मेहनत या भाग्य : पुरुषार्थ या प्रारब्ध? दोनों में कौन है अधिक बलवान?

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भगवान श्रीराम

Yoga Vasistha Ramayana

यह पाठ योगवासिष्ठ (Yogvasishtha) से लिया गया है. अपने लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाये या सफलता कैसे प्राप्त की जाए, इस विषय पर गुरु वसिष्ठ भगवान् ने भगवान् श्रीराम को शिक्षा देने के माध्यम से पूरी मानवजाति को शिक्षा दी है. इस विषय को अच्छे से समझने के लिए इसे ध्यानपूर्वक पूरा पढ़ना चाहिए. गुरु वसिष्ठ कहते हैं —

रघुनन्दन! इस संसार में सदा अच्छी तरह पुरुषार्थ (प्रयत्न) करने से सबको सबकुछ मिल जाता है. जहाँ किसी को असफल देखा जाता है, वहां उसके सम्यक प्रयत्न का अभाव ही कारण है, इसलिये मनुष्य को प्रयत्न पर ही निर्भर रहना चाहिये.

जो मनुष्य जिस पदार्थ को पाना चाहता है, उसकी प्राप्ति के लिये यदि वह क्रमशः यत्न करता है और बीच में ही उससे मुंह नहीं मोड़ लेता तो अवश्य उसे प्राप्त कर लेता है. कोई एक विशेष प्राणी ही पुरुषोचित प्रयत्न के द्वारा इन्द्रपदवी को प्राप्त कर सका है. पुरुषार्थ से ही बृहस्पति देवताओं के गुरु बने हुए हैं. निरंतर प्रयत्न में लगे रहकर सुदृढ़ अभ्यास में तत्पर हुए बुद्धिमान्‌ और साहसी पुरुष मेरुपर्वत को भी निगल जाने की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं (अर्थात्‌ कितनी ही बड़ी शक्ति या सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं).

श्रीराम! बताओ तो सही कि इस लोक में जो शूरवीर, पराक्रमी, बुद्धिमान्‌ और पण्डित हैं, वे किस दैव (भाग्य) की प्रतीक्षा करते हैं? महर्षि विश्वामित्र ने अपने पुरुषार्थ से ही ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त किया है और किसी साधन से नहीं. हमने तथा दूसरे-दूसरे मनुष्यों ने, जो इस समय मुनि-पदवी को प्राप्त हैं, चिरकाल तक किये गये पौरुष से ही आकाश में विचरण करने की शक्ति प्राप्त की है.

हिरण्यकश्यप आदि दानवों ने पुरुषार्थ के द्वारा ही देवसमुदाय को दूर भगाकर त्रिलोकी का साम्राज्य प्रात किया था. और फिर इन्द्र आदि देवेश्वरों ने भी पुरुषोचित प्रयत्न से ही शत्रुसेना को छिन्न-भिन्न एवं जर्जर करके दानवों से बलपूर्वक इस विशाल जगत् का राज्य पुनः अपने अधिकार में ले लिया था.

श्रीराम! पुरुषार्थ दो प्रकार का होता है-
एक शास्त्रानुमोदित (पुण्य-कर्म) और
दूसरा शास्त्रविरुद्ध (पाप-कर्म).

इन दोनों में जो शास्त्रविरुद्ध पुरुषार्थ है, वह अनर्थ का कारण होता है और शास्त्रानुमोदित पौरुष परमार्थ वस्तु की प्राप्ति में कारण है. इसलिये मनुष्य को शास्त्रीय प्रयत्न से तथा साधु पुरुषों (अच्छे मनुष्यों) के सत्संग से ऐसा उद्योग करना चाहिये कि इस जन्म का पौरुष पूर्वजन्म के पौरुष (प्रारब्ध) को शीघ्र जीत ले.

जो मनुष्य केवल मन से किसी वस्तु की इच्छा करता है, किन्तु शास्त्रानुसार कर्म से नहीं, वह पागलों की-सी चेष्टा करता है. उसकी वह चेष्टा केवल मोह में डालने वाली है, पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाली नहीं. जो मनुष्य जैसा प्रयत्न (कर्म) करता है, वह वैसा ही फल भोगता है. जो यह कहते हैं कि दैववश (भाग्यवश) फल में विपरीतता भी आ जाती है, तो उनका कथन ठीक नहीं, क्योंकि अपना पूर्वकृत कर्म ही फल देने के लिये उन्मुख होने पर दैव कहलाता है. उसके अतिरिक्त दैव नाम की कोई वस्तु नहीं दिखायी देती.

