Shiv Tandav Stotram : शिवताण्डवस्तोत्रम् (संस्कृत और हिंदी व्याख्या सहित)

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Shiv Tandav Stotram (Sanskrit Hindi)

शिवताण्डवस्तोत्रम् की रचना लंकाधिपति रावण ने की थी. रावण ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि पुलस्त्य का पौत्र एवं दैत्य सुमाली का दौहित्र (नाती) था. मुनि विश्रवा तथा कैकेसी का पुत्र होने के कारण वह पितृकुल से ब्राह्मण और मातृकुल से राक्षस था. रावण अपने पितामह के नाम से ‘पौलस्त्य’ एवं पिता के नाम से ‘वैश्रवण’ कहलाया. रावण का विवाह दानव-शिल्पी मय की सदाचार परायणा पुत्री मंदोदरी से हुआ था.

शिवताण्डवस्तोत्रम् की रचना के पीछे की मुख्य कथा यह है कि एक बार जब रावण ने अपने बल के अहंकार में कैलाश पर्वत को उठाने की चेष्टा की, तब कैलाशपति भगवान् शिव ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया. रावण के हाथ पर्वत के नीचे ही दब गए. रावण छटपटाता हुआ पीड़ा से चीत्कार उठा. दबे हुए और आहत हुए अपने हाथों से वहां पर पड़ा हुआ पश्चाताप करता रहा एवं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वह भयभीत हृदय से उन्हें पुकार उठा. अपनी भूल के लिए क्षमा मांगते हुए रावण ने भगवान् शिव की स्तुति की और उनसे अपनी रक्षा की प्रार्थना की.

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सत्रह श्लोकों का यह ताण्डव-स्तोत्र अपने आप में गूढ़ार्थ लिये हुए हैं. रावण ने इसमें भगवान शिव के विराट स्वरूप एवं उनकी अपार महिमा का वर्णन किया है. इस स्तोत्र का शुभारम्भ उसने भगवान शिव के ताण्डव-रत रूप की प्रार्थना करते हुए किया है. शिवताण्डवस्तोत्रम् का शब्द-चयन अत्यंत मनोहारी, भाषा संगीतमय तथा ध्वन्यात्मक है एवं नाद-सौंदर्य उत्कृष्ट है. रावण स्तुतिगान करते हुए कहता है कि शिव दिगम्बर हैं, कपाली हैं पर अक्षय लक्ष्मी व अपार शक्ति की याचना भी उन्हीं से फलीभूत होती है.

महादेव समस्त लोकहितकारी कलाओं के स्रोत हैं. वे कला को सर्वमांगल्य से संलग्न करते हैं. उनके स्वरूप में सभी विरोधाभासी तत्वों का समन्वय और संतुलन पाया जाता है. शिव कलानिधान हैं तो कलातीत भी हैं, प्रलयंकर हैं तो शुभंकर भी हैं, दग्ध करते हैं तो शरण में भी ले लेते हैं. देवों के देव महादेव देवताओं के शत्रुओं तथा अहंकार का नाश करने वाले हैं, एवं मदनजित् (कामदेव को जीतने वाले) हैं. शिव की चरण-वंदना के लिए इंद्र सहित समस्त देवता नित्य पंक्तिबद्ध होकर उपस्थित रहते हैं.

भगवान शिव सकल भी हैं व निष्कल भी. सगुण रूप से वे सकल अर्थात अपनी कला सहित, अपनी समस्त लीलाओं से साकार रूप में हैं तथा निर्गुण रूप में वे कला से रहित हैं. वेद जिनका गुणगान करते हैं, जो अमित ऐश्वर्यों से संपन्न होकर भी निर्विकार रहते हैं, जिनका अनुग्रह, जिनकी प्रसन्नता पाने हेतु ही यज्ञ किये जाते हैं और जिनका स्मरण भर कर लेने से समस्त यज्ञ सफल हो जाते हैं, ऐसे भगवान त्रिनयन पर भक्त हृदय मुग्ध है.

