Vyadha Gita Mahabharata
जो लोग यह कहते हैं कि सनातन धर्म में स्त्रियों का सम्मान नहीं है, या शूद्रों आदि का सम्मान नहीं है, उन्हें एक बार व्याध गीता (Vyadh Geeta) का अध्ययन अवश्य करना चाहिए, जिसमें एक स्त्री एक ब्राह्मण को मिथिला में रहने वाले एक शूद्र व्याध के पास धर्म का ज्ञान लेने के लिए भेजती है. उस स्त्री के कहने पर वह ब्राह्मण उस व्याध के पास जाता है और उससे ज्ञान की भिक्षा मांगता है. वह व्याध उस ब्राह्मण को गीता का ज्ञान देता है, और वह ब्राह्मण ज्ञान पाकर उस शूद्र व्याध की आदर से प्रदक्षिणा करता है.
यह कथा बहुत सारी शिक्षाएं देती है, साथ ही यह भी बताती है कि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों, व्यवहार और आचरण से ही छोटा या बड़ा होता है.
‘व्याध गीता’ (Vyadh Gita) महाभारत (मार्कण्डेयसमास्या पर्व) का एक भाग है. इसमें एक व्याध ने एक ब्राह्मण संन्यासी को शिक्षा दी है, जिसके कुछ तथ्य उल्लेखनीय हैं-
कौशिक नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो वेद का अध्ययन करने वाले, तपस्या के धनी और धर्मात्मा थे. वह तपस्वी ब्राह्मण सभी द्विजातियों में श्रेष्ठ समझे जाते थे. द्विजश्रेष्ठ कौशिक ने सभी अंगों सहित वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया था.
एक दिन की बात है, कौशिक ब्राह्मण किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वेद का पाठ कर रहे थे. उस समय उस वृक्ष के ऊपर बैठी एक बगुली ने उनके ऊपर बीट कर दी. यह देख ब्राह्मण को क्रोध आ गया. उन्होंने कुपित होकर उस बगुली को देखा और उसका अनिष्टचिन्तन किया, जिससे वह बगुली पृथ्वी पर गिर पड़ी.
तब उस बगुली को अचेत एवं निष्प्राण होकर पड़ी देख ब्राह्मण को बड़ी दया आई और अपने इस कुकृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ. वे शोक प्रकट करते हुए बोले- “ओह! आज क्रोध और आसक्ति के वशीभूत होकर मैंने यह क्या अनुचित कार्य कर डाला.”
इस प्रकार बार-बार पछताकर वह कौशिक ब्राह्मण गांव में भिक्षा के लिये गए. उस गांव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरण वाले थे, उन्हीं के घरों पर भिक्षा मांगते हुए वह एक ऐसे घर पर जा पहुंचे, जहाँ पहले भी कभी भिक्षा प्राप्त कर चुके थे. दरवाजे पर पहुँचकर वह बोले- ‘भिक्षा दें.’ भीतर से किसी स्त्री ने उत्तर दिया- “ठहरो! (अभी लाती हूँ).”
वह घर की मालकिन थी, जो बर्तन मांज रही थी. वह स्त्री सदाचार का पालन करती, बाहर-भीतर से शुद्ध पवित्र रहती, घर के काम-काज को कुशलतापूर्वक करती और कुटुम्ब के सभी लोगों का हित चाहती थी. जैसे ही वह बर्तन साफ करके उठी, कि उसी समय उसका पति घर आ गया. वह भूख से अत्यंत पीड़ित था. पति को आया देख वह पतिव्रता स्त्री अत्यंत विनीत भाव से पति की सेवा में ही लग गयी.
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पति की सेवा करते-करते उस यशस्विनी साध्वी स्त्री को भिक्षा के लिये खड़े हुए ब्राह्मण की याद आयी. तब अपनी भूल के कारण वह स्त्री बहुत लज्जित हुई और तुरंत ब्राह्मण के लिये भिक्षा लेकर घर से बाहर निकली. उसे देखकर कौशिक ब्राह्मण ने क्रोध करते हुए कहा-
“देवी! यह तुम्हारा कैसा बर्ताव है? यदि तुम्हें इतना ही विलम्ब करना था तो “ठहरो” कहकर मुझे रोक क्यों लिया? मुझे जाने क्यों नहीं दिया?”