मानव-जीवन को यूं ही व्यर्थं नहीं गवां देना चाहिये. पशुओं के समान आचरण का त्याग करें और सत्पुरुषों के योग्य आचार-व्यवहार का आश्रय लें. शास्त्रों के अनुसार किया हुआ उद्योग इहलोक ओर परलोक दोनों की सिद्धि में कारण है. शुभ पुरुषार्थ से शुभ फल की प्राति होती है और अशुभ पुरुषार्थ से सदा अशुभ फल ही मिलता है. इन शुभ-अशुभ पुरुषार्थों के सिवा दैव नाम की दूसरी कोई वस्तु नहीं है (इन्हीं का नाम दैव या प्रारब्ध है).

जो अधिक बलवान्‌ होता है, वही विजयी होता है

पूर्वजन्म के तथा इस जन्म के पुरुषार्थं (कर्म) दो भेड़ों की तरह आपस में लड़ते हैं. उनमें जो भी बलवान्‌ होता है, वही दूसरे को क्षणभर में पछाड़ देता है. इस जन्म में किया गया प्रबल पुरुषार्थ अपने बल से पूर्वजन्म के पौरुष या दैव को नष्ट कर देता है और पूर्वजन्म का प्रबल पौरुष इस जन्म के पुरुषार्थ को अपने बल से दबा देता है. उन दोनों में जो अधिक बलवान्‌ होता है, वही विजयी होता है (अर्थात्‌ धर्माचरण ओर मुक्ति के विषय में तो वर्तमान जन्म का पुरुषार्थ बलवान्‌ है और अर्थ एवं काम के विषय में पूर्वजन्म का कर्म या दैव प्रबल है).

पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप प्रारब्ध और वर्तमान जन्म के पुरुषार्थ- इन दोनों में वर्तमान जन्म का पुरुषार्थ ही प्रत्यक्षतः बलवान्‌ है, इसलिये अधिकारी मनुष्य को पुरुषार्थ का सहारा लेकर सत्‌-शास्त्रों के अभ्यास और सत्सङ्ग द्वारा बुद्धि को निर्मल बनाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहिए.

पूर्वजन्मों का पुरुषार्थ ही दैव है

जो तुच्छ विषय-सुखों के क्षणिक लोभ में फंसकर उस पूर्वकृत पौरुष या दैव को वर्तमान जन्म के पुरुषार्थ द्वारा जीतने का प्रयत्न नहीं करते और सदा दैव (भाग्य) के भरोसे बैठे रहते हैं, वे दीन और मूढ़ हैं (क्योंकि पुरुषार्थ के बिना आत्म-कल्याण सिद्ध नहीं होता).

जो नाना प्रकार के आश्चर्यजनक वैभव के आश्रय (अधिपति) थे और वैभव भोग की दृष्टि से महान्‌ समझे जाते थे, ऐसे पुरुष भी अपने दोषयुक्त पौरुष (पापाचरण) से ही नरकों के अतिथि हुए हैं. उच्च पदवी से भ्रष्ट हो गये हैं. सहस्रों सम्पदाओं ओर हजारों विपत्तियों से पूर्ण नाना प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल दशाओं में पड़े हुए विभिन्न जातियों के प्राणी अपने पुरुषार्थ से ही उन्हें लांघकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते हैं.

पूर्वजन्म के पौरुष से भिन्न दैव कोई वस्तु नहीं है (पूर्वजन्मों का पुरुषार्थ ही दैव है). इसलिये “मैं दैव के अधीन हूँ, कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हूँ”, ऐसी बुद्धि या विचारधारा को सत्संगों तथा सत्‌-शास्त्र के अभ्यास द्वारा मन से दूर करने का प्रयास करें तथा आलस्यवश सत्कर्म अथवा साधन कभी न छोड़ें. जैसे-जैसे प्रयत्न होगा, वैसे-ही-वैसे शीघ्रतापूर्वक फल प्राप्त होगा. इसी का नाम पौरुष है.

