वैदिक हिंसा (Vaidik Hinsa) : गलती या षड्यंत्र?

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सनातन धर्म हिन्दुओं में पशुबलि प्रथा

Pashu Bali in Sanatan Dharma (Animal Sacrifice in Hinduism)

अथर्ववेद के नवम काण्ड के चतुर्थ सूक्त में गौओं से संतानोत्पादन के लिये नियुक्त किये जाने वाले वृषभ के महत्त्व व महिमा का वर्णन किया गया है. वहाँ काव्यात्मक एवं अलंकारिक भाषा में बताया गया है कि यदि किसी के घर में उत्तम कोटि का बछड़ा उत्पन्न हो जाये तो उसे नगर की गौओं से संतान उत्पन्न करने के लिये दान कर देना चाहिये.

भाव यह हुआ कि उस बछड़े को राज्य को सौंप देना चाहिये. 24 मंत्रों के इस सूक्त में ऐसे वृषभ के गुणों और उससे होने वाले लाभों का विस्तार से वर्णन करते हुये उसे “पिता वत्सानां पतिरघ्न्यानाम” कहा गया है. अर्थात् बैल को उत्तम बछड़े-बछड़ियों को उत्पन्न करने वाला पिता कहा गया है और गौओं को ‘अनघ्नानाम् इत्युक्ते’ (न मारने योग्य) कहकर उनका पति भी कहा गया है. यहाँ ऐसे बैल को नियुक्त करने का प्रयोजन यह बतलाया गया है कि वह बैल ‘तन्तुमातान्’ अर्थात् संतान रूपी तंतु को आगे फैलाने (बढ़ाने) वाला हो सके, जिससे प्रजा को घी-दूध भरपूर मात्रा में प्राप्त हो सके.

लेकिन कुछ व्याख्याकारों ने इतने सुंदर सूक्त की व्याख्या भी कितनी गलत तरीके से की, यह देखकर समझ ही नहीं आता कि इसे क्या कहा जाए. यहाँ तक कि प्रतिष्ठित भाष्यकार सायण ने भी इस महत्त्वपूर्ण सूक्त का विनियोग बैल को मारकर उसके मांस से होम करने में किया. सायण ने इस मंत्र के भाष्य की उत्थानिका में लिखा है-

ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मांसं भिन्नभिन्नदेवताभ्यो जुहोति। तत्र वृषभस्य प्रशंसा तदङ्गानां च कतमानि कतमदेवेभ्यः प्रियाणि भवन्ति तद्विवेचनम्। वृषभबलिहवनस्य महत्त्वं च वर्ण्यते. तदुत्पन्नं श्रेयश्च स्तूयते।

अपने भाष्य द्वारा आचार्य सायण का यह कहना था कि ब्राह्मण वृषभ बैल को मारकर उसके मांस से भिन्न-भिन्न देवताओं को आहुति देता है. सायण ने यहाँ यह भी प्रतिपादित कर दिया कि बैल के कौन-कौन से अंग किस-किस देवता को प्रिय हैं.

लेकिन सायण जैसे प्रतिष्ठित भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या देने से पहले एक बार यह विचार भी नहीं किया कि भला मरे हुये बैल से बछड़े-बछड़ियाँ उत्पन्न होकर कैसे दूध-घी प्रदान कर सकते हैं?

तो न केवल भाषा और व्याकरण की दृष्टि से, अपितु तार्किक दृष्टि से भी अथर्ववेद के इस सूक्त का अर्थ गोवंश को मारकर उसके मांस से यज्ञ में आहुतियाँ देने विषयक किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता है.

वास्तव में आचार्य सायण से गलती हुई या…?


यजुर्वेद में जिस पशुबलि का हिंसात्मक अर्थ राक्षसी स्वभाव वाले लोग लगाते हैं, वहां बकरे या हिरण का नहीं, गाय (बैल) का उल्लेख है, अतः हिंसात्मक अर्थ लगाने से गोहत्या का अर्थ लगेगा, जो किसी भी प्रकार से तार्किक नहीं होगा.

वाल्मीकि रामायण में महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ जी से कहते हैं-

“राजन्! जब-जब मैं यज्ञ के द्वारा देव-समूहों का पूजन करता हूँ, तब-तब कुछ निशाचर आकर मेरे उस यज्ञ को भ्रष्ट कर देते हैं. मैंने अनेक बार यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, किंतु राक्षसनायक उस यज्ञ-मण्डप की भूमि में रक्त और मांस के टुकड़े बिखेर देते हैं, जिससे यज्ञ के लिये परिश्रम करके भी उसमें सफल नहीं हो पा रहा हूँ.”

फिर भी आज कुछ स्वार्थी व मांसलोभी लोगों ने यज्ञ-वेदिकाओं व मंदिरों जैसे पवित्र स्थानों को भी बूचड़खानों में परिवर्तित करके रख दिया. मां जगदम्बा की पूजा में उन्हीं की निरपराध संतान बकरे को काट देते हैं और कहते हैं कि ‘माता को पसंद है!’