रावण अपने आराध्य भगवान् शिव से भूल को क्षमा करके अपनी रक्षा की प्रार्थना करता है. वह भलीभांति यह जानता है कि विकराल सर्पमाल धारण करने वाले भगवान शिव वास्तव में शुभंकर हैं (शुभ करने वाले) हैं. इस स्तुति के माध्यम से उसने यह बताना चाहा है कि वह अपने सर्वांगसुंदर आराध्य पर पूरी तरह अनुरक्त है और उन अगोचर-अलक्ष्य स्वामी में सदा अनुरक्त रहना चाहता है, साथ ही उनके सगुण-साकार रूप में भी उसका हृदय आसक्त है.

शिवताण्डवस्तोत्रम् (Shiv Tandav Stotram)

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नःशिवः शिवम्॥१॥

जिन्होंने जटा रूपी सघन वन से निकलती हुई गंगा के प्रवाह से पवित्र किये हुए स्थल पर, गले में विशाल सर्पों की माला धारण कर, डमरू से डम-डम का महाघोष करते हुए प्रचंड ताण्डव किया, वे शिव हमारा कल्याण करें, सदैव हमारे हितों की रक्षा करें.

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥२॥

जिनके मस्तक जटारूपी कड़ाह (एक प्रकार का पात्र) में अति वेग से चक्कर लगाती हुई सुरसरिता गंगा की चंचल लहरें लताओं की भांति सुशोभित हो रही हैं एवं शीश पर प्रदीप्त हो रही हैं (झिलमिल चमक रही हैं), जिनके भाल-पट (माथे) पर धक-धक करती हुई भीषण अग्नि प्रज्वलित हो रही है, जो अपने शीश पर बाल-चन्द्रमा (अर्धचंद्र) धारण किये हुए हैं, ऐसे भगवान शशांक-शेखर में मेरी प्रीति सदा बनी रहे.

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥३॥

धराधरेन्द्रनन्दिनी (पर्वतेश-पुत्री पार्वती) के लीलाविलासयुक्त क्रिया-कलाप से दिशाओं को प्रकाशित होते देखकर जिनका मन आनन्दित हो रहा है (शिव तथा शक्ति दोनों एक ही हैं. पार्वती जी शिव की शक्ति हैं. भगवान शिव पर्वतराजपुत्री पार्वती जी के प्राणवल्लभ हैं, रूपवान व सुन्दर सहचर हैं. देवी उल्लसित हो रही हैं और उनके उल्लास की छटा सभी दिशाओं में दूर-दूर तक विस्तार से फैली हुई है जिसे देखकर शिव का मन आनन्दित हो रहा है), जिनकी कृपादृष्टि भर से निरंतर आने वाली दुस्सह (असहनीय) आपदाएं नष्ट हो जाती हैं, ऐसे ही दिगम्बर तत्व में मेरा मन विनोद पाये.

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुमकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥४॥

जिनकी जटाओं में रहने वाले मणिधारी भुजंगों (सर्पों) की मणियों से फैलता हुआ प्रभापुंज दिशा रूपी स्त्रियों के मुख पर कुमकुम (केसर-चन्दन-हल्दी) का लेप कर रहा है (शिवजी का ऐसा अनुपम ऐश्वर्य है), जो मदान्ध सिन्धु (जिसे बल व पराक्रम का अत्यंत अहंकार था) गजासुर की मेदुर से बना हुआ या गजचर्म का उत्तरीय (पटुका) ओढ़े हुए हैं (गजचर्म धारण करने का अर्थ है ‘इन्द्रियों को जीतना’. गज को मोह का प्रतीक भी माना गया है, अतः यह मोह-मद जैसी आसुरी वृत्ति पर विजय का द्योतक है), ऐसे महिमामय भूतनाथ में मेरा मन अद्भुत विनोद प्राप्त करता रहे. मेरे मन को सदैव उनके अद्भुत दर्शनों का आनंद प्राप्त होता रहे!

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः॥५॥

जिनके चरणों में नमस्कार निवेदन करने के लिये इन्द्र सहित समस्त देवताओं की पंक्तियाँ उपस्थित हैं (भगवान शिव सुर, असुर, सिद्धों, ऋषि-मुनियों, यक्ष, नाग, किन्नर सभी के द्वारा वन्दित हैं), जिनकी चरणपादुकायें इन्द्रादि समस्त देवताओं के मुकुटों पर स्थित पुष्पों की परागधूल के निरन्तर झरते रहने से धूल-धूसरित (पुष्परज से रंजित) हो रही हैं, जिनका जटाजूट भुजंगराज अथवा महासर्प की माला से बंधा हुआ है, ऐसे हे शशिशेखर! मेरी श्री अथवा राज्यलक्ष्मी (धन-वैभव) को चिरकाल तक अनपायिनी (अक्षुण्ण) बनाये रखें.

