आज कुछ अलग ही बुद्धि वाले लोग वेदों (Vedas) आदि पर कई अनर्गल आरोप लगाने का प्रयास करते हैं. उनके अनुसार, वेदों में मांस भक्षण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया गया है और इन्हीं लोगों को वेदों में अश्लीलता भी दिखाई देती है.
खैर, यह तो सभी जानते हैं कि प्रकाश में अंधेरा नहीं रह सकता, फिर भी जब हम प्रकाश में खड़े होते हैं तो हमें वहां अपनी ही छाया दिखाई देती है. निर्मल जल या साफ दर्पण में देखने पर हमें अपना ही प्रतिबिंब दिखाई देता है. अगर हम उस काली छाया को भी प्रकाश का ही हिस्सा या प्रतिबिंब को भी जल या दर्पण का ही भाग मान लें, तो इससे हमारी ही अज्ञानता का परिचय मिलता है. इससे उस प्रकाश आदि की निर्मलता में दोष नहीं आ जाता. यही दशा वेदों पर लगाए जाने वाले आरोपों की है.
Read Also- क्या भगवान श्रीराम मांस खाते थे
खैर, जिन लोगों भी ऐसा लगता है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहार या पशुबलि जैसे किसी भी कार्य का समर्थन किया गया है, तो वे लोग एक बार महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्याय 115 पढ़ लें.
वेद क्या हैं (What are Vedas)-
‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘विद् ज्ञाने’ धातु से बना है. इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ है ‘ज्ञान’. वेदों को अपौरुषेय कहा गया है, जिसका अर्थ है- जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो, यानी ईश्वर कृत. वेद ज्ञानमय हैं और ज्ञान ही ब्रह्म का स्वरूप है. अतः वेद ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं. ब्रह्म के लिए विज्ञान, आनंद, सत्य और अनंत आदि विशेषणों का प्रयोग किया जाता है, यानी ये सभी वेदों में हैं.
ब्रह्म की ही तरह वेद भी अनवद्य (निर्दोष) और अनामय (स्वस्थ) हैं. अतः वेदों में ऐसी कोई बात नहीं हो सकती जो परम कल्याणकारी न हो. जब ब्रह्म ही शांत और शिवरूप है, तो उसी का ज्ञान कैसे अशिवरूप हो सकता है? वेद किसी भी मनुष्य को सत्य का ज्ञान कराते हैं.
जानिए- मनुस्मृति में मांस खाने को लेकर क्या कहा गया है
कुछ लोगों का आरोप है कि वेदों में यज्ञ के लिए पशु हिंसा की विधि है. इसके बाद किसी तथाकथित पंडित ने बिना अर्थ जाने कह दिया कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’.
यानी ‘वेदों में (यज्ञ के लिए की गई) हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता है’.
लेकिन हिंसा तो हिंसा ही है, फिर चाहे वह कैसी भी हो. और इसीलिए वेदों की स्पष्ट आज्ञा है- मां हिंस्यात् सर्वा भूतानि (किसी भी प्राणी की हिंसा न करें).
तो फिर ‘वैदिकी हिंसा’ क्या है?
किसी निर्दोष प्राणी को कष्ट देने वाले आतताइयों, पापियों के लिए जो मृत्युदंड का आदेश मिलता है, वह हिंसा नहीं, बल्कि दंड है. दंड अपराधी को ही दिया जाता है, निरपराध को नहीं. दस्युता, आततायीपन अपराध हैं, अतः इनके लिए दंड का विधान है.
इस प्रकार, अगर भेड़-बकरे, अश्व आदि की अगर यज्ञ के नाम पर हत्या की जाती है, तो वह यज्ञ माना ही नहीं जा सकता है, क्योंकि यज्ञ ईश्वर की आराधना होते हैं.
वेदों के अनुसार, ‘विश्व और प्रकृति के संरक्षण और कल्याण में योग देना ही ईश्वर की यथार्थ पूजा या यज्ञ कहलाता है’.
