क्या शूद्रों का जन्म ब्रह्मा जी के पैरों से हुआ है? क्या है भारत की वर्ण व्यवस्था…

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Bharat me Jati Vyavastha-

आज बहुत से लोगों को न ‘शूद्र’ का सही अर्थ पता है और न ‘ब्राह्मण’ का. वेदों, मनस्मृति आदि का ठीक से अध्ययन करने से पता चलता है कि प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं थी. वर्ण व्यवस्था थी, लेकिन वह भी गुण, धर्म और कर्मों के आधार पर थी, न कि जन्म के आधार पर. प्राचीन भारत में लोग अपने वर्ण का चुनाव स्वयं करते थे. क्यों करते थे, ये भी बता देते हैं.

किसी स्मृति या सनातन शास्त्र में शूद्रों के अछूत होने का उल्लेख नहीं मिलता है और न ही प्राचीन भारत में कहीं से भी, किसी शूद्र के तपस्या करने, अन्य वर्णों के साथ बैठकर विद्याध्ययन करने, या धार्मिक कर्मकांड करने आदि पर किसी प्रकार की कोई रोक या मनाही नहीं थी.

प्राचीन भारत में शूद्रों के तीन अर्थ निकलते थे- एक अर्थ वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत और दूसरा अर्थ स्वार्थी-दुष्ट लोगों से और तीसरा अर्थ अज्ञानी रहने (सत्य से दूर रहने वालों) से. लेकिन वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत वाले अर्थ में भी शूद्रों का कार्य अन्य तीनों वर्णों की गुलामी करना नहीं था, बल्कि उनसे शिक्षा ग्रहण करने या सीखने से था, और हमारे यहाँ गुरु का सदा से ही सम्मान रहा है.

वर्ण का अर्थ है- वरण करना या स्वीकार करना या धारण करना. यानी जो जिस कार्य को धारण कर ले, वही उसका वर्ण बन जाता है.

शूद्र का पहला अर्थ- अज्ञानी लोगों से-

जैसा कि मनुस्मृति (Manusmriti) के अध्याय 10 के श्लोक 65 में लिखा है-

शूद्रो ब्राह्मणताम् ऎति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्
क्षत्रियसज्जताम् एवम् तु विद्याद्वैश्यातथैव च
जन्मना जायते शूद्रः संस्करात् द्विज उच्यते
वेदपाठाद्धवेद विप्रः ब्रह्मा जानति ब्राह्मणः

अर्थात्-जन्म से सभी शूद्र हैं, व्यक्ति अपने संस्कारों से ब्राह्मण या शूद्र बनता है. ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है. कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को और शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है. इसी तरह, क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो सकती हैं”. यानी यही नियम क्षत्रिय और वैश्य पर भी लागू होता है.

ये मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है. इस श्लोक से साफ पता चल रहा है कि जन्म से प्रत्येक मनुष्य ही शूद्र है. अतः शूद्रों के लिए जो भी नियम बनाये गए हैं, वे सभी मनुष्यों के लिए बनाये गए हैं.


शूद्र का दूसरा अर्थ- स्वार्थी, दुष्ट लोगों से

तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं-

पूजिय बिप्र सकल गुणहीना।
सूद्र न गुणगन ज्ञान प्रवीना।।

तुलसीदास जी ने नारी पर अत्याचार करने और मांस-भक्षण करने वाले रावण को अविवेकी, अहंकारी, असभ्य, अशिष्ट, दुराचारी और शूद्र कहा है, और श्रीराम का साथ देने वाले और नारी की रक्षा करने वाले वानरों और पक्षी जटायु को भी सदाचारी, विवेकशील और विप्र कहा है.

इसका मतलब कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला हर व्यक्ति विप्र नहीं होता, लेकिन किसी भी वर्ण का व्यक्ति या कोई जानवर-पक्षी भी अपनी परोपकारिता (सदाचार) से विप्र बन सकता है.

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाह रहे हैं कि शूद्र (दुष्ट व्यक्ति) अगर रावण की तरह शक्तिशाली और ज्ञानी भी हो तो भी वह पूजने योग्य नहीं है, वहीं विप्र (परोपकारी या सदाचारी व्यक्ति) अगर अज्ञानी या शक्तिहीन या गुणहीन भी हो, तो भी वह पूजनीय है.