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिंगभा-
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदेशिरो जटालमस्तु नः॥६॥

भाल रूपी वेदी पर जलती हुई अग्नि की लपटों से जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था (शिवजी के भाल पर स्थित तीसरा नेत्र अग्नि का निवास-स्थान है) व देवराज इंद्र का गर्वोन्नत शीश झुका दिया (इंद्र ने शिवजी को मोहित करने एवं उनके तपोभंग की योजना से कामदेव को शिवजी के सम्मुख भेजा था), जिनका शीश चन्द्रमा की अमृतवर्षी शीतल किरणों से सुशोभित है, ऐसे हे महामुण्डमाली जटाजूटधारी भगवान शिव! आप मेरी सम्पदा की रक्षा करें, मेरा विपुल वैभव सदा बनाये रखें.

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥७॥

जिनके मस्तक पर धधकती हुई प्रचंड अग्नि ने पुष्पशर अथवा दुर्धर्ष कामदेव को आहुति बना दिया (भस्म कर दिया), जो गिरिराजनन्दिनी (पार्वती जी) के अंगों पर सुगन्धित द्रव्यों तथा वन-धातुओं से श्रृंगारिक चित्र-रचना करने वाले चतुर चितेरे हैं, ऐसे अद्वितीय शिल्पी भगवान त्रिलोचन में मेरा प्रेम, मेरी धारणा, मेरा अनुराग सदा बना रहे.

यहां रावण के कथन में गूढ़ार्थ निहित है. रावण ने भगवान् शिव के परस्पर विरोधी भावों को उकेरा है. एक ओर वे क्रोध की पराकाष्ठा हैं तो दूसरी और प्रेम का उत्कर्ष, जहां अनंग-व्यापार नहीं, सात्विकता का संचार है. एक ओर कामदेव को भस्म करना व दूसरी ओर पार्वती जी के साथ शृंगार-लीला करना, दोनों में यद्यपि विरोधाभास है. अभिप्राय यह है कि शिव गृहस्थ होते हुए भी, श्रृंगारलीला में रत दिखते हुए भी वे इन सभी भावों से निर्लिप्त हैं. वे माया को वश में रखते हैं, उसमें लिप्त नहीं होते. वे माया से अतीत हैं.

पति के रूप में भगवान् शिव बड़ी निपुणता से अपनी लीलासंगिनी गिरिराजनन्दिनी का श्रृंगार कर रहे हैं. वस्तुतः उनके इस श्रृंगार से युगल-तत्व की एकता परिलक्षित होती है. दिव्य प्रकृति शिव की गृहिणी है. धराधरेन्द्रनन्दिनी प्रकारांतर से धरित्री हैं और पर्वत धरती के उन्नत भाग अथवा उरःप्रदेश हैं (पृथ्वी को ‘पर्वतरूपी पयोधरों से मण्डलायित’ कहा गया है). अतः पार्वती को सजाते हुए शिव प्रकारांतर से धरा को, प्रकृति को सजा रहे हैं, उसमें चैतन्य फूंक रहे हैं. इसलिए रावण ने उन्हें ‘प्रकल्पनैक शिल्पी’ कहा है. शिव-शक्ति का पवित्रतम संबंध वाणी का विषय नहीं है.

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नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः॥८॥

जिनका कण्ठ-प्रदेश नवीन जलधर-समूह (बादलों) से घिरी हुई अमावस्या की रात्रि की सी कालिमा से आच्छादित है (अर्थात् जिनके गले का रंग गहरा नीला है; भगवान शंकर के गले की श्यामलता की उपमा मेघाच्छादित अमावस्या की अर्ध-रात्रि से दी गई है), जो सुरसरिताधर अर्थात् गंगाधर हैं एवं चंद्रकला की शोभना से सुंदर कान्ति वाले हैं, जो जगत की धुरी को धारण करते हैं अर्थात् जगत के आधार हैं, वे गजचर्माम्बरधर भगवान शिव मेरी श्री (धन-वैभव) की रक्षा एवं विस्तार करें.