किसी निरपराध पशु के रक्त-मांस से ईश्वर को तृप्त करने की कल्पना तो अत्यंत वीभत्स है, ईश्वरद्रोह है और यह ईश्वरद्रोह ही जिनकी प्रकृति है, उन असुरों ने ही समय-समय पर वेदों के अर्थ को बदलने की चेष्टा की है. मांस खाने की प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक नहीं, बल्कि निशाचरों के प्रयत्न से हुई है-
मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट बताया भी गया है कि-
श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः।
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः॥
ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा।
अभक्ष्यमपि मांसं यः प्राह भक्ष्यमिति प्रभो॥
(13.115.49-50)
‘प्राचीनकाल में मनुष्यों के यज्ञादि केवल अन्न से ही हुआ करते थे. पुण्यलोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष अन्न के द्वारा ही यज्ञ करते थे. लेकिन जब एक समय ऋषियों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा, उस समय वसु ने मांस को भी जो सर्वथा अभक्ष्य है, को भक्ष्य बता दिया.
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैरबुधोऽधमः ।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः॥
(13.115.43)
‘जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिं*सा करता है, वह नरकगामी होता है.’
इस प्रकार यज्ञादि में मांस आदि की प्रथा पीछे से असुरों ने चला दी. पूजा-कर्मकांड के नाम पर पशुओं की बलि देने की प्रथा दैत्यों की ही रही है, जो धीरे-धीरे मनुष्यों के बीच भी आ गई.
प्राचीन काल में किससे किए जाते थे यज्ञ?
महाभारत के अनुशासन पर्व में बताया गया है कि प्राचीन काल में मनुष्यों के यज्ञ-यागादि केवल अन्न से ही हुआ करते थे.
जिस तरह विधि (Law) को समझने के लिए, या उनका सही अर्थ लगाने के लिए कुछ अनिवार्य नियम बताए जाते हैं, उसी प्रकार वेदों का सही अर्थ जानने के लिए ऋग्वेद में चार अनिवार्य नियम बताए गए हैं, जिनमें से प्रमुख हैं-
यज्ञेन वाचं पदवीयमानम्
अर्थात- समेत वेदवाणी यज्ञ के द्वारा ही स्थान पाती है. अतः वेद का जो भी अर्थ किया जाए, वह यज्ञ में कहीं न कहीं अवश्य उपयुक्त होता हो, यह ध्यान रखना आवश्यक है.
बुद्धिपूर्वा वाक्प्रकृतिर्वेदे
अर्थात- वेदवाणी की प्रकृति बुद्धिपूर्वक है. अतः वेद मंत्र का अपने मन से निकाला गया अर्थ बुद्धि के विपरीत न हो, बुद्धि में बैठने योग्य हो, इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है.
वेद असत्य से सत्य की ओर ले जाने की प्रेरणा देते हैं. तर्क और बुद्धि से वेद हिंसा और अनाचार की तरफ जाने का आदेश नहीं देते. और अगर कहीं ऐसी बात मिलती है तो वह अर्थ करने वालों की ही भूल है.
जानिए- मनुस्मृति में नारी के लिए क्या विधान बनाए गए थे
♦ कुछ लोगों का कहना है कि वेदों में यज्ञ के लिए पशु वध की बात की गई है. जबकि वेदों में ‘यज्ञ’ के ही जो अर्थ बताए गए हैं, उनसे पूरी तरह यही सिद्ध होता है कि यज्ञ पूरी तरह से अहिंसात्मक हैं.
जैसे ‘ध्वर’ शब्द का अर्थ है- हिंसा, और यज्ञ का एक पर्यायवाची है- ‘अध्वर’ (अहिंसा).
♦ यज्ञ ‘यज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है देवपूजा, सद्गतिकरण और दान.
अतः हिंसात्मक कार्य को यज्ञ कभी नहीं माना जा सकता.
♦ यहां तक कि यज्ञ में हर तरह की लकड़ी भी प्रयोग नहीं की जा सकती है (जिन लकड़ियों में छोटे-छोटे जंतु लगे हों, उन्हें यज्ञ में प्रयोग नहीं किया जाता है, ताकि यज्ञ में किसी तरह की जीव हत्या न हो पाए, नहीं तो ऐसा यज्ञ शुद्ध नहीं माना जाता है).
तो फिर किसी पशु को मारकर होम विधान कैसे किया जा सकता है?