भगवान शिव ने कहा कि “ब्राह्मणत्व की प्राप्ति न तो जन्म से न संस्कार न शास्त्रज्ञान और न सन्तति के कारण है. ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है. लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पद पर बना हुआ है. सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है. जब तक सदाचार सुरक्षित है, तभी तक ब्राम्हणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह स्वयं नष्ट हो गया अर्थात वह ब्राम्हण नहीं रहा. चारो वेद पढ़कर भी जो दुराचारी है, वह ब्राम्हण नहीं.” (महाभारत- अनुशासन पर्व 143 : 50-51)

‘यदि शूद्र में ब्राह्मणीय लक्षण हैं तो वह ब्राह्मण ही है और यदि किसी ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले मनुष्य में ब्राह्मणीय लक्षण का अभाव है तो वह ब्राह्मण नहीं है, वह शूद्र है. यदि शूद्र में सत्य आदि लक्षण रहते हैं, तो उसकी गणना ब्राह्मणों में ही होगी.’ (महाभारत – वनपर्व 177:20, 180:23:26)

न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः। (महाभारत -आश्वमेधिकपर्व 116 : 8)

“कुल, जाति से कोई पूजनीय नहीं होता है. व्यक्ति के अन्दर का गुण ही कल्याणकारक होता है.”

सारा मनुष्य जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है. वर्णों में कोई भेद नहीं है. ब्रह्मा जी के द्वारा रचा गया यह सारा संसार पहले पूर्णतः ब्राह्मण ही था. मनुष्यों के कर्मों द्वारा यह वर्णों में विभक्त हुआ. (महाभारत- शान्तिपर्व -188:10)

संपूर्ण जीव ब्रह्मा जी से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण होते हैं क्या? नहीं, क्योंकि ब्राह्मण पिता के द्वारा ब्रह्मतेज की प्राप्ति नहीं हो सकती अर्थात ब्राह्मण के घर जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता. मनुष्य कर्मशीलता और गुणों से सम्मानीय और पूजनीय होता है, किसी विशेष कुल में जन्म लेने से नहीं. (शुक्रनीति -1:39, 2:55)


अब आते हैं शूद्र के तीसरे अर्थ पर, यानी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत-

पहली बात कि इस बात को अपने दिमाग से बिल्कुल निकाल दीजिये कि शूद्रों का कार्य अन्य तीनों वर्णों की गुलामी करना या साफ-सफाई करना होता था, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो-

श्रीराम-सीता जी और लक्ष्मण जी जब वनवास को गए थे, तो क्या वे अपने साथ किसी शूद्र को अपनी सेवा के लिए ले गए थे?

भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत उठाया था, तब बिना किसी भेदभाव के हर कोई, यहां तक कि जानवर-पक्षी भी अपनी रक्षा के लिए उसके नीचे आ गए थे.

क्या कभी सुना है कि किसी भी आश्रम में कोई ऋषि-मुनि अपनी सेवा के लिए शूद्रों को रखते थे? (और ‘ऋषि-मुनि’ का अर्थ ‘ब्राह्मण’ नहीं होता).

ऋषि-मुनि जंगलों में कहीं भी तपस्या करते रहते थे, जिन्हें ढूंढना भी मुश्किल होता था. तो क्या शूद्र उनकी सेवा के लिए जंगलों में जहां-तहां घूमते रहते थे?

हर व्यक्ति अपने कार्य और आसपास की साफ-सफाई रखने का कार्य स्वयं ही करता था. अपने चारों तरफ साफ-सफाई रखने का कार्य हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझता था.

ऐसी छोटी मानसिकता तो किसी में नहीं होती थी कि “मैं कचरा या गंदगी फैलाऊं और कोई दूसरा आएगा साफ करने के लिए”. यह मानसिकता कलियुगी लोगों की है और इसी मानसिकता को उन्होंने हमारे धर्म ग्रंथों में भी भरकर रख दिया.

प्राचीन भारत के लोग सनातन धर्म का पालन करते थे, अतः हर एक व्यक्ति प्रकृति की रक्षा करना, चारों तरफ साफ-सफाई रखना आदि स्वयं की ही जिम्मेदारी समझता था. इस बात को प्राचीन भारत की ‘आश्रम व्यवस्था’ से अच्छी तरह समझा जा सकता है.

