Meat Eating in Valmiki Ramayana : ‘श्री राम मांस खाते थे और चमड़ा पहनते थे’

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Meat Eating in Valmiki Ramayana

हाल ही में ‘अन्नपूर्णी’ (Annapoorani) नाम की कोई फिल्म बनी है, जिसमें नयनतारा (Nayanthara) नाम की ऐक्ट्रेस ने काम किया है. बताया गया है कि इस फिल्म के जरिये लव जे.हा.द को बढ़ावा दिया गया है. इस फिल्म में नयनतारा किसी ब्राह्मण पुजारी की बेटी बनी है, जिनके घर पर कभी मांसाहार नहीं किया गया. इस फिल्म में उसका एक मु.स्लि.म दोस्त है जो उससे कहता है कि “राम, सीता और शिव भी मांस खाते थे.” और इस प्रकार वह उससे अपनी बातें मनवाने में कामयाब होता है.

मुझे आजतक यह समझ नहीं आया कि मांसलोभियों को भगवान् श्रीराम या शिव आदि के नाम से ही मांसाहार का प्रचार क्यों करना है? क्या अपने ही नाम से मांस खाने में शर्म आती है मांसभक्षियों को? आखिर क्यों आये दिन कुछ लोग देवी-देवताओं और प्राचीन ऋषि-मुनियों को भी जबरन मांसाहारी सिद्ध करने में जुट जाते हैं?

सोशल मीडिया पर कुछ लोग जो स्वयं को इतिहासकार बता रहे हैं और अपनी पुस्तकें बेच रहे हैं, उन्हीं में से एक व्यक्ति ने अपनी वॉल पर लिखा है कि—

“गीताप्रेस द्वारा अनूदित वाल्मीकि रामायण में यह प्रयास किया गया है कि वह तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस से तारतम्य बनाते हुए दिखे. गीताप्रेस द्वारा किए गए अनुवाद में बौद्ध मत के अतिवादी अहिंसा का दबाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है. बौद्ध मत के दबाव में अपने ग्रंथों का गलत अनुवाद कर दिया है और खाने योग्य पशुओं मुर्गा, हिरण आदि व्यंजनों को अलग अलग कन्द बताकर लिख दिया है. वाल्मीकि रामायण का सही अनुवाद 1927 में प्रकाशित रामायण और IIT कानपुर में किया गया है, क्योंकि इनमें शब्द-दर-शब्द अनुवाद किये गये हैं.”

मतलब कि जिन पुस्तकों में भगवान् या ऋषि-मुनि मांसाहार करते हुए न दिखाई दें तो मतलब कि वह अनुवाद ही गलत है? ऐसे में किसी भी प्रकार से उन पुस्तकों की शरण ली जानी चाहिए जिसमें श्रीराम मांस खाते हुए दिखाई दे रहे हों, भले ही वे पुस्तकें किसी भी मकसद से लिखी गई हों, ताकि बस किसी भी प्रकार से मांसलोभियों की लपलपाती जीभ को समर्थन मिल सके. फेसबुक का यही ‘इतिहासकार’ अपनी अन्य Posts में श्रीराम को कामी और शिवलिंग को ‘लिंग’ भी बता चुका है.

खैर, यदि गीताप्रेस के ऊपर बौद्ध मत के अतिवादी अहिंसा का इतना ही दबाव था तो उन्होंने अपना यह दबाव महाभारत के ‘आश्वमेधिक पर्व’ के अध्याय ८८ में क्यों नहीं दिखाया जहाँ युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ में पशु की बलि देते हैं? वहां गीताप्रेस ने किसी दबाव में आकर गलत अनुवाद क्यों नहीं कर दिए? और क्या तुलसीदास जी पर भी बौद्ध मत का दबाव था?