कौशिक ब्राह्मण को बहुत क्रोध आ रहा था. उन्हें क्रोध में देखकर उस स्त्री ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया. वह बोली-
“विद्वन्! मेरी भूल को क्षमा करें. मेरे लिये सबसे बड़े देवता मेरे पति हैं. वे भूखे और थके हुए घर पर आये थे, तो मैं उन्हीं की सेवा में लग गयी.”
तब कौशिक ब्राह्मण बोले-
“तो क्या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं? तुमने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया? गृहस्थ धर्म में रहकर भी तुम ब्राह्मणों का अपमान करती हो? अरे देवी! स्वर्गलोक के स्वामी भी ब्राह्मणों के आगे सिर झुकाते हैं, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है. घमंड में भरी हुई स्त्री! क्या तुम ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती? क्या कभी बड़े-बूढ़ों के मुख से भी नहीं सुना? ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं. वे चाहें तो इस पृथ्वी को भी जलाकर भस्म कर सकते हैं.”
कौशिक ब्राह्मण का ऐसा कथन सुनकर वह स्त्री बोली-
“तपोधन! कृपया क्रोध न करें. मेरे इस अपराध को क्षमा करें. आप इस प्रकार कुपित होकर मेरा क्या करेंगे? मैं बगुली नहीं हूं, जो आपकी इस क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊंगी. मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती. मैं बुद्धिमान ब्राह्मणों के तेज और महत्व को जानती हूँ. मनस्वी ब्राह्मण तो देवता के समान होते हैं. महात्मा ब्राह्मणों का क्रोध और कृपा दोनों ही महान् होते हैं.”
“ब्रह्मन्! मेरे द्वारा जो आपका अपराध बन गया है, उसे क्षमा करें. विप्रवर! मुझे तो अपने पति की सेवा से जो धर्म प्राप्त होता है, वही अधिक पसंद है. मैं साधारण रूप से ही पतिसेवारूप धर्म का पालन करती हूँ, और मेरी इस पतिसेवा का फल (प्रभाव) भी आप प्रत्यक्ष देख लीजिये. आपने क्रोध करके जो एक बगुली को जला दिया था, वह बात मुझे (आपको देखते ही अपने आप) मालूम हो गयी. द्विजश्रेष्ठ! मनुष्यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है, उसका नाम है ‘क्रोध’.
“ब्रह्मन्! देवता लोग उसे ब्राह्मण मानते हैं जो जितेन्द्रिय, धर्मपरायण, स्वाध्यायतत्पर और पवित्र है तथा काम और क्रोध जिसके वश में है. स्वाध्याय, मनोनिग्रह, सरलता और इन्द्रियनिग्रह- ये ब्राह्मण के लिये सनातन धर्म कहे गये हैं. द्विजश्रेष्ठ! धर्मज्ञ पुरुष सत्य और सरलता को सर्वोत्तम धर्म बताते हैं. सनातन धर्म के स्वरूप को जानना तो अत्यंत कठिन है, परंतु वह सत्य में प्रतिष्ठित है. सत्य बोलने वाले लोगों का मन कभी असत्य में नहीं लगता. वृद्ध पुरुषों का उपदेश है कि जो वेदों द्वारा प्रमाणित हो, वही धर्म है.”
“द्विजश्रेष्ठ! प्रायः धर्म का स्वरूप सूक्ष्म ही देखा जाता है और आप भी धर्मज्ञ, स्वाध्यायपरायण और पवित्र हैं. तो भी भगवन! मेरा यह विचार है कि आपको धर्म का यथार्थ ज्ञान नहीं है. विप्रवर! यदि आप यह नहीं जानते कि परम धर्म क्या है, तो मिथिलापुरी में धर्मव्याध के पास जाकर पूछिए. वह व्याध माता-पिता का सेवक, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, वह आपको धर्म का ज्ञान देगा. आपका मंगल हो! और विप्रवर! यदि मेरे मुख से कोई अनुचित बात निकल गई हो तो उन सब के लिये मुझे क्षमा करें, क्योंकि धर्मज्ञ पुरुषों की दृष्टि में स्त्रियां अदण्डनीय हैं.”