♦ देवयज्ञ में गाय को ‘अघ्न्या’ बताकर पूज्य ठहराया गया है.
जहां ‘गोयज्ञ’ में गाय की पूजा होती है, तो ‘अश्वमेध’ यज्ञ में अश्व और राष्ट्र की.
♦ यजुर्वेद के अनेक मंत्रों में भगवान से प्रार्थना की गई है कि वे हमारी संतानों, पशुओं, गायों, घोड़ों आदि को हिंसाजनित मृत्यु से बचाएं-
मा नस्तनये मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः
पशून् पाहि, गां मा हिंसीः, अजां मा हिंसीः
अविं मा हिंसीः, इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम्
मा हिंसीरेकशफं पशुम् मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि॥
अर्थात- “पशुओं की रक्षा करो, गाय को न मारो, बकरी को न मारो, भेड़ को न मारो, इन दो पैर वाले प्राणियों को न मारो, एक खुर वाले घोड़े-गधे आदि पशुओं को न मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा न करो.”
♦ ऋग्वेद में तो यहां तक कहा गया है कि “जो राक्षस मनुष्य, घोड़े-गाय आदि पशुओं का मांस खाता है, या गाय के दूध को चुरा लेता है, वह वध करने योग्य है”.
यः पौरुषेण क्रविषा समंक्ते
यो अश्व्येन पशुना यातुधानः .
ये अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने
तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च॥
♦ मीमांसा सूत्र में पशुहिंसा और मांस को पकाने पर स्पष्ट मनाही है-
मांसपाकप्रतिषेधश्च तद्वत् (१२.२.२)
प्राचीन संस्कृत की सुदृढ़ता और जटिलता
♦ ‘शब्दाः कामधेनवः’ यानी संस्कृत में अनेक अर्थों वाले शब्द बहुत हैं. उन्हीं से अर्थ का अनर्थ लगाया जाता है. कहां कौन सा अर्थ लेना है, इसका निश्चय तो एक बुद्धिमान और विवेकशील विद्वान ही कर सकता है, जैसे-
‘सैन्धव’ का एक अर्थ ‘घोड़ा’ और दूसरा अर्थ ‘नमक’ होता है. अब अगर आपके सामने एक व्यक्ति यात्रा पर जा रहा है और दूसरा व्यक्ति भोजन कर रहा है. दोनों ही ‘सैन्धव’ लाने के लिए कह रहे हैं. तो अगर आपमें विवेक और बुद्धि होगी तो ही आप यह निश्चय कर सकेंगे कि कौन सा व्यक्ति किस ‘सैन्धव’ की बात रहा होगा.
♦ प्राचीन संस्कृत आयुर्वेद में दवा बनाने के लिए “प्रस्थं कुमारिकामांसम्” का प्रयोग करने की बात कही गई है. तो निश्चित ही वहां सेरभर घीकुँआर का गूदा ही डाला जाएगा.
इसका अर्थ “कुमारी कन्या का एक सेर मांस” तो कोई पिशाच बुद्धि वाला व्यक्ति ही लगा सकता है.
♦ “अजेन यष्टव्यम्” का अर्थ है- ‘अन्न से यज्ञ करना चाहिए’, जहां ‘अज’ का अर्थ है- ‘उत्पत्तिरहित’ या ‘अन्न का बीज’.
लेकिन आज ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ से ही लगाया जाता है, और फिर कहा जाता है कि वेदों में यज्ञ में बकरे की बलि का विधान है.
♦ ‘शतपथ ब्राह्मण’ में एक सवाल पूछा गया है कि “कतमः प्रजापतिः?” अर्थात ‘प्रजा का पालन करने वाला कौन है?’ तो इसका उत्तर दिया गया- ‘पशुरिति’ अर्थात ‘पशु ही प्रजापालक है’. यानी जो पदार्थ या शक्तियां पदार्थ का पोषण करने वाली हैं, उन्हें पशु कहा गया है, और इसी अर्थ से अग्नि, वायु और सूर्य को भी पशु नाम दिया गया है. और इसीलिए अलग-अलग पशुओं की यज्ञ में चर्चा की गई है (जहां ‘पशु’ का अर्थ पशुओं से नहीं है).