भगवान श्रीराम और उनके मित्र निषादराज एक ही गुरुकुल में पढ़े थे.

जिस वाल्मीकि रामायण से कुछ लोग वेदपाठ करने के कारण कल्पित शम्बूक वध का उदाहरण देते नहीं थकते, उसी वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 6 श्लोक 17 में लिखा है कि-

“चारों वर्गों के लोग देवता और अतिथियों के पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे.”

यानी सभी वर्गों के लोग पूजन आदि करते थे और ‘शूरवीर तथा पराक्रमी भी थे’, तो इसका अर्थ है कि उन्हें सब प्रकार की शिक्षा भी दी जाती थी.

तो फिर शूद्रों का क्या काम होता था?

सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में शूद्रों का काम कोई भी गंदा काम नहीं होता था. चारों वर्णों में शूद्रों का कार्य ही सबसे सरल कार्य होता था. शूद्रों का कार्य किसी भी वर्ण की सेवा करना नहीं था, बल्कि कलात्मक कार्य करना था.

ब्राह्मण- जो सदाचारी हो, सत्य या ब्रह्म को जानते हो और अपने ज्ञान से समाज को सही दिशा दिखा सकता हो.
क्षत्रिय- जिसकी भुजाओं में बल हो और जो दूसरों की रक्षा करने का सामर्थ्य उठा सकता हो,
वैश्य- जो समाज का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी उठा सकता हो, यानी व्यापारी वर्ग
शूद्र- जो कलात्मक कार्य कर सकता हो, और जो स्वयं को तैयार कर रहा हो.

अपने-अपने ज्ञान, कौशल और क्षमता से किसी वर्ण का कार्य किसी दूसरे वर्ण की सेवा करना नहीं, बल्कि पूरे समाज की सेवा करना था.

ब्राह्मण का अर्थ ब्रह्मा जी का वंशज नहीं, बल्कि ब्रह्म को जानने वाला होता था. ब्राह्मण कोई पदवी नहीं होती थी. कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण बनने के लिए तपस्या नहीं करता था, ब्रह्म को जानने के लिए तपस्या करता था. विश्वामित्र जी ने ब्राह्मण बनने के लिए नहीं, बल्कि ब्रह्मर्षि बनने के लिए तपस्या की थी.

ब्रह्मर्षि कैसे बना जा सकता है-  

जब विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से पूछा कि “क्या ब्राह्मण ही ब्रह्मर्षि बन सकता है?” तब वशिष्ठ जी कहते हैं कि “नहीं, ब्रह्मर्षि बनने के लिए ब्राह्मण बनने की कोई आवश्यकता नहीं है. जब कोई व्यक्ति वेदों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और ब्रह्म को जानने लगता है, पूरे समाज के लिए सोचता है, तब वह ब्राह्मण बन जाता है. और जब कोई व्यक्ति मन के सारे विकार त्यागकर, अपनी इन्द्रियों को जीतकर, बिना फल की इच्छा से तप करता जाता है, ब्रह्म को पूरी तरह जान लेता है, तब वह ब्रह्मर्षि बन जाता है.”

ब्रह्मर्षि वही बन सकता है, जो बिना किसी फल की आशा से तप करता है, जो ब्रह्म को पूरी तरह जान चुका हो, जिसमें क्रोध, लोभ, मोह, काम, ईर्ष्या और अहंकार जैसे मन के एक भी विकार न रह गए हों. ब्रह्मर्षि एक पदवी होती थी, जिसके लिए अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता था.

जब गायत्री माता विश्वामित्र जी से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देती हैं, तब वे कहती हैं- “हे पुत्र, तुम पहले क्षत्रिय थे और अब जब तुम ब्रह्म को जान रहे हो और अब तुम समाज के कल्याण के लिए भी कार्य करने लगे हो, इसलिए ब्राह्मण हो गए हो”. इसके बाद विश्वामित्र जी गायत्री माता से कहते हैं कि ‘कृपया मुझे ब्रह्मर्षि बनने का वरदान दे दीजिये’.

तब गायत्री माता कहती हैं कि, “ब्रह्मर्षि की पदवी वरदान द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती. अभी तुम ब्रह्मर्षि बनने के योग्य भी नहीं हुए हो, क्योंकि तुम अपनी तपस्या का फल चाहते हो. यानी तुम ब्रह्मर्षि बनने की इच्छा से तपस्या कर रहे हो, साथ ही अभी तुम लोभ-क्रोध-ईर्ष्या-अहंकार आदि के आवेश में भी आ जाते हो.”