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उस स्त्री के ये कथन सुनकर कौशिक ब्राह्मण बोले-
“शुभे! तुम्हारा कल्याण हो. मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ. मेरा सारा क्रोध दूर हो गया. तुमने जो उलाहना दिया है, वह अनुचित वचन नहीं, अपितु मेरे लिये परम कल्याणकारी है. देवी! अब मैं जाऊंगा और अपना कार्यसाधन करूँगा. कल्याणी! तुम धन्य हो, जिसका सदाचार इतनी उच्च कोटि का है.”
और उस साध्वी स्त्री से विदा लेकर कौशिक अपने आत्मा की निंदा करते हुए अपने घर को लौट गए.
कौशिक ब्राह्मण को उस स्त्री की कही हुई सारी बातों पर विचार करके बड़ा आश्चर्य हो रहा था. वह स्त्री बगुली पक्षी वाली घटना स्वयं जान गई थी और उसने धर्मानुकूल शुभ वचनों द्वारा जो उपदेश दिया था, इन सब बातों से कौशिक ब्राह्मण को उसकी बातों पर बड़ी श्रद्धा हो गयी थी. वह स्वयं को धिक्कारने लगे. फिर अपने धर्म की सूक्ष्म गति पर विचार करके वह मन ही मन बोले-
“मुझे उस सती स्त्री के कथन पर विश्वास करना चाहिये, अत: मैं अवश्य मिथिला जाकर उस पुण्यात्मा धर्मज्ञ व्याध से मिलूंगा.”
मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके कौशिक ब्राह्मण कौतूहलवश अनेक गांवों तथा नगरों को पार करते हुए राजा जनक के द्वारा सुरक्षित मिथिलापुरी जा पहुंचे. वह रमणीयपुरी सुन्दर ढंग से बनायी हुई बड़ी-बड़ी सड़कों से शोभा पा रही थी. बहुत-से गोपुर, अट्टालिकाएं, महल, चहारदीवारियां तथा दुकानें उस नगर की शोभा को बढ़ा रही थीं. बहुसंख्यक घोड़े, रथ, हाथी और सैनिकों से संयुक्त मिथिलापुरी हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई थी. वहाँ रोज अनेक प्रकार के उत्सव होते रहते थे. कौशिक ब्राह्मण ने उस पुरी में प्रवेश करके सब जगह घूम-घूमकर लोगों से उस धर्मव्याध का पता पूछा.
कौशिक ब्राह्मण का व्याध के घर जाना
सब लोगों से उसके बारे में पूछकर वे उस व्याध के कसाईखाने पर पहुँच जाते हैं, और मांस खरीदने वाले ग्राहकों को देखकर एकांत में खड़े हो जाते हैं. ब्राह्मण को आया हुआ जानकर व्याध सहसा शीघ्रतापूर्वक उठ खड़ा हुआ और उनके पास जाकर बोला-
“भगवन्! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ. द्विजश्रेष्ठ! आपका स्वागत है. मैं ही वह व्याध हूँ, जिसकी खोज में आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया. आपका कल्याण हो! उस पतिव्रता देवी ने जो आपको मेरे पास भेजा है, वह सब मैं जानता हूँ. आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह भी मुझे मालूम है. आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ.”
व्याध की यह बात सुनकर कौशिक ब्राह्मण मन-ही-मन सोचने लगे- “यह दूसरा आश्चर्य! यह व्याध भी मुझे देखते ही सब कुछ अपने आप ही जान गया?”
इसके बाद व्याध ने कहा- “भगवन्! यह स्थान आपके ठहरने योग्य नहीं है. यदि आपकी रुचि हो तो हम दोनों हमारे घर पर चलें?”. ब्राह्मण ने कहा- “बहुत अच्छा! ऐसा ही कीजिये.”
व्याध का घर सुन्दर, साफ-सुथरा था. वहाँ पहुँचकर उस व्याध ने ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन दिया और अर्ध्य देकर उस ब्राह्मण की आदर सहित पूजा की.
