Madan Dahan Story
भगवान् शिव स्वयं ही अग्नि का रूप हैं. उनके अष्टमूर्ति रूप (सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी एवं आत्मा) में उनका एक रूप अग्नि है. कहा गया है- ‘भूतार्कचंद्रयज्वानो मूर्तयोऽष्टौ प्रकीर्तिता:.’ श्रीलिंगमहापुराण के अनुसार, ब्रह्माण्डों के भीतर व बाहर व्याप्त एवं यज्ञविग्रह में स्थित अग्नि भगवान् शिव की श्रेष्ठ अग्निरूप मूर्ति है. प्रलयंकर प्रभु स्वयं ही अग्निमात्र के परमोद्गम, परमाराध्य हैं. उनका तृतीय नेत्र अग्नि का वास्तविक आवास है. उनके कोपायमान होने पर उनके मस्तक-फलक पर स्थित तृतीय नेत्र की ज्वालायें सत्वर (शीघ्र) संहार करती हैं.
शिवपुराण के अनुसार, दाक्षायणी (दक्षपुत्री एवं भगवान् शिव की पत्नी सती) के योगाग्नि में प्रवेश के बाद विरक्त होकर ज्योतिरूप भगवान महादेव हिमालय पर्वत पर औषधिप्रस्थ नामक नगर के समीप एक उत्तम शिखर पर चले गए और वहां तपस्या में लीन हो गए. माता सती ने देहत्याग करते समय प्रार्थना की थी कि ‘मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में ही अनुराग रहे.’ इसी कारण उन्होंने हिमालय के घर जाकर पार्वती जी के रूप में जन्म लिया.
जब माता पार्वती बड़ी हुईं, तो अपनी पुत्री के कल्याण हेतु पर्वतराज हिमालय उन्हें लेकर वहां पहुँचे, जहां भगवान् शिव तपस्या कर रहे थे. गिरिराज हिमालय ने वहां पहुंचकर महादेव का अभ्यर्चन किया और अपनी पुत्री पार्वती के लिए शिव की सेवा-अर्चना करने की अनुज्ञा चाही. गिरिराज की प्रार्थना का मान रखने के लिए महादेव ने स्वीकृति दे दी.
गिरिनन्दिनी पार्वती जी अपनी दो सखियों जया और विजया के साथ नित्य वहां आकर महादेव के लिए कुशा, पुष्प, फल, जल आदि की व्यवस्था व सेवा करने लगीं. वे मन ही मन भगवान् शंकर जी से प्रेम करने लगी थीं, अतः उन्हें पाने के लिए तपस्या भी करने लगीं.
दूसरी ओर असुरराज तारकासुर अपनी उग्र तपस्या के फलस्वरूप ब्रह्माजी से अवधत्व का वरदान पाकर देवताओं को त्रास देने लगा था. प्राप्त वरदान के अनुसार उसका वध केवल शिवजी के तेज से जन्मा पुत्र ही कर सकता था. तारकासुर ने ऐसा वरदान इसलिए मांगा था क्योंकि माता सती के योगाग्नि-प्रवेश के उपरान्त शिव में उत्पन्न वैराग से वह निश्चिंत व निःशंक था.
वहीं, देवराज इंद्र शिवजी के वैराग से अत्यंत चिंतित और सशंक थे. देवताओं को भय था कि शिव तपोलीन ही रहेंगे तथा पार्वती जी से विवाह ही नहीं करेंगे, तो तारकासुर का वध कौन करेगा. अतः देवराज इंद्र ने अपने पराक्रमी, दुर्दम योद्धा कामदेव को शिवजी की तपस्या भंग करने के लिए प्रेरित किया, जिससे वे पार्वती जी से आकृष्ट होकर उनसे विवाह कर लें, और उनका पुत्र हो जाये, जो दुर्दान्त तारकासुर का वध कर दे. ऐसा होने पर ही देवराज इन्द्र अपना खोया हुआ स्वर्ग वापस पा सकते थे.
पहले तो कामदेव कार्यसिद्धि के विषय में सशंकित हुए, पर देवेन्द्र ने उनकी बहुत प्रशंसा करके उन्हें विजयी होने का विश्वास दिलाया. फिर क्या था, दर्प से भरे हुए कामदेव अपनी पत्नी रति और अन्य सहायकों के साथ मिलकर भगवान शिव की तपोस्थली पर पहुंच गए. पार्वती जी के वहाँ आने पर भगवान् शिव पर पुष्पबाण संधान करने का अनुकूल अवसर देखकर कामदेव ने अपने पाँच बाणों में से ‘सम्मोहन’ नामक पुष्पशर शिवजी पर चला दिया. अलक्ष्य को ही लक्ष्य बना डाला.
