रामायण में मांसाहार – एक महत्वपूर्ण तथ्य

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Ramayan

(इस आर्टिकल के तीन पार्ट हैं, जिनमें से बीच का पार्ट आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है).

ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम्।
मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण।

“अरे यह देखो, वाल्मीकि रामायण के इन श्लोकों में ‘मांस’ और ‘मृगं हत्वा’ जैसे शब्द आए हैं. यानी सिद्ध हो गया कि श्रीराम मांस खाते थे”.

बस, और इसी तरह की बुद्धि वाले विधर्मी लोग, जिन्हें संस्कृत का ‘स’ भी नहीं आता, जो अपना पूरा जीवन भगवान श्रीराम के चरित्र में दोष निकालने में ही बिता देना चाहते हैं, वे लोग ऐसे ही शब्दों को प्रमाणों के तौर पर दिखाकर इसी कुप्रचार में लगे रहते हैं कि वेदों, पुराणों, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण आदि में मांस खाने का जिक्र किया गया है, या भगवान राम भी मांस खाते थे (लेख में सबसे नीचे देखें).

आजकल प्राचीन भारतीय सनातन साहित्यों, धार्मिक ग्रंथों का अर्थ (या अनर्थ) ज्यादातर वे लोग निकालने में लगे हैं जो कहते हैं कि “श्रीराम काल्पनिक हैं, या भगवान होते ही नहीं”. फिर यही लोग ये भी कहते हैं कि “श्रीराम ने अपनी गर्भवती पत्नी को निर्वासित कर दिया था.”

मतलब या तो श्रीराम के अस्तित्व पर उंगली उठानी है या श्रीराम के चरित्र पर. लेकिन उंगली तो उठानी ही है.

आजकल के कुछ लोग प्राचीन धार्मिक ग्रंथों का अर्थ कुछ इस तरह निकालते हैं-

तमसो मा ज्योतिर्गमय
“तुम सो जाओ मां मैं ज्योति से मिलकर आता हूं”

वहीं, अगर एक भी मात्रा या अक्षर को इधर से उधर कर दिया जाए तो पूरा वाक्य ही बदल जाता है. जैसे-

कमरे में बच्चों को बंद रखा जाता था.
कमरे में बच्चों को बंदर खा जाता था.
(कुछ विधर्मियों ने प्राचीन धर्म ग्रंथों में ऐसे प्रयोग खूब किए हैं.


प्राचीन भारतीय भाषा के बड़े रहस्य (Important)

किसी पद्य या काव्य रचना में एक बड़े वाक्य के लिए एक अक्षर या शब्द का ही प्रयोग कर लिया जाता है. साथ ही संस्कृत में किसी भी शब्द के कितने अर्थ निकलते हैं-

जैसे- ‘कृष्ण’ का एक अर्थ ‘काला’ तो एक अर्थ ‘आकर्षित करने वाला’ भी होता है. दोनों अर्थों में कितना अंतर है.

हिंदी और संस्कृत में एक-एक मात्रा में शब्दों का अर्थ पूरा बदल जाता है, जैसे-

‘सुरभी’ का अर्थ ‘गाय’, ‘नंदिनी’ होता है, तो वहीं ‘सुरभि’ शब्द का अर्थ ‘सुगंध’, ‘खुशबू’ होता है.

एक शब्द है ‘सारंग’ जिसके तो इतने अर्थ निकलते हैं- आँचल, दीपक, स्त्री, साड़ी, वायु, फूल, चंद्रमा, जल, हाथी, हिरण, सांप… इतने पर्यायवाची हैं ‘सारंग’ के.

सारंग लै सारंग चली, कर सारंग की ओट
सारंग झीनी जानिकै, सारंग कर गई चोट।

‘मांस’ और ‘मृग’ आदि शब्दों का प्रयोग प्राचीन काल में विस्तृत अर्थ में किया जाता था, लेकिन वर्तमान में इन शब्दों का अर्थ बहुत संकुचित हो गया है. जैसे-

प्राचीन समय में ‘मृग’ शब्द का अर्थ सभी जंगली पशुओं से लगाया जाता था और इसीलिए सिंह यानी शेर को मृगेंद्र (पशुओं का इंद्र या पशुओं का राजा) भी कहा जाता था. लेकिन वर्तमान समय में ‘मृग’ शब्द का अर्थ केवल ‘हिरण’ से ही लगाया जाता है.