कौशिक ब्राह्मण ने देखा कि धर्मव्याध के घर की दीवारों पर सफेदी की हुई थी. उसमें चार कमरे थे. एक ओर सोने के लिये शय्या बिछी थी और दूसरी ओर बैठने के लिये आसन रखे गये थे. वहाँ धूप और चंदन, केसर आदि की उत्तम गंध फैल रही थी. एक सुन्दर आसन पर धर्मव्याध के माता-पिता भोजन करके संतुष्ट हो प्रसन्न मन से बैठै हुए थे. धर्मव्याध ने उन दोनों को देखते ही उनके चरणों में मस्तक रख दिया.
धर्मव्याध बोला- “भगवन्! ये माता-पिता ही मेरे प्रधान देवता हैं. इनकी सेवा में मुझे आलस्य नहीं होता.”
कौशिक ब्राह्मण ने व्याध से कहा- “तात! यह मांस बेचने का काम निश्चय ही तुम्हारे योग्य नहीं है. मुझे तो तुम्हारे इस घोर कर्म से बहुत संताप हो रहा है.”
तब वह व्याध कहता है- “ब्रह्मन्! यह काम मेरे बाप-दादों के समय से होता चला आ रहा है. वही धंधा मैंने भी अपनाया है” वह व्याध आगे यह भी बताता है कि, “ब्रह्मन्! मैं स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करता. मैं स्वयं मांस कभी नहीं खाता. सदा दूसरों के मारे हुए सुअर और भैंसों का मांस बेचता हूँ.”
“ब्रह्मन्! मैं जो यह मांस बेचने का व्यवसाय कर रहा हूं, वास्तव में यह अत्यंत घोर कर्म है, इसमें संशय नहीं है. किंतु ब्रह्मन्! दैव बलवान् है. पूर्वजन्म में किये हुए कर्म का ही नाम दैव है. यह जो कर्मदोषजनित व्याध के घर जन्म हुआ है, यह मेरे पूर्वजन्म में किये हुए पाप का ही फल है. मैं जिन मारे गये प्राणियों का मांस बेचता हूं, उनके जीते-जी यदि उनका सदुपयोग किया जाता तो बड़ा धर्म होता.”
“मांस-भक्षण में तो धर्म का नाम भी नहीं है. देवता, अतिथि, भरणीय कुटुम्बीजन और पितरों का आदर-सत्कार अवश्य धर्म है. उशीनर के पुत्र क्षमाशील (और दयालु) राजा शिबि ने तो (एक भूखे बाज को कबूतर के बदले) अपने शरीर का मांस अर्पित कर दिया था और उसी के प्रसाद से उन्हें परम दुर्लभ स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई थी.”
“इस कुल में मेरे लिये जो कार्य प्रस्तुत किया गया है, उसका पालन करता हुआ मैं अपने बूढ़े माता-पिता की बड़े यत्न से सेवा करता रहता हूँ. सत्य बोलता हूँ. किसी की निन्दा नहीं करता और अपनी शक्ति के अनुसार दान भी करता हूँ. देवताओं, अतिथियों और भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से शरीर का निर्वाह करता हूँ.”
“ब्रह्मन्! जो क्रूर कर्म में लगा हुआ है, उसे सदा यह सोचते रहना चाहिये कि ‘मैं शुभ कर्म करूँ और किस प्रकार इस निंदित कर्म से छुटकारा पाऊं. बार-बार ऐसा करने से उस घोर कर्म से छूटने के विषय में कोई निश्चित उपाय प्राप्त हो जाता है. मैं दान, सत्यभाषण, गुरुसेवा, ब्राह्मण पूजन तथा धर्मपालन में सदा तत्पर रहकर अभिमान और अतिवाद से दूर रहता हूँ.”
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♦ व्याध गीता से भी पता चलता है कि ब्राह्मण न तो मांसभक्षण करते थे और न ही मांस का व्यापार. वह व्याध जानता था कि बेवजह की जीवहत्या करने और मांसभक्षण करने में महान अधर्म है, इसलिए वह स्वयं न तो जीवहत्या करता था और ही मांसभक्षण करता था, केवल अपने पूर्वजों के धंधे को अपनाकर मांस बेचकर अपनी जीविका चलाता था. लेकिन वह उसे भी अत्यंत घोर कर्म बताता है और उससे छूट जाने के उपायों में भी लगा रहता है.