शुभ पौरुष के द्वारा अशुभ पौरुष को जीत लेना चाहिये

श्रुति-स्मृति आदि शास्त्र से नियंत्रित पुरुषार्थ के सम्पादन में तत्पर जो मनुष्य का पौरुष (उद्योग) है, वही मनोवांछित फल की सिद्धि का कारण होता है. शास्त्रों के विपरीत किया हुआ प्रयत्न अनर्थ की ही प्राति कराने वाला होता है. कोई पुरुष जब शास्त्रीय प्रयन्न को शिथिल कर देता है, तब स्वयं दरिद्रता, रोग और बंधन आदि अपनी दुर्दशा के कारण वह ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है, जहाँ उसके लिये पानी की एक बूँद भी बहुत समझी जाती है (दुर्लभ हो जाती है), किन्तु किसी को शास्त्रानुसार आचरण के प्रभाव से ऐसी उत्तम अवस्था प्राप्त होती है, जहाँ समुद्र, पर्वत, नगर और द्वीपों से व्याप्त विशाल भूमण्डल का साम्राज्य भी अधिक नहीं समझा जाता है (वह भी सुलभ हो जाता है).

अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर तत्परतापूर्वक प्रयत्न में लगे हुए मनुष्य को अपने शुभ पौरुष के द्वारा पूर्वजन्म के उस अशुभ पौरुष को जीत लेना चाहिये, जो अच्छा फल देने में विघ्न उत्पन्न करता है. “यह पूर्व जन्म का प्रारब्ध या भाग्य ही मुझे प्रेरित करके विशेष परिस्थिति में डाल देता है”, इस प्रकार की बुद्धि को बलपूर्वक कुचल डालना चाहिये, क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रयत्न से अधिक प्रबल नहीं है. उत्तम पुरुषार्थ के लिये तब तक प्रयत्न करते रहना चाहिए, जब तक कि पूर्वजन्म का अशुभ पौरुष (प्रारब्ध) स्वयं पूर्णतः शान्त न हो जाय. अर्थात्‌ जब तक पिछले जन्मों का किया हुआ अशुभ कर्म समूल नष्ट न हो जाय, तब तक तत्परता से उत्साहपूर्वक साधन करते रहना चाहिये.

अपने भीतर दैवी सम्पत्ति का संग्रह करते रहें

जैसे अपने द्वारा कल घटित हुए दोष का आज प्रायश्चित्त कर लेने पर उस दोष का नाश हो जाता है, उसी प्रकार इस जन्म के गुणों से (शुभ पौरुष से) पूर्वजन्म का दोष (अशुभ पौरुष) अवश्य नष्ट हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है. पूर्वजन्म के अशुभ या दुःखदायक प्रारब्ध को इस जन्म के शुभ कर्मों से विशुद्ध एवं पुष्ट हुई बुद्धि के द्वारा तिरस्कृत करके संसार-सागर से पार होने के उद्देश्य की सिद्धि के लिये अपने भीतर दैवी सम्पत्ति के संग्रह (पुण्यकर्मों के संचयन) के लिए सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये.

रघुनन्दन! जैसे नीले, पीले आदि भिन्न-भिन्न रंगों की अभिव्यक्ति में प्रकाश ही मुख्य कारण है, उसी प्रकार शास्त्र के अनुसार मन, वाणी और शरीर द्वारा व्यवहार करने वाले अधिकारी मनुष्यों के पुरुषार्थों की सिद्धि में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति ही प्रधान साधन है.

शास्त्रज्ञ सत्पुरुषों के बताये हुए मार्ग से चलकर अपने कल्याण के लिये जो मानसिक, वाचिक ओर कायिक चेष्टा की जाती है, वही पुरुषार्थ है और वही सफल चेष्टा है. उससे भिन्न जो शास्त्र-विपरीत मनमाना आचरण है, वह पागलों की-सी चेष्टा है. सत्‌-शास्त्रों के प्रतिकूल तथा अच्छी संगति-सदाचार से रहित होने पर, प्रयत्न करने पर भी परमात्मसाक्षात्काररूप परम फल की सिद्धि नहीं होती. यही पौरुष का स्वरूप है.

अत्यंत चंचलतापूर्ण बाल्यावस्था के व्यतीत हो जाने पर जब बाहुदण्ड से अलंकृत यौवन-अवस्था का आरम्भ हो जाय, तभी से मनुष्य को पद-पदार्थ के ज्ञान से विशुद्ध बुद्धि होकर सत्पुरुषों के संग (अच्छी संगति) से अपने गुणों ओर दोषों का विचार करना चाहिये. तात्पर्य यह कि विचारपूर्वक दोषों को त्याग करके गुणों को ग्रहण करना चाहिये.

केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्य स्वयं अपने ही शत्रु हैं

सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति- यही मनुष्य का स्वार्थ है. उस स्वार्थ की प्राप्ति कराने वाले जो आवश्यक कर्तव्य या साधन हैं, एकमात्र उन्हीं में तत्पर रहने को ही विद्वान्‌ लोग पौरुष कहते हैं. वह तत्परता यदि शास्त्र से नियंत्रित हो तो परम पुरुषार्थ की प्राति करने वाली होती है.

अतः शुभाशय श्रीराम! मनुष्य को अपनी कोरी कल्पना के बल से उत्पन्न, मिथ्याभूत तथा सम्पूर्ण कारण ओर कार्य से रहित प्रारब्ध की अपेक्षा न रखकर आत्मकल्याण के लिये अपने उत्तम पुरुषार्थ का आश्रय लेना चाहिए. जो लोग उद्योग का त्याग करके केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं, वे आलसी मनुष्य स्वयं ही अपने शत्रु हैं. वे अपने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों का नाश कर डालते हैं.

बुद्धि, मन और कर्मेन्द्रियों के द्वारा की जाने वाली चेष्टाएं पौरुष के रूप हैं. इन्हीं से अभीष्ट फल की प्राति होती है. साक्षी चेतन में पहले जैसी विषय की अनुभूति होती है, मन वैसी ही चेष्टा करता है. मन के व्यापार के अनुसार शरीर चलता है- शारीरिक क्रिया होती है और उसके अनुसार ही फल की सिद्धि होती है. लोक में जहां-जहां जैसे-जैसे पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है, वहाँ-वहाँ वैसे-ही वैसे पौरुष के उपयोग से तदनुरूप लौकिक या वैदिक फल की सिद्धि होती है.

‘भाग्य’ तो कोमल एवं दुर्बल चित्त वाले लोगों के लिये आश्चासनमात्र है

जो वस्तु कल्याणकारी है, जो तुच्छ नहीं (सबसे उत्कृष्ट) है तथा जिसका कभी नाश नहीं होता, उसी का यत्नपूर्वक आचरण करो. यही सब गुरुजन उपदेश देते हैं. पौरुष से ही अभीष्ट वस्तु की सिद्धि होती देखी जाती है. पौरुष से ही बुद्धिमानों की कल्याण मार्ग में प्रगति होती है. भाग्य तो दुःख-सागर में डूबे हुए कोमल एवं दुर्बल चित्त वाले लोगों के लिये आश्चासनमात्र है.

लोक में प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा मनुष्य का प्रयत्न सदा सफल होता देखा जाता है. मनुष्य अपने पौरुष से ही देशान्तर में आता-जाता है. उत्तम बुद्धि वाले मनुष्य पौरुष से ही उन भीषण संकटों से अनायास पार हो जाते हैं, जिनसे पार पाना अत्यंत कठिन होता है. यह जो व्यर्थ प्रारब्ध की कल्पना की गयी है, उसके भरोसे वे संकटों से पार नहीं होते. जो मनुष्य जैसा प्रयत्न करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है. इस जगत्‌ में चुपचाप बैठे रहने वाले किसी भी मनुष्य को अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती. शुभ पुरुषार्थ से शुभ फल प्राप्त होता है और अशुभ पुरुषार्थ से अशुभ. अतः जिसकी जैसी इच्छा हो, वैसा करे.

सत्‌-शास्त्रों का अभ्यास और अच्छे गुणों का विकास करें

अपनी परम अभीष्ट वस्तु को प्राप कराने वाले एकमात्र कार्य के प्रयत्न में जो तत्पर हो जाना है, उसी को विद्वान्‌ लोग पौरुष कहते हैं. उस तत्परता से ही सब कुछ प्राप्त किया जाता है. अपने पैरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, हाथों का किसी द्रव्य को धारण करना तथा दूसरे-दूसरे अंगों का तदनुकूल व्यापार में प्रवृत्त होना- यह सब पुरुषार्थ से ही सम्भव होता है, प्रारब्ध से नहीं.

जैसे शरत्काल में सरोवर ओर कमल एक-दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार सद्बुद्धि से सत्‌-शास्त्रों का अभ्यास और अच्छे गुणों का विकास होता है तथा सत्‌-शास्त्रों के स्वाध्याय और सत्सङ्गरूपी गुणों से सदबुद्धि की वृद्धि होती है. निरंतर अभ्यास से ये दोनों एक-दूसरे के वर्धक और पोषक होते हैं. बाल्यावस्था से ही पूर्णतः अभ्यास में लाये गये शास्त्र और सत्सङ्ग आदि गुणों से पौरुष द्वारा अपना हितकारी स्वार्थ सिद्ध होता है.

