Importance of Water in Vedas : भारतीय संस्कृति में जल एवं जलाशयों की महत्ता, वेदों में जल संरक्षण

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जलप्रपात

River Water in Vedas

‘जलमेव जीवनम्!’ भारतीय संस्कृति में जल एवं जलाशयों की महत्ता पुरातन काल से स्वीकार की जाती रही है. जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. जब किसी भी दूसरे ग्रह पर जीवन की संभावनाएं खोजी जाती हैं, तब सबसे पहले यही देखा जाता है कि क्या उस ग्रह पर प्रचुर मात्रा में जल हो सकता है?

हमारे वैदिक साहित्यों में जल के स्रोतों, जल का समस्त प्राणियों के लिए महत्व, जल की गुणवत्ता तथा उसके संरक्षण पर बहुत अधिक बल दिया गया है. वेदों में जल को ‘विश्वभेषजं’ कहा गया है, अर्थात् जल में समस्त औषधियां समाहित हैं (अर्थात् समस्त प्राणियों के लिए शुद्ध जल इतना गुणकारी, लाभप्रद एवं महत्वपूर्ण है). ऋग्वेद में जल के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्।
अर्थात् जल में अमृत है, जल में औषधि है.

नदी, निर्झर, सरोवर, कासार, कूप, जलाशय आदि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं. उस पर भी देव अथवा देवस्थानों से जुड़ी नदियों की महिमा तो अतुलनीय व अवर्णनीय है. उनमें स्नान करना, तर्पण करना, दीपदान करना एवं उनके तटों पर कथा, व्याख्यान, दान, ध्यान और धार्मिक संस्कारों व अनुष्ठानों का आयोजन अत्यधिक पुण्यदायी माने जाते हैं.

आर्य संस्कृति नदियों के तटों पर फली, फूली और बढ़ी है. बड़े बड़े प्राचीन नगर नदियों के तटों पर ही समृद्ध हुए. जैसे सरयू के तट पर अयोध्या, क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी, त्रिवेणी के तट पर प्रयाग, यमुना के तट पर मथुरा आदि. पंजाब तो सप्तसिंधु प्रान्त कहलाया ही. वैदिक काल में सरस्वती नदी के तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए मंत्रदृष्टा ऋषियों ने वेदों की रचना की औ‍र वैदिक ज्ञान का विस्तार किया.

“श्रीराम व लक्ष्मण जी ने गंगा और सरयू के शुभ संगम पर पहुंचकर वहां दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजी के दर्शन किये. संगम के पास ही शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का एक पवित्र आश्रम था, जहां वे कई हजार वर्षों से तीव्र तपस्या करते थे.” (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग २३)

हमारे यहाँ सहस्रनामों से पवित्र नदियों का स्तवन गाया जाता है. ऋग्वेद में दशम मंडल के नदी सूक्त में भारत में नदियों की महिमा का विस्तार से वर्णन मिलता है.

इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया॥

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घर ही में भी स्नान करते समय पवित्र नदियों के नाम-स्मरण की हमारे यहाँ पवित्र परम्परा है. जैसे-

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥

अर्थात् ‘हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियों! (मेरे स्नान करने के) इस जल में (आप सभी) पधारिये.’

गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती वेदिका।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी
पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम्॥

इस श्लोक का अर्थ भी यही है कि समुद्र सहित उपर्युक्त सभी जल से परिपूर्ण नदियां मेरा कल्याण करें.

स्कन्दपुराण में ‘पुष्करिणी’ में स्नान करने के विषय में कहा गया है कि पुष्करिणी में स्नान का सौभाग्य उसे ही प्राप्त होता है, जिसने सहस्रों वर्षों का पुण्य अर्जित किया हो.

वाल्मीकि जी सरयू नदी के विषय में बताते हुए लिखते हैं-

“कैलाश पर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है. उसे ब्रह्मा जी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया था. मन के द्वारा प्रकट होने से ही वह उत्तम सरोवर मानस कहलाता है. उस सरोवर से एक नदी निकलती है, जो अयोध्यापुरी से सटकर बहती है. ब्रह्मसर से निकलने के कारण यह पवित्र नदी सरयू के नाम से विख्यात है.”

गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में सरयू नदी को नमन करते हुए उसे पाप नाशिनी नदी बताते हैं-

“सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।”

वैदिक काल में सरस्वती नदी को ‘परम पवित्र’ नदी माना गया है. ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘अन्नवती’ और ‘उदकवती’ भी कहा गया है, क्योंकि यह नदी सदैव जल से भरी रहती थी और इसके किनारे प्रचुर मात्रा में अन्न की उत्पत्ति होती थी. ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘नदीतमा’ भी कहा गया है.

