Tridev or Trimurti : त्रिमूर्ति या त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की महिमा

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ब्रह्मा विष्णु महेश

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सनातन धर्म में ॐ सबसे छोटा, शुद्ध और एकाक्षर मंत्र है. ॐ अक्षर को सब कुछ माना गया है. इसे सृष्टि का सार कहा गया है. अक्षर का अर्थ ही होता है- जिसका कभी क्षरण न हो. अर्थात जो सदा से था, है और रहेगा. ॐ ही रचियता है और ॐ ही रचना. ॐ पद हर प्रकार से त्रिगुणातीत रूप का प्रतिपादन करता है. ॐ पद तीनों वेदों, तीनों वृत्तियों, तीनों लोकों एवं तीनों देवों को तीन अक्षरों (अ-उ-म) से बतलाता है. ‘अ’ का अर्थ है- आविर्भाव या उत्पन्न होना. ‘उ’ का अर्थ है उद्दात या उठना. ‘म’ का अर्थ है- मौन हो जाना. यह प्रक्रिया चलती रहती है.

त्रिदेवों या त्रिमूर्ति के विषय में संक्षेप में कहा जाये तो-

ब्रह्माजी सृष्टिकर्ता हैं. वे चतुर्मुख हैं. पुराणों के अनुसार, इनकी उत्पत्ति क्षीर सागर में शेष-शय्या पर शयन करने वाले भगवान् विष्णु के नाभि-कमल से होती है. शिवपुराण में इन्हें ‘हिरण्यगर्भ’ कहा गया है. भागवत पुराण के अनुसार, पर-पुरुष की नाभि से हिरण्मय नामक एक स्वर्ण कमल उत्पन्न हुआ, जिस पर चतुर्मुखी भगवान ब्रह्मा ने जन्म लिया. भगवद्गीता के अध्याय ८ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं, “संपूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं, और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं.”

सृष्टि रचना के लिए ब्रह्माजी भारी तप करते हैं. समस्त प्राणी ब्रह्मा जी की रचना हैं, इसीलिए इन्हें ‘परमपिता’ कहते हैं. ये जिस लोक में रहते हैं, उसे ‘सत्यलोक’ कहा जाता है. समस्त प्राणियों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से मानी गई है, अतः ये किसी भी प्राणी में भेदभाव नहीं करते और कर्म तथा परिश्रम करने वाले प्राणियों पर समान रूप से अपनी कृपा बरसाते हैं. असुरों ने भी इनकी उपासना कर उत्तम से उत्तम वरदान प्राप्त किये, लेकिन मोक्ष की कामना करने वाले प्राणी ब्रह्मा जी की उपासना नहीं करते, क्योंकि मोक्ष तो केवल अविनाशी भगवान् शिव या विष्णु जी ही दे सकते हैं.

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भगवान् विष्णु

भगवान् विष्णु अनंत ब्रह्माण्डों की सृष्टि के लिए कारण-वारि में शेष-शय्या पर शयन करते हैं. प्रत्येक ब्रह्माण्ड में वे ही क्षीर सागर में रहने वाले चतुर्भुज विष्णु होते हैं. नार अर्थात जल में शयन करने के कारण ही उनका नाम नारायण प्रसिद्ध हुआ. इनकी नाभि-कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति होती है. भक्तों व देवताओं की रक्षा एवं असुरों का संहार करके धर्म की स्थापना के लिए वे प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं. भगवान् विष्णु के प्रमुख दस अवतार माने गए हैं. उन अनंत के अंश व कला अवतारों की संख्या गिनाई नहीं जा सकती. गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कहें तो ‘हरि अनंत हरिकथा अनंता।’

कुछ लोग भगवान श्रीविष्णु को पक्षपाती कहते हैं, क्योंकि वे अधिकांशतः देवताओं का पक्ष लेते हुए ही दिखाई देते हैं. उनके अवतार भी देवताओं की सहायता करने तथा उन्हें विजय दिलाने के लिए होते हैं, जैसे कि मोहिनी अवतार. लेकिन यह भ्रम है कि भगवान् विष्णु पक्षपाती हैं. दरअसल वे देवताओं का नहीं, धर्म का साथ देते हैं.