मन को डोलायमान करने के इस उद्दण्ड उद्योग को महायोगीश्वर भगवान् शिव भांप गये. वे जान गये कि उनके तप में विक्षेप उत्पन्न करने का कुटिल प्रयास किया गया है. यह जानकर भगवान प्रलयंकर अत्यंत क्रोधित हुए. उसी समय उनके ललाट पर स्थित तीसरा नेत्र खुल गया और उससे निकलती हुई प्रचण्ड अग्नि ने देखते-ही-देखते कामदेव को भस्म कर दिया.
शिवमहिम्नःस्तोत्रम् में गन्धर्वराज पुष्पदन्त इस शिवलीला का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशाखा:।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मर: स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव:॥
अर्थात् कामदेव ने देवाधिदेव महादेव के भगवत्-रूप को, उनके परमैश्वर्य को नहीं पहचाना. उन्हें अन्य देवताओं के समान ही समझ लिया. कामदेव किसी भी देवता में मदन जगा सकते हैं, पर अलख निरंजन अर्धेन्दुमौलि को भी ऐसा ही समझने का परिणाम बड़ा भयंकर हुआ. प्रलयंकर के तीसरे नेत्र से निकली ज्वाला की प्रचण्ड लपटों ने उसी समय उन्हें भस्मीभूत कर दिया. स्मर अर्थात् कामदेव ने अविकारी शिव में विकार उत्पन्न करने का प्रयास किया. फलस्वरूप कामदेव स्वयं ही स्मर्तव्यात्मा बन कर रह गये अर्थात् शिव की कोपाग्नि में दग्ध होकर स्मरणमात्र रह गये.
नित्य जय पाने (सदा विजयी होने वाले वाले) कामदेव की यह गति इसलिए हुई कि उन्होंने आदियोगी शिव के शिवत्व की महिमा को नहीं जाना, उनके जितेन्द्रियत्व का सम्मान नहीं किया. विगत-स्पृह, विजितेन्द्रिय जनों का, आप्तकाम मुनि-महात्माओं का अपमान कभी कल्याणकारी नहीं होता, अकल्याणकारी सिद्ध होता है. आत्मजयी, आत्मवशी जितेन्द्रिय जन सदा सेवा-पूजा के पात्र होते हैं. उनका अपमान हितकारी नहीं होता.
इसी शिवलीला का उल्लेख करते हुए राक्षसराज रावण शिवताण्डवस्तोत्रम् में कहता है-
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिंगभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
अर्थात् महादेव के ललाटपट पर स्थित तृतीय नेत्र की प्रचंड अग्नि ने उग्र रूप से प्रज्वलित होकर कामदेव को, जिन्हें अपने पञ्च-पुष्पबाणों पर अतीव गर्व था, लील लिया. कामदेव ने अलक्ष्य को अपना लक्ष्य बनाने की चेष्टा की, जिसका मूल्य उन्हें अपना जीवन गंवाकर चुकाना पड़ा. कामदेव को शिवजी की तपस्या में विघ्न डालने के लिए इन्द्र ने प्रेरित और प्रोत्साहित किया था, अतः कामदेव के दग्ध होने के साथ ही इंद्र का गर्व भी टूट गया.
कालिका पुराण में मदन-दहन का प्रसंग इस प्रकार चित्रित किया गया है-
ललाट चक्षुः सम्भूता भस्माकार्षीन्मनोभवम्
दग्ध्वा कामं तदा वह्निर्ज्वालामालातिदीपितः।
इसे लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
तात अनल कर सहज सुभाऊ।
हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
अर्थात् ‘अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा.’
• इसके बाद कामदेव ने द्वापरयुग में भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में जन्म लिया था.
कामदेव कौन हैं
कामदेव के लिए कहा गया है कि उनका प्रताप ऐसा है कि उनके द्वारा चलाये गए पुष्पबाण कहीं से भी निष्फल होकर नहीं लौटते, इसीलिये कामदेव के लिए ‘जयिन’ और उनके बाणों के लिए ‘असिद्धार्था’ विशेषणों का प्रयोग भी किया गया है. सचमुच ही मदन का मायाजाल दुर्भेद्य है. उनके धनुष-बाद पुष्पमय हैं फिर भी तीनों लोकों को अपने वश में किया हुआ है.