प्राचीन समय में ‘मृग’ शब्द का अर्थ ‘हिरण’, ‘अन्वेषण (जांच)’, ‘गजकन्द (एक प्रकार का जंगली कंद या Root)’ आदि होता था. ‘एण’ का अर्थ ‘मृग’ होता है.

ध्यान रखिये- ‘एण’ और ‘ऐण’ में बहुत अंतर है. ‘ऐण’ का अर्थ होता है- गृह, घर, गमन, आश्रय, स्थान, वास… आदि.

उदाहरण-

भोला की डर भागियौ, अंत न पहुड़ै ऐण
बीजी दीठां कुल बहू, नीचा करसी नैण॥
(अरे मूर्ख! किस डर से तुम भाग आए? क्या मृत्यु घर पर नहीं आएगी? (युद्ध क्षेत्र हो या घर, मृत्यु निश्चित है) दूसरी बात ये है कि तुम्हारी वजह से वह बेचारी कुलवधू शर्म से नीची आँखें करेगी कि उसे ऐसा कायर पति मिला.)

लेकिन जो लोग मात्राओं का महत्त्व नहीं समझते, वे लोग ‘ऐण’ का अर्थ भी ‘हिरण’ से ही लगा देते हैं, और इससे वाक्य का पूरा अर्थ ही बदल जाता है.

‘नाग’ का अर्थ ‘सांप’ से भी लगाया जाता है और ‘हाथी’ से भी. इसीलिए आप संस्कृत का अनुवाद मशीनों से नहीं कर सकते, इस देवभाषा का अनुवाद तो बुद्धि और विवेक से ही किया जा सकता है.

बहुत सी प्राचीन आयुर्वेदिक किताबों में किसी भी फल या कंद के गूदे को ‘मांस’ और बीज को ‘गर्भ’ लिखा गया है. जैसे- लौकी का गर्भ, शकरकंद का मांस… आदि.

‘मांस’ नपुंसक लिंगी शब्द है. प्रथमा से पंचमी विभक्ति तक इसका अर्थ किसी भी फल या कन्द का गूदा होता है. मांस शब्द ‘मन्’ धातु से बना है. जब संस्कृत धातुओं से शब्द बन रहे थे तब ‘माँस’ का एक अर्थ था ‘मन को स्वाभाविक रूप से पसंद (मांसल या कोमल) भोज्य पदार्थ’, जिसका अर्थ यह है कि मन को जो पसंद हो उस खाद्य पदार्थ को मांस कहते थे, जो मांसल और कोमल भी हो, जैसे कि फल का गूदा.

Read Also : ‘श्रीराम मांस खाते थे और चमड़ा पहनते थे’

वाल्मीकि जी ने रामायण को संगीतबद्ध करने के लिए इस शब्द के बड़े विचित्र प्रयोग किए हैं- गजकन्द, अश्वकन्द आदि. इनके गूदे के लिए ‘मांस’ शब्द का प्रयोग किया गया है. (वहीं, ‘हत्वा’ का एक अर्थ ‘हठ’ भी होता है). अब अगर आज का कोई ‘कुप्रचार शौकिया व्यक्ति’ उनका अर्थ यह लगाता हो कि रामायण काल के समय हाथी और घोड़े का मांस खाया जाता था तो आश्चर्य की कोई बात नहीं.

संस्कृत के किसी भी शब्द या वाक्य के word to word अर्थ निकालने से पहले ध्यान रखें कि अश्वगंधा (एक जड़ी-बूटी) का अर्थ ‘घोड़े की गंध’ नहीं होता.