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भगवान विष्णु इस बात की चिंता नहीं करते कि संसार उनके विषय में क्या कहेगा. वे सदा वही करते हैं जो जगत के कल्याण में हो. वे श्राप ग्रहण कर लेते हैं, अपमान और निंदा सहन कर लेते हैं लेकिन विश्व का अनिष्ट नहीं होने दे सकते. विश्वकल्याण के लिए, धर्म की रक्षा के लिए ही वे अनेक अवतार धारण करते रहते हैं, और इसीलिए आदिकाल से ही आसुरी प्रवृत्ति के प्राणी भगवान विष्णु को अपना शत्रु ही समझते आए हैं, क्योंकि जो प्राणी अपनी आसुरी प्रवृत्तियों को नहीं छोड़ पाता, उसे श्रीहरि और उनके अवतार अपने शत्रु ही दिखाई देते हैं.

इसी के साथ, भगवान विष्णु को अपने भक्तों से अत्यंत प्रेम है. भक्तों के कल्याण हेतु ही वे कभी अपने प्रिय भक्तों में अहंकार नहीं पनपने देते, क्योंकि अहंकार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है. जैसे कि कहा जाता है कि राज्याभिषेक के बाद श्रीराम और सीता जी के अलग-अलग होने के पीछे एक कारण यह भी था कि उनके तीनों भाइयों एवं सुग्रीव आदि को अपने बाहुबल का अहंकार हो गया था, लेकिन जब वे सभी छोटे-छोटे लव-कुश से हार गए तो उन सबका अहंकार दूर हो गया.

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जैसे हमें कोई कपड़ा यदि बहुत प्रिय होता है, और उसे हम अच्छे और शुभ कार्यों में ही प्रयोग करना चाहते हैं, तो उसमें छोटे से छोटा दाग भी हम सहन नहीं कर पाते. छोटा सा दाग लगते ही हम उस दाग को तुरंत साफ कर देते हैं, ताकि वह दाग पक्का न हो जाये. वहीं यदि दाग इतना बड़ा हो और यदि समय पर साफ न किया जाये तो फिर वह तो अच्छी-खासी धुलाई से ही साफ होता है.

भगवान विष्णु अपने भक्तों को अत्यधिक मान देते हैं. उनकी कृपा पाना भी आसान है. उन्हें करुणानिधान कहा जाता है क्योंकि भक्ति-भाव से वे बड़ी ही जल्दी द्रवित हो जाते हैं. अपने मानसिक दोष को दूर कर एवं अपने अहंकार को त्यागकर, उनकी शरण में जाकर और उनके नाम का स्मरण करके उनकी कृपा आसानी से पाई जा सकती है. भगवान् श्रीहरि की कृपा जिस पर होती है, वह जीवन में अपने मार्ग से भटकता नहीं, क्योंकि श्रीहरि श्रीकृष्ण के रूप में उसका ‘सारथी’ बनकर उसका मार्गदर्शन करते रहते हैं.

भगवान शिव

भगवान शिव जगत् के आदि कारण हैं व जगत् उनकी अभिव्यक्ति है. वे प्रणव स्वरूप हैं और नाद बिंदु से परे हैं. उनका वर्ण कर्पूरगौर है. गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें ‘निराकारमोंकारमूलं’ कहा है, अर्थात वे निराकार, ओंकार व विश्व के मूल हैं. वे जन्मरहित हैं, नित्य हैं, कारण के भी कारण हैं, कल्याणकारी हैं, शुभ हैं, एक हैं एवं प्रकाश देने वाले को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं. सदाशिव से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उत्पत्ति मानी गई है.

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में भगवान शिव का एक शुभंकर-प्रलयंकर रूप है. अर्थात वे प्रलयंकर हैं तो शुभंकर भी, दग्ध करते हैं तो शरण में भी ले लेते हैं. शिव का अर्थ है कल्याण, शुभ. वेदों में ‘रुद्र’ नाम से इनका ही वर्णन है. उपनिषदों में रुद्र को ‘ब्रह्म’ के पर्यायवाची के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है. रुद्री अष्टाध्यायी इन्हीं की स्तुति है. भगवान शिव का नित्यधाम शिवलोक है. पृथ्वी पर कैलाश और वाराणसी उनके नित्यधाम शिवलोक के प्रतीक हैं.

