वेदों में जिस प्रकार एक ही ब्रह्म के ब्रह्मा, विष्णु और महेश– ये तीनों रूप कहे गए हैं, उसी प्रकार ‘गणेश‘ को भी ब्रह्म का ही विग्रह कहा गया है. जिस प्रकार एक ब्रह्म के होते हुए भी ब्रह्मा, विष्णु, महेश की अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न विशेषताएं हैं, उसी प्रकार ‘गणेश’ की भी हैं. गणेशतापिन्युपनिषद के ‘गणेशौ वै ब्रह्म’ और गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद ‘त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि’ के अनुसार गणेश जी प्रत्यक्ष ब्रह्म ही हैं.
गणेश जी अनादिसिद्धि, आदिदेव, आदिपूज्य और आदि उपास्य हैं. गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद में ‘त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुः’ इत्यादि मंत्रों द्वारा गणेश जी को ‘सर्वदेवरूप’ कहा गया है. समस्त देवताओं में गणेश जी एक ऐसे देवता हैं, जिनका समस्त शुभ कार्यों के प्रारंभ में सर्वप्रथम पूजन किया जाता है. इनकी पूजा किए बिना किसी भी शास्त्रीय और लौकिक शुभ कर्म की शुरुआत नहीं होती, इसलिए वेद कहते हैं-
न ऋते त्वत् क्रियते किं चनारे॥
“हे गणेश! तुम्हारे बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता.”
• जिन गणेश जी का प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ में सर्वप्रथम पूजन करना अनिवार्य है, वे पूज्य वैदिक देवता हैं. प्रत्येक शुभ कार्य में पूजन के समय उनका सर्वप्रथम स्मरण करते हुए कहा जाता है-
ॐ गणांना त्वा गणपतिं हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे
निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे
(शुक्लयजुर्वेद २३|१९)
“हे गणेश! तुम ही समस्त देवगणों में एकमात्र गणपति हो, प्रिय विषयों के अधिपति होने से प्रियपति हो और रिद्धि-सिद्धि एवं निधियों के अधिष्ठाता होने से निधिपति हो. अतः हम भक्तगण तुम्हारा नाम स्मरण, नामोच्चारण और आराधन करते हैं.”
गणेश जी का प्रणवाकार स्वरूप
• भगवान गणेश सत्व, रज और तम– इन तीनों गुणों के ईश हैं. गुणों का ईश ही प्रणवस्वरूप ॐ है. प्रणवस्वरूप ॐ में गणेश जी की मूर्ति सदा स्थित रहती है, अतः ॐ गणेश जी की प्रणवाकार मूर्ति है, जो वेदमंत्रों के प्रारम्भ में रहती है.
इसीलिए ॐ को श्रीगणेश जी की साक्षात् मूर्ति मानकर वेदों को पढ़ने वाले सर्वप्रथम ॐ का उच्चारण करके ही वेद का स्वाध्याय करते हैं. वेद के स्वाध्याय के प्रारंभ में ॐ का उच्चारण करना गणेश जी का ही नाम स्मरण या नामोच्चारण करना है.
ओंकाररूपी भगवान् यो वेदादौ प्रतिष्ठित:।
यं सदा मुनयो देवा: स्मरन्तीन्द्रादयो हृदि॥
ओंकाररूपी भगवानुक्तस्तु गणनायक:।
यथा सर्वेषु कार्येषु पूज्यतेऽसौ विनायक:॥
“ओंकाररूपी भगवान जो वेदों के प्रारंभ में प्रतिष्ठित हैं, जिन्हें सर्वदा मुनि तथा इंद्रादि देवगण हृदय में स्मरण करते हैं. वे ओंकाररूपी भगवान गणनायक कहे गए हैं. वे ही विनायक सभी कार्यों में पूजित होते हैं.”
• गणेश जी के अनंत नाम हैं, जिनका उल्लेख समस्त श्रुति-स्मृति-पुराण आदि में विस्तार से मिलता है.