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विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे. जब उन्होंने राजा होते हुए तपस्या की, तब राजर्षि कहलाए, और जब क्षत्रिय धर्म छोड़कर वेदों का ज्ञान प्राप्त किया, और तपस्या में लीन होकर ब्रह्म को जाना, समाज को अत्यंत कल्याणकारी गायत्री मंत्र दिया, तब वे ब्राह्मण कहलाए. लेकिन वे तो ब्रह्मर्षि बनना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने अत्यंत कठोर तपस्या की और इतनी शक्तियां अर्जित कर लीं कि वे देवताओं की भी शक्तियों को चुनौती देने लगे. तब कई बार उनकी तपस्या भंग की गई. मेनका के स्वर्गलोक लौट जाने के बाद वे तपस्या की पराकाष्ठा तक पहुंच गए और तब जाकर वे ब्रह्मर्षि कहलाए. यानी सभी वर्ण कर्मों के अनुसार ही तय हो रहे हैं. ब्रह्मर्षियों के पास बहुत शक्तियां होती हैं.

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क्षत्रिय- इसी तरह क्षत्रिय धर्म अत्यंत कठिन था. जिसने इस वर्ण का चुनाव कर लिया, तो उसे अपने प्राणों की चिंता किए बिना कभी भी किसी की भी रक्षा के लिए तुरंत तैयार हो जाना पड़ता था. जैसे भगवान श्रीराम रामायण में हर जगह यही करते हैं. वनवास के दौरान भी उन्होंने मानवजाति की रक्षा के लिए दंडकारण्य में राक्षसों का अंत किया.

वैश्य- वैश्यों का कार्य पूरे समाज के भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी होता था. पहले के समय में प्रादेशिक व्यापार बहुत बड़े स्तर पर होता था. लगान सही जगह लेकर जाना, खजाना सही जगह लेकर जाना आदि जिम्मेदारियां भी होती थीं.

शूद्र- शूद्रों का कार्य कलात्मक कार्य होता था. ये कला में बहुत निपुण होते थे. ये अपने सभी कार्य भगवान विश्वकर्मा जी की प्रेरणा से करते थे. बड़े-बड़े सुंदर नगरों, भवनों, मंदिरों का निर्माण इन्हीं के हाथों होता था. इनकी कला को देखकर आज भी लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं. जन्म से प्रत्येक मनुष्य ही शूद्र है. अतः शूद्र वह भी है जिसके कर्मों की झोली अभी खाली है और जो स्वयं को तैयार कर रहा है.

इस तरह चारों वर्ण मिलकर अपने-अपने ज्ञान-कौशल और क्षमता से एक समाज को सुरक्षित, उन्नत और खूबसूरत बनाते थे.

शूद्रों के बिना किसी भी उन्नत समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. और इसीलिए ऋग्वेद ने शूद्र को पूरे मानव समाज का आधार स्तंभ कहा है, जिस पर बाकी सभी अंग टिके हुए हैं, जिसके बिना ये समाज अपाहिज हो जाएगा और आगे नहीं बढ़ पाएगा.

ऋषि-आश्रम में चारों वर्ण एक साथ विद्याध्ययन करते थे, जहां सभी को 64 प्रकार की शिक्षाएं दी जाती थीं. इसके बाद अपनी-अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार सब विधार्थी स्वयं निर्णय लेते थे कि ‘मैं समाज के लिए किस वर्ण (या कर्तव्य) का चुनाव करूँगा’.

किसी भी वर्ण का व्यक्ति अभियन्ता (इंजीनियर), वैद्य (डॉक्टर), शिक्षक आदि बन सकता था.

‘तपसे शूद्रम’ (यजुर्वेद. 30.5) यानी वेदों में कठिन कार्य या मेहनत करने वाले को शूद्र कहा गया है. आपको ये भी बता दें कि वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग 20 बार आया है, लेकिन कहीं भी इस शब्द का प्रयोग अपमानजनक अर्थों में नहीं हुआ है. और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने, या उन्हें वेदों के अध्ययन से वंचित रखने, या उन्हें यज्ञ-पूजा-पाठ-कर्मकांड आदि से अलग रखने का जिक्र है ही नहीं.