अग्निः पशुरासीत्तेनायजन्त। वायुः पशुरासीत्तेनायजन्त। सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त।
♦ ‘अबध्नन् पुरुषं पशुम्’ में पुरुष को ही पशु कहा गया है.
♦ धाना धेनुरभवद् वत्सोऽस्यास्तिलः
‘धान ही धेनु (गाय) है और तिल ही उसका बछड़ा है’.
♦ अथर्ववेद के ११.३.५ और ११.३.७ में कहा गया है-
‘चावल के कण ही अश्व हैं. चावल ही गौ हैं. भूसी ही मशक है. चावलों का श्यामभाग उसका मांस है और लालभाग उसका रुधिर (रक्त) है.’
♦ शतपथ ब्राह्मण में लिखा है- पिसा हुआ सूखा हुआ आटा ‘लोम’ है, पानी मिलाने पर ‘चर्म’, गूंथने पर ‘मांस’, तपाने पर ‘अस्थि’ और घी डालने पर ‘मज्जा’ कहलाता है. और इस प्रकार पककर जो पदार्थ बनता है, उसका नाम है- ‘पाक्तपशु’.
♦ सुश्रुत ने आम (Mango) के लिए कहा है-
“आम के कच्चे फल में स्नायु, हड्डी और मज्जा नहीं दिखाई देती, लेकिन पकने पर सब प्रकट हो जाती हैं”.
इन सब प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में यज्ञ-हवन आदि के लिए जो अश्व, गौ, अजा, मांस, अस्थि, मज्जा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, उनका अर्थ ‘अन्न’ से ही है, पशुओं या उनके भागों से नहीं.
प्रोपेगेंडा इतिहासकारों ने अपनी कुत्सित मानसिकता के वशीभूत हो हमारे ग्रन्थों का अनुवाद करके क्या से क्या अर्थ बता/पढ़ा दिया. जैसे- पूर्व में ‘दान’ की जगह ‘बलि’ शब्द का प्रयोग होता था. लेकिन वामपंथी लेखकों ने यज्ञ में प्रयुक्त शब्द ‘बलि’ का अर्थ ‘समर्पित’ न लिखकर दूसरे भाव में ‘बलि’ लिखा है, जबकि वास्तविक रूप में वहां ‘बलि’ का अर्थ ‘दान’ है.
♦ “धेनुवच्च अश्वदक्षिणा” अर्थात गाय की तरह घोड़े को भी यज्ञ में दक्षिणा (दान) के लिए उपयोग किया जा सकता है (यहां दक्षिणा या दान शब्द है, न कि बलि या भक्षण).
♦ आज ‘बलि’ शब्द का अर्थ आमतौर पर हिंसा से ही लगाया जाता है, वहीं प्राचीन समय में ‘बलि’ का अर्थ ‘अर्पण’, ‘किरण’ और ‘कर’ (टैक्स या लगान) भी होता था.
♦ ‘स्पर्श’ शब्द का अर्थ ‘दान’ से भी लगाया गया है. जैसे आज भी लोग अन्न या पशु को छूकर दान देते हैं.
♦ आज कुछ लोग ‘गोघ्नोऽतिथिः’ का अर्थ लगाते हैं कि ‘अथिति के लिए गाय मारी जाती थी’. जबकि ‘गोघ्नोऽतिथिः’ का सही अर्थ है- ‘वह अतिथि जिसे गौ की प्राप्ति हो’.
जिसे गाय दान की जाए, उसे ‘गोघ्न’ कहा जाता है.
पाणिनि के एक सूत्र से भी इस अर्थ को स्पष्ट समझा जा सकता है-
दाशगोघ्नो सम्प्रदाने (३.४.७३)
मालूम हो कि प्राचीन काल में अतिथि को गौ का दान करना एक साधारण परम्परा थी.
ध्यान दें- हन् धातु का प्रयोग ‘हिंसा’ और ‘गति’ अर्थ में होता है. गति का अर्थ ‘ज्ञान’, ‘गमन’ और ‘प्राप्ति’ आदि अनेक अर्थों से लगाया जाता है.
