल हो उठे, तब वे मरे हुए जानवर का मांस ढूंढने लगे. जब कहीं कोई भीख नहीं मिली, तब उन्होंने प्राण बचाने के लिए चोरी करने का भी निर्णय ले लिया. आधी रात को विश्वामित्र एक चाण्‍डाल के घर में घुस गये और वहां से कुत्ते की जाँघ के मांस का एक बड़ा-सा टुकड़ा उठा लिया. चाण्डाल ने विश्वामित्र को ऐसा करते हुए देख लिया. जब उसने विश्वामित्र को पहचाना, तब उसने उन्हें धर्म के नाम पर ऐसा करने से रोका.

तब विश्वामित्र ने कहा- “भाई! भूख से मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं. अत: अब मुझमें भक्ष्‍य और अभक्ष्‍य का विचार नहीं रह गया है. मैं ब्राह्मण होकर भी सर्वभक्षी बन जाऊंगा.”

तब चाण्‍डाल ने उनसे कहा- “महर्षि! मेरी बात सुनिये और उसे सुनकर ऐसा काम कीजिये, जिससे आपका धर्म नष्ट न हो. अपने प्राणों की रक्षा के लिये कोई दूसरा अच्‍छा-सा उपाय सोचिये.” लेकिन विश्वामित्र नहीं मानते. वे कहते हैं कि ‘मैं बाद में सब ठीक हो जाने पर पुनः कठोर तप और शुभ कर्म करके अपने इस पापकर्म का प्रायश्चित कर लूंगा, लेकिन उसके लिए भी मुझे अपने प्राणों को बचाना अत्यंत आवश्यक है.’

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तब चाण्डाल कहता है- “मुनि! आपत्तिकाल में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य के लिये पाँच नखोंवाले पाँच प्रकार के प्राणी भक्ष्‍य बताये गये हैं (गेंडा, साही, गोह, खरहा और कछुआ). यह तो कुत्ते का मांस है, वह भी उसकी जाँघ का भाग, जो सबसे अधम होता है. अतः आपने जो निश्‍चय किया है, वह ठीक नहीं है.”

तब विश्वामित्र कहते हैं कि “भूखे महर्षि अगस्‍त्‍य ने भी वातापि नामक असुर को खा लिया था. मैं भी क्षुधा के कारण भारी आपत्ति में पड़ गया हूँ, अत: मैं यह कुत्ते की जाँघ अवश्‍य खाऊँगा.”

(वातापि असुर बकरे के रूप में था. अतः विश्वामित्र कहते हैं कि जब आपत्तिकाल में भूखे महर्षि अगस्त्य ने भी वातापि बकरे को खा लिया था, जो आपत्तिकाल में भी तीनों वर्णों के लिए अभक्ष्य है, तो इस समय मैं भी तो अगस्त्य मुनि की तरह ही आपत्ति में ही हूँ तो मैं भी उन्हीं की तरह अभक्ष्य-मांस का भक्षण क्यों नहीं कर सकता?)

तब चाण्डाल उन्हें बताता है कि, “महर्षि अगस्‍त्‍य ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिये प्रार्थना किये जाने पर वातापि असुर का भक्षण-रूप कार्य किया था. उनके वैसा करने से बहुत से ब्राह्मणों की रक्षा हो गई थी, अन्‍यथा वह राक्षस उन सबको खा जाता, अत: महर्षि अगस्त्य का वह कार्य धर्म ही था. मुनि! अच्‍छे पुरुष अपने प्राणों का त्याग भले ही कर दें, किन्तु वे कभी अभक्ष्‍य-भक्षण का विचार नहीं करते हैं. अत: आप भी भूख के साथ ही- उपवास द्वारा ही अपनी मनोकामना की पूर्ति कीजिये.”

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चाण्डाल सब प्रकार से विश्वामित्र को समझाता है, किन्तु भूख से बेहाल विश्वामित्र जब किसी भी तर्क-वितर्क से नहीं मानते, तब चाण्डाल उन्हें वह मांस का टुकड़ा ले जाने देता है. तब विश्वामित्र ने उसी मांस के टुकड़े से देवकर्म और पितृकर्म आरम्‍भ किया. उन्होंने उसे सबसे पहले देवताओं को ही अर्पित किया.