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देश में बहुत से मूर्ख हिन्दू ऐसे हैं जो उपनयन और श्राद्ध जैसे यज्ञ में भी बकरा काट डालते हैं, और कहते हैं कि “परम्परा” है! उपनयन और श्राद्ध का बलि से क्या संबंध है? फिर भी काट डालते हैं और कहते हैं कि ‘शास्त्र में नहीं है तो क्या, परम्परा है!’
जैसे इनकी परम्परा जनक, जानकी, गौतम, याज्ञवल्क्य वाली नहीं बल्कि महिषासुर और रावण वाली हो!

इस देश में राम की भी परम्परा है और रावण की भी. हम कौन सी परम्परा अपनाते हैं, यह हमारे ही चरित्र पर निर्भर करता है. चित्त अपने आप शुद्ध नहीं होता, आहार शुद्धि उसका एक अंग है. अन्न ब्रह्म है. यदि खानपान शुद्ध हो जायेगा तो पूरा विश्व बिना कहे ही पुनः सनातनी बन जाएगा. और यही कारण है कि आसुरी प्रवृत्ति के लोग हमेशा से ही हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट करने का प्रयास करते रहे हैं. पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हिन्दुओं की हालत देख लीजिये, जहाँ के अधिकांश हिन्दू मांसाहार करते हैं और पशुबलि देते हैं.

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मनुस्मृति और महाभारत में माँसाहार का समर्थन करने वाले को भी ‘खाने वाले के समान ही पाप का भागी’ कहा गया है. फिर भी मांसभक्षी लोग मनुस्मृति से मांसाहार के पक्ष वाले श्लोकों को चुन-चुनकर प्रस्तुत करते हैं लेकिन उसी मनुस्मृति में हर प्रकार के मांसाहार का कड़े शब्दों में निषेध करने वाले श्लोक इन्हें क्यों नहीं दिखाई देते? रामायण में मांस और सुरा वाले श्लोक तो इन्हें दिख गए, लेकिन हड्डी फेंककर विश्वामित्र जी का यज्ञ भ्रष्ट करने वाला प्रकरण इन लोगों को क्यों नहीं दिखाई देता? आखिर यह किस प्रकार का दृष्टि-दोष है? एक ही ग्रंथ में दोनों प्रकार की बातें होने का क्या अर्थ है?

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पशु हिंसा रोकने के लिये जब-जब सरकार द्वारा कोई कानून लाया जाता है, तो उसका विरोध करने के लिये आसुरी प्रवृत्तियों से ओतप्रोत कुछ असामाजिक तत्त्व केरल में सामूहिक रूप से मूक और निरपराध बछड़े की हत्या कर देते हैं. बीच चौराहे पर गौवंश को काटने को वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता देते हैं. गौवध पर प्रतिबंध संबंधी कानून बनाने के बारे में या अवैध कत्लखानों को बंद करने में सरकार यदि कदम उठाने लगती है तो कईयों को उसमें कट्टरवाद, असहिष्णुता एवं धार्मिक उन्माद दिखने लगता है.

ऐसे दुराचारी केवल वर्तमान काल में ही नहीं हैं, अपितु सैंकड़ों वर्षों से हमारी संस्कृति को क्षति पहुँचाने में लगे हुये हैं. ऐसे ही आसुरी प्रकृति वाले लोगों ने अपनी प्रकृति के अनुकूल यज्ञ, श्राद्ध या मधुपर्कादि में मांसादि का विधान कर मीमांसा शास्त्र को हानि पहुंचाई. एक षड्यंत्र से इस मांसभक्षण को विधिसम्मत भी घोषित कर दिया गया. यही पशु हिंसा कालांतर में विरोध स्वरूप बौद्ध मत के उद्भव का कारण बना.

जबकि “अपि वा दानमात्रं स्यात् भक्षशब्दानभिसम्बन्धात्” इत्यादि सूत्रों में पशुओं के मात्र दान का विधान किया गया है, न कि पशुओं की हिंसा का.

तैत्तिरीय ब्राह्मण में स्पष्ट रूप से लिखा है –
अपशवो वा एते यदजावयश्चारण्याश्च।
एते वै सर्वे पशवः यद्गव्या” इति,

“ये जो बकरी, भेड़ और जितने अरण्यचारी प्राणी हैं, सब निश्चय ही अपशव हैं अर्थात् अखाद्य हैं.”

वस्तुतः पशुहिंसा की गंधमात्र भी मीमांसाशास्त्र में नहीं है. यह केवल “अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः” वाक्य के अनुसार अंध-परम्परा के अंतर्गत एक-दूसरे का अंधानुकरण करने वाले टीकाकारों के अनवधान एवं स्वार्थ का परिणाम है.

