हम में से बहुत से लोगों के दिमाग में ये सवाल आता है कि क्या इस ब्रह्मांड में पृथ्वीलोक के अलावा भी कई और लोक हैं, क्या उन्हें देखा जा सकता है या उन तक पहुंचा जा सकता है? स्वर्गलोक, वैकुण्ठ लोक आदि कैसा होता होगा? वहां के लोगों का जीवन कैसा होता होगा? सब कुछ बहुत सुंदर होता होगा… इन सबके जो जवाब मुझे अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त हुए हैं, उन्हें मैं आपके साथ भी शेयर कर रही हूँ.
पृथ्वीलोक के अलावा कई और लोक भी हैं
हमारी इंद्रियां इतनी सीमित हैं कि हम ब्रह्मांड में कई चीजों को न देख सकते हैं और न ही सुन सकते हैं. यह बात साइंस भी कहता है. उदाहरण के लिए, ब्रह्मांड में हर एक वस्तु गतिमान है. हर एक पिंड की अपनी एक आवाज है. लेकिन अंतरिक्ष में जाने पर हम अपने कानों से किसी तरह की कोई आवाज को नहीं सुन सकते. ब्रह्मांड के हर एक पिंड पर समय की गति भी अलग-अलग है. हमारे कई दिन या कई साल दूसरे ग्रहों के एक दिन के बराबर हैं, लेकिन हम मनुष्य सब जगह के समय का मान अपनी पृथ्वी के ही हिसाब से निकालते हैं.
वैज्ञानिकों के मुताबिक, ब्लैक होल जैसे पिंडों पर तो समय का भी कोई अस्तित्व नहीं है. ब्लैक होल जैसे पिंडों को हम अपनी आंखों से देख भी नहीं सकते. अब कुछ लोग यह भी कहते हैं कि “जो दिखता है वही होता है, और जो दिखाई नहीं देता, तो इसका मतलब वह होता ही नहीं…”
लेकिन यदि वैज्ञानिक भी यही बात मान लेते तो ब्लैक होल जैसे पिंडों की तो खोज ही नहीं हो पाती, क्योंकि ब्लैक होल से प्रकाश बाहर नहीं आ पाता इसलिए वह अदृश्य रहता है. तो वैज्ञानिक ब्लैक होल की खोज कैसे करते हैं?
बहुत सारे पिंड किसी अदृश्य केंद्र के चारों तरफ एक व्यवस्था में क्यों घूम रहे हैं? कौन है जो इन सभी पिंडों को अपने चारों तरफ एक व्यवस्था में बांधे रखा है? बस इसी से होती है ब्लैक होल की खोज. इस प्रकार, ब्रह्मांड में ऐसे अनगिनत रहस्य हैं, जिनका पता हम यांत्रिक तरीकों से भी नहीं लगा सकते.
यह बात सच है कि ब्रह्मांड में पृथ्वीलोक के अलावा कई और लोक भी हैं. हालांकि आधुनिक विज्ञान के सहारे उन लोकों तक नहीं पहुंचा जा सकता है, लेकिन अध्यात्मिक उन्नति के सहारे जरूर पहुंचा जा सकता है और कई महान ऋषि या ब्रह्मर्षि अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा जीवित रहते हुए ही अन्य लोकों तक पहुंचने में सफल भी हुए हैं.
अपने-अपने कर्मों के अनुसार हर प्राणी की उन्नति और अवनति होती है (कि वह किस लोक में जाएगा). पृथ्वीलोक से अन्य लोकों में पहुंचने पर आत्मा को उसी लोक के अनुसार एक अलग दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है, ताकि वह आत्मा उस लोक में मिलने वाले सुख-दुख या भोगों का एहसास कर सके.
अब कई लोक होने का अर्थ यह भी नहीं कि भगवान् तो एक निश्चित लोक या निश्चित स्थान पर ही रहते हैं. भगवान तो हर जगह हैं. कई लोकों के अर्थ में हम यहाँ भगवान् के साकार और सगुण रूप की चर्चा करते हैं.