ऐं अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि॥

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गंगा की महिमा तो वर्णनातीत है. उसे प्रणाम कर अपना जीवन सार्थक करने की परम्परा अति प्राचीन है.

नमामि गंगे! तव पादपंकजं
सुरसुरैर्वन्दितदिव्यरूपम्।
भुक्तिं च मुक्तिं च ददासि नित्यम्
भावानुसारेण सदा नराणाम्॥

अर्थात् हे गंगाजी! मैं देव एवं दैत्यों द्वारा पूजित आपके दिव्य पादपद्मों को प्रणाम करता हूँ. आप मनुष्यों को सदा उनके भावानुसार भोग एवं मोक्ष प्रदान करती हैं.

यही नहीं, स्नान के समय गंगाजी के १२ नामों वाला यह श्लोक भी बोला जाता है-

नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा।
विष्णुपादाब्जसम्भूता गंगा त्रिपथगामिनी॥
भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।
द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये॥
स्नानोद्यतः स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम्॥

महर्षि वाल्मीकि जी ने ‘श्रीगङ्गाष्टकम्’ में अपनी यह अभिलाषा व्यक्त की है कि किसी भी भांति परमेश्वरी भागीरथी के तट पर रहने का अवसर मिले. उनके शब्दों में-

त्वत्तीरे तरुकोटारान्तर्गतो गंगे विहंगो वरं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः।

महर्षि वाल्मीकि जी गंगाजी से कहते हैं कि हे माँ गंगे! तुम्हारे तट पर स्थित वृक्ष के कोटर में रहने वाला विहंग (पक्षी) बनना भी वरदायी (वरदान समान) है. हे नरक का अंत करने वाली! तुम्हारे जल में मछली अथवा कछुआ बनकर रहना भी वरदायी है.

“श्रीराम ने सीताजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के दर्शन कराए. फिर पवित्र गंगाजी के दर्शन किए. श्रीराम ने कहा- ‘सीते! इन्हें प्रणाम करो.’ सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- ‘हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा, जिससे मैं मेरे पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौटकर तुम्हारी पूजा करूँ.”

बहुरि राम जानकिहि देखाई।
जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता।
राम कहा प्रनाम करु सीता॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी।
मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥
पति देवर सँग कुसल बहोरी।
आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥

ganga

‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १३वें श्लोक में भक्त हृदय भाव-भीने मन से अपने आराध्य भगवान् शिव के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट करते हुए कहता है कि “मैं कब देवनदी गंगाजी के तट के निकट किसी कुञ्जकुटीर (पर्णशाला) में वास करता हुआ दुर्बुद्धि से मुक्त होऊंगा!”

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्।

साधारण कूप, बांवड़ी एवं अन्य जलाशयों के अतिरिक्त अन्य पवित्र नदियों के जल में भी गंगा के आवाहन को आवश्यक माना गया है. स्कन्दपुराण के अनुसार-

स्नानकालेऽश्रन्यतीर्थेषु जप्यते जाह्नवी जनैः।
विना विष्णुपदीं कान्यत् समर्था ह्यघशोधने॥

अर्थात् लोग अन्य तीर्थों में स्नान करते समय भी गंगाजी के ही नाम का जप करते हैं. सहस्रनामों से पवित्र देवापगा गंगा के स्तवन गाये जाते हैं. दूध, गंध, धूप, दीप, पुष्पमाल्य आदि से पूजा-अर्चना की जाती है. गंगाजी के पृथ्वी पर अवतरण की तिथि पर गंगा-दशहरा का उत्सव मनाया जाता है. इस दिन श्रद्धालु जन स्नान-पुण्यादि करके स्वयं को पवित्र करते हैं.

ज्येष्ठ मास उजियारी दशमी, मंगलवार को गंग।
अवतरी मैया मकरवाहिनी, दुग्ध-से उजले अंग।


वेदों में जल संरक्षण सम्बन्धी नियम-उपदेश

हमारे वैदिक ऋषियों ने नदी, जलाशयों में स्नान करने के कई नियम बनाये, विधि-निषेध भी बताये, साथ ही उन्हें स्वच्छ रखने के उपदेश दिये हैं. आचार्य चरक ने भी चरक संहिता में भूजल की गुणवत्ता पर चर्चा की है.

ऋग्वेद में ऋषियों का कथन है कि ‘हे मनुष्यों! अमृत तुल्य एवं गुणकारी जल का सही प्रयोग करने वाले बनो. जल की प्रशंसा के लिए सदैव तत्पर रहो.’