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“वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का भ्रम फैलाकर कुछ दुराचारी, एवं मांसाहारी लोग यज्ञ में पशुओं को काटने लगे और यह भ्रम भी उनके द्वारा फैला दिया गया कि यज्ञ में पशुहिंसा करने वाला सीधा स्वर्ग को जाता है. शाक्त मत में बलि का अर्थ था तपस्या द्वारा बल प्रदान करना. कलियुग का वाममार्गी शाक्त मत असल में राक्षसों का सम्प्रदाय है. कलियुग में वाममार्गी शाक्त असुरों (रावण जैसों का सम्प्रदाय) ने बिहार, बंगाल और असम में मांसाहार का प्रचार किया. इन लोगों ने उपनयन, श्राद्ध जैसे वैदिक कर्मों में भी बकरा काटना अनिवार्य बना दिया है, फर्जी भाष्य ग्रंथ संस्कृत में लिख लिए हैं.

महाभारत में वेद व्यास जी ने भी कहा है कि “प्राचीनकाल में यज्ञ-कर्मकाण्डों में हिंसा नहीं होती थी, लेकिन बाद में धूर्तों ने गलत प्रचार द्वारा यज्ञ-कर्मकाण्डों में हिंसा को आरम्भ कर दिया”. अपने मत के समर्थन के लिए कुछ बेवकूफ लोग मां काली को तमोगुणी बता देते हैं, जबकि उपनिषदों में मां काली को तमस को ही काटने वाली देवी बताया गया है.

किसी निरपराध पशु के रक्त-मांस से ईश्वर को तृप्त करने की कल्पना अत्यंत वीभत्स है और “मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः” के अनुसार यह स्पष्टः ईश्वरद्रोह है, और ईश्वरद्रोह ही जिनकी प्रकृति है, उन्हीं असुरों ने समय-समय पर ऐसे घृणित कार्यों का समर्थन किया है.

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दुःख का विषय तो यह रहा कि यह कुकृत्य वेदों के नाम पर किया गया. हमारे इन कुकृत्यों को देखकर चार्वाक मतावलम्बियों को वेदों के विरोध में अपना स्वर तीव्र करने का अवसर मिल गया. इन्हीं न्यूनताओं के कारण विदेशियों द्वारा वेदों को “गड़रियों के गीत” कहने पर भी हम उनका विरोध नहीं कर सके. यज्ञहिंसा को देखकर ही भोगवादियों ने यह कहने का दुस्साहस किया कि यज्ञ केवल मृत व्यक्तियों और प्रेतों का कार्य मात्र है और कुछ नहीं.

क्या ऐसा हो सकता है कि जिस मांसाहार एवं गौमांश भक्षण के कारण हम अपना अनिष्ट करने वाले अधर्मियों को पहचान पाते हैं, उसी मांस का भोग यज्ञ के नाम पर देवगणों को लगाया जाता है? आखिर यह गड़बड़ हुई कहाँ है? निश्चय ही वेदों में इसका समर्थन नहीं हो सकता? कहीं न कहीं किसी धर्मद्रोही ने किसी श्लोक के किसी शब्द का गलत अर्थ किया होगा.

सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति को देखकर मैक्समूलर, विल्सन, ग्रिफिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया, बल्कि लाखों निर्दोष प्राणियों को मरवाकर हिन्दुओं और मलेच्छों में कोई अंतर ही न रहने दिया. आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे, पर वाममार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांसभक्षण एवं पशुबलि का विधान दर्शा बैठे.

इन सबका परिणाम यह हुआ कि ईसाईयों, मुस्लिमों आदि ने अपने मत के समर्थन में वेदों को ही साक्षी बनाया. साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा के समर्थकों ने भी सुनी-सुनाई बातों को बिना जाँचें बार-बार रटा, जिससे अधिकांश हिन्दुओं की अपने ही शास्त्रों से अनास्था हो बैठी. वेदों की हानि तथा अवैदिक मतों का प्रचार होने से क्षत्रिय धर्म का नाश हुआ, जिससे देश को गुलामी सहनी पड़ी.

जब तक हिन्दू सभ्यता अपने स्वधर्म पर टिकी थी, तब तक अजेय थी. भारत की कमजोरी तब आरम्भ हुई जब एक तरफ देश का बहुत बड़ा हिस्सा राष्ट्ररक्षा के लिए युद्ध को भी हिंसा कहने लगा, और बहुत से हिन्दू वाममार्गी तांत्रिकों के चक्कर में फँस गए जिन्होंने घर तो क्या, पवित्र मंदिरों तक को नहीं छोड़ा. और इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.

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फिर भी हम में से आज कई लोग यज्ञ में होने वाली हिंसा को सही साबित करने का अनर्गल प्रयास करते रहते हैं, जिससे वैदिक साहित्य का लाभ के स्थान पर हानि ही हुयी, तथा इससे वेदों का दुष्प्रचार ही हुआ. कलयुग की माया देखिये कि दुष्टों से अपने देश, समाज, परिवार, शरीर और धर्म की रक्षा करना “हिंसा” कहलाने लगा है, और निरपराध बेजुबान जीवों का भक्षण हिंसा नहीं है.

Edited By : Aditi Singhal (working in the media)

Credit With : Dr Vivek Sharma (Assistant Professor, Sanskrit)
(वैदिक हिंसा एक षड्यंत्र)


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