वैकुण्ठ अत्यंत सुंदर स्थान है. यहां पर रहने वालों का जीवन भी अत्यंत सुंदर है. इतना सुंदर जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यहां पहुंचने को ही मोक्ष कहा जाता है, क्योंकि यहां पहुंचकर आत्मा को एक दिव्य शरीर प्राप्त हो जाता है, साथ ही वह जन्म-मृत्यु के बंधन से भी छूट जाता है. पुराणों के अनुसार, वैकुंठ में किसी प्रकार की निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा और दरिद्रता आदि नहीं हैं. अगर वैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ लगाएं तो वह है- ‘जहां कुंठा न हो’. लेकिन वैकुंठ की व्याख्या के लिए केवल ये शाब्दिक अर्थ पर्याप्त नहीं हैं. तो आइये, अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर वैकुंठ के बारे में कुछ जानते हैं-
• गोलोक
• वैकुंठलोक और शिवलोक
• सत्यलोक
• तपलोक
• जनलोक
• महरलोक
• ध्रुवलोक
• पृथ्वीलोक
गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुंठ और वाम भाग में शिवलोक है.
इन सभी लोकों में वैकुंठ, शिवलोक और गोलोक हमारे इस ब्रह्मांड में या इस आयाम में मौजूद नहीं है. बाकी सत्यलोक तक के सभी लोक हमारे इसी ब्रह्मांड में मौजूद हैं. इन सभी लोकों में जन्म-मृत्यु का बंधन है, लेकिन बैकुंठ, शिवलोक और गोलोक में ये असुविधाएं नहीं हैं. देवताओं और ब्रह्मा जी की आयु भले ही अत्यंत लंबी है, लेकिन उनका भी जीवनकाल निश्चित ही है. लेकिन भगवान शिव और भगवान विष्णु जी आदि, अनंत और अविनाशी हैं, और इनके लोकों में जाने वाले लोग भी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं, या अपनी मर्जी से पृथ्वी पर पुनः जन्म ले सकते हैं. यानी बंधन समाप्त हो जाते हैं.
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पृथ्वीलोक से कितनी दूर है वैकुंठलोक
♦ अगर हम पृथ्वीलोक से वैकुंठलोक तक की दूरी का अंदाजा लगाएं, तो यह है लगभग 4,10,40,00,00,00,00,000 किलोमीटर. और अगर आज की टेक्नोलॉजी से हम पृथ्वीलोक से वैकुंठलोक तक की यात्रा पर निकलेंगे तो कितना ही तेज चलें, फिर भी हमें वहां तक पहुंचने में 12 लाख साल से भी ज्यादा का समय लग जाएगा. तो निश्चित सी बात है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी के सहारे तो हम वहां तक कभी नहीं पहुंच सकते.
कैसा है वैकुंठलोक, कैसा है वहां का जीवन
वैकुंठलोक में अनेक जनपद हैं. सभी जनपद रत्नों और मणियों से जड़ित मकानों, महलों और विमानों से सुशोभित हैं. यहां के विमानों में भी सुंदर भवन बने हुए हैं. वैकुंठ में अपनी जगह बनाने वाले लोग इन मकानों में हर प्रकार की सुविधाओं के बीच अनेक प्रकार के भोग-वस्तुओं से पूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं. यहां रहने वालों में प्रकृति की पूर्णता और पवित्रता होती है.
वैकुंठ सूर्य, अग्नि या बिजली आदि से प्रकाशित नहीं होता, वह स्वयं ही प्रकाशित है. यहां समय का भी कोई प्रभाव नहीं होता. यहां रहने वाले लोग हमेशा जवान और सुंदर दिखाई देते हैं. भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, “जो लोग मेरा ध्यान करते रहते हैं, साथ ही मृत्यु के समय भी मेरा ही ध्यान करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त कर मेरे लोक वैकुण्ठ को जाते हैं, जहां के ऐश्वर्य की देवता भी सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं.”