अब किसी कंद या फल आदि के गूदे और बीज के लिए ‘मांस’, ‘गर्भ’ जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों किया जाता था, ये भी बता देते हैं. दरअसल, उस समय के वैद्य और भिषगाचार्य मृत पशुओं के शरीर का भी अध्ययन करते थे. पहचान सुनिश्चित करने के लिए वे कंद विशेष के गूदे के रंग, बनावट आदि की समानता के आधार पर जीव-जंतुओं के नाम पर आधारित नाम का प्रयोग करते थे, जैसे-

शतपथ ब्राह्मण के एक भाग बृहदारण्यक उपनिषद में दिया है-

वृक्ष जैसे मनुष्य. उसके रोम-इसकी पत्तियाँ, उसकी त्वचा-इसकी छाल, उसका मांस-इसका भीतरी भाग, उसकी पेशियाँ-इसकी भीतरी मज्जा, उसकी अस्थियाँ-इसकी लकड़ियां समान हैं. उसकी त्वचा का रक्त-इसकी छाल का रस. यानी घायल मनुष्य की त्वचा से रक्त का निकलना, कटे वृक्ष की छाल से रस बहने के समान है.

(महाभारत के शांति पर्व में) मुनि भारद्वाज ने भृगु से पूछा- वृक्षों में जीवन है या नहीं? तो भृगु ऋषि ने कहा- “जीवम् पश्यामि वृक्षाणाम्, अचैतन्यम् न विद्यते” अर्थात “वृक्षों को अचैतन्य नहीं जानना चाहिए, मैं उनमें जीवन देखता हूँ.”

जिन लोगों भी ऐसा लगता है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहार या पशुबलि जैसे किसी भी कार्य की अनुमति दी गई है, तो वे लोग एक बार महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्याय 115 पढ़ लें.


वाल्मीकि रामायण के कुछ भ्रामक श्लोक और उनकी व्याख्या

अब हम बात करते हैं वाल्मीकि रामायण के उन श्लोकों की, जिनके आधार पर हजारों जगह यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया जाता है कि भगवान श्रीराम मांस खाते थे. लेकिन उससे पहले हम देखते हैं वाल्मीकि रामायण में ही श्रीराम की कुछ प्रतिज्ञाओं को-

फलानि मूलानि च भक्षयन् वने।
गिरीमः च पश्यन् सरितः सरांसि च।।
वनम् प्रविश्य एव विचित्र पादपम्।
सुखी भविष्यामि तव अस्तु निर्वृतिः।। (२-३४-५९)

(श्रीराम अपने पिता दशरथ की चिंता को कम करने का प्रयास करते हुए कहते हैं), “मैं वन में प्रवेश करके कंद-मूल-फल का भोजन करता हुआ पर्वतों, नदियों, सरोवरों को देखकर सुखी होऊंगा. इसलिए आप अपने मन को शांत कीजिये.”

पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम्।
धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः॥ (२-४८-१६)

“भगवन! इस प्रकार पिता की आज्ञा से हम तीनों (श्रीराम, सीता और लक्ष्मण) तपोवन में जाएंगे और वहां फल-मूल का आहार ग्रहण कर धर्म का आचरण करेंगे.”

“वन में मन को वश में रखकर वृक्षों से स्वतः गिरे हुए फलों के आहार पर ही दिन-रात संतोष करना पड़ता है” (अयोध्याकाण्ड सर्ग 28 श्लोक 12).

“कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न ही मधु का सेवन करता है. श्रीराम सदा चार समय उपवास करके पांचवे समय शास्त्रविहित जंगली फल-फूल और नीवार आदि भोजन करते हैं.” (वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सर्ग 36).

श्रीराम ने कभी मांस नहीं खाया था, इसका प्रमाण तो महाभारत में भी दिया गया है. महाभारत के अनुशासन पर्व के 115वें अध्याय में कहा गया है कि

“श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, दुष्यन्त, भरत, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, राजा जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत– इन सबने तथा अन्यान्य राजाओं ने भी कभी मांस-भक्षण नहीं किया था.”