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यदि बात करें 1927 में द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनूदित वाल्मीकि रामायण की, तो उसमें उनके द्वारा किये गए शब्द-दर-शब्द अनुवादों से श्रीराम मांसाहारी तो सिद्ध हो जाते हैं, लेकिन उनके यही अनुवाद उन्हीं की पुस्तक में दिए गए अन्य अनुवादों और तथ्यों से स्पष्ट विरोधाभास भी दिखाते हैं. उनके किये शब्दार्थ उन्हीं की पुस्तक में श्रीराम की सभी प्रतिज्ञाओं का उल्लंघन करते हैं.

क्या आपको पूर्ण विश्वास है कि द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी जैसे लोगों को संस्कृत का पूर्ण ज्ञान रहा होगा, या वाल्मीकि रामायण का अनुवाद करने का उनका मकसद अच्छा ही रहा होगा?

उस समय विद्यावाचस्पति पंडित श्री बालचंद शास्त्री सहित कई संस्कृत आचार्यों ने इसी बात को उठाया भी था, और वर्ष 1930 में बालचंद शास्त्री का एक लेख ‘कल्याण’ पुस्तक के ‘रामायण अंक’ (‘श्रीरामायण में मांसाहार’ शीर्षक नाम से) में भी प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण के विवादित श्लोकों की व्याकरण को समझाने के साथ ही कहा है कि “रामायण के कुछ श्लोकों के कुछ शब्दों को आधार बनाकर श्रीराम को मांसाहारी सिद्ध करने का प्रयास करने वाले लोगों ने संस्कृत व्याकरण के नियमों को तो छोड़िये, रामायण में श्रीराम की अटल और अखंडनीय प्रतिज्ञाओं पर भी ध्यान नहीं दिया.”

और केवल द्वारिका प्रसाद ही नहीं, कई और भी लोग और संस्थाएं हैं जो प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का word by word अनुवाद करते रहे हैं, जैसे कुछ लोग इंटरनेट पर IIT Kanpur की तरफ से किये गए अनुवाद को भी प्रामाणिक मानते हैं, जो कि और भी अधिक बकवास अनुवाद हैं, और ऐसा इसलिए क्योंकि वे मशीनी अनुवाद हैं, बुद्धि से किये गए अनुवाद नहीं. मशीन आपके लिए उतना ही कर सकती है, जितना आपने उसमें Save कर दिया है. उससे आगे वह अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकती. इंग्लिश ट्रांसलेशन करने वालों ने तो संस्कृत व्याकरण की पूरी धज्जियाँ ही उड़ा दीं.

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और प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का भावार्थ न समझकर उनका केवल शब्दार्थ कर देने से कैसे अर्थ निकलते हैं, यह भी देख लीजिये-

ततोवरो वध्यादक्षिण स्कन्धोपरि हस्तं नीत्वाममब्रते स्तिस्व पठित मंत्रेण तस्थाहृदयमालभते.

इस संस्कृत पंक्ति का केवल शब्दार्थ या गूगल ट्रांसलेशन से अर्थ निकालेंगे तो अर्थ निकलता है-
‘विवाह वेदी पर दूल्हा स्त्री के दायें कंधे को पकड़कर देह काटकर उसका हृदय निकाल लेता है और ‘अम्माब्रत’ (अपने कुल में) मंत्र पढ़ते हुए बांट देता है’.

तो प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का शब्द-दर-शब्द अनुवाद करने वालों ने जैसे करोड़ों निर्दोष पशुओं की बलि चढ़वा दी, वैसे ही कहीं आगे चलकर वे विवाह-वेदी पर दूल्हे के हाथों स्त्री की भी बलि न चढ़वा दें.