शास्त्रों के अभ्यास, गुरु के उपदेश और अपने प्रयत्न- इन तीनों से ही सर्वत्र पुरुषार्थ की सिद्धि देखी जाती है. कल्याणकारी पुरुष अशुभ कर्मों में लगे हुए मन को वहां से हटाकर प्रयत्तपूर्वक शुभ कर्मों में ही लगाये. यही सम्पूर्ण शास्त्रों के सारांश का संग्रह है.


दैव या प्रारब्ध क्या है?

गुरु वसिष्ठ कहते हैं-
अवश्यम्भावी फलसे सुशोभित होने वाले पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त हुए फल का जो शुभ और अशुभ भोग है, उसी को दैव अथवा प्रारब्ध कहा जाता है. अथवा पौरुष द्वारा इष्ट और अनिष्ट कर्म का जो प्रिय ओर अप्रिय रूप फल प्राप्त होता है, उसी को ‘दैव’ नाम दिया गया है. एकमात्र पुरुषार्थ से सिद्ध होने वाला जो अवश्यम्भावी फल है, वही इस जनसमुदाय में दैव शब्द से प्रतिपादित होता है.

सिद्ध पुरुषार्थ के शुभ और अशुभ फल का उदय होने पर जो यह कहा जाता है कि “यह इसी रूप में मिलने वाला था, यही होनी थी”, इसी को ‘दैव’ कहते हैं. कर्मफल की प्राप्ति होने पर जो यह कहा जाता है कि “मेरी बुद्धि ऐसी ही हुई थी, ऐसा ही मेरा निश्चय था”, इसी का नाम “दैव” है. इष्ट और अनिष्ट फल के प्राप्त होने पर जो आश्वासन मात्र के लिये यह कहा जाता है कि “मेरा पूर्वजन्म का कर्म ही ऐसा था”, इस तरह की भावना को व्यक्त करने वाला वचन ही दैव कहलाता है.

पूर्वजन्म के उस कर्म का पर्यायवाची शब्द “दैव” है. मनुष्यों के मन में पहले जो अनेक प्रकार की वासना थीं, वे ही इस समय कायिक, वाचिकऔर कर्मरूप में परिणत हुई हैं. जीव में जिस प्रकार की वासना होती है, वह शीघ्र वैसा ही कर्म करता है. जो-जो मनुष्य जिस-जिस वासना से युक्त होता है, वह-वह उसी-उसी के लिये सदा प्रयत्न करता है.

पूर्वजन्म में फल की उत्कट अभिलाषा होने से जो कर्म प्रबल प्रयत्न के द्वारा किया जाता है, वही इस जन्म में “दैव” कहा जाता है. मन आदि भाव को प्राप्त हुआ यह प्राणी ही अपने हित के लिये जो-जो प्रयत्न करता है, दैव नाम से प्रसिद्ध अपने उस कर्म से ही वह तदनुरूप फल पाता है. इस प्रकार पौरुष से मनुष्य इस जगत में सबकुछ प्राप्त कर सकता है, दैव से नहीं.

मनुष्य का चित्त शिशु के समान चंचल होता है, उसे अशुभ मार्ग (पाप) से हटा दिया जाय तो शुभ मार्ग (पुण्य) में जाता है और यदि शुभ मार्ग से हटाया जाय तो अशुभ मार्ग में चला जाता है. इसलिये उसे बलपूर्वक पापमार्ग से हटाकर पुण्य के मार्ग में लगाना चाहिए.


उदाहरण सहित सारांश

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता।
तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा।
तपबल सेषु धरइ महिभारा॥॥

वर्तमान जन्म में अच्छे कर्मों और पुरुषार्थ का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि जब बाल्यावस्था बीत जाने पर मन की चंचलता कम हो जाये, सही-गलत में अंतर समझना आ जाये, तब अच्छे लोगों की संगति में रहकर, अच्छे गुरुओं का चुनाव करके, भाग्य के भरोसे न बैठकर केवल पुरुषार्थ या प्रयत्न करो (क्योंकि भाग्य भी कर्मों से ही बनता है. तो जिस प्रकार पिछले जन्म में अनुचित कर्मों से अपने बुरे भाग्य का निर्माण किया है, वैसे ही अच्छे कर्मों से बनने वाले अच्छे भाग्य से उस बुरे भाग्य को काट देने का प्रयत्न करना चाहिए).