और एक बात किरामो द्विर्नाभिभाषते’ यानी भगवान श्रीराम कोई भी बात दो बार नहीं कहते और न ही वे दो अर्थों की भाषा बोलते हैं. उन्होंने एक बार जो कह दिया सो कह दिया. अगर श्रीराम ने कहा है कि वो मांस-मदिरा आदि का सेवन नहीं करते तो मतलब नहीं करते. उन्होंने कह दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे, तो मतलब नहीं छोड़ेंगे. उन्होंने कह दिया कि वो किसी निर्दोष को नहीं मारते तो मतलब नहीं मारते.

अब देखिए कुछ वे श्लोक, जो भ्रम पैदा करते हैं-

ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम्।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभि:।।
मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्य शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर।।

वाल्मीकि रामायण के इस भाग की कहानी क्या है, पहले ये समझ लीजिये-

वनवास के दौरान, श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण जी के साथ चित्रकूट में आए हैं. यहां लक्ष्मण जी ने एक पर्णकुटी या पर्णशाला (पत्तों की कुटिया) का निर्माण किया है. श्रीराम इस पर्णकुटी में गृहशांति या वास्तुशांति की पूजा करके प्रवेश करना चाहते हैं. इसके लिए वे लक्ष्मण को गृहशान्ति अनुष्ठान की विधि समझाकर उनसे गजकन्द ले आने की बात कह रहे हैं.

ध्यान दें- प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों- मदनपाल निघण्टु और भावप्रकाश में ‘मृग’ का अर्थ ‘गजकन्द’ से है.

मदनपाल निघण्टु में लिखा है- ‘मृगः पशौ कुरंगे गक्षे च’ इति शब्दस्तोमः. इस स्थान पर ‘कंद’ का लोप हो जाता है (विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरयोः पदयोर्लोपो वाच्यः – महाभाष्य)

ध्यान दें- ‘ऐण’ का अर्थ होता है- गृह, घर, गमन, आश्रय, स्थान, वास… आदि.

ऐणे+यं+मां+सम+आहृत्य

‘मां समान’ को जोड़कर ‘मांसमान’ लिखे जाने पर पुनः इसका संधि-विच्छेद सावधानी से करना चाहिए.

ऊपर वाले श्लोक में श्रीराम गृहशांति या वास्तुशांति अनुष्ठान की विधि बता रहे हैं, तो वहीं नीचे वाले श्लोक में लक्ष्मण को अनुष्ठान के लिए गजकन्द को तुरंत उखाड़कर लाने की आज्ञा दे रहे हैं. अब आगे का श्लोक देखिए-

ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्।
त्वरसौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसोह्ययम्।।
स लक्ष्मण: कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान्।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि।।

(जब श्रीराम के ही कथनानुसार कार्य करके लक्ष्मण गजकन्द को उखाड़कर ले आए, उसके बाद) यहां ऊपर और नीचे वाले श्लोक में फिर से उसी तरह शब्दों का प्रयोग हुआ है.

यहां फिर से (ऊपर वाले श्लोक में) श्रीराम गृहशांति अनुष्ठान की विधि के बारे में बात कर रहे हैं, साथ ही वो यहां यह भी कह रहे हैं कि यह सौम्यमुहूर्त है, इसलिए यह अनुष्ठान शीघ्र करना चाहिए. तब प्रतापवान सौमित्र (लक्ष्मण) उखाड़कर लाए गए पवित्र और काले छिलके के गजकंद को छीलकर प्रज्वलित अग्नि में डाल देते हैं.

(जो लोग यहां ‘मृग’ का अर्थ ‘हिरण’ से लगाते हैं, तो क्या यहां मृग वध होने के लिए खड़े थे, जो मारकर शीघ्र ला दिए जाते?)

तत्तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम्।
लक्ष्मण: पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत्।।
अयं सर्वाः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया।
देवतां देवसङ्काश यजस्व कुशलो ह्यसि।।

(“रक्तविकार का नाश करने वाले उस गजकंद को अच्छे से पका हुआ जानकर लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा… “)

श्लोक की पहली पंक्ति में ‘निष्टप्तं’ पद पर ध्यान दीजिये. पाणिनि जी का एक सूत्र है- ‘निसस्तपतावनासेवने’.