अनुवाद करते समय जब एक ही शब्द के कई अर्थ निकलते हों, तब उस शब्द का कौन सा अर्थ कहाँ प्रयोग किया जाना चाहिए, यह बात विवेक और बुद्धि से ही समझी जा सकती है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है-

सारंग लै सारंग चली, कर सारंग की ओट।
सारंग झीनी जानिकै, सारंग कर गई चोट॥

‘सैन्धव’ का एक अर्थ ‘अश्व’ और दूसरा अर्थ ‘नमक’ होता है. अब यदि आपके सामने एक व्यक्ति यात्रा पर जा रहा है और दूसरा व्यक्ति भोजन कर रहा है. दोनों ही आपसे अपने लिए ‘सैन्धव’ लाने के लिए कह रहे हैं, तो यदि आपमें बुद्धि और विवेक होगा तो ही आप यह निश्चय कर सकेंगे कि कौन सा व्यक्ति किस ‘सैन्धव’ की बात कर रहा होगा.

‘नाग’ का अर्थ ‘सांप’ तो है ही और एक अर्थ ‘हाथी’ भी है. अब कहीं ‘नाग’ लिखा मिल जाये तो सब लोग इसका सामान्य अर्थ ‘सांप’ से ही लगाएंगे. मशीनें तो केवल यही अर्थ लगा पायेंगी. लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि लिखने वाले ने इसे सांप के ही अर्थ में लिखा हो. इसके लिए तो हमें आगे-पीछे का पूरा प्रसंग वगैरह सब देखना पड़ेगा और बुद्धि लगाकर यह समझने का प्रयास करना पड़ेगा कि लिखने वाले ने इस शब्द को किस अर्थ में लिखा होगा और किसके लिए लिखा होगा.

कुछ बातें तो खुद से बुद्धि लगाने वाली होती हैं —-

जिन महान ऋषियों के आश्रम में सिंह और मृग भी एक साथ पानी पीने लगते थे, जो ऋषि मांस-रक्त के टुकड़े गिराये जाने पर अपने आश्रम और यज्ञ को अपवित्र मानते हों, क्या उन ऋषियों के आश्रम में मांसाहार होगा? क्या पिण्डदान करते समय या गृहशांति की वास्तुपूजा या गंगा जी की पूजा के समय मांस और शराब का प्रयोग किया जाता है?

राजा दिलीप ने गाय को बचाने के लिए स्वयं ही सिंह का आहार बनने का निश्चय किया, क्या उन्हीं के वंश के मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम मांसाहार करेंगे? जब सब जगह राक्षसों या आसुरी प्रवृत्तियों की पहचान मांसभक्षी के रूप में भी बताई गई है, तो भगवान् भी कहाँ से मांसाहारी हो जायेंगे?

भगवान् सब प्रकार के निर्दोष प्राणियों की रक्षा करने और अच्छे-अच्छे सन्देश देने के लिए आते हैं या खुद भी मांसभक्षण करने? क्या कभी सुना है कि मां काली निर्दोष प्राणियों का रक्त पीती हैं? वे महिषासुर का वध करती हैं या महिष का? मां काली रक्तबीज राक्षस का रक्तपान करती हैं या उन बकरों-भैसों का, जिन्होंने कभी किसी का कुछ बिगाड़ा ही नहीं या जिनसे किसी को कोई संकट नहीं?

अगर शरणागतवत्सल भगवान भी मांसाहार और पशुबलि पसंद करेंगे, तो निर्दोष और बेजुबान प्राणी किससे अपनी रक्षा की आस लगाएंगे? यदि मेरे जैसे साधारण इंसान के मन में भी निर्दोष प्राणियों के प्रति इतनी दया है, तो क्या मैं करुणानिधान और जगतजननी मां से भी अधिक दयालु हूँ?

जिन वाल्मीकि जी ने एक पक्षी की हत्या के कारण दुखी होकर व्याध को श्राप दे दिया था, वही करुणा से भरे हुए वाल्मीकि जी ‘मांसाहारी श्रीराम’ का गुणगान करेंगे? निश्चय ही श्रीराम शुद्ध शाकाहारी ही रहे होंगे और उन्होंने बेवजह कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं की होगी, तभी तो वाल्मीकि जी जैसे महर्षि ने श्रीराम का इतना गुणगान किया है.

