जब खर-दूषण श्रीराम से युद्ध करने के लिए आए, तब वे अपने साथ 14,000 राक्षसों की सेना लेकर आ गए. खर-दूषण और उनके 14000 सैनिकों के बीच श्रीराम उस समय अकेले खड़े हुए थे, जैसे घनघोर बादलों के बीच में अकेला पूर्णचंद्र.
तब खर-दूषण भी श्रीराम के रूप सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं और कहते हैं कि “हमने अनेकों देवताओं को पराजित किया, एक से बढ़कर एक देवता, नाग, किन्नर, गंधर्व, यक्ष देखे, लेकिन ऐसा सुंदर और आकर्षक पुरुष आज तक नहीं देखा. ऐसा लगता है जैसे त्रिलोकी की सारी सुंदरता इसी पुरुष में समा गई हो.”
जब शूर्पणखा रावण की सभा में श्रीराम के सौंदर्य और बल-पराक्रम का वर्णन करती है, तो कहती है कि “श्रीराम और सीता को एक बार देख लो तो दृष्टि हटाने का जी नहीं चाहता. श्रीराम कब धनुष पर बाण चढ़ाते हैं और कब उसे छोड़ते हैं, इसका तो पता ही नहीं चलता. उन्होंने खर-दूषण सहित 14000 राक्षसों को अकेले ही परास्त कर दिया.”
वहीं, विभीषण कहते हैं कि, “जो इतने सुंदर और शक्तिशाली हैं, जैसा कि शूर्पणखा बता रही है, तो फिर निश्चय ही श्रीराम का कोई भी कार्य धर्म-विरुद्ध नहीं हो सकता. ऐसी सुंदरता और ऐसा बल-पराक्रम किसी साधारण मनुष्य में हो ही नहीं सकता.”
रावण का सेनापति कहता है, “हमारे राक्षस जहां भी जाते हैं, उन्हें हर जगह केवल राम ही राम दिखाई देते हैं.”
मारीच रावण से कहता है, “मुझे यह सारा वन राममय सा प्रतीत होता है. मुझे स्वप्न में भी श्रीराम ही दिखाई देते हैं. इसीलिए मैं उनके प्रभाव को अच्छी तरह जान गया हूँ. श्रीराम बड़े तेजस्वी, आत्मबल से संपन्न और महा बलशाली हैं.”
जब जनकपुरी वालों ने श्रीराम को पहली बार देखा
जब श्रीराम और लक्ष्मण जी पहली बार जनकपुरी आए, तो लोग अपना सब कामकाज छोड़कर उन्हें देखने के लिए ऐसे दौड़ पड़ते, जैसे कोई गरीब खजाना लूटने के लिए दौड़ पड़ता है. सब अपने पुण्यों को मनाकर प्रार्थना करने लगे कि, “ये श्रीराम ही अपनी राजकुमारी जानकी जी के योग्य हैं, काश! इन्हीं से सीता जी का विवाह हो जाए, तब तो ये हमारे जमाई राजा बन जाएंगे, और फिर हमें इनके बार बार दर्शन होते रहेंगे.”
जब सीता जी ने श्रीराम को पहली बार देखा
श्रीराम को देखकर सीता जी की सखियाँ अपने आपको भूल गईं. एक सखी धीरज धरकर हाथ पकड़कर सीताजी से बोली-
“अरे सीते! गिरिजा जी का ध्यान बाद में कर लेना, इस समय इस राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं? हे सखी! वह साँवला कुँअर तो बहुत ही सलोना है, शोभा की सीमा हैं. उनके शरीर की आभा नीले कमल की सी है. अपने रूप से नगर के सब स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर रखा है. उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ.”
श्रीराम के रूप को देखकर सीता जी के नेत्र ललचा उठे, मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया. पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया. नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए. देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा. श्रीराम का ध्यान करती हुई लौट चलीं. लेकिन मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्रीराम की छवि देख-देखकर उनका प्रेम बढ़ता ही जाता है.
वहीं, रात्रि को अपने कक्ष में श्रीराम ने सुंदर चन्द्रमा में भी सीता जी को ही पाया. फिर मन में विचार किया कि ‘यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है. खारे समुद्र से उत्पन्न, दिन में शोभाहीन और निस्तेज रहने वाला काले दाग से युक्त यह बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है? हे चन्द्रमा! तुममें तो बहुत अवगुण हैं, अतः तुम्हारी तुलना सीता से नहीं हो सकती.’