एक बार की अग्नि में ही पूर्णतया पक जाने के कारण ‘निस्तप्तं’ (निस् तप्तं) पद में ‘स’ की जगह ‘ष’ का प्रयोग करके ‘निष्टप्तं’ लिखा गया है. क्योंकि ‘स’ का प्रयोग करने से अर्थ निकलता कि बार-बार तपाया या जलाया या पकाया जा रहा है. लेकिन, चूंकि कंद एक बार की ही अग्नि में पक जाता है, इसलिए यहां ‘स’ की जगह ‘ष’ का प्रयोग किया गया, क्योंकि बार-बार अग्नि देने से ‘ष’ नहीं हो सकता. (हिरण का मांस एक बार की अग्नि में या शीघ्र नहीं पकता, उसे बार-बार अग्नि देनी पड़ती है).

इसी प्रकार, यहां ‘छिन्नशोणितम’ शब्द “अनेक शब्दों के लिए एक शब्द” के रूप में आया है- ‘छिन्नं शोणितं रक्तविकाररूपं रोगजात येन सः तम्’ (‘रक्तविकार नष्ट होता है जिससे’ – समास).

इस तरह, यहां गजकन्द का औषधि प्रयोग या उसके स्वास्थ्य लाभ बताए गए हैं. रामायण में भारत की प्रमुख औषधियों-वनस्पतियों का वर्णन अकारण ही नहीं हुआ है.

गजकन्द रक्तविकार का नाशक है और यह वैद्यकशास्त्र में प्रसिद्ध है. गजकन्द के लिए वैद्यक शास्त्र में लिखा है- ‘त्वग्दोषादिः कुष्टहन्ताः’ इति मदनपालः’.

मदनपाल निघण्टु के ’षड्दोषादिकुष्टहंता’ के अनुसार गजकन्द चर्मदोष, कुष्ठरोग आदि रक्तविकारों का नाश करता है.

इसी तरह, “समस्ताङ्गः” का पूरा वाक्य है- ‘सम्यग भवंति अस्तानि अंगानि येन सः’, अर्थात् ‘(यह काले छिलके का गजकंद) जो बिगड़े हुए सब अंगों को ठीक करता है’.

‘पुरुषव्याघ्रमथ’ – पुरुषों में सिंह (शक्तिशाली राजा) के समान.

रोहिमांसानि चोद्धृत्य पेशीकृत्वा महायशाः।
शकुनाय ददौ रामो रम्ये हरितशाद्वले॥ ३३

अब जैसे यहां ‘रोहि’ और ‘मांस’ शब्द आया है, तो गूगल ट्रांसलेट से इसका सीधा मतलब निकलेगा ‘रोहि के मांस’ से. तो शब्दों या भाषा की जानकारी न रखने वाले इसका सीधा मतलब ‘हिरण के मांस’ से निकालेंगे, जबकि यहां ‘रोहि’ का अर्थ एक फल के बीज से है और ‘मांस’ का अर्थ उसके गूदे से.

ध्यान दें- ‘रोहि’ शब्द का एक अर्थ ‘गूलर’ और ‘पीपल’ है तो वहीं एक प्रकार के हिरण को भी ‘रोहि’ कहते हैं.

वहीं, ‘रोही’ शब्द का अर्थ ‘एक संगीत धुन’, ‘आत्मा’, ‘एक फूल’ होता है.

एक और उदाहरण देखिए, जिससे भ्रम पैदा होता है-

तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम्।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन्।।
इदं मध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिदमग्निना।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः।। (अयोध्याकाण्ड 96,1,2)

अब यहां भी पहले श्लोक की दूसरी पंक्ति में ‘मांस’ शब्द का प्रयोग हुआ है. कुछ खास प्रजाति के लोग इस श्लोक का भी अर्थ कुछ इस तरह लगाते हैं कि “श्रीराम सीता जी को मांस देते हुए कहते हैं कि यह बहुत स्वादिष्ट और मुलायम है”.