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और जैसे ही श्रीराम शाकाहारी सिद्ध हो जाएँ तो कोई मांसभक्षी तुरंत बीच में कूदकर ‘वैष्णव-शैव-शाक्त’ का अनर्गल प्रलाप शुरू कर देता है, जैसे सब के सब शैव और शाक्त मांसाहारी ही होते हों. तो क्या कट्टर शाकाहारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भगवान् शिव के भक्त नहीं हैं? क्या वे देवी मां या मां काली के भक्त नहीं हैं? या क्या वे अपने जीवन में सफल व्यक्ति नहीं हैं? क्या मोदी जी ने कभी पशुबलि दी? क्या उन्होंने कभी मांसाहार किया? क्या वे अपने धार्मिक अनुष्ठान पूरे नहीं करते? क्या वे नवरात्रि पर व्रत-साधना नहीं करते? तो फिर वैष्णव-शैव-शाक्त जैसी फिजूल की बातों का क्या आधार है?

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दरअसल, स्वार्थी बुद्धि या आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग वेदों-शास्त्रों का अपने-अपने अनुसार अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं. अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करते रहते हैं.

जैसे वाल्मीकि रामायण में रावण सीताजी से कहता है कि “देवी! अपने पति के त्याग और परपुरुष के अंगीकार से धर्मलोप की आशंका व्यर्थ है. तुम्हारे साथ मेरा जो स्नेह सम्बन्ध होगा, वह आर्ष धर्मशास्त्रों द्वारा समर्थित है.” (अरण्यकाण्ड सर्ग ५५)

जबकि किसी भी धर्मशास्त्र में ऐसे कृत्य को समर्थन प्राप्त नहीं है, लेकिन रावण अपने स्वार्थ के लिए सीताजी से इस प्रकार का झूठ कह रहा था, क्योंकि रावण ऐसा ही चाहता था. महाभारत में शकुनि आदि भी अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करते रहते थे, और आज के मांसलोभी भी वही कर रहे हैं.

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चलिए, अब आप 1927 की द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा अनूदित वाल्मीकि रामायण में ही देखिये-

अहंनियममातिष्ठे सिध्यर्थं पुरुषर्षभ।
तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ कामरूपिणौ॥
व्रते मे बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ।
समांसरुधिरौघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम्।
अवधूते तथाभूते तस्मिन्नियमनिश्चये॥
(बालकाण्ड 19.4,5,6)

(विश्वामित्र राजा दशरथ जी को बताते हैं कि-) “हे नरश्रेष्ठ! मैं जब फल प्राप्ति के लिए यज्ञदीक्षा ग्रहण करता हूं, तब दो कामरूपी राक्षस आकर विघ्न किया करते हैं. जब बहुत दिन तक किया हुआ यज्ञ पूरा होने को होता है, तब वे राक्षस आकर यज्ञवेदी पर मांस और रुधिर बरसाते हैं. इससे मेरा यज्ञ भ्रष्ट हो जाता है.”

दशकोटिसहस्राणिरक्षसांकामरूपिणाम्।
मांसशोणितभक्ष्याणांलङ्कापुरनिवासिनाम्॥
(6.19.15)

“लंकापुरी में 10 कोटि सहस्त्र राक्षस बसते हैं. ये कामरूपी राक्षस मांस खाते और रक्त पीया करते हैं.”

फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ धर्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यास्तां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥
(3.19.15)

(यहाँ शूर्पणखा अपने भाई खर को श्रीराम और लक्ष्मण जी का परिचय देते हुए कहती है कि-) “फल-मूल खाने वाले, जितेन्द्रिय, तपस्वी और धर्मचारी महाराज दशरथ के दो पुत्र राम और लक्ष्मण नाम के दो भाई है.”