जब श्रीराम और सीता जी के सौंदर्य का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी को संसार की सभी उपमाएं झूठी लगीं, जब वे उनके सौंदर्य का वर्णन करने और उपमाएं देने में पूरी तरह असफल रहे, तब उन्हें एक ही वाक्य लिख देना पड़ा-
“राम से राम और सिया सी सिया”
वाल्मीकि जी ने बताए हैं श्रीराम के ये गुण
वाल्मीकि जी लिखते हैं, श्रीराम बड़े ही रूपवान और पराक्रमी थे. भूमण्डल में उनकी समता करने वाला कोई नहीं था. बल और पराक्रम से संपन्न होने के बाद भी उन्हें अपने बल पर अहंकार न था. वे सत्यवादी और बुद्धिमान थे, सदा शांतचित्त रहते और मीठे वचन बोलते थे. यदि कोई उन पर एक ही उपकार कर देता था, तो वे उसके एक ही उपकार से उससे सदा संतुष्ट रहते थे. वे वृद्धजनों का सम्मान करते थे.
वे समय निकालकर बड़े-बूढ़ों के साथ बातचीत करते और उनसे कुछ न कुछ सीखते रहते थे. अपने पास आने वाले लोगों से सदैव प्रिय वचन बोलते थे, जिससे सबको अच्छा लगे. श्रीराम के मन में दीन-दुखियों के प्रति बड़ी दया थी. अपनी शरण में आए हुए की रक्षा करने में उनका बहुत मन लगता था. वे शास्त्र-विरुद्ध बातों को सुनने में रुचि नहीं लेते थे. वे सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ ज्ञाता थे. स्मरण शक्ति से संपन्न और प्रतिभाशाली थे.
प्रजा का श्रीराम के प्रति और श्रीराम का प्रजा के प्रति बड़ा प्रेम था.
प्रजा राजा दशरथ को श्रीराम के गुण बताते हुए कहती है कि, “श्रीराम दिव्य गुणों से संपन्न हैं और इक्ष्वाकु कुल में श्रेष्ठ हैं. उनके सभी गुण सबको प्रिय लगने वाले और आनंददायक हैं. वे महान धनुर्धर, वृद्ध पुरुषों के सेवक और जितेन्द्रिय हैं. वे इस लोक में सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ हैं. श्रीराम ने अर्थ के साथ धर्म को भी प्रतिष्ठित किया है. वे सम्पूर्ण विद्याओं में पूर्ण हैं. उन्हें अर्थों के विभाजन का, हाथियों-घोड़ों पर चढ़कर सवारी करने और रथ चलाने का अच्छा ज्ञान है. वे संगीत, वाद्य, चित्रकारी, शिल्पकला आदि में भी कुशल हैं. सेना संचालन की नीति में उन्हें पूर्ण निपुणता प्राप्त है.”
“श्रीराम आलस्य को अपने पास भी नहीं फटकने देते हैं. वे सदा प्रजा का पालन करने में ही लगे रहते हैं. वे सम्पूर्ण त्रिलोकी की भी रक्षा कर सकते हैं. अपने सद्गुणों और पराक्रम से प्रजा के पालन में ही लगे रहते हैं. वे प्रजाजनों से उनके कुशल-समाचार पूछते ही रहते हैं. वे दूसरों के दुःख में दुखी होते हैं, और घरों में उत्सव देखकर पिता की तरह प्रसन्न होते हैं. जहां किसी की निंदा हो रही हो, ऐसी बातों में वे बिल्कुल रुचि नहीं लेते हैं. उन्हें कभी किसी पर क्रोध नहीं आता, लेकिन उनका क्रोध व्यर्थ नहीं होता (अर्थात यदि श्रीराम क्रोध करते हैं, तो उसका उचित कारण ही होता है).”
योद्धन को नाथ परम योद्धा
अभिजित अतुलित बलवीर लगें
शस्त्रन से अंग सुसज्जित हैं
रण बीच खड़े रणधीर लगें
नवयुवतिन को कामावतार
प्रिय दर्शन काम शरीर लगें
कर में जो देखें पुष्पबाण
तो हिये मदन के तीर लगें
वत्सला दृष्टि से जो देखें
उन्हें छोटे से रसखान लगें
मुरलीधर मनमोहन बालक
अपने ही जीवन प्राण लगें
श्रीनाथ चतुर्भुज नारायण
भक्तों को कृपा निधान लगें
तिहुंलोक भूप अभिनव अनूप
भगवत स्वरूप भगवान लगे.
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