रामचरितमानस में तुलसीदास जी जब रामराज्य की बात करते हैं तो वे सरयू नदी के तट पर चारों वर्णों के एक साथ स्नान करने का वर्णन करते हैं-
राजघाट सब बिधि सुन्दर बर
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर

अब अगर आप बात करें एकलव्य की कि द्रोणाचार्य ने उन्हें राजकुमारों के साथ शिक्षा देने से मना कर दिया था, लेकिन बाद में उनका अंगूठा जरूर मांग लिया था. तो पहली बात कि यह तथ्य प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि इसे लेकर अलग-अलग पाण्डुलिपियों में अलग-अलग तथ्य देखने को मिलते हैं. दूसरी बात कि यदि यह सत्य भी है तो आपको यह भी पता होना चाहिए कि द्रोणाचार्य का नाम इतिहास के आदर्श गुरुओं में है भी नहीं. उनमें ब्राह्मणत्व की कमी थी. उनके जैसा गुरु बनने की शिक्षा कोई नहीं देता, लेकिन एकलव्य जैसा शिष्य बनने की शिक्षा हर जगह दी जाती है.

महाभारत के आदिपर्व के पहले और दूसरे श्लोक में ही बताया गया है कि, “सभी ब्रह्मर्षि एक सूतपुत्र (लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा) के आते ही उनका स्वागत-सत्कार करते हैं, उन्हें आदरपूर्वक बैठाते हैं और कुशलक्षेम के बाद उनसे वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत की कथा सुनाने का आग्रह करते हैं.” अतः यह भी कहना व्यर्थ है कि सूतों को समाज में विद्या का अधिकार नहीं था या समाज में उनका कोई आदर नहीं था.

राजा प्रतीप के तीन पुत्र हुए- देवापि, शान्तनु और महारथी. इनमें से देवापि ब्राह्मण बन गये और शान्तनु तथा महारथी बाल्हीक क्षत्रिय बने.

सत्यकाम जाबाल अज्ञात कुल के थे. वे अपनी सत्यवादिता के कारण महान् और प्रसिद्ध ऋषि बने. (पंचविश ब्राह्मण 8:6:1)

मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण क्षत्रिय से शूद्र हो गया. (विष्णु पुराण 4:1:17)

गृत्समद के पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनक-वंश का विस्तार हुआ. शौनक-वंश में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग हुए. (हरिवंश पुराण 1 : 29 : 8)

इसी तरह माता शबरी जो भील समुदाय की ‘शबरी’ जाति से संबंध रखती थीं. तपस्या करते-करते वह देवताओं से भी ऊंची हो गईं. भगवान श्रीराम ने स्वयं ही उन्हें ब्रह्म ज्ञान दिया था. भगवान श्रीराम ने शबरी जी को ‘माता’ कहते हुए उनके बेरों की तुलना अपनी मां कौशल्या जी के हाथों खिलाए जाने वाले राजभोग से की है.

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महर्षि श्री वाल्मीकी जी शूद्र कुल के थे. अपने महान कर्मों, तप और रामभक्ति के बल पर देवताओं से भी ऊंचे हो गए. उन्हें “भगवान और महर्षि वाल्मीकि” कहा जाता है.

भगवान श्रीकृष्ण के पिता नन्दबाबा अपने पिछले जन्म में एक भील या आदिवासी थे. तब वे भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ही भगवान शिव ने उन्हें अगले जन्म में श्रीकृष्ण के पिता कहलाने और उनकी बाल लीलाओं को देखने का वरदान दिया था.

वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में अयोध्या का वर्णन करते हुए लिखा है कि-

“अयोध्या में ऐसा एक भी गृहस्थ नहीं था, जिसका धन आवश्यकता से कम हो, या जिसके पास इहलोक और परलोक के सुखों के साधन न हों. सभी गृहस्थों के घर गौ (गाय), घोड़े और धन-धान्य से पूर्ण थे. कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख, मांसाहारी और नास्तिक तो ढूंढने पर भी नहीं मिलते थे.”

– यहाँ सब मनुष्यों की बात की जा रही है. यानी चारों वर्णों के लोगों की. यानी सबकी स्थिति समान है.

