Bhagwan Shiv and Vishnu ji
हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयो-
र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदरहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्योद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥
अर्थात् “हे त्रिपुरारि (भगवान् शिव)! भगवान श्रीविष्णु जी ने आपके चरणों में एक हजार कमल-पुष्पों को चढ़ाने का संकल्प किया, उनमें से एक कमल कम हो जाने पर उन्होंने अपना नेत्र-रूपी कमल निकालकर चढ़ा दिया. भक्ति का वह उद्दाम आवेग सुदर्शन चक्र के रूप में बदल गया, जो तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए सावधान रहता है, तत्पर रहता है (विष्णुजी की भक्ति के अतिरेक से प्रसन्न होकर महादेव ने श्रीहरि को सुदर्शन चक्र प्रदान किया) और इसी चक्र से तीनों लोकों की अधर्म और आसुरी शक्तियों से रक्षा करने में वे कभी नहीं चूकते अर्थात् वे सदैव सतर्क रहते हैं.”
पुराणों की कथा के अनुसार, सुदर्शन चक्र विष्णुजी को भगवान् शिवजी से प्राप्त हुआ था. भगवान् शिव ने भगवान् विष्णु जी को यह चक्र-दान उनकी भक्ति-भावातिशयता से प्रसन्न होकर उन्हें त्रिलोकी की रक्षा के लिए किया था. विष्णुजी जगत् के संपालक व संरक्षक हैं. उनके द्वारा चक्र को धारण करने में चक्र की सार्थकता एवं उसके महान् प्रयोजन की सिद्धि निहित है. वे असुरों के आतंक बढ़ जाने पर दुष्टों का नाश कर आर्त्तजनों की रक्षा करते हैं. पुराणों में प्राप्त चक्रदान की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
लोक में जब दैत्य शक्ति प्रबल होने पर आसुरी आतंक बहुत बढ़ गया, तब देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली एवं उनसे अपनी प्रार्थना की. विष्णु जी ने शरण में आये हुए देवों को उनके संकट हरने का आश्वासन दिया. इस कार्य के लिये श्रीहरि ने भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करने का दृढ़ संकल्प ले लिया. इस पूजा के नियम के अनुसार, साधक पूजा पूरी होने से पहले उठ नहीं सकता और न ही किसी से बात कर सकता है.
श्रीविष्णु जी ने कैलाश के समीप जाकर शिवलिंग स्थापित किया, और उसके बाद शिवसहस्रनाम (भगवान शिव के एक हजार नामों) के स्तवन से उनकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी. इसके लिये उन्होंने अपने पास एक सहस्र कमल पुष्प भी रख लिये. भगवान् विष्णु जी भगवान् शिव के एक-एक नाम के साथ एकनिष्ठ होकर उन्हें एक-एक कमल-पुष्प अर्पित करते जा रहे थे. उस समय भगवान शिव ने अपनी पूजा-अर्चना में संलग्न विष्णुजी के प्रेम की प्रगाढ़ता और उनके संकल्प की दृढ़ता की परीक्षा लेने का मन बनाया.
विष्णु जी एकाग्रचित्त होकर पूजन कर रहे थे, तभी भगवान् शिव ने विष्णु जी के पास रखे हुये कमल पुष्पों में से एक पुष्प उठा लिया. अब जब अंतिम नाम के साथ कमल पुष्प चढ़ाने के लिए विष्णु जी ने एक पुष्प को कम पाया, तो कुछ क्षण के लिए वे सोच में पड़ गए. चूंकि पूजा के बीच में से उठकर जा नहीं सकते थे और न ही किसी को बुला सकते थे. तभी कहीं से सहसा उनके मन में कौंधा कि ‘मेरे सुन्दर नेत्रों की उपमा कमल से ही दी जाती है, और मुझे कमलनयन, पुण्डरीकाक्ष, राजीवलोचन, पद्मलोचन इत्यादि नामों से पुकारा जाता है, अतः मैं अपना ही एक नेत्र अपने शिवजी को चढ़ा देता हूँ.’