अप्स्वडन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये देवा भक्त वाजिनः।

जल संरक्षण पर बल देते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘जल हमारी माता समान है. यह घृत के समान हमें शक्तिशाली एवं उत्तम बनाता है. इस प्रकार का जल जिस रूप में जहाँ कहीं भी हो, वह रक्षा करने योग्य है.’

आपो अस्मान्मातरः शुन्ध्यन्तु द्यृतेन ना द्यृत्प्वः पुनन्तु।
(ऋग्वेद १०.१७.१०)

जल को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए. हमारे प्रयास इस प्रकार के हों कि जल प्रदूषित न हो. यजुर्वेद में जल संरक्षण पर बल देते हुए कहा गया है- “मा आपो हिंसी।”

महाभारत में जल के महत्त्व का वर्णन करते हुए इसे सर्वोत्तम दान कहा गया है-

अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च।
तस्मात् सर्वेषु दानेषु तयोदानं विशिष्यते॥

अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति जल से हुई है तथा इसी से वे जीवित रहते हैं. अत: सभी प्रकार के दानों में जल-दान सर्वोत्तम माना गया है.

जल संरक्षण के लिए वेदों में वर्षा जल तथा बहते हुए जल के विषय में कहा गया है कि ‘हे मनुष्य! वर्षा जल तथा अन्य स्रोतों से निकलने वाला जल जैसे कुयें, बांवड़ियाँ आदि तथा फैले हुए जल जैसे तालाब आदि के जल में बहुत पोषण होता है. तुम्हें इस बात को जानना चाहिए तथा इस प्रकार के पोषकयुक्त जल का प्रयोग करके वेगवान और शक्तिवान बनना चाहिए.’

अपामहं दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम।
अपामहं प्रणजनेश्वां भवय वाजिनः॥
(अथर्ववेद १९.१.४)

विष्णु पुराण में जल-चक्र का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि किस प्रकार वह वाष्प बनता है तथा वर्षा के रूप में भूमि को तृप्त करता है. इसी जल से कृषि होती है, अन्न उत्पन्न होता है, जिससे सम्पूर्ण जगत का पोषण होता है-

विवस्वानर्ष्टाभर्मासैरादायापां रसात्मिकाः।
वर्षत्युम्बु ततश्चान्नमन्नादर्प्याखिल जगत्।

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प्रदूषित जल को शुद्ध किये जाने के क्रम में वेदों में कहा गया है कि वायु तथा सूर्य दोनों जल को शुद्ध करते हैं. सूर्य की किरणें जल के कीटाणुओं को नष्ट कर जल को शुद्ध करती हैं. अथर्ववेद में ‘मित्र’ तथा ‘वरुण’ वर्षा के देव माने गये हैं. मित्र तथा वरुण के मिलने से जल की उत्पत्ति होती है. वस्तुतः मित्र तथा वरुण क्रमशः ऑक्सीजन व हाइड्रोजन के वाचक हैं.

वर्षा का जल सर्वाधिक शुद्ध जल होता है, अतः इस जल को संरक्षित किया जाना चाहिए. वर्षा का जल अत्यंत उपयोगी है. इस विषय में अथर्ववेद में कहा गया है- शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।

नदियों के जल को सर्वाधिक संरक्षणीय माना गया है क्योंकि वे कृषि क्षेत्रों को सींचती हैं, जिससे प्राणिमात्र का जीवन चलता है. नदियों का बहता जल शुद्ध माना जाता है. अतः नदियों को प्रदूषित नहीं करना चाहिए. अथर्ववेद में सप्तसैंधव नदियों का उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद में इन नदियों को माता के समान सम्मान देकर इनके संरक्षण पर बल दिया गया है-

ता अस्मश्यं पमसा पिन्वमाना शिवादेवीरशिवद।
भवन्त सर्वा नधः अशिमिहा भवन्तु।
(ऋग्वेद ७.५०.४)

नदियां जल का वहन करती हुईं समस्त प्राणिमात्र को तृप्त करती हैं. भोजन आदि प्रदान करती हैं. आनंद को बढ़ाने वाली में तथा अन्नादि वनस्पति से प्रेम करने वाली हैं. नदियों की पवित्रता के सम्बन्ध में वैदिक साहित्यों में कहा गया है कि ऐसी नदी जो पर्वत से निकलकर समुद्र तक प्रवाहित होती है, वह पवित्र होती है. इस बात के माध्यम से वैदिक ऋषि हमें यह सन्देश देना चाहते हैं कि नदियों के अबाध प्रवाह को संरक्षित किया जाना चाहिए. नदियों को बहने देना चाहिए.


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