♦ प्राचीन आयुर्वेदिक किताबों में किसी भी फल या कंद के गूदे को ‘मांस’ और बीज को ‘गर्भ’ लिखा गया है. जैसे- लौकी का गर्भ, शकरकंद का मांस… आदि.
♦ वृहदारण्यक उपनिषद में ‘औक्ष’ या ‘आर्षभमिश्रित’ ओदन के लिए ‘माशौदन’ और ‘मांसौदन’ नाम आया है.
‘औक्ष’ और ‘आर्षभ’ ये दोनों औषधियां हैं.
‘ऋषभ’ का आज सामान्य अर्थ ‘बैल’ है, जबकि ‘ऋषभ’ एक प्रकार का कंद भी है, जिसकी जड़ लहसुन से मिलती है. वैद्यक ग्रंथों में इस तरह के बहुत नाम देखने को मिलते हैं, जैसे- गजकन्द, ऋषभकंद, अश्वगंधा, सर्पगंधा, वाराह (वराहीकन्द), ग्रंथिपर्ण, महिष (गुग्गुल), गौ (गौलोमी), कुक्कुटी (शाल्मली), मेष (जीवषाक), मयूरी (अजमोदा), खर (खरपर्णिनी), काक (काकमाची), मयूरक (अपामार्ग) आदि.
अब अगर किसी संस्कृत श्लोक में लिखा मिल जाए- ‘ऋषभ मांस’, तो जरूरी नहीं कि इसका अर्थ ‘बैल का मांस’ ही है. इसका अर्थ ‘ऋषभकन्द का गूदा’ भी हो सकता है. अब कहाँ कौन सा अर्थ लगाया जाना है, ये तो बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति ही बता सकता है, क्योंकि आसुरी प्रवृति के लोग तो इसका केवल एक ही अर्थ लगा पाएंगे.
मधुपर्क क्या है- तीन भाग दही, एक भाग शहद और एक भाग घी को कांसे के पात्र में रखने पर जो बनता है, उसे ‘मधुपर्क’ कहा जाता है.
सोमरस क्या है- सोमरस का अर्थ मदिरा नहीं, बल्कि एक बहुत ही दुर्लभ जड़ी-बूटी से बना पदार्थ है, जिसकी तुलना अमृत से की गई है. देवताओं को सोमरस का अधिकारी कहा गया है.
वेदों में अश्लीलता
इसी तरह, वेदों पर अश्लीलता का आरोप पूरी तरह निराधार है. भगवान, देवताओं, अप्सराओं, ऋषि-मुनियों को लेकर जो भी अश्लील कहानियां बनाई गई हैं, ये सब उन्हीं लोगों का काम है, जिन्हें ‘काम’ शब्द पढ़ते ही केवल ‘काम’ ही नजर आता है.
वेदों में न मांसाहार है और न अश्लीलता का नग्न चित्रण. ये सब हमें अपने ही बदलते नजरिए के कारण दिखाई देता है. केवल मेधावी पंडित होने से या बहुत से शास्त्रों का अध्ययन कर लेने मात्र से अहंकारवश कोई वेदों के सत्य को नहीं जान सकता.
किस तरह के लोग लगाते हैं इस तरह के आरोप?
इस ब्रह्मांड में सकारात्मकता और नकारात्मकता हमेशा से है. मनुष्य में कई प्रकृति के लोग होते हैं- एक दैवीय प्रकृति और दूसरी आसुरी प्रकृति.
राक्षसी प्रकृति के लोग मांसाहार और अश्लीलता में बहुत रुचि रखते हैं. ये लोग पढ़-लिखकर विद्वान हो जाने पर भी देहासक्ति और देहाभिमान नहीं छोड़ पाते. ये लोग इस संसार को बिना ईश्वर के ही उत्पन्न हुआ मानते हैं. इन लोगों की समझ में केवल काम ही इस संसार का उद्देश्य है और स्त्री-पुरुष के संयोग से ही यह उत्पन्न होता है. ये लोग शरीर से आगे सोच ही नहीं पाते.