मन में ऐसा विचार आते ही श्रीहरि ने अपना कमल जैसा सुन्दर एक नेत्र निकालकर शिवजी के अंतिम नाम के साथ उन पर चढ़ा दिया. यह उनकी भक्ति व समर्पण की पराकाष्ठा थी. यह देखते ही भगवान शिव प्रेम-परवश तुरंत वहाँ पर प्रकट हो गये एवं सब कुछ पहले जैसा ही कर दिया. भगवान् विष्णुजी की अटूट निष्ठा, उनके दृढ़ संकल्प एवं उनकी भक्ति-भावना से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए. तब देवाधिदेव महादेव ने सत्य और धर्म की रक्षा के लिये श्रीहरि को सुदर्शन चक्र प्रदान किया.
‘सुदर्शन’ शब्द दो संस्कृत शब्दों से बना है- ‘सु’ जिसका अर्थ है “अच्छा/शुभ” और ‘दर्शन ‘जिसका अर्थ है “दृष्टि”. ऋग्वेद में सुदर्शन चक्र का उल्लेख श्रीविष्णु के एक प्रतीक और समय के पहिये के रूप में भी किया गया है. हमारे ग्रंथों में सुदर्शन चक्र का उल्लेख बहुत बार आया है, जिसके माध्यम से श्रीहरि दुष्टों का नाश करते रहते हैं. सत्य और धर्म की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र सदा श्रीहरि के हाथ में रहता है, सावधान और सतर्क रहता है. वे सुदर्शन चक्र को अपनी तर्जनी पर धारण करते हैं. श्रीविष्णु जी के सभी अस्त्र-शस्त्र सचेतन हैं, जड़ नहीं हैं और सदा अचूक होते हैं.
ऐसा नहीं है कि देवाधिदेव को यह पता न था कि उनके प्रति श्रीविष्णु जी का भक्तिभाव कितना प्रबल है और उनका संकल्प कितना अटूट. ईश्वर को तो पता रहता है कि किसी का बाह्य व अन्तर भाव कैसा है. उन्हें किसी की निष्ठा जानने के लिये परीक्षा की आवश्यकता नहीं है, लेकिन लोग मर्यादा समझें, कुछ शिक्षा ले सकें, इसके लिये इस प्रकार की लीला करना आवश्यक होता है. अपनी लीलाओं के माध्यम से वे संसार को विभिन्न घटनाओं के पीछे छिपे सत्य का और नीति का बोध कराते हैं.
प्रस्तुत कथा हमें इस बात का बोध कराती है कि वह भक्ति प्रशंसनीय है, जिसमें अपने आराध्य के प्रति प्रेम हो, क्योंकि ऐसी भक्तिभावना फल-प्राप्ति की कामना से आगे निकल जाती है. जो लोग केवल फल प्राप्ति की कामना से संकल्प लेते हैं, वे विघ्न आने पर उस संकल्प को छोड़ देते हैं, लेकिन ऐसी भक्तिभावना वाला व्यक्ति विघ्नों से न घबराकर हर प्रकार से अपने संकल्प को पूरा करने के प्रयास पर अडिग रहता है.
आज अधिकतर लोगों में यही पाया जाता है कि वे संकल्प तो ले लेते हैं, पर उसे पूरा नहीं कर पाते. तात्पर्य यहां नेत्र निकालकर चढ़ा देने से नहीं, बल्कि लिए गए संकल्प पर सुदृढ़ता से टिके रहने का है. श्रीहरि की भक्ति व प्रेम की प्रगाढ़ता चक्ररूप में बदल गई, जो सदा ही जगत् की रक्षा के लिए सतर्क रहता है. श्रीविष्णु इसे प्राप्त कर चक्रधर कहलाये. वह चक्र तीनों लोकों की रक्षा के लिये सदैव जागृत रहता है और श्रीहरि के हाथ में सतत सक्रिय और सावधान रहकर अपनी सार्थकता को सिद्ध करता है.
हर और हरि
श्रीहरि की शिव-भक्ति या शिवजी जी की हरि-भक्ति का वर्णन करने वाली पौराणिक कथाओं (पुराणों की कथाओं) का उद्देश्य हर और हरि में किसी को छोट या बड़ा बताना नहीं है. जिन्होंने मूल पुराणों की रचना की है, वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि शिव एवं विष्णु अभिन्न हैं, लेकिन अपने आराध्यों के गुणों को कहने का उनका ऐसा स्वभाव है. हर एवं हरि की परस्पर प्रेम-प्रशंसा हमारे पुराणों की विशेषता है.