वैकुंठलोक में भगवान श्रीविष्णु का नगर
वैकुंठलोक के मध्यभाग में भगवान श्रीविष्णु जी का नगर है, जहां भगवान विष्णु अपनी पराशक्ति (पत्नी) श्रीलक्ष्मी जी के साथ रहते हैं. जैसे हमें अपने देश के राजा के दर्शनों के लिए कई प्रयास करने पड़ते हैं, उसी प्रकार वैकुंठ में रहने वालों को भगवान श्रीविष्णु और माता लक्ष्मी जी के दर्शनों के लिए प्रयास करने पड़ते हैं. लेकिन वहां ये सब इसलिए कठिन नहीं है, क्योंकि वहां किसी के भी अंदर किसी भी प्रकार के पाप या बुराई का अंशमात्र भी नहीं है.
भगवान श्रीविष्णु का अंतःपुर
भगवान विष्णु जी के नगर के बीचोंबीच श्रीहरि का महल या अंतःपुर या निवास स्थान है. यह महल सुंदर गोपुरम और मणियों से युक्त है. महल के चारों तरफ सुंदर दिव्य स्त्री-पुरुष अपने-अपने कर्तव्य-पालन में लगे रहते हैं. इस महल के बीच में रत्नों से बने एक दिव्य मंडप में एक अष्टदल कमल है, जो सूर्य के समान प्रकाशमान है.
इसी अष्टदल कमल पर भगवान विष्णु जी भगवती लक्ष्मी जी के साथ विराजमान हैं. भगवान श्रीविष्णु और लक्ष्मी जी के रूप-सौंदर्य का वर्णन उसी प्रकार किया गया है, जैसे रामायण या रामचरितमानस में श्रीराम और सीता जी के रूप का किया गया है. इनकी तुलना नहीं की जा सकती है. सुंदर दिव्य वस्त्रों, पीताम्बर, रत्नों, मणियों के साथ पारिजात के पुष्पों को भी भगवान श्री विष्णु जी की शोभा बढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त है.
भगवान विष्णु के नगर के द्वारपाल और पार्षद
भगवान विष्णु जी के नगर के चार द्वार हैं- पूर्व के द्वार पर चंड-प्रचंड का, पश्चिम के द्वार पर जय-विजय का, उत्तर के द्वार पर धाता-विधाता का, दक्षिण के द्वार पर भद्र-सुभद्र का पहरा रहता है. वैकुंठ में भगवान विष्णु जी के अनगिनत पार्षद (भगवान के सहायक) निवास करते हैं. इनमें 16 पार्षद प्रमुख हैं.
ये पार्षद अपने गले में वनमालाएं धारण करते हैं. भगवान विष्णु अपने इन पार्षदों को समय-समय पर अनेक प्रकार के सन्देश देने के लिए पृथ्वी पर भेजते रहते हैं. जब किसी भी युग के अंत में श्रीहरि पृथ्वीलोक पर अवतार लेते हैं, तब ये पार्षद भगवान की लीलाओं में उनका सहयोग करते हैं.
कई जगहों पर विष्णु जी की कई पटरानियां बता दी जाती हैं- लक्ष्मी, श्रीदेवी, भूदेवी और नीला, विमला, ज्ञाना आदि. जबकि भगवान विष्णु जी की कई रानियां नहीं हैं. उनकी एक ही पत्नी हैं- श्रीलक्ष्मी जी. वेदों के अनुसार श्रीदेवी, भूदेवी, विमला, ज्ञाना आदि महालक्ष्मी जी के ही अन्य नाम या पर्यायवाची हैं.