प्रफुल्लनीलपङ्कज प्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बिकंठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे॥९॥

जिनका कण्ठ-प्रदेश पूर्ण विकसित नीलकमलों के समूह की श्यामल दीप्ति से सुशोभित है (भक्त कवि का मन अघाता नहीं, यहां उसने भगवान् शंकर के गले की श्यामलता की उपमा नीलकमल के पुष्पों के समूह की श्यामल आभा से दी है), जो मदनरिपु, त्रिपुररिपु, भवभयहारी, दक्षयज्ञ के नाशक, गजासुर-अंधकासुर के हन्ता एवं यमभयहारी हैं [जो स्मर अर्थात् कामदेव, जन्म-मरण रूपी संसार के भय व बंधन को समाप्त करने वाले हैं, दक्ष द्वारा पाप-बुद्धि के साथ किये गए यज्ञ के नष्टकर्ता हैं (वास्तव में वे दक्षयज्ञ के नहीं अपितु दर्पयज्ञ के नष्टकर्ता हैं), जो गजासुर, अंधकासुर (जो अहं तथा अधर्म की सभी सीमाओं को लाँघ गये थे) का संहार करने वाले हैं तथा यमराज के भय अर्थात् मृत्युभय को भी नष्ट करने वाले हैं], ऐसे भगवान शिव को मैं भजता हूं.

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे॥१०॥

जो अभिमानरहित महीयसी देवी सर्वमंगला (पार्वती जी) की कलारूप कदंबमंजरी के मकरंदस्रोत की बढ़ती हुई माधुरी के पान करने वाले मधुप (भ्रमर) हैं (यहाँ समाज का मंगल करने वाली सर्वमंगला अर्थात् पार्वती जी की भव्य कलाओं की उपमा मंजरी अर्थात् अविकसित फूलों या पल्लव के गुच्छों से की गई है। शिवा का लास्य, नाट्य, अभिनय व गायन-माधुर्य महेश को आनंदित करता है. शिवजी नाट्य-संगीत-अभिनय सहित समस्त कलाओं के आदि गुरु हैं. कला-वृन्द अर्थात् बहुविध कलाओं के वे रसज्ञ एवं मर्मज्ञ हैं. भाव यह है कि भव्य लोकहितकारी कलाएं शिवजी को प्रसन्न करती हैं व उनका वरद आशीष पाकर कुसुमित होती हैं), मैं उन मदनरिपु, त्रिपुररिपु, भवभयहारी, दक्षयज्ञ-विध्वंसक, गजासुर-अंधकासुर के हन्ता एवं यमभयहारी शिव की आराधना करता हूं (अन्य कलाओं की भांति जीवन जीने की कला का भी अपना महत्त्व है. काम, भय, दर्प, अहंकार के मद से विमुक्त जीवन ही वास्तव में सार्थक जीवन है).

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदन्गतुङ्गमङ्गल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचंडताण्डवः शिवः॥११॥

प्रबल वेग से कुंडलाकार घूमते हुए भुजंग के श्वास अर्थात् उसकी फुफकार से जिनके ललाट ललाट अर्थात् भाल की अग्नि और भी अधिक प्रचंड होकर धधक उठती है (यह श्लोक विद्युत-संचार से आवेशित है. ध्वनि-तरंगों में प्रचंड शक्ति सन्निहित होती है. आरम्भ में सर्प के श्वास की बात कही गई है. श्वास ध्वनि ही जीवित रहने का प्रमाण है. यह प्राण ऊर्जा की उपस्थिति को दर्शाती है. भालाग्नि तेजस् तत्व है. समस्त सृष्टि शिवविनिर्मित प्रकृति की इच्छानुरूप नर्त्तन कर रही है. उनका नृत्य पंचाक्षर का समुदाय है), जो धिमि-धिमि की ध्वनि से बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष की ताल से ताल मिलाकर प्रचंड ताण्डव कर रहे हैं, उन भगवान शिव की जय हो!