पुत्रौ दशरथस्यावां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
प्रविष्टौ सीतया सार्धं दुश्चरं दण्डकावनम्॥
फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ धर्मचारिणौ।
वसन्तौ दण्डकारण्ये किमर्थमुपहिंसथ॥
(3.20.7 व 8)

(यहाँ श्रीराम स्वयं ही राक्षसों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-) “हम दोनों महाराज दशरथ के पुत्र, सीता को साथ लिए इस दण्डकवन में आये हैं. हम फल-मूल खाने वाले जितेन्द्रिय, तपस्वी और धर्मचारी हो इस दंडकवन में रहते हैं. तो तुम हमारे ऊपर क्यों चढ़ आये हो अथवा हमें क्यों मारने आये हो?”

(अयोध्याकाण्ड में) जब सीताजी श्रीराम के साथ वन जाने का आग्रह करती हैं, तब श्रीराम वन के कष्टों का वर्णन करते हुए सीताजी को बताते हैं कि-

सुप्यते पर्णशय्यासु स्वयं भग्नासु भूतले।
रात्रिषु श्रमखिन्नेन तस्माद्दुःखतरं वनम्॥
अहोरात्रं च सन्तोषः कर्तव्यो नियतात्मना।
फलैर्वृक्षावपतितै स्सीते दुःखमतो वनम्॥
उपवासश्च कर्तव्यो यथा प्राणेन मैथिलि।
जटाभारश्च कर्तव्यो वल्कलाम्बरधारिणा॥
(2.28.11,12,13)

“सीते! दिनभर के थके-मांदे वनवासी को रात के समय सोने के लिए कोमल गद्दे और तकिये नहीं मिलते, अपितु अपने आप सूखकर गिरी हुई पत्तियां बिछाकर उन पर ही सोना पड़ता है. वहां पलंग नहीं मिलता, जमीन पर ही लेटना पड़ता है. वन में भोजन की अन्य वस्तुओं पर मन नहीं चलाया जा सकता. सायं-प्रातः वृक्षों से गिरे हुए फल खाकर ही संतोष करना पड़ता है. वन में यथाशक्ति उपवास भी करना पड़ता है और वस्त्रों की जगह वृक्ष की छाल ही पहननी पड़ती है.”

इसी के साथ, अयोध्याकाण्ड के सर्ग 37 और सुन्दरकाण्ड के सर्ग 35 (श्लोक 27) में भी श्रीराम को (वनवास में) वल्कल वस्त्र (वृक्षों की छाल) धारण करने वाला ही बताया गया है.

फलानि मूलानि च भक्षयन् वने।
गिरीमः च पश्यन् सरितः सरांसि च॥
वनम् प्रविश्य एव विचित्र पादपम्।
(2.34.59)

“मैं फल और मूलों को खाकर पर्वतों, नदियों, सरोवरों को देखता हुआ भांति-भांति के वृक्षों से परिपूर्ण वन में जाकर सुखी होऊंगा.”

वाल्मीकि जी ने श्रीराम के लिए यह भी लिखा है कि ‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ अर्थात भगवान श्रीराम दो तरह की बात नहीं कहते. उन्होंने एक बार जो कह दिया, वही सत्य और अटल है.

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श्रीराम ने कभी मांसाहार नहीं किया था, इसका प्रमाण महाभारत में भी दिया गया है. महाभारत के अनुशासन पर्व के 115वें अध्याय में (श्लोक 63 से 68) कहा गया है कि-

श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।
रैवते रन्तिदेवेन वसुना सृञ्जयेन च॥
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।
दुष्यन्तेन करूशेन रामालर्कनलैस्तथा।
विचकाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता॥
ऐलेन पृथुना चैंव वीरसेनेन चैव ह।
इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च॥
अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना।
हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च॥
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्रि पुरा मांसं न भक्षितम्।

“श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, दुष्यन्त, भरत, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, राजा जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत– इन सबने तथा अन्यान्य राजाओं ने भी कभी मांस-भक्षण नहीं किया था.”

