Adi Shankaracharya Adwaitwad : आदि गुरु शंकराचार्य का अद्वैतवाद

Important facts about Adi Shankaracharya, adwaitwad
आदि गुरु शंकराचार्य

Adi Shankaracharya Advaita Vedanta

भारत में परब्रह्म के स्वरूप को लेकर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, केवलाद्वैत, शुद्धाद्वैत जैसी कई दर्शन और विचारधाराएं हैं. जिस आचार्य ने ब्रह्म को जिस रूप में देखा, उसका वर्णन किया. इतनी विचारधाराएँ या दर्शन होने पर भी सबका आधार एक ही है.

आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) के दर्शन को अद्वैत वेदांत (Advaita Vedanta) का दर्शन कहा जाता है. लेकिन उनका दर्शन सीमित नहीं है, मात्र एक विचारधारा नहीं है. आदि शंकराचार्य का दर्शन महासागर की तरह ही विशाल है, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति की धाराएँ एक साथ आकर मिल जाती हैं.

आदि शंकराचार्य का समन्वयवाद

आदि शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे. शंकराचार्य के दर्शन में हम सगुण और साकार तथा निर्गुण और निराकार, दोनों ही ब्रह्म का दर्शन कर सकते हैं. जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है. ‘तत्त्‍‌वमसि’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘अयामात्मा ब्रह्म’; इन बृहदारण्यकोपनिषद् एवं छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है.

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शंकराचार्य जी के दर्शन के अनुसार, ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो ईश्वर निर्गुण और निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण और साकार है. उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी बताया. ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है. आदि शंकराचार्य ने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्रों की रचना भी की.

आदि शंकराचार्य और उनके गुरु गोविंदपाद प्रात:काल की शुरुआत ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन, दंड -प्रणाम, पूजा-पाठ के सम्पूर्ण-विधि-विधानों और अनुष्ठानों के साथ करते थे. वहीं एक गुफा में बैठकर धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, विधि-विधानों से परे निर्गुण-निराकार अद्वैत ब्रह्म के विषय में चिंतन-मनन भी करते थे. यहां हमें सामाजिक और आध्यात्मिक दो धाराओं का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है.

आदि शंकराचार्य की आवश्यकता

सतयुग की तुलना में त्रेतायुग में, त्रेता की तुलना में द्वापरयुग में और द्वापर की तुलना में कलियुग में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति, प्राणशक्ति एवं धर्म तथा आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है. यह वो समय था, जब भारत में एक बार फिर धर्म का पतन हो रहा था. बौद्ध धर्म सनातन धर्म के प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहा था. विज्ञानवाद के नाम पर टूटती परम्पराएं, टूटता विश्वास, क्षीण होती आस्था, मन से हटते सनातन संस्कारों के बीच आवश्यकता थी एक ऐसे महापुरुष की, जो सनातन संस्कृति को बचाकर एक बार फिर भारतवर्ष को एकता के सूत्र में पिरो सके.

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ये महान विभूति थे आदि गुरु शंकराचार्य, जो धर्म के पुनरुथान के लिए अवतरित हुए थे. कलियुग के प्रथम चरण में आदि शंकराचार्य ने विलुप्त और विकृत वैदिक ज्ञान-विज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध किया. सनातन धर्म को पतन से उत्थान की ओर अग्रसित किया.

अष्टवर्षेचतुर्वेदी द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्

अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में पारंगत हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों का ज्ञान, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य और बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर का त्याग कर दिया. आदि शंकराचार्य का जीवनकाल बहुत ही छोटा रहा, पर अपने इतने से ही जीवनकाल में उन्होंने वह किया जो सामान्य मानव के लिए सम्भव नहीं.

शंकराचार्य ने उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न हुए चार्वाक, बौद्ध जैसे मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया. उन्होंने बौद्धों के विज्ञानवाद का खण्डन किया और नित्य औपनिषद् आत्मचैतन्यवाद को उससे पृथक् सिद्ध किया. वेदों में दिए ज्ञान का प्रचार और चर्चा पूरे भारतवर्ष में की, साथ ही पूरे भारत को एक करने के लिए देश के चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी और द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना भी की.

आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ

सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना और तर्क आदि के द्वारा उसे सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है. आदि शंकराचार्य के आने से भारतीय उपमहाद्वीप पर बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो गया, साथ ही एक बार फिर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार शुरू हुआ. आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म सहित अपने समय के अलग-अलग दार्शनिक विचारधाराओं से धार्मिक वाद-विवाद किया और शास्त्रार्थ में कुछ उल्लेखनीय लोगों को सार्वजनिक रूप से हराया.

आदि शंकराचार्य ने माहिष्मति प्रान्त के प्रकाण्ड पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी. मंडन मिश्र शंकराचार्य से पराजित हुए, लेकिन मिश्रजी की पत्नी देवी भारती द्वारा शंकराचार्य को चुनौती दी गई. देवी भारती द्वारा रति व काम जैसे विषयों पर प्रश्न करने पर, योग क्रिया के द्वारा उक्त विषयों पर सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद शंकराचार्य ने देवी भारती को शास्त्रात में पराजित किया. तब मंडन मिश्र शंकराचार्य के शिष्य बन गए.

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आदि शंकराचार्य जब काशी जा रहे थे, तब उनके मार्ग में एक चांडाल आ गया. उन्होंने चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- “हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं. अतः आप मेरे मार्ग से आप हट जायें.”

चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा, “आप जो भी हैं, आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हैं.” और यह कहकर शंकराचार्य ने उस चाण्डाल को प्रणाम किया.

एक बार आदि शंकराचार्य ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिए एक बहुत सँकरी गली से मणिकर्णिका घाट जा रहे थे. रास्ते में एक स्त्री अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप कर रही थी. शंकराचार्य के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उन्हें अनसुना कर विलाप करती रही. तब स्वयं शंकराचार्य ने उस स्त्री से वह शव हटाने का अनुरोध किया.

शंकराचार्य का आग्रह सुनकर उस स्त्री ने कहा- “हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं. आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कह देते?”

यह सुनकर आचार्य बोले- “हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है.”

स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- “किन्तु महात्मन्! आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है. फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?”

उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आदि शंकराचार्य वहीं बैठ गए. उन्हें समाधि लग गई. उन्होंने अपने अंतर्मन से सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया को देखा. उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी. महिषासुरमर्दिनि स्तोत्र के रचियता आदि शंकराचार्य ही बताए जाते हैं.

जगत् के स्वरूप को बताते हुए उन्होंने कहा है कि –

नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:.

अर्थात् नाम और रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं. जिस जगत् की सृष्टि की कल्पना मन से भी नहीं की जा सकती है, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय जिससे होता है, उसे ब्रह्म कहते हैं.

आदि शंकराचार्य ने ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे महानतम ग्रंथों की रचना की. प्रस्थान त्रयी के भाष्य भी लिखे. ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकर भाष्य की रचना भी उन्होंने की है. अद्वैतवाद के समर्थक आदि शंकराचार्य की भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं. अपने अकाट्य तर्कों से शैव-वैष्णव-शाक्त का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया.

मंदिरों की स्थापना और जीर्णोद्धार

आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनर्स्थापना की. कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया, जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ मंदिर आदि. काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हो चुका है.

नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया माना जाता है. शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के बीच स्थित मां शाकंभरी देवी शक्तिपीठ में जाकर इन्होंने पूजा-अर्चना की और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियों भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं को स्थापित किया. कामाक्षी देवी मंदिर भी इन्हीं के द्वारा स्थापित है जिससे उस युग में धर्म का बढ़-चढ़कर प्रसार हुआ.

शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया. शंकराचार्य ने ही हर क्षेत्र के हिन्दुओं को संगठित करने के लिए दसनामी सम्प्रदाय (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, पर्वत, अरण्य, सागर, तीर्थ, आश्रम और भारती उपनाम वाले गुसांई, गोसाई, गोस्वामी) की स्थापना की थी. दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र.

आदि शंकराचार्य ने संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना कर पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया. भारत के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना कर उन्होंने इस भ्रम को तोड़ा था कि भारत एक राष्ट्र या एक इकाई नहीं था. अपना प्रयोजन पूरा होने बाद 33 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया.



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