ॐ गणांना त्वा गणपतिं हवामहे
कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्
जेष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पतआ नः
शृण्वत्रूतिभिः सीद सादनम्॥
(ऋग्वेद २|२३|१)
“हे गणेश! आप देवगणों के प्रभु होने से गणपति हो, ज्ञानियों में श्रेष्ठ ज्ञानी हो, उत्कृष्ट कीर्ति वालों में श्रेष्ठ हो. अतः हम आपका आदर से आह्वान करते हैं. हे ब्रहणस्पते गणेश जी! आप हमारे आह्वान को मान देकर अपनी समस्त शक्तियों के साथ इस आसन पर उपस्थित होइये.”
नि षु सीद गणपते गणेशु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम्।
न ऋते त्वत क्रियते किं चनारे महामर्क मघवञ्चित्रमर्च॥
(ऋग्वेद १०|११२|९)
“हे गणपते! आप देव आदि समूहों में विराजमान होइये. त्रिकालदर्शी ऋषि स्वरूप कवियों में आप श्रेष्ठ हो! आप सत्कर्मों के पूरक हैं. आपके बिना समीप का अथवा दूर का कोई कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता. हे पूज्य एवं आदरणीय गणपते! हमारे सत्कार्यों को निर्विघ्न पूर्ण करने की कृपा कीजिये.”
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः॥
(गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद)
“व्रातपति अर्थात् समस्त देव समुदाय के नायक को नमस्कार है, गणपति को नमस्कार है, प्रमथपति अर्थात् भगवान् शिव के गणों के अधिनायक को नमस्कार है. लम्बोदर को, एकदन्त को, विघ्नविनाशक को, भगवान् शिव के पुत्र को एवं श्रीवरदमूर्ति (वर-प्रदाता) को नमस्कार है, बारम्बार प्रणाम है.”
ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचक:।
तयोरीशं परब्रह्म गणेशं प्रणम्याम्यहम्॥
‘ज्ञ’ ज्ञानार्थवाचक है और ‘ण’ निर्वाणवाचक है. इस प्रकार ‘ज्ञान – निर्वाणवाचक गण के ईश अर्थात् गणेश परब्रह्म हैं. मैं उन्हें प्रणाम करता हूं.’
शिव-गौरी पुत्र गणेश
भगवान शिव और माता पार्वती जी के विवाह में सर्प्रथम श्रीगणेश का ही पूजन हुआ था-
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥
तात्पर्य यह है कि भगवान गणपति अनादि व अनंत हैं. वे सदैव से ही हैं. जो भगवान शिव के पुत्र गणेश हुए हैं, वे उन गणपति जी के ही अवतार हैं जिनका उल्लेख वेदों में ‘गणपति’ या ‘ब्रह्मणस्पति’ नाम से है. भगवान शिव और माता पार्वती जी ने मिलकर महागणपति की आराधना कर उनसे वरदान प्राप्त किया कि आप हमारे पुत्र के रूप में अवतार लें. इसलिए भगवान महागणपति गणेश जी के रूप में शिव-पार्वती के पुत्र होकर अवतरित हुए, और तब से वे शिव-गौरी पुत्र गणेश कहलाते हैं.
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर (ॐ) के मध्ये ये तीनों एका॥
• गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की पहली चौपाई में मां सरस्वती जी और श्रीगणेश जी की ही वंदना की है, और इसके बाद उन्होंने दूसरी-तीसरी चौपाई में भगवान शिव और माता पार्वती जी की वंदना की है-
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
श्रीगणेश जी के कुछ प्रमुख मंत्र-
श्रीगणेश जी अग्रपूज्य, गणों के ईश गणपति, स्वस्तिक रूप तथा प्रणव स्वरूप हैं. प्रतिदिन उनके स्मरण मात्र से संकट दूर होकर शांति और समृद्धि आती है. जो मनुष्य मंगलमूर्ति गणेश जी का श्रद्धाभक्ति से प्रतिदिन स्मरण, ध्यान और उनके स्तोत्र आदि का पाठ या गणेश जी के मंत्रों का जप करता है, उनके नामों से हवन-पूजन करता है, उसके यहां समस्त प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि का भण्डार भरा रहता है.
