Maharishi Agastya : महर्षि अगस्त्य कौन थे? क्या अगस्त्य ने अपनी बेटी से विवाह किया था?

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महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा

Rishi Agastya Lopamudra

महर्षि अगस्त्य (Maharishi Agastya) वैदिक ऋषि हैं. वे त्रेतायुग में भगवान् श्रीराम के समय भी उपस्थित थे और उन्होंने ही श्रीराम को आदित्य हृदय स्त्रोत (Aditya Hridaya Stotra) का रहस्य बताया था, जिसका नियम से पाठ करने से बल और तेज में वृद्धि होती है और शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है. उन्होंने भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण जी को कई प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र और कवच भी दिए थे, साथ ही श्रीराम को पंचवटी में रहने का आग्रह भी महर्षि अगस्त्य का ही था. आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर इनका आश्रम स्थित है.

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥

महर्षि अगस्त्य का उल्लेख बहुत विस्तृत फलक में प्राप्त होता है. उनकी विवेचना करते हुए सत्य-असत्य सबका घालमेल हो जाता है. महर्षि अगस्त्य वेदों में हैं, महाकाव्यों में हैं और यहाँ तक कि दक्षिण भारत के महान संगम साहित्य से भी सम्बद्ध हैं. महर्षि अगस्त्य अध्येता (अध्ययन करने वाला) थे, व्याकरण ग्रंथों के रचनाकार थे, अस्त्र-शस्त्रों के अन्वेषक और निर्माता थे, युद्धों के रणनीतिकार थे, वैज्ञानिक थे और यहाँ तक कि अनेक साहित्यिक सम्मेलनों के अध्यक्ष भी थे.

भारतीय ऋषि परम्परा में कोई भी अगस्त्य जैसा रहस्यमयी और असाधारण नहीं. वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है. इन्होने ‘अगस्त्य संहिता’ (Agastya Samhita) नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होंने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया. वे हिमालय से सागर पर्यन्त तक की सांस्कृतिक एकता के सूत्र माने जाते हैं. दक्षिण में कावेरी नदी महर्षि अगस्त्य की ही देन हैं.

महर्षि अगस्त्य मंत्रदृष्टा थे. इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है. अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों की रचना की है. तमिल भाषा के जनक उन्हें ही माना जाता है, क्योंकि भगवान् शिव ने महर्षि अगस्त्य को तमिल भाषा की शिक्षा दी थी. भगवान् श्रीराम के परमभक्त सुतीक्ष्ण जी महर्षि अगस्त्य के शिष्य थे. भगवान् श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य को अपने गुरु के रूप में सम्मान दिया है और वे अयोध्या के राजा बनने के बाद भी उनसे सलाह लेते रहे.

महर्षि अगस्त्य दक्षिणी चिकित्सा पद्धति सिद्ध वैद्यम (सिद्ध चिकित्सा) के भी जनक माने जाते हैं. भगवान् शिव के पुत्र कार्तिकेय जी, जिन्हें दक्षिण में मुरुगन कहते हैं, उन्हें मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की दक्षिण शैली रचियता के तौर पर जाना जाता है. भगवान् मुरुगन ने यह कला महर्षि अगस्त्य को सिखाई थी. यह विद्या आज भी केरल में सीखी और सिखाई जाती है, जिस पर अगस्त्य जी ने रचनाएँ भी लिखी थीं.

महर्षि अगस्त्य वास्तव में किनके पुत्र थे, इसकी सटीक जानकारी नहीं मिलती है. अलग-अलग तथ्यों के अनुसार, ये राजा दशरथ के राजगुरु महर्षि वशिष्ठ के बड़े भाई थे. वहीं, महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र भी माना गया है. अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं. महर्षि अगस्त्य के भारतवर्ष में अनेक आश्रम हैं, जिनमें से कुछ मुख्य आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में हैं. जावा-सुमात्रा में आज भी महर्षि अगस्त्य की पूजा की जाती है.

महर्षि अगस्त्य को लेकर कई प्रकार की कथाएं मिलती हैं-

विंध्याचल पर्वत का आकार लगातार बढ़ने की वजह से उसके दूसरी तरफ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच पा रहा था. तब महर्षि अगस्त्य ने युक्तिपूर्वक दक्षिणापथ जाने का निश्चय किया. तब उन्होंने विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था. दरअसल, यह पूरी बात बिम्बों में कही गई है. इसका सार यह है कि महर्षि अगस्त्य ने दुर्गम पहाड़ियों को अपने श्रम-सामर्थ्य और शक्तियों से झुकाकर दक्षिणापथ का रुख किया और उसे ही अपनी कर्मस्थली बनाया.

महर्षि अगस्त्य के बारे में यह कथा मिलती है कि देवताओं की सहायता के लिए उन्होंने अपनी शक्तियों से समुद्र को सुखा दिया था. यह बात भी बिम्बों में कही गई प्रतीत होती है.

महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा

इंटरनेट पर महर्षि अगस्त्य के बारे में एक कुप्रचार बहुत किया जाता है कि ‘लोपामुद्रा (Lopamudra) ऋषि अगस्त्य की पुत्री थीं, और महर्षि अगस्त्य ने अपनी ही बेटी से विवाह किया था.’ इस तथ्य को लेकर महाभारत के वनपर्व का उल्लेख किया जाता है जिसके अनुसार, पितरों की शांति के लिए संसार से विरक्त ऋषि अगस्त्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की बाध्यता हुयी.

लेकिन उन्हें अपने योग्य कोई स्त्री न दिखाई पड़ी. इस पर ऋषि अगस्त्य ने कुछ पशुओं के अवयवों से एक कन्या का निर्माण किया और उसे विदर्भ-नरेश को सौंप दिया. जब लोपामुद्रा बड़ी होकर विवाह योग्य हुईं, तब महर्षि अगस्त्य का विवाह लोपामुद्रा के साथ कर दिया गया, जिसमें लोपामुद्रा की सहमति थी.

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि,
महर्षि अगस्त्य के पास उनके तप की शक्तियां बहुत अधिक थीं. इस कथा के अनुसार उन्होंने लोपामुद्रा को जन्म नहीं दिया था और न ही उसकी रचना अपनी पुत्री के रूप में की थी. चूंकि उन्हें अपने योग्य कोई स्त्री नहीं मिली, इसलिए उन्होंने अपने विवाह के लिए अपनी विद्याओं और शक्तियों से स्वयं ही एक कन्या का निर्माण कर लिया, और उसे विदर्भ नरेश को इसलिए सौंप दिया ताकि उनकी संतान प्राप्ति की इच्छा भी पूरी हो जाये.

खैर, गीताप्रेस की ही एक बहुत पुरानी प्रति में महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा के विवाह की एक और कथा देखने को मिलती है जिसके अनुसार, महर्षि अगस्त्य ने लोपामुद्रा का निर्माण नहीं किया था, बल्कि उनके आशीर्वाद से विदर्भ नरेश के यहां एक तेजस्वी कन्या का जन्म हुआ था, जिसका नाम लोपामुद्रा रखा गया था. जब लोपामुद्रा बड़ी होकर विवाह योग्य हुईं, तब महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ नरेश से लोपामुद्रा का हाथ माँगा. लोपामुद्रा की सहमति से दोनों का विवाह संपन्न हुआ. प्रमुख बात यह है कि इस कथा का स्रोत भी महाभारत के वनपर्व को ही बताया गया है.

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लोपामुद्रा- लोपामुद्रा महान तपस्वी, संयमी, पतिव्रता और दार्शनिक नारी थीं. लोपामुद्रा भी एक महान वैदिक विद्वान थीं. इन्होने वेदों की कई ऋचाओं की रचना की है. इन्हें ‘वरप्रदा’ और ‘कौशीतकी’ भी कहा जाता है. इनका पालन-पोषण विदर्भराज निमि या क्रथपुत्र भीम ने किया इसलिए इन्हें ‘वैदर्भी’ भी कहा जाता है. महर्षि अगस्त्य से विवाह हो जाने के बाद इन्होने राजवस्त्र और आभूषणों का परित्याग कर वल्कल वस्त्र धारण किये.

ऋषि अगस्त्य और लोपामुद्रा को पवित्र ऋषि जोड़ों में से एक के रूप में पूजा जाता है. लोपामुद्रा द्वारा श्री ललिता सहस्रनाम के प्रसिद्ध मंत्र को लोकप्रिय बनाया गया, जिससे सभी भगवती पार्वती जी की महिमा को समझ सकें. यह मंत्र ऋषि अगस्त्य को भगवान हयग्रीव द्वारा सिखाया गया था.

महर्षि अगस्त्य के वैज्ञानिक आविष्कार

अगस्त्य संहिता (Agastya Samhita) से महर्षि अगस्त्य के कई बड़े वैज्ञानिक प्रयोगों और आविष्कारों के बारे में भी जानकारी मिलती है. आरम्भिक वैमानिकी पर भी ऋषि अगस्त्य की दृष्टि रही है. उन्होंने अपनी कृति में वैमानिक तकनीकों का भी उल्लेख किया है.

आपको यह भी बता दें कि अगस्त्य संहिता की इस पूरी वैज्ञानिक विधि का वर्णन इसी नाम से एक विदेशी लेखक David Hatcher Childress ने अपनी पुस्तक “Technology of the Gods: The IncredibleSciences of the Ancients” में भी किया है.

दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे ग्रंथों को हम से अधिक विदेशियों ने पढ़ा है. इसीलिए वे आज दौड़ में हमसे आगे निकल गये और सारा श्रेय भी ले गये. वहीं, भारत के कुछ बुद्धिजीवी मात्र शब्दार्थों के आधार पर अपने ही ग्रंथों की केवल खिल्ली ही उड़ाते रह गए, और यो-यो करते हुए खुद को बहुत मॉर्डन समझ रहे हैं.

दरअसल, जो लोग प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित श्लोकों आदि का सही विश्लेषण नहीं कर पाते, बिम्बों की विवेचना नहीं कर पाते, तो अकड़कर शब्दार्थों के साथ खड़े हो जाते हैं और सब कुछ खारिज कर देने की नियत के साथ केवल एक्सक्यूज ढूंढते फिरते हैं, जिससे बिना तर्क किये ही हंसी उड़ाते हुए प्रगतिशील होने का झूठा नाटक दिखाया जा सके.

अगस्त्य संहिता के अनुसार विद्युत उत्पादन और बैटरी निर्माण

राव साहब कृष्णाजी वझे (Rao Saheb Krishnaji Vaze) ने 1891 में पुणे से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी. भारत में विज्ञान सम्बन्धी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी (Damodar Trimbak Joshi) के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले. इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. एमसी सहस्रबुद्धे (Dr. MC Sahasrabuddhe) को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल (Daniel Sale) से मिलता-जुलता है. अत: उन्होंने वे पन्ने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को दिए और उनमें लिखे श्लोकों और सूत्रों की जांच करने को कहा.

महर्षि अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्रों में लिखा है-

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥

शब्दार्थों के अनुसार, एक मिट्टी का पात्र (Earthen Pot) लें. उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) और शिखिग्रीवा डालें. फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (Wet Saw Dust) लगायें. ऊपर पारा (Mercury) एवं दस्ट लोष्ट (Zinc) डालें और फिर तारों को मिलाएं तो उससे मित्रावरुणशक्ति (बिजली) का उदय होगा.

उपर्युक्त वर्णन के आधार पर होले और उनके मित्र ने तैयारी शुरू की तो जैसे-तैसे सभी सामग्रियों का अर्थ समझ आ गया, लेकिन शिखिग्रीवा क्या है, इसका अर्थ समझ नहीं आया. संस्कृत कोष में देखने पर शिखिग्रीवा का अर्थ निकला ‘मोर की गर्दन’.

अत: होले और उनके मित्र एक बगीचे में गए और वहां के प्रमुख से पूछा कि ‘आपके बाग में मोर कब मरेगा?’ तो उसने नाराज होकर पूछा ‘क्यों ?’ तब होले ने कहा कि ‘एक प्रयोग के लिए हमें मोर की गर्दन की आवश्यकता है.’ यह सुनकर बागीचे के प्रमुख ने कहा कि ‘ठीक है. आप एक अर्जी दे जाइये.’

इसके कुछ दिनों बाद होले की बातचीत एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी. उन्हें यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, “यहां ‘शिखिग्रीवा’ का अर्थ मोर की गर्दन नहीं, बल्कि उसकी गर्दन के रंग जैसा पदार्थ नीलाथोथा (कॉपर सल्फेट) है.”

यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया गया और डिजिटल मल्टीमीटर द्वारा उसे नापा गया. नतीजे सामने आये और 1.138 वोल्ट और 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई. प्रयोग सफल होने की सूचना डॉ. एमसी सहस्रबुद्धे को दी गई.

अगस्त्य संहिता में केवल विद्युत् उत्पादन की विधियां ही नहीं, बल्कि इसके प्रकार और संवर्धन की विधियां भी लिखी हुई हैं. यह संहिता कंडक्टर और इंसुलेटर का विभेद भी स्पष्ट करती है. महर्षि अगस्त्य जी ने आगे लिखा है-

अनने जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
वायुबन्धकवस्त्रेणनिबद्धो यानमस्तके
उदान: स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्।

शब्दार्थ के अनुसार, “सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा. उदान वायु (H2) को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र (गुब्बारा) में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है.”

अगस्त्य संहिता में विद्युत् का इस्तेमाल इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है. उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली. अत: महर्षि अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहा जाता है. आगे लिखा है-

कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं शातकुंभमिति स्मृतम्॥

अर्थात् कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है. लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है. स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है.

इसी के साथ, प्राणवायु आदि का उल्लेख वेदों में भी मिलता है, जैसे-

वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे ।
प्र ण आयूँषि तारिषत्॥ (ऋग्वेद.१०.१८६.१)

यददो वात ते गृहे अमृतस्य निधिर्हितः।
ततो नो धेहि जीवसे॥ (ऋग्वेद.१०.१८६.३)

आ त्वागमं शान्तातिभिरथो अरिष्टातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते॥
(ऋग्वेद.१०.१३७.४)

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