भगवान शिव सभी के हैं. वे किसी में पक्षपात नहीं करते, कोई भेदभाव नहीं करते. अपनी कृपा सभी पर रखते हैं. उनके भक्त भगवान् श्रीराम भी हैं और रावण भी. अर्थात ब्रह्मांड की दो विपरीत शक्तियां भगवान शिव की भक्त हैं. शिव सभी को अपना लेते हैं. इसी से वे सभी विपरीत वस्तुओं को धारण करते हैं. उनके स्वरूप में सभी विरोधाभासी तत्वों का समन्वय व संतुलन पाया जाता है. और इसीलिए कालकूट विष को धारण करने की क्षमता भी केवल उन्हीं में है. वे विष को अपने कंठ से नीचे नहीं उतरने देते ताकि उनके हृदय में वास करने वाले विष्णुजी को कोई कष्ट ना हो.

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जटाओं पर गंगाजल है, तो माथे पर तीसरे नेत्र में अग्नि, मस्तक पर अमृतरूपी चंद्रमा, तो कंठ में कालकूट विष, गले में नाग एवं उनके दोनों पुत्रों के वाहन मूषक और मोर. भगवान शिव का वाहन बैल है और उनकी पत्नी देवी पार्वतीजी का वाहन सिंह. यानी शिव सभी विषम या विपरीत दशाओं के बीच रहते हैं. इन सबके केंद्र में बैठे शिव फिर भी प्रसन्न हैं, स्थिर हैं, अटल हैं. भगवान शिव हमें सिखाते हैं कि हमें भी अपनी चेतना को इसी प्रकार स्थिर व अटल रखना है. परिस्थितियां चाहे जितनी विपरीत हों, हम चाहे कितनी ही विषम परिस्थितियों से घिरे हों, लेकिन इस घिरे हुए ही में ही हमें स्थिर रहना है, अटल रहना है, चमकते रहना है. तुम मुझे घेर सकते हो, पर मुझे जीत नहीं सकते!

शिव सत्य हैं, शाश्वत हैं, इसलिए वे बुराइयों को गुनते नहीं, केवल कंठ में धारण कर लेते हैं. वे आशुतोष हैं, धैर्य अपार है उनमें, वे जीवों के क्रियाकलापों से जल्दी व्यथित नहीं होते. उन पर संसार के किसी जहर का कोई असर नहीं होता, यानी वे किसी की बुराइयों की तरफ ध्यान नहीं देते, इसलिए वे राक्षसों और देवों में सम भाव रखते हैं, और इसीलिए वे ‘अजातशत्रु’ कहे जाते हैं. चाहे हलाहल विष हो या कोई और बुराई, शिव पर बेअसर हैं. भगवान शिव के ही अंशावतार हनुमान जी भी हर प्रकार की माया-बंधन से मुक्त हैं.

भगवान शिव सभी का साथ देते हैं, लेकिन वे कभी हरिद्रोही का साथ नहीं देते. ऐसा दिखाई तो देता है कि वह असुरों पर भी कृपा करते हैं, पर ऐसा होता नहीं. रावण ने जब विजयी होने के लिए भगवान शिव से उनके प्रतीक शिवलिंग की मांग की, तब भगवान् शिव ने मना नहीं किया, दे दिया, लेकिन उस शिवलिंग को लंका तक न पहुंचने दिया. पीछे से अपने पुत्र गणेशजी को पहुंचाकर बीच मार्ग में ही उस शिवलिंग को स्थापित करवा दिया. श्रीराम प्रेम, धर्म, सत्य, मर्यादा, नीति, न्याय और साहस आदि के अवतार हैं. अतः जो कोई भी धर्म, मर्यादा, नीति आदि का उल्लंघन करता है, वह ‘रामद्रोही’ है. भगवान् शिव रामद्रोहियों का पक्ष नहीं लेते.

इसी प्रकार बाणासुर की भगवान श्रीकृष्ण से लड़ाई में भगवान शिव ने ही श्रीकृष्ण को बाणासुर को पराजित करने का मार्ग बताया था.

इसी प्रकार भगवान् विष्णु जी भी शिवद्रोहियों का साथ नहीं देते. शिव का अर्थ शुभ और कल्याणकारी भी होता है. यदि किसी व्यक्ति का कोई कार्य या निर्णय समाज के हित में नहीं है, या उसका हेतु शुभ या कल्याणकारी नहीं है, तो वह अधर्म कहलाता है. विज्ञान का जो अनुसंधान जगत के हित में हो वह धर्म है, जो जगत के हित में न हो वह अधर्म है. हमारा मन हमारा हेतु सदैव अच्छा, शुभ और कल्याणकर होना चाहिए.

शिव ही विष्णु हैं और विष्णु ही शिव हैं.