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही लोगों ने अर्थ का अनर्थ करके हर जगह मांस-मदिरा और मैथुन की प्रवृत्तियों को फैलाने का प्रयास किया. मांसाहार के शौकीन लोगों ने देवताओं और ऋषि-मुनियों को माँसाहारी सिद्ध कर दिया, कामी लोग इन सबको कामी साबित करने में जुट गए. शराबी लोगों ने भगवान को ही शराबी दिखा दिया.
इस तरह के लोग सनातन शास्त्रों का अध्ययन ही इसलिए करते हैं, ताकि उनमें मनमाना अर्थ निकालकर अपने मत को साबित कर सकें. वे शास्त्रों के वास्तविक ज्ञान को तो ग्रहण कर ही नहीं सकते, केवल शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके खींचतान से जो चाहा अर्थ निकालना, स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी धोखा देना ही उनका मुख्य उद्देश्य होता है. स्वयं तो भटकते ही रहते हैं और दूसरों को भी भटकाते रहते हैं.
‘यज्ञ’ शब्द को केवल आग जलाकर उसमें हवन सामग्री डालने तक सीमित रखना हमारी अज्ञानता है. यज्ञ का अर्थ प्रयोग और यज्ञशाला का अर्थ प्रयोगशाला है. यज्ञ द्वारा देवराज इंद्र से वर्षा के लिए प्रार्थना करना सिर्फ प्रार्थना नहीं है, बल्कि विज्ञान के माध्यम से यह बादलों के निर्माण से सम्बंधित है. वेदों का अर्थ बुद्धि और विवेक से लगाओगे तो पता चलेगा कि वेद विज्ञान ही हैं.
याद रखिए- संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है. इसके एक-एक अक्षर का बड़ा रहस्य है. वैदिक संस्कृत को समझना और उसका ट्रांसलेशन करना आज किसी भी मशीन या AI के वश की बात नहीं. अगर वेदों आदि का सही अर्थ समझ आ जाए तो विश्व में बड़ी क्रांति लाई जा सकती है. लेकिन अगर स्वार्थवश या कपट से इनका गलत अर्थ निकाला जाता रहे तो बड़े भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं.
एक संत ने कहा है कि- “अपने स्वार्थ के लिए वेदों, मनुस्मृति आदि का गलत अर्थ निकालने और उनमें मिलावट करने वालों ने न केवल भारतीय संस्कृति को बेहद नुकसान पहुंचाया, बल्कि करोड़ों निर्दोष जीवों की हत्या भी करवा दी.”
आज धार्मिक ग्रंथों में जो हिंदी टीकाएं या हिंदी अर्थ दिए गए हैं, वे मात्र शब्दार्थ हैं, उन्हें भावार्थ, गूढ़ार्थ एवं तत्वार्थ न समझें, क्योंकि शब्दार्थ और भावार्थ में बहुत अंतर होता है. सही भावार्थ समझना हर किसी के बस की बात नहीं. आजकल के शिक्षक और पुस्तकें केवल शब्दार्थ बताती हैं जिससे अर्थ का अनर्थ बन जाता है.
हमें यह समझना होगा कि हमारे वेद-उपनिषद इत्यादि रूपक स्वरूप में लिखे गए हैं. पुराण उन्हीं का सरलीकरण हैं. अब जब कोई गहन अध्ययन में न जाकर मूल ग्रंथों का शाब्दिक अनुवाद ही पढ़ लेता है, तो उलझा ही रह जाता है. पुराणों में उल्लिखित हमारे आराध्य देवी-देवताओं का स्वरूप, उनके अस्त्र-शस्त्र, वाहन इत्यादि गूढ़ अर्थ रखते हैं. जब हम उन्हें डिकोडेड कर समझेंगे, तभी उनके असली अर्थ को समझ पाएंगे.
देखिए- सनातन धर्म से जुड़े विवाद और सवाल
भगवान के नामों के पर्यायवाची शब्द
प्राकृतिक वस्तुओं के पर्यायवाची शब्द
रामायण में मांसाहार
Tags : vedo me nari ka sthan, Beef eating in Vedas in Hindi, ved kya hote hai, vedas sanskrit to hindi, ऋग्वेद में गाय काटने का वर्णन, हिंदू धर्म ग्रंथ और गोमांस, मनुस्मृति मांस खाना लिखा है, वेदों में मांस
Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved
All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.
Be the first to comment