यह देखते ही इन्‍द्र ने उसी समय समस्‍त प्रजा को जीवनदान देते हुए बड़ी भारी वर्षा की और अन्‍न आदि औषधियों को उत्‍पन्‍न कर दिया. और तब विश्वामित्र ने उस मांस को खाने की बजाय देवताओं की ही कृपा से पवित्र भोजन प्राप्‍त करके उसके द्वारा अपने जीवन की रक्षा की. और इस प्रकार विश्वामित्र के धर्म की भी रक्षा हुई.

कुछ ऐसी ही बात वाल्मीकि रामायण के किष्किंधाकाण्ड में भी देखने को मिलती है, जब भगवान् श्रीराम बाली पर बाण चलाते हैं, तब बाली उनसे अनेक प्रश्न पूछता है. उन्हीं प्रश्नों में वह श्रीराम से कहता है कि–

“आप जैसे धर्माचारी पुरुषों के लिए मांस तो सदा ही अभक्ष्य है और हम वानरों का चमड़ा भी किसी के धारण करने योग्य नहीं है. विद्वान लोगों के लिए हमारे रोम और हड्डियां भी वर्जित हैं. विषम परिस्थितियों में भी ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए पांच नख वाले जीवों में से पांच ही भक्षण के योग्य बताए गए हैं. इस प्रकार हम वानरों का मांस सभी के लिए अभक्ष्य है. तो जिसका सब कुछ ही निषिद्ध है, उसे (मुझे) आपने किस कारण से मारा है?”


महाभारत से अन्य श्लोक उल्लेखनीय हैं-

एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः।
प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा॥

“मनीषी पुरुष अहिंसारूप परम धर्म की प्रशंसा करते हैं. जैसे मनुष्‍य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय होते हैं.”

न हि मांसं तृणात्काष्ठादुपलाद्वाऽपि जायते।
हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद्दोषस्तु भक्षणे॥

“तृण से, काठ से अथवा पत्‍थर से मांस नहीं पैदा होता है, वह जीव की हत्‍या करने पर ही उपलब्‍ध होता है. अत: उसके खाने में महान दोष है.”

यदि चेत्स्वादको न स्यान्न तदा घातको भवेत्।
घातकः खादकार्थाय तद्धातयति वै नरः॥
अभक्ष्यमेतदिति वै इति हिंसा निवर्तते।
खादकक्रमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते॥

“यदि कोई भी मांस खाने वाला न रह जाये तो पशुओं की हिंसा करने वाला भी कोई न रहे, क्‍योंकि हत्‍यारा मनुष्‍य मांस खाने वालों के लिये ही पशुओं की हिंसा करता है. यदि‍ मांस को अभक्ष्‍य समझ कर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओं की हत्‍या स्‍वत: ही बंद हो जाये, क्‍योंकि मांस खाने वालों के लिये ही मृग आदि पशुओं की हत्‍या होती है.”

यो हि खादति सांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्।
सदा भवति वै पापः प्राणिहन्ता तथैव सः॥

“जो जीवित रहने की इच्‍छा वाले प्राणियों को मार कर अथवा उनके स्‍वयं मर जाने पर उनका मांस खाता है, वह न मारने पर भी उन-उन प्राणियों का हत्‍यारा ही समझा जाता है.”

इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्या मार्गैरबुधोऽधमः।
हन्याज्जन्तून्मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः॥

“जो मांस लोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्‍य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है.”

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नाति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नरः॥

“जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है.”

मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः।
जन्मप्रभृति मद्यं च सर्व ते मुनयः स्मृताः॥

“जो धर्मात्‍मा पुरुष जन्म से ही इस जगत में मद्य और मांस का सदा के लिये परित्‍याग कर देते हैं, वे सब-के-सब मुनि माने गये हैं.”

रूपमव्यङ्गतामायुर्बुद्धिं सत्वं बलं स्मृतिम्।
प्राप्तुकामैर्नरैर्हिंसा वर्जनीया कृतात्मभिः॥

“जो सुन्‍दर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्‍व, बल और स्‍मरण शक्ति प्राप्‍त करना चाहते थे, उन महात्‍मा पुरुषों ने हिंसा का सर्वथा त्‍याग कर दिया था.”

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