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम्॥१२॥

पत्थर की व सुन्दर रंगबिरंगी शय्या में, सर्प व मोतियों की माला में, बहुमूल्य रत्न व मिट्टी के ढेले में, मित्र और रिपुपक्ष में, तृण व कमल समान नेत्रों में, प्रजा व महाराजाधिराज में समान भाव रखता हुआ न जाने कब मैं सदाशिव की आराधना करूंगा!

भक्त हृदय जानता है कि भगवान् शिव सभी के प्रति समभाव रखते हैं, सबसे प्रेम करते हुए भी सबसे निर्लिप्त रहते हैं (प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं होती). भगवान शिव के दर्शन पाकर उनकी सरलता पर मुग्ध, भक्त के मन में यह अभिलाषा जागृत होती है कि मैं भी सबके प्रति उनके जैसा समभाव रख सकूं तो कितना अच्छा हो! कब मैं भी पत्थर की शय्या और सुन्दर बिछौनों में, सर्पमाला और मोतियों की माला में अंतर न करते हुए दोनों के प्रति एक ही अनासक्त दृष्टि और निर्लिप्त भाव रखूंगा! कब मित्र एवं शत्रु को समान समझकर उनसे अप्रभावित अंतःकरण वाला बनूँगा तथा कमलनयनी रमणियों को तृणवत् समान तुच्छ समझूंगा अर्थात् हृदय में उठती हुई कामनाओं से मैं कब ऊपर उठ पाऊंगा! क्या मैं किसी साधारण प्रजाजन और किसी चक्रवर्ती सम्राट के प्रति एक-सी दृष्टि, एक सा भाव रख पाऊंगा? मेरे शिव के लिए तो दोनों ही समतुल्य हैं, तो फिर मैं कब इन सभी में समान भाव रखते हुए अपने भगवान सदाशिव की आराधना करूंगा और उनका सानिध्य प्राप्त करूंगा!

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥१३॥

आसुरी वृत्तियों के शिथिल हो जाने से मन में शुभ विचारों का आना स्वाभाविक है. इस श्लोक में भक्त अविरल प्रेमयुक्त तरल-सरल भावों के साथ अपने मन की साध को प्रकट करता हुआ, भाव-भीने मन से खोया हुआ-सा सोचता है कि गंगाजी के तट पर किसी कुंजबन में किसी पर्णकुटी में वास करता हुआ मैं कब दुर्बुद्धि से मुक्त होऊंगा (कब अपने मन में उठने वाले दुर्विचारों को छोड़ पाऊंगा), कब हाथों में अंजलि लेकर उसे मस्तक से लगाऊंगा? मेरे नेत्र बड़े चंचल हैं (जो इधर-उधर देखते रहते हैं), ऐसी स्थिति में कब आयेगा वह शुभ दिन जब मैं माथे पर त्रिपुण्ड लगाकर (अर्थात् शिवभक्ति में एकाग्र-मन होकर), शिवमंत्र के उच्चारण करने का सुख पाऊंगा? ऐसा सुख मुझे कब प्राप्त होगा? (कब मुझे अपने आराध्य शिव की निकटता सुलभ होगी?)

निलिम्पनाथनागरी कदम्बमौलिमल्लिका-
निगुम्फनिर्भर क्षरन्मधूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीं महनिशं
परश्रियं परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः॥१४॥

देवी पार्वती जी के केशपाश में गुंथी हुई चमेली की पुष्पमाला से झरते हुए मधुकणों से पूरित और अपने अंगों से निःसृत तेजपुंज की आभा से जिनकी देह सुरभिमय हो रही है. जो निशि-दिन हमें प्रसन्न व आनंदित रखने वाली परम शोभाशालिनी श्री के देने वाले तथा परम पद अर्थात् मोक्ष के प्रदाता हैं (भगवान शिव मुक्ति देने वाले हैं तथा परम श्री के प्रदाता भी हैं. वे निलिम्पनाथ अर्थात् देवताओं के नाथ हैं. देवी पार्वती शिवजी की कुशल गृहिणी एवं उनकी लीलाओं में उनका साथ देने वाली सहधर्मिणी हैं. अतः उन्हें ‘निलिम्पनाथनागरी’ कहा गया है), ऐसे कांतिमय भगवान शिव हमारी रक्षा करें.