♦ वह व्याध कहता है कि कोई भी क्रियाशील मनुष्य पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता, क्योंकि खेती करते समय, चलते-फिरते समय आदि क्रियाओं में अनजाने में न जाने कितने ही प्रकार के जीवों की हत्या हो जाती है. बस यत्नपूर्वक चेष्टा करने से ऐसी हिंसा की मात्रा बहुत कम अवश्य की जा सकती है.
अज्ञानतावश या मजबूरी में किये गए गलत कार्य और जानबूझकर या लालचवश किये गए कार्यों में अंतर होता है. सड़क पर चलते समय अनजाने में चींटियों के बिलों के कुचल जाने और जानबूझकर उन्हें कुचले जाने में अंतर होता है. सब जगह मन का, हेतु का, आशय का, सद्भावनापूर्वक ज्ञान का महत्त्व है.
इसके बाद कौशिक ब्राह्मण उस धर्मव्याध से धर्म के विषय में जो-जो प्रश्न पूछते हैं, धर्मव्याध बड़ी विनम्रता और शांति से सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं. कौशिक ब्राह्मण के पूछे जाने पर धर्मव्याध जनकराज्य की प्रशंसा, वर्णधर्म का वर्णन, शिष्टाचार का वर्णन, हिंसा-अहिंसा का विवेचन, धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल तथा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन, विषयसेवन से हानि व सत्संग से लाभ, पञ्चमहाभूतों के गुणों का और इंद्रियनिग्रह का वर्णन, तीनों प्रकार के गुणों के स्वरूप और फल का वर्णन, प्राणवायु की स्थिति का वर्णन तथा परमात्मसाक्षात्कार के उपायों आदि का वर्णन करता है.
धर्मव्याध से ज्ञान प्राप्त कर कौशिक ब्राह्मण प्रसन्न होकर कहते हैं-
“आश्चर्य है कि जिस सनातन धर्म के स्वरूप को समझना अत्यंत कठिन है, वह शूद्रयोनि के मनुष्य में भी विद्यमान है. मैं आपको शूद्र नहीं मानता. मैं तो आपको ब्राह्मण मानता हूँ. आपके ब्राह्मण होने में संदेह नहीं है. जो ब्राह्मण होकर भी पतन के गर्त में गिराने वाले पापकर्मों में फंसा हुआ है और प्राय: दुष्कर्मपरायण तथा पाखंडी है, वह शूद्र के समान है.”
“इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी (शम) दम, सत्य तथा धर्म का पालन करने के लिये सदा उद्यत रहता है, उसे मैं ब्राह्मण ही मानता हूं, क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही द्विज होता है. शूद्रयोनि में उत्पन्न मनुष्य भी यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले, तो वह वैश्य तथा क्षत्रिय भाव को प्राप्त कर लेता है. जो ‘सरलता’ नामक गुण में प्रतिष्ठित है, उसे ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाता है.”
तब धर्मव्याध कौशिक ब्राह्मण को अपने पूर्वजन्म के बारे में बताता है-
“विप्रवर! मैं पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण का पुत्र और वेदाध्ययनपरायण ब्राह्मण था. वेदांगों का पारंगत विद्वान् माना जाता था. मैं विद्याध्ययन में अत्यंत कुशल था. एक धनुर्वेद-परायण राजा के साथ मेरी मित्रता हो गई थी. उनके संसर्ग से मैं धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगा और धनुष चलाने की कला में मैंने श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त कर ली.”
“ब्रह्मन्! इसी समय राजा अपने मंत्रियों तथा प्रधान योद्धाओं के साथ शिकार खेलने के लिये निकला. उन्होंने एक ऋषि के आश्रम के निकट बहुत-से हिंसक पशुओं का वध कर दिया. तब मैंने भी एक भयानक बाण छोड़ा. किन्तु वह बाण एक ऋषि को जा लगा. उन तपस्वी ऋषि ने पीड़ा से व्याकुल होकर मुझे शाप दिया कि, ‘निर्दयी ब्राह्मण! तुम शूद्रयोनि में जन्म लेकर व्याध होगे.”