ऐसे हजारों उदाहरण देखने को मिलते हैं. इसका मतलब कि प्राचीन भारत में किसी भी अच्छे राजा के शासन में या रामराज्य में चारों वर्णों की स्थिति एक समान थी. कहीं कोई ऊंच-नीच की भावना नहीं थी. वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित थी. इसी के साथ, भगवान ने कभी भी किसी वर्ण में भेदभाव की बात नहीं की.

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हर एक व्यक्ति अपने जीवन में समय-समय पर चारों वर्णों का दायित्व निभाता है-

एक व्यक्ति जब-
व्यापार करता है, या दूसरों का भरण-पोषण करता है, तब उस समय वह वैश्य है
जब कलात्मक कार्य करता है या दूसरों की सेवा करता है, तब वह शूद्र है
जब दूसरों की रक्षा करता है, तब वह क्षत्रिय है, और
जब अपने ज्ञान से दूसरों को सही दिशा दिखाता है, समाज का कल्याण करता है, तब वह ब्राह्मण है.

इस तरह हर एक व्यक्ति अपने जीवन में समय-समय पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है. हम सब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों ही हैं. ये है प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था… अब इसमें ऊंच-नीच की बात कहां से आ गई, पता नहीं.

इसका मतलब कि ये केवल कुछ बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों की एक साजिश ही हो सकती है कि भारत के प्राचीन धर्मग्रंथों और वेदों के श्लोकों का गलत अर्थ निकालकर “ऊंची-नीची जाति” जैसे शब्दों से भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती है.

प्राचीन भारत में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग- ‘मनुष्य जाति’, ‘नारी जाति’, ‘राक्षस जाति’, ‘पशु जाति’ आदि के लिए होता था, न कि किसी वर्ण के लिये.

मूल मनुस्मृति में 680 श्लोक ही थे, जबकि मिलावटी मनुस्मृति में श्लोकों की संख्या 2400 है.


अब हम उस श्लोक पर भी आते हैं, जिसके नाम पर यह भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती है कि प्राचीन भारत के धर्मग्रंथ या वेद वर्णों या जातियों में भेदभाव करते हैं.

पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मंडल का एक प्रमुख सूक्त, जिसमें एक विराट पुरुष और उसके अंगों की चर्चा हुई है-

ब्राह्मणोस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः.
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥13॥

इस श्लोक का अर्थ यह बताया जाता है कि “ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा जी के मुख से हुआ, क्षत्रिय का बाहु से, वैश्य का जंघा से और शूद्र का पैरों से”.

इस श्लोक का ऐसा अर्थ निकालने वाले और भ्रम फैलाने वाले इसके तुरंत पहले के श्लोक की चर्चा नहीं करते, जिसमें लिखा है-

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्.
मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥12॥

यानी मंत्र संख्या 12 में यह पूछा गया है कि “कौन मुख के समान है, कौन हाथों के समान, कौन जंघा के समान और कौन पैरों के समान है”
तब बताया जाता है कि-

राजन्य: कृत: ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू.
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥13॥

ब्राह्मण मुख के समान, क्षत्रिय हाथों के समान, वैश्य जंघा के समान और शूद्र पैरों के समान हैं.

यानी इसमें मात्र कल्पना की गई है कि कौन सा वर्ग शरीर के किस अंग के समान है, तो इसमें पैदा करने या उत्पन्न होने की बात कहां से आ गई? इसमें तो यह कहा गया है कि अगर समाज को एक व्यक्ति मान लिया जाए, तो ये वर्ग इस अंग के समान है. हम जानते ही हैं कि अक्सर समाज की तुलना एक मानव शरीर से की जाती है.

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अब आप ही बताइये कि आप अपने शरीर के मुख, हाथ, जंघा और पैरों में से किस अंग को काटकर फेंक सकते हैं, या किस अंग को बाकी दूसरे अंगों से कम जरूरी समझ सकते हैं?

किसी समाज को सही तरीके से चलाने और आगे बढ़ाने में चारों वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का समान रूप से वही योगदान है, जो किसी मानव शरीर को स्वस्थ रखने और उसे चलाने में मुख, हाथ, जंघा और पैरों का है.

चारों ही वर्ण किसी गाड़ी के चार पहियों के समान हैं. क्या एक पहिया निकाल देने पर गाड़ी को आगे बढ़ाया जा सकता है?

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