शक्ति, लक्ष्मी और सरस्वती के जितने भी पर्यायवाची हैं, वे सभी मां दुर्गा के भी नाम हैं. इसी प्रकार सीता, रुक्मिणी, राधा, पद्मा आदि लक्ष्मी जी के ही अलग-अलग रूप या अवतार हैं. अपने सभी रूपों में वे भगवान श्रीहरि की हृदयस्वामिनी हैं.
मोक्ष- वैकुंठ में अपनी जगह बनाने को ही मोक्ष कहते हैं. वैकुंठ में जाकर बार-बार जन्म लेने और मृत्यु से छुटकारा मिल जाता है. यहां पहुंचकर आत्माएं एक नया दिव्य शरीर प्राप्त कर लेती हैं.
मोक्ष भी कई प्रकार के होते हैं, जिनका अर्थ भी उनके नाम के अनुसार ही है-
• साहूजिया मोक्ष, जिसमें जीव भगवान में ही विलीन हो जाता है.
• सालोक्य मोक्ष, जिसमें जीव को वैकुंठ में ही स्थाई निवास मिल जाता है
• सरूप्य मोक्ष, जिसमें जीव भगवान विष्णु जी जैसा रूप प्राप्त करता है
• सर्ष्टि मोक्ष, जिसमें जीव भगवान विष्णु जैसा ऐश्वर्य प्राप्त करता है.
मोक्ष के ये सभी प्रकार वैकुंठ में ही अलग-अलग पद हैं. अर्थात, जीव को अपने-अपने कर्मों के अनुसार, वैकुंठ में अलग-अलग पद प्राप्त होते हैं. कोई भी जीव किसी भी प्रकार से भगवान विष्णु के समान नहीं बन सकता. ऐसा स्वयं भगवान विष्णु और भगवान श्रीकृष्ण और भगवान शिव और ब्रह्मा जी ने ही कहा है. केवल भगवान में ही विलीन हो जाना जीव को भगवान के समान बना सकता है.
कुछ विशेष लोगों को सभी लोकों में आने-जाने का अधिकार और शक्ति प्राप्त है- जैसे नारद जी, अश्विनी कुमार, सर्वोच्च आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त कर चुके ऋषि और परम भक्त जैसे ध्रुव, प्रह्लाद आदि. वैकुंठ तक पहुंचने के लिए देवताओं को भी पुण्यकर्म और तप करने पड़ते हैं.
वैकुंठ में अपनी जगह कैसे बनाएं-
इस सवाल का जवाब भगवदगीता और रामचरितमानस में दिया गया है.
रामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं कि, “भले ही कलियुग पाप और अवगुणों का घर है, लेकिन कलियुग में एक बड़ा गुण ये है कि उसमें बिना ही परिश्रम के मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है. कलियुग की एक महिमा यह है कि इसमें मानसिक पुण्य तो होते हैं, लेकिन मानसिक पाप नहीं होते. सत्ययुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में जो स्थान कठिन पूजा, यज्ञ और योग-तप आदि से प्राप्त होता है, वही स्थान कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम-जप से प्राप्त कर सकते हैं.”
“सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं. त्रेता में मनुष्य को अनेक प्रकार के यज्ञ करने पड़ते हैं. लेकिन कलियुग में न तो योग है और न यज्ञ, न ज्ञान है न तपस्या. श्रीहरि या श्रीरामजी का गुणगान और नाम जप ही एकमात्र आधार है. नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है. कोई भी कार्य करने से पहले भगवान का ध्यान जरूर करें. इस प्रकार यदि लोग विश्वास करें, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, क्योंकि इस युग में श्रीरामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर और उनके नाम-जप से ही मनुष्य अपनी जगह वैकुंठ में बना सकता है.”
इसी प्रकार भगवद गीता में भी मोक्ष प्राप्ति के रास्ते बताए गए हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से संसार को जो शिक्षा दी है वह अनुपम है. गीता वर्तमान में रहने का शास्त्र है, मृत्यु के समय का नहीं. गीता के अनुसार, “मनुष्य अंतकाल में जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उसको ही प्राप्त होता है.”
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