स्मार्त पुष्पमयं चापं बाणा: पुष्पमया अपि।
तथाप्यनंगस्त्रैलोक्यं करोति वशमात्मन:।
प्रेम व सौंदर्य के देवता कामदेव को ‘पंचशर’ एवं ‘कुसुमशर’ भी कहते हैं, क्योंकि उनके कुसुममय धनुष के अलावा उनके बाण भी कुसुममय होते हैं (उनके धनुष-बाण फूलों के हैं) जिनकी संख्या पाँच है. उनमें से एक बाण को कामदेव ने तप में लीन महादेव पर लक्षित किया, पर वे विफल रहे. कामदेव के बाणों की संख्या पाँच होने के कारण उन्हें ‘विषमविशिख’ भी कहा जाता है. उनके पंचबाणों के नाम हैं-
अरविन्दमशोकं च आम्रं च नवमल्लिका,
नीलोत्पलं च पंचैते पंचबाणस्य सायका:।
कामदेव का एक नाम मन्मथ भी है. मन्मथ अर्थात् मन को मथने वाला, जो मन को मथ कर रख दे. मन्मथ के गुणों से तात्पर्य है मन में अभिलाषा का संचरण. हमारी संस्कृति में पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में काम का तीसरा स्थान प्राप्त है. यहाँ ‘काम’ शब्द में समस्त प्रकार की कामनाओं का भाव निहित है. गलती वहां होती है जहां ‘काम’ कहने से अभिप्राय गर्हित अर्थ ही में लिया जाता है.
भारतीय आध्यात्मिकता काम को देवता की श्रेणी में रखती है न कि असुर की. वे कामासुर नहीं, कामदेव हैं. काम का संयत और शास्त्रों द्वारा अनुमोदित आचरण प्रेम के उत्कर्ष में परिणत होता है, वहीं स्वेच्छाचार या स्वच्छन्द आचरण में पवित्रता नहीं होती है, पर विवाह-संस्कार इसी प्रेम भावना को स्वच्छ करके उसे उदात्त बना देते हैं.
काम को अनंग (देहरहित, आकृतिहीन), मनोज आदि मनपरक नामों से इसीलिए पुकारा गया है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति मन में होती है. मन के उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट भावों से घिरा हुआ मनुष्य सदाचारी या दुराचारी बनता है. क्षुद्र वासनाओं के गर्त्त में गिरकर गर्हित आचरण करने वाला प्रेमराज्य में विचरण करने का अधिकार खो बैठता है. शिव भाव को पुष्ट करने वाला काम पुरुषार्थ का स्थान पाता है.
रामचरितमानस में मदन-दहन
इसी कथा को तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में बड़े ही सुन्दर तरीके से और गूढ़ अर्थों के साथ लिखा है. रामचरितमानस पढ़ने में जितनी आसान लगती है, उतनी आसान वह है नहीं. आप स्वयं ही पढ़िये और समझने का प्रयास कीजिये-
“तब कामदेव ने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया. जिस समय मछली के चिह्न जैसी ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई. ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई.
विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए. उस समय वे सभी सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचार आदि ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया). किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए.
दो घड़ी तक सारे ब्रह्माण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह तमाशा रहा, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गए. शिवजी को देखकर कामदेव डर गए, तब सारा संसार फिर जैसा का तैसा स्थिर हो गया. तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे नशा पिए हुए लोग नशा उतर जाने पर सुखी होते हैं. दुराधर्ष (जिन्हें पराजित करना अत्यंत ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूपी छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गए.
कामदेव अपनी सेना सहित करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाय) करके हार गए, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी. यह देखकर कामदेव क्रोधित हो उठे. आम के वृक्ष की एक सुन्दर डाली देखकर मन में क्रोध से भरे हुए कामदेव उस पर चढ़ गए. उन्होंने अपने पुष्पधनुष पर अपने बाण चढ़ाए और अत्यंत क्रोध से (लक्ष्य की ओर) तान लिया.
कामदेव ने तीक्ष्ण बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में जा लगे. तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए. ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ. उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा. जब उन्होंने आम के पत्तों में छिपे हुए कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया. उनका क्रोध देखकर सब लोक काँप उठे. तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला और देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गए.”
Credits With : Dr. Mrs. Kiran Bhatia
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