“मेरे क्षमा मांगने पर उन्होंने द्रवित होकर मुझसे कहा कि, ‘शूद्रयोनि में रहकर भी तुम धर्मज्ञ होगे और माता-पिता की सेवा करोगे. सेवा से तुम्हें सिद्धि प्राप्त हो जाएगी, जिससे तुम्हें अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहेगा.”
♦ शुभ-अशुभ पुरुषार्थों के सिवा दैव नाम की दूसरी कोई वस्तु नहीं है (इन्हीं का नाम दैव या प्रारब्ध है). शुभ पुरुषार्थ से शुभ फल की प्राति होती है और अशुभ पुरुषार्थ से सदा अशुभ फल ही मिलता है. जब हम मन से सदा अच्छे कर्म करने की ही इच्छा और प्रयत्न करते हैं, तो दैव हमें और भी अच्छे कार्यों के लिए निमित्त बना देता है, और जब हम जानबूझकर बुरे कर्म करते हैं, तब आगे बुरे कार्यों के लिए हमें ही निमित्त बना दिया जाता है. पूर्वजन्म में उस ब्राह्मण से शिकार खेलने की चेष्टा में एक ऋषि की हत्या हो जाती है, जिससे उसे व्याध के घर अगला जन्म लेने का शाप मिलता है. ब्राह्मण होकर भी व्याध जैसा कर्म करने की चेष्टा की तो अगला जन्म व्याध योनि में ही मिला.
किन्तु उस ब्राह्मण को अपने इस कृत्य का अत्यंत पछतावा था. वह अपने पूर्वजन्म की बातों को जानता था. वह जानता था कि मैंने जानबूझकर अशुभ कर्म करने का ही प्रयत्न किया था, जिससे मुझे और भी अशुभ कर्म में निमित्त बनना पड़ा. यदि मैंने अपने पापों की श्रृंखला को यहीं नहीं रोका, तो यह श्रृंखला मुझे चरम सीमा तक ले जाएगी.
अतः वह व्याध के घर में जन्म लेकर भी जीवहत्या करने और मांसाहार करने से बचता है और अपने कुल के धंधे को अपनाकर मरे हुए पशुओं का मांस बेचकर अपनी जीविका चलाता है. किन्तु यह भी अत्यंत घोर कर्म था, क्योंकि इससे जीवहत्या को बढ़ावा तो मिलता ही है, अतः वह ऐसे कृत्य का समर्थन नहीं करता और इस कर्म से छूटने के उपायों में भी लगा रहता है.
वह धर्मात्मा व्याध आगे कहते हैं-
“विप्रवर! मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है. यदि पुरुषार्थजनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्छा होती, उसी को वह प्राप्त कर लेता. सब लोग सारे जगत् के ऊपर-ऊपर जाने की इच्छा रखते हैं, सभी सबसे ऊंचा होना चाहते हैं और उसके लिये वे यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं, किन्तु सभी जगह वैसा होता नहीं है.”
“बहुत-से ऐसे मनुष्य देखे जाते हैं, जिनका जन्म एक ही नक्षत्र में हुआ है और जिनके लिए मंगल कृत्य भी समान रूप से ही किये गये हैं, किन्तु अलग-अलग प्रकार के कर्मों का संग्रह होने के कारण उन्हें प्राप्त होने वाले फल में बहुत अंतर होता है, क्योंकि इस जगत् में पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के ही फल की प्राप्ति देखी जाती है.”
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“पुण्यात्मा मनुष्य पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करते हैं और नीच मनुष्य पाप में प्रवृत्त होते हैं. पाप करने वाले मनुष्यों को पाप की आदत हो जाती है, फिर उसके पाप का अंत नहीं होता; अत: मनुष्यों को चाहिये कि वह पुण्यकर्म करने का प्रयत्न करें और पाप को त्याग दें. विप्रवर! श्रुति के अनुसार यह जीवात्मा सनातन है और संसार में समस्त प्राणियों का शरीर नश्वर है. शरीर का नाश तो हो जाता है, किंतु अविनाशी जीव नहीं मरता. वह कर्मों के बंधन में बंधकर फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है.”