ॐ श्री गणेशाय नम:।
ॐ गं गणपतये नम:।
गजाननं भूतगणाधिसेवितं
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकम्
नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्॥
वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ:।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।
जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
आदिपूज्यं गणाध्यक्षं उमापुत्रं विनायकम्।
मंगलंपरमं रूपं श्रीगणेशं नमाम्यहम्॥
ऊँ नमो भगवते गजाननाय।
ऊँ नमो भगवते लम्बोदराय।
गणेश जी का स्वरूप ऐसा क्यों है-
चेतना के विस्तार का प्रतीक- चूंकि श्री गणेश जी ज्ञान, बुद्धि और रिद्धि-सिद्धि के देवता हैं, इसलिए उनका विराट स्वरूप भी चेतना के विस्तार का प्रतीक है. भगवान गणेश जी का पूरा स्वरूप कुंडलिनी जागरण की प्रक्रिया का अंग है. उनका मुख हाथी का है, क्योंकि हाथी के सिर में गजमुक्ता होती है. उनकी लंबी सूंड कुंडलिनियों का प्रतीक है. उनकी सूंड मुड़ी हुई ही होती है और उनका एक दांत टूटा हुआ है. ऐसा क्यों है, आइये इसे समझते हैं-
गणेश जी की सूंड मुड़ी हुई क्यों है- कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है, तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की तरफ भागता रहता है (सामान्यतः मनुष्य की गति अधोगामी होती है). लेकिन जब यह जाग्रत होती है तो ऐसा लगता है जैसे कोई सर्पिलाकार तरंग घूमती हुई ऊपर उठ रही है. गणेश जी की सूंड हमेशा मुड़ी हुई होती है, जो कि उस अवस्था का प्रतीक है, जब आप नीचे से ऊपर की तरफ जा रहे होते हैं.
गणेश जी का एक दांत टूटा हुआ क्यों है- कुण्डलिनी योग या लय योग का अर्थ ही है – प्राण संचार करना, ब्रह्म के ज्ञान में लीन होना. अपनी कुंडलिनियों को जाग्रत करने वाला मनुष्य जब सात चक्रों में से चार चक्रों को पार कर लेता है, तब चौथे चक्र के बाद की यात्रा संसार और ईश्वर– दोनों के एक साथ के संबंध से नहीं चल सकती. किसी एक से संबंध तोड़ना ही पड़ेगा. और यही है गणेश जी के एकदन्त होने का सूचक. यानी अब चौथे चक्र के बाद की यात्रा द्वैत से नहीं, अद्वैत से होगी.
सरल शब्दों में हम गणेश जी के स्वरूप को इस प्रकार भी समझ सकते हैं-
उनकी चार भुजाएँ चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक हैं. वे लंबोदर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि समस्त सृष्टि उनके उदर में ही गुजरती है. बड़े कान अधिक ग्राह्यशक्ति (सबसे पहले विषय को सुनना और समझना और फिर इसके बाद बोलना, मनुष्य को सुननी सबकी चाहिए ,लेकिन अपने बुद्धि विवेक से ही कोई निर्णय करना चाहिए) और उनकी छोटी-पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं.
उनकी लंबी सूंड महाबुद्धित्व का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कि समझदार व्यक्ति अपने आसपास के माहौल को पहले से ही सूंघ (भाँप) सकता है. गणेश जी की सूंड हिलती-डुलती रहती है, जिसका अर्थ है कि मनुष्य को हमेशा सचेत रहना चाहिए. उनका बड़ा पेट खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक है. गणेश जी का बड़ा उदर सुखपूर्वक जिंदगी जीने के लिए अच्छी-बुरी सब बातों को पचाने का संदेश देता है.
भगवान गणपति जी का वाहन मूषक
भगवान गणेश जी का वाहन मूषक (चूहा) है. हमारा मन भी मूषक के समान यानी बहुत चंचल होता है. इधर-उधर भटकता ही रहता है. लेकिन जब इस मन पर बुद्धि-विवेक का नियंत्रण हो जाता है, तो वह गणपति का वाहन बन जाता है. वाहन यानी जो हमें गंतव्य तक ले जाने में सहायता करे और इस प्रकार मूषकरूपी मन भगवान गणपति का वाहन बनकर हमें अपने इष्ट तक पहुंचाने में हमारी सहायता करता है.
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