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त्रिदेवों की एकरूपता

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर (ॐ) के मध्ये ये तीनों एका॥

स्कन्द पुराण (Skand Puran) जो कि एक शैव पुराण कहा जाता है, में भगवान विष्णु की महिमा का मुक्त कण्ठ से गायन किया गया है. इसी पुराण के महेश्वरखण्ड में कहा गया है कि-

यो विष्णु: स शिवो ज्ञेय: य: शिवो विष्णुरेव स:।

अर्थात् जो विष्णु हैं उन्हीं को शिव जानना चाहिये और जो शिव हैं उन्हें विष्णु ही मानना चाहिये. इसी पुराण के कौमारिका खण्ड में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों को समान रूप से श्रेष्ठ बताया गया है. ये तीनों एक ही परम शक्ति के रूप हैं, जो कार्य की दृष्टि से तीन होकर किए जाते हैं तथा कार्य के पूर्ण हो जाने पर तीनों पुन: एक रूप हो जाते हैं.

रामचरितमानस में श्रीराम कहते हैं- ‘शिव समान मोहि प्रिय न दूजा’. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- ‘सेवक स्वामि सखा समय पी के’. अर्थात् शिवजी सीतापति राम के सेवक, स्वामी और सखा हैं.

पुराणों में कभी विष्णु जी को तो कभी शिवजी को बड़ा बता दिया जाता है. लेकिन पुराणों की कथाओं का उद्देश्य हर और हरि में किसी को छोट या बड़ा बताना नहीं होता. पुराणों को लिखने वाले शिव और विष्णु की अभिन्नता से अनभिज्ञ नहीं थे, हर और हरि की आपसी भक्ति हमारे पुराणों की विशेषता है, लेकिन भक्ति, दर्शन, अध्यात्म आदि की शिक्षा देने के लिए किसी को तो केंद्र में रखना ही पड़ता है.

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त्रिदेवों की वैज्ञानिक व्याख्या

यदि विज्ञान की भाषा में कहें तो यह सारा ब्रह्माण्ड एक ऊर्जा या शक्ति के रूप में ही है, और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इन शक्तियों से संचालित है. यहाँ हर कोई अपना-अपना कार्य कर रहा है. यह शक्ति समस्त संसार का पालन, पोषण और विनाश करती है. हमारे ब्रह्माण्ड में कई प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं, जैसे ज्ञान देने वाली शक्तियां, धन-संपत्ति देने वाली शक्तियां और मन, आत्मा, बुद्धि पर प्रभाव डालने तथा कल्याण करने वाली शक्तियां. इन शक्तियों का ज्ञान होने पर हम क्या से क्या बन सकते हैं, इसका तो हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते.

सनातन धर्म में ब्रह्मा, विष्णु महेश ब्रह्माण्ड की तीन अवस्थाओं के कर्ता-धर्ता हैं, जिन्हें क्रमशः सृजन, संरक्षण व पालन एवं संहार के रूप में देखा जाता है. इन तीनों के साथ एक-एक देवी हैं. ये त्रिदेवियाँ इन त्रिदेवों की शक्तियां भी कहलाती हैं. इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और ब्रह्मांड इंगित करता है कि पुरुष और महिलाएं समान हैं, उनका स्वभाव और व्यवहार भिन्न हो सकता है लेकिन वे एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं. न तो महिलाएं और न ही पुरुष श्रेष्ठ हैं.

अब यदि यहाँ भी हम विज्ञान और दर्शन की दृष्टि से देखें तो ब्रह्माजी सृजनकर्ता हैं और किसी भी व्यवस्थित चीज का सृजन करने या रचनात्मकता के लिए ज्ञान और कला की आवश्यकता होती है, अतः ब्रह्माजी के साथ ज्ञान व कला के रूप में देवी सरस्वती हैं. भगवान विष्णु जी पालनकर्ता हैं, और पालन-पोषण या भरण-पोषण करने के लिए धन की आवश्यकता होती है, अतः विष्णु जी के साथ धन की देवी लक्ष्मी जी हैं. इसी प्रकार, भगवान् शंकर को संहारकर्ता कहा जाता है जो प्रलय में सबको एक साथ समेट लेते हैं, जिसके लिए शक्ति की आवश्यकता होती है, अतः भगवान् शंकर जी के साथ शक्ति स्वरूपा देवी पार्वती जी हैं.

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