लेकिन फिर भी द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने सुन्दरकाण्ड के सर्ग 36 के श्लोक 41 में कैसा अनुवाद किया है, वह देखिये-

न मांसं राघवो भुङक्ते न चाऽपि मधु सेवते।
वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम्॥

“श्रीराम ने मांस खाना और मधु का सेवन करना छोड़ दिया है. वे नित्य वानप्रस्थयोगी और वन में उत्पन्न हुए फल-मूल का आदर करते हैं और तीसरे दिन शरीरधारणोयुक्त अन्न खाया करते हैं.”

अब इस अनुवाद से तो ऐसा लग रहा है जैसे श्रीराम पहले मांस खाते थे और बाद में खाना छोड़ दिया. जबकि पहले के सभी काण्डों में राक्षस भी श्रीराम की पहचान फल-मूल खाने वाले तपस्वी के रूप में ही बता रहे हैं, लेकिन फिर भी सुन्दरकाण्ड में इस प्रकार का अनुवाद किया गया. अब ऐसा जानबूझकर किया गया या गलती से, यह हम नहीं जानते.

साथ ही इस श्लोक में फल-मूल खाने की कोई बात नहीं की गई है, लेकिन अनुवाद में ऐसा लिखा गया है. और यह तो कुछ भी नहीं, इंटरनेट पर IIT Kanpur वालों ने इसी श्लोक का क्या अनुवाद किया है, वह भी देखिये-

“Rama is not eating meat, nor drinking wine. He takes only the one fifth of a meal (sanctioned for an ascetic) available in the forest.”

अब यह तो कोई प्राइमरी क्लास का बच्चा भी जानता है कि ‘मधु’ का अर्थ ‘शहद’ भी होता है, लेकिन अब मशीन तो केवल वही अर्थ दे पायेगी, जितना उसे बताया गया है. आपने मशीन को बता दिया कि जहाँ कभी भी ‘मांस’ शब्द आये, तो उसका अर्थ ‘Meat’ लिखना है, तो मशीन अब केवल ऐसा ही करेगी. उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसके आगे कौन सी मात्रा है, आगे कौन सा अक्षर या शब्द प्रयुक्त हुआ है, या हलन्त या विसर्ग वगैरह से कोई मतलब नहीं.

इस श्लोक का सही अनुवाद यह है कि श्रीराम ने अपने मन (अपनी पसंद) के पदार्थों (जो मांसल और कोमल हों जैसे कि फल-मूल) और शहद का सेवन करना भी छोड़ दिया है, और अब वे नित्य पञ्चम प्रहर में वानप्रस्थयोगी अन्न ही खाते हैं.

मांस शब्द ‘मन्’ धातु से बना है. जब संस्कृत धातुओं से शब्द बन रहे थे तब ‘माँस’ का एक अर्थ था ‘मन को स्वाभाविक रूप से पसंद (मांसल या कोमल) भोज्य पदार्थ’, जैसे गूदेदार रसदार फल और कंद. पञ्चम प्रहर में भोजन का अर्थ है दिनभर सूर्यास्त होने तक उपवास. वानप्रस्थियों, तपस्वियों और व्रतियों के लिए इन्द्रियों के लिए स्वादिष्ट पदार्थ अक्सर वर्जित होते हैं, अतः मांसल (कोमल फल का स्वादिष्ट गूदा) और मधुर पदार्थ त्यागने पड़ते हैं, जिसे ‘निरामिष’ (मिष रहित) कहा जाता था.

वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने कुछ स्थानों पर कंद और फलों की प्रशंसा की है, जिससे पता चलता है कि उन्हें फल-मूल पसंद थे. लेकिन सीताजी के हरण के बाद उन्होंने रसदार फल-मूल खाना भी छोड़ दिया था और दिन के केवल एक समय सूखे अन्न ही खाकर रहने लगे थे.