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी
महाष्टसिद्धिकामिनीजनावहूत जल्पना।
विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जयाय जायताम्॥१५॥

(पापों का नाश करने में) बड़वानल (समुद्र में लगने वाली आग) की भांति प्रचण्ड, तेजोमयी और शुभत्व का प्रसार करने वाली महा अष्टसिद्धियां (शिव-पार्वती के विवाह के समय) स्त्री-स्वरूप में मूर्तिमान होकर उपस्थित हुईं व उनकी वाणी से मुखरित होने वाली ध्वनियों में तथा चंचल नेत्रों वाली सुर रमणियों द्वारा गाये जाते हुए विवाह-काल के मंगल-गीतों में ध्वनित होने वाला शिव नामक यह श्रेष्ठ मंत्र जगत में विजयी हो. यह जग में मंगल का प्रसार करे. इसकी जय-पताका फहराये. शिव-मंत्र को प्रणाम! शिव को प्रणाम!

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्॥१६॥

जो कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से इस उत्तम स्तवन का पाठ अथवा स्मरण करता है, या इसे श्रवण करता है, वह सदैव परम शुद्ध व निर्मल रहता है. समस्त जगत के गुरु भगवान शंकर की कृपा से अपनी निर्मल भक्ति में वह अविलम्ब प्रगति करता है. शम्भु उसे अपनी शरण में ले लेते हैं. शिवनिष्ठ व्यक्ति अथवा शिवभक्त की अन्य गति या दुर्गति नहीं होती. यह बात निश्चित है कि श्रीशंकर का चिंतन मनुष्य की मोहमाया को हर लेता है, देहधारी अर्थात् मनुष्य का मोह दूर करता है एवं शिवभक्त इस प्रकार मायाजाल से मुक्त होकर, निष्पाप होकर, अंत में शिव-शरणागति पाता है.

समस्त जगत शिवमाया से मोहित है तथा शिव का चिंतन मोहापहारी है. वे भव-भंजन हैं तो भ्रम-भंजन भी हैं. उनकी करुणा ही भक्त के माया के आवरण का विदारण तथा भ्रम का निवारण कर सकती है. रामचरितमानस में भगवान श्रीराम कहते हैं-
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी।
सो न पाव भगति हमारी॥
अर्थात् हरि कृपा के लिए भी हर-कृपा आवश्यक है.

rameshwaram ramsetu shiv pujan

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः॥१७॥

जो व्यक्ति प्रदोषकाल में अर्थात् संध्या के समय, पूजन के उपरांत इस शिवभक्तिमय स्तोत्र का पाठ करता है, शिवजी उसे सदैव अचल रहने वाली स्थिर और सुमुखी लक्ष्मी (अक्षुण्ण सम्पदा) प्रदान करते हैं. अर्थात् वह व्यक्ति दीर्घ काल तक विपुल वैभव भोगता है. लक्ष्मी को सुमुखी कहने का अर्थ है लक्ष्मी के अनुकूल रहने से, क्योंकि यदि लक्ष्मी प्रतिकूल रहती है, तो व्यक्ति को धनवान तो बनाती है, किन्तु उसकी शुभ बुद्धि को हर लेती है. इसलिए सदैव स्थिर और सुमुखी लक्ष्मी के प्रदान करने की ही प्रार्थना की जाती है.

इति श्रीशिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

निश्चय ही शिवतांडवस्तोत्र को पढ़कर हमारे मस्तिष्क में रावण की छवि एक ज्ञानी और महान शिवभक्त के रूप में बनने लगती है. हमारा प्राचीन इतिहास इस सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ सिखाता है. हमारी परम्परा में रावण की छवि एक ऐसे शक्तिशाली, बलिष्ठ और ज्ञानी पुरुष की है, जो अपने अधर्म के कारण पतन को प्राप्त हुआ. रावण के रूप में धर्मज्ञान यह है कि यदि आचरण में धर्म न हो, स्त्रियों के प्रति सम्मान न हो, तो हमारा ज्ञान, कुलवंश, शक्ति, ऐश्वर्य सब महत्वहीन है.

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