केवल पुरुषार्थ ही पर्याप्त नहीं है, पुरुषार्थ केवल सही या अच्छी दिशा में ही होना चाहिए, जिससे कि वह पुरुषार्थ पिछले जन्मों में किये गए बुरे कर्मों के प्रभाव से बने प्रारब्ध को काट दे. “अब तक फल क्यों नहीं मिला”, ऐसा सोचकर बीच में ही नहीं रुक जाना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक कर्म का फल जुड़ता और मिलता अवश्य है.

हमारा गुरु कोई भी हो सकता है, जैसे पुस्तकें भी हमारी गुरु ही हैं. जो व्यक्ति जैसा होगा, उसके गुरु का चुनाव भी वैसा ही होगा. जिस व्यक्ति की बुद्धि सदा से ही अच्छी दिशा में चलती रहती होगी, वह कभी ऐसी पुस्तकों का चुनाव नहीं करेगा या ऐसे लोगों की संगति नहीं करेगा, जो उसे गलत दिशा में ले जाते हों. वह व्यक्ति शास्त्रों में लिखी बातों का सही अर्थ समझने का प्रयास करेगा (क्योंकि ज्ञान समर्पण से ही मिलता है, जैसे महाभारत में अर्जुन को गीता का ज्ञान मिला) और उन्हीं के अनुसार कार्य करेगा. और तब ऐसा व्यक्ति कितनी ही बड़ी सिद्धि को प्राप्त कर सकने में सक्षम हो जाता है.

जैसे व्याध गीता में, एक अनुचित कर्म के कारण एक ब्राह्मण को अगला जन्म एक व्याध के घर में मिलता है. वह व्याध अपने भाग्य को नहीं कोसता, बल्कि अपने पूर्व जन्म के दोषों को काटने में और अतिरिक्त पुण्यकर्मों के संचयन में जुट जाता है. इसके लिए वह व्याध होकर भी, कभी जीवहत्या और मांसाहार न करने की प्रतिज्ञा करता है. वह जानता था कि उसके पूर्वजन्म में किये गए पाप के कारण वर्तमान जन्म में उसे जीवहत्या का निमित्त बनाया गया है, किन्तु वह स्वयं को निमित्त बनने से रोक लेता है. वह मरे हुए पशुओं का मांस बेचकर अपनी जीविका चलाता है, किन्तु वह अपने इस कर्म का भी समर्थन नहीं करता और अपने इस कर्म से भी छूटने के प्रयास में लगा रहता है. वह बिना आलस्य के माता-पिता की सेवा में लगा रहता है, सभी संतों (सत्पुरुषों) का सम्मान करता है और प्रत्येक परिस्थिति में ईर्ष्या, लोभ, क्रोध, अहंकार जैसे दोषों से दूर रहता है. उसके ऐसे ही निरंतर पुरुषार्थ से उसे सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है.

पूर्वजन्म के तथा इस जन्म के पुरुषार्थों (कर्म) में जो भी बलवान्‌ होता है, वही दूसरे को क्षणभर में पछाड़ देता है. जैसे पूर्वजन्म के किसी प्रतिबंधक कर्म के कारण किसी मनुष्य को संतान की प्राप्ति नहीं होने वाली है, किन्तु यदि वह संतानप्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधान के साथ पुत्रेष्टि यज्ञ का अथवा उसी प्रकार के किसी सत्कर्म का अनुष्ठान करता है, तो उसे पुत्र की प्राप्ति हो जाती है (क्योंकि पुत्रेष्टि यज्ञ में अपने वर्तमान जीवन के सभी पुण्यकर्मों को अर्पित किया जाता है, अतः बहुत अधिक पुण्यकर्मों का होना आवश्यक है). यहाँ पूर्वजन्म के प्रतिबन्धक कर्म से इस जन्म का पुरुषार्थ अधिक बलवान्‌ होने के कारण नवीन प्रारब्ध का निर्माण करके वह मनुष्य विजयी हो जाता है. इसी प्रकार पूर्वजन्म के कर्मानुसार यदि किसी की मृत्यु अवश्यम्भावी है, तो उसके प्रतिकार के लिए अनेक प्रकार के उपाय करने पर भी मनुष्य उसे टाल नहीं पाता. अतः यहाँ पूर्वकृत कर्म (दैव या प्रारब्ध) ही प्रबल होने के कारण विजयी होता है.

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