अयोध्याकाण्ड में श्रीराम सीताजी से कहते भी हैं कि-

उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः।
नायोध्यायैन राज्याय स्पृहयेऽद्य त्वया सह॥
(2.95.17)

“सीते! तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके मधुर मूल और फल का भोजन करता हुआ मैं (इतना प्रसन्न हूँ कि) वापस अयोध्या का राज्य पाने की आकांक्षा ही नहीं रही.”

तो जब सीताजी उनसे अलग हो गईं, तब श्रीराम को उन मूल और फलों का स्वाद भी नहीं सुहाया और वे केवल सूखे अन्न ही खाकर रहने लगे.

जैसे जब पार्वती जी भगवान् शिव को पाने के लिए तपस्या कर रही थीं, तो शुरुआत में तो उन्होंने केवल फल-मूल खाए, फिर उन्होंने अपनी तपस्या को और भी अधिक कठिन बनाने के लिए फल-मूल भी छोड़ दिया था और केवल सूखी पत्तियों पर आश्रित रहने लगी थीं, और बाद में उन्होंने सूखी पत्तियों को भी त्याग दिया था, और इसी से उनका नाम ‘अपर्णा’ पड़ा.

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यह बात हर संस्कृत विद्वान ने मानी है कि वाल्मीकि जी ने रामायण को संगीतबद्ध करने के लिए कहीं-कहीं पर संस्कृत शब्दों के बड़े विचित्र प्रयोग किए हैं, जो किसी की समझ में नहीं आते.

प्राचीन संस्कृत का मशीनों से अनुवाद करने वाले या word to word अनुवाद करने वाले लोग महाकवि माघ (शिशुपालवधम्) के निम्नलिखित श्लोकों का अनुवाद करने की हिम्मत तो कभी कर ही नहीं सकते. एक-एक अक्षर, एक-एक मात्रा और एक-एक संधि-विच्छेद का महत्त्व है-

दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः॥

लोलालालीललालोल लीलालालाललालल।
लेलेलेल ललालील लाललोलीललालल॥

कः कौ के केककेकाकः काककाकाककः ककः।
काकः काकः ककः काकः कुकाकः काककः कुकः॥

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्॥

इसे समझने के लिए पढ़िए : संस्कृत भाषा के अद्भुत और चमत्कारिक प्रयोग

अब 1927 की पुस्तक में बालकाण्ड के निम्नलिखित श्लोक का क्या अर्थ लिखा गया है, यह देखिये-

ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचन:।
(बालकाण्ड 20.2)
“मेरे राजीवलोचन श्रीराम अभी केवल पंद्रह वर्ष के ही हैं.”

तो यदि वाकई में 1927 की वाल्मीकि रामायण में word to word सटीक अनुवाद किये जा रहे थे, तो बालकाण्ड के इस श्लोक का अपने मन से अंदाजा लगाकर 15 वर्ष ही क्यों लिखा गया? जबकि यहाँ पंद्रह वर्ष के होने की तो बात ही नहीं की गई है. यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि श्रीराम तो अभी पूरे सोलह वर्ष के भी नहीं हुए हैं, जो कि गीताप्रेस वालों ने सही लिखा है.


क्या भगवान् शिव मांस खाते हैं?

यः स्वार्थं मांसपचनं कुरुते पापमोहितः।
यावन्त्यस्य तु रोमाणि तावत्स नरके वसेत्‌॥

“जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोयें होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में निवास करता है. जो मनुष्य मद्य और मांस में आसक्त हैं, उनसे भगवान् शिव बहुत दूर रहते हैं.” (स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्ध ३।५९-५३)

फिर भी जिन लोगों को ऐसा लगता है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहार या पशुबलि जैसे किसी भी कार्य का समर्थन किया गया है, तो वे लोग एक बार महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्याय 115 पढ़ लें.

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LLB (Bachelor of Law). Work experience in Mahendra Institute and National News Channel (TV9 Bharatvarsh and Network18). Interested in Research. Contact- sonagarwal00003@gmail.com

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