चूंकि, शब्दों के आधार पर भ्रम फैलाना जारी रहेगा, लेकिन अगर आप भी भ्रमित हो जाएं तो इस श्लोक से तुरंत पहले के श्लोकों को पढ़िए, आपको सही बात समझ आ जाएगी-

इससे तुरंत पहले के श्लोकों में बताया गया है- “श्रीराम सीता जी के साथ सुंदर वन में घूम रहे हैं, जहां तरह-तरह के सुंदर फूलों और फलों से लदे वृक्ष हैं. इसी स्थान पर श्रीराम अपनी प्रिया सीता जी से कह रहे हैं कि, “तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके, मधुर फल-मूल का आहार करते हुए (मैं इतना प्रसन्न हूं कि) मुझे वापस राज्य पाने की ही इच्छा नहीं रही.”

इसके बाद उसी स्थान पर श्रीराम और सीता जी मंदाकिनी नदी के दर्शन करके एक पर्वत के समीप बैठ जाते हैं (यहाँ कहीं भी उनके द्वारा किसी प्रकार के शिकार या वध आदि करने की बात नहीं कही गई है). तब श्रीराम तपस्वी जनों के खाने योग्य फल-मूल से सीता जी की मानसिक प्रसन्नता को बढ़ाने का प्रयास करने लगते हैं. एक कंद के गूदे को दिखाते हुए श्रीराम सीता जी से कहते हैं कि, “देखो प्रिये! यह कन्द परम पवित्र है, यह बहुत स्वादिष्ट और नरम है और एक बार की ही अग्नि में शीघ्र पक जाता है.” (और इसीलिए यहां भी ‘निस्तप्त’ पद में ‘स’ की जगह ‘ष’ का प्रयोग करके ‘निष्टप्त’ लिखा गया है).

देखा जाए तो यहां श्रीराम अपनी पत्नी सीता जी के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित कर रहे हैं. राजकुमारी सीता महलों के सभी सुख-राजभोग त्यागकर श्रीराम के साथ वन में रह रही हैं, इस पर श्रीराम वन की सुंदरता और यहां मिलने वाले तरह-तरह के कंद-मूल-फल के स्वाद और गुणों की प्रशंसा करके उनके मन को बहलाने का प्रयास कर रहे हैं.


अब प्राचीन भारतीय भाषा को समझने के लिए एक और उदाहरण देखिए-

एक शब्द है- ‘माष’. ‘उड़द’ को ‘माष’ कहा जाता था. ‘माष’ और दधि (दही) का मिश्रण ‘मांस’ कहलाता था यानी ‘बलि अन्न’. और आजकल के लोग ‘बलि’ शब्द का अर्थ केवल हत्या या रक्तपात से ही लगाते हैं. लेकिन माष+दधि = मांस यानी बलि ‘अन्न’, न कि किसी जानवर का मांस.

यज्ञ की पूर्ण आहुति के समय ‘दिक् पाल’ को बलि दी जाती है. कैसे? दस दिशाओं में उड़द, मसूर, दधि आदि के मिश्रण को पीपल के पत्ते पर रखकर दीया जलाकर बलि दी जाती है. अब आजकल के लोग संस्कृत में ‘बलि’ शब्द को देखते ही रक्तपात समझ बैठते हैं, तो क्या ही कर सकते हैं…

Read Also : वेदों में पशुबलि और मांसाहार

वैदिक संस्कृत में एक-एक अक्षर, एक-एक मात्रा और एक-एक संधि पर पूरा अर्थ बदल जाता है. केवल ऊपरी शब्दों को पढ़कर वैदिक संस्कृत के श्लोकों का अर्थ नहीं निकाला जा सकता है. अब आप समझ सकते हैं कि क्यों भगवान ने तुलसीदास जी को जन सामान्य की ही भाषा में रामचरितमानस की रचना करने के लिए कहा.. और इसीलिए तुलसीदास जी ने भी यही कहा है कि कलियुग में भगवान की कथाओं के फेर में न पड़कर श्रीराम नाम का जप करते रहो… क्योंकि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…