गोस्वामी तुलसीदास जी महादेव के लिये कहते हैं “सेवक स्वामि सखा समय पी के” अर्थात् शिवजी सीतापति श्रीराम के सेवक, स्वामी और सखा हैं. विष्णुपुराण में विष्णु जी को ही शिवजी कहा गया है, तो शिवपुराण के अनुसार विष्णु भी शिव के ही हजार नामों में से एक है. भगवान शिव अपने आराध्य श्रीहरि की लीलाओं से मुग्ध रहते हैं और हनुमान जी के रूप में उनकी आराधना और सेवा करते हैं, तो वहीं विष्णु जी अपने रूपों से शिवलिंग की स्थापनाएं और पूजा करते रहते हैं. दोनों में परस्पर भक्ति का भाव है.
यो विष्णु: स शिवो ज्ञेय: य: शिवो विष्णुरेव स:।
(स्कन्द पुराण)
अर्थात् ‘जो विष्णु हैं उन्हीं को शिव जानना चाहिये और जो शिव हैं उन्हें विष्णु ही मानना चाहिये.’
स्कन्द पुराण के कौमारिका खण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों को समान रूप से श्रेष्ठ बताया गया है. ये तीनों एक ही परम शक्ति के रूप हैं, जो कार्य की दृष्टि से तीन हो जाते हैं तथा कार्य के पूर्ण हो जाने पर तीनों पुन: एक रूप में समाविष्ट हो जाते हैं.
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका॥
और इसीलिए हम लोगों को एक बात हमेशा से बताई जाती है कि जब भगवान श्रीराम के सामने जाओ तो पहले एक बार ‘ॐ नमः शिवाय’ जरूर बोलो, और जब भगवान शिव के सामने जाओ तो पहले ‘राम राम’ जरूर करो. मां लक्ष्मी जी के सामने जाओ तो विष्णु जी की स्तुति करो, गणेश जी के सामने जाओ तो पहले शिवजी-पार्वती जी का नाम लो, और हनुमान जी तो बस ‘सीताराम’ नाम से ही तृप्त होते हैं.
हम अपने आराध्यों से जुड़ी कथाओं को पढ़ें तो पता चलता है कि हमारे यहां कोई भी स्वयं को श्रेष्ठ नहीं समझता. सब एक-दूसरे को ही श्रेष्ठ समझते हैं. किसी को भी अपनी प्रशंसा से ज्यादा दूसरे की प्रशंसा पसंद आती है. हर कोई एक-दूसरे को अपना स्वामी और स्वयं को दास बताता है. सब एक-दूसरे के आगे सिर झुकाते हैं. और देखिये- जब सब एक-दूसरे को ही श्रेष्ठ समझते हैं, तब सभी श्रेष्ठ हो जाते हैं. जब सब लोग एक-दूसरे को सम्मान देते हैं तो सभी सम्मानीय हो जाते हैं. किसी में कोई अंतर ही नहीं रह जाता.
सर्वेश्वर की लीलाओं में रची ये पौराणिक कथाएं उस सरोवर के समान हैं, जहां से संस्कृति की पावन जलधारा बहती है. हम पुराणों की कथाओं को किस प्रकार से पढ़ते हैं, उन्हें कैसे समझते हैं, उन्हें किस रूप में देखते हैं, यह हमारे ऊपर निर्भर है. जब हमारा जुड़ाव अपनी मूलधारा से होता है तब इन कथाओं की अनेक बातें बोधगम्य हो जाती हैं, और आत्मज्ञान कराती हैं. वहीं अपनी जड़ों से कटकर और श्रद्धा से हटकर पढ़ने से यही कथाएं बड़ी अजीब लगती हैं. अपनी जड़ों से कटकर आज हम अपनी पहचान को खो बैठे हैं और स्वयं अपने से ही अपरिचित हो गये हैं.
Written By : Aditi Singhal (Working in the media)
Credit With : Dr. Mrs. Kiran Bhatia
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