“द्विजश्रेष्ठ! जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा ‘फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा’, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है. ‘धर्म जैसी कोई चीज नहीं है’ ऐसा मानकर जो मनुष्य शुद्ध आचार-विचार वाले पुरुषों की हंसी उड़ाते हैं, वे धर्म पर अश्रद्धा रखने वाले मनुष्य निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं. पापी मनुष्य लुहार की धौंकनी के समान सदा ऊपर से फूले तो दिखायी देते हैं, परंतु वास्तव में वे सारहीन होते हैं.”
कौशिक ब्राह्मण ने धर्मव्याध से कहा-
“धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्मज्ञव्याध! उस सत्यपरायण और सुशीला पतिव्रता देवी के वचनों का स्मरण करके मुझे यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि आप उत्तम गुणों से संपन्न हैं.”
धर्मव्याध ने कहा-
“द्विजश्रेष्ठ प्रभो! इसमें संदेह नहीं कि उस देवी ने अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है. विप्रवर! आप पर अनुग्रह करने के विचार से ही मैंने ये सब बातें आपके सामने रखी हैं. तात! अब आप मेरी यह बात सुनिये. ब्रह्मन्! आपने अपने माता-पिता की उपेक्षा की है. वेदाध्ययन करने के लिये उन दोनों की आज्ञा लिये बिना ही आप घर से निकल पड़े. यह आपके द्वारा अनुचित कार्य हुआ है.”
“अतः द्विजश्रेष्ठ! अब आप पहले उन्हें प्रसन्न करने के लिये घर जाइये. ऐसा करने से आपका धर्म नष्ट नहीं होगा. आप तपस्वी, महात्मा तथा निरंतर धर्म में तत्पर रहने वाले हैं. परंतु माता-पिता को संतुष्ट न करने के कारण आपका यह सारा धर्म और व्रत व्यर्थ हो गया है. ब्रह्मर्षे! आप अपने घर जाइये और माता-पिता की सेवा कर दोनों को प्रसन्न कीजिये.”
धर्मव्याध की बात सुनकर कौशिक ब्राह्मण बोले-
“धर्म, सदाचार और गुणों से सम्पन्न व्याध! आपका कल्याण हो. आपने यह जो कुछ बताया है, वह सब सत्य है.”
धर्मव्याध ने कहा-
“विप्रवर! आप देवताओं के समान हैं, क्योंकि आपने उस धर्म में मन लगाया है जो पुरातन, सनातन, दिव्य तथा मन को जीतने वाले पुरुषों के लिये दुर्लभ है. किन्तु द्विजश्रेष्ठ! अब आप शीघ्र ही माता-पिता के पास जाकर उनकी सेवा में लग जाइये.”
कौशिक ब्राह्मण बोले-
“नरश्रेष्ठ! मेरा बड़ा भाग्य था, जो यहाँ आया और सौभाग्य से ही मुझे आपका संग प्राप्त हो गया. आज आपने मेरा उद्धार कर दिया. इस प्रकार जब मुझे आपका दर्शन मिल गया, तब निश्चय ही आपके उपदेश के अनुसार ही होगा. राजा ययाति स्वर्ग से गिर गये थे, परंतु उनके उत्तम स्वभाव वाले दौहित्रों (पुत्री के पुत्रों) ने पुन: उनका उद्धार कर दिया और वे पुनः स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हो गये. इसी प्रकार आज आपने भी मुझ ब्राह्मण को नरक में गिरने से बचाया है. मैं आपके कहे अनुसार माता-पिता की सेवा करूँगा.”
और तब विप्रवर कौशिक धर्मव्याध की परिक्रमा करके वहाँ से चल दिए. घर जाकर उन्होंने अपने माता-पिता की सब प्रकार की सेवा-शुश्रूषा की और उन बूढ़े माता-पिता ने प्रसन्न होकर उनकी यथायोग्य प्रशंसा की.
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