याद रखिए- संस्कृत को देवतुल्य भाषा यूं ही नहीं कहते. यह वैदिक भाषा एक वैज्ञानिक भाषा है. इसका एक-एक अक्षर बड़ा महत्त्व और रहस्य रखता है. वैदिक संस्कृत का ट्रांसलेशन करना आज किसी भी मशीन या AI के वश की बात नहीं. अगर वेदों आदि का सही अर्थ समझ आ जाए तो यह दुनिया में एक बड़ी क्रांति ला सकती है. लेकिन अगर इनका गलत अर्थ निकाला जाता रहे तो परिणाम बड़े भयंकर देखने को मिलते हैं-

एक संत ने कहा है कि- “अपने स्वार्थ के लिए वेदों, मनुस्मृति आदि का गलत अर्थ निकालने और उनमें मिलावट करने वालों ने न केवल भारतीय संस्कृति को बेहद नुकसान पहुंचाया, बल्कि करोड़ों निर्दोष जीवों की हत्या भी करवा दी.”

आप कभी किसी उत्कृष्ट अंग्रेजी लेख का गूगल ट्रांसलेट करके देखियेगा, कि किस तरह अर्थ का अनर्थ हो जाता है.

रामदूत हनुमान जी ने तुलसीदास जी को दर्शन देकर उन्हें जन सामान्य की ही भाषा में रामचरितमानस (Ramcharitmanas) की रचना करने के लिए कहा. भगवान ने ऐसा महत्वपूर्ण कार्य हर किसी को नहीं सौंपा है.

लेकिन अब आप ये देखिए, कि तुलसीदास जी ने जिस अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की थी, तब यह भाषा आम-जन की भाषा थी. यानी तब से आम लोगों की भाषा में कितना बदलाव आ चुका है कि आज रामचरितमानस की चौपाइयों का ही सही अर्थ निकालने में काफी परेशानी होती है. तो सोचिए कि क्या आज के लोग लाखों सालों पहले पद्य या काव्य में लिखी गई वाल्मीकि रामायण की संस्कृत, मनुस्मृति और वेदों का सही अर्थ और भाव पकड़ सकते हैं?

पहले के ऋषि आश्रमों या गुरुकुलों में 64 प्रकार की विद्याओं में से एक थी- वेदों की सही शिक्षा देना. यानी भारतवर्ष में जिस समय संस्कृत आम बोलचाल की भाषा थी, उस समय भी गुरुकुलों में छात्रों को वेदों के सही अर्थ की जानकारी दी जाती थी, यानी वेदों का सही अर्थ और भाव पकड़ना इतना आसान नहीं है. यह गुरु कृपा से ही संभव है.


खैर, जाते-जाते वेदों-मनुस्मृति-रामायण आदि के श्लोकों का गलत अर्थ निकालते रहने वालों के लिए उनका एक शौकिया कार्य देकर जाती हूं.

ततोवरो वध्यादक्षिण स्कन्धोपरि हस्तं नीत्वाममब्रते स्तिस्व पठित मंत्रेण तस्थाहृदयमालभते.

इस संस्कृत पंक्ति का word-by-word गूगल ट्रांसलेट अर्थ निकालेंगे तो अर्थ निकलेगा-
‘विवाह वेदी पर दूल्हा स्त्री के दायें कन्धे को पकड़कर देह काटकर उसका हृदय निकाल लेता है और ‘अम्माब्रत’ (अपने कुल में) मंत्र पढ़ते हुए बांट देता है’.

ये क्या? प्राचीन भारत में नारी जाति के खिलाफ इतना बड़ा अत्याचार? इतनी हिंसा? विवाह वेदी पर दूल्हे द्वारा स्त्री की बलि??

अब एक लेख तो बनता ही है, “हिंदुओं में नारी जाति के शोषण पर” तो फिर देर किस बात की… शुरू हो जाइये.

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About Sonam Agarwal 238 Articles
LLB (Bachelor of Law). Work experience in Mahendra Institute and National News Channel (TV9 Bharatvarsh and Network18). Interested in Research. Contact- sonagarwal00003@gmail.com

1 Comment

  1. Very well elaborated and eye opener for those who spread wrong information and malign our SANATAN Dharma.
    Hats off to writer! 🙏🙏

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