PM मोदी ने केदारनाथ में किया आदि शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण, जानिए कुछ महत्वपूर्ण बातें

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पीएम मोदी ने केदारनाथ में आदि शंकराचार्य की 12 फीट की प्रतिमा का लोकार्पण किया. (फोटो क्रेडिट- ट्विटर)

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने उत्तराखंड के केदारनाथ (Kedarnath, Uttarakhand) में आदि गुरु शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) की 12 फीट और 35 टन की प्रतिमा का अनावरण किया. यह प्रतिमा कर्नाटक के मैसूर में एक ही पत्थर (ब्लैक स्टोन) को काटकर बनाई गई है. अनावरण के बाद पीएम मोदी ने उस प्रतिमा के सामने बैठकर आदि शंकराचार्य की आराधना की और उनका रुद्राभिषेक भी किया.

इस दौरान पीएम मोदी ने कहा कि ‘आदि गुरु शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण करना और उनके सामने बैठकर उनकी आराधना करना एक दिव्य अनुभूति है’. पीएम मोदी ने आदि शंकराचार्य की मूर्ति, उनकी समाधि स्थल का लोकार्पण समेत 400 करोड़ रुपये के अन्य पुनर्निर्माण कार्यों का उद्घाटन और शिलान्यास किया. उन्होंने केदारनाथ धाम की परिक्रमा कर विश्व कल्याण की कामना की. केदारनाथ उत्तराखंड के चार धामों और 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है.

आदि शंकराचार्य के बारे में-

आदि शंकराचार्य महान दार्शनिक, धर्म प्रवर्तक और उच्च कोटि के विद्वान थे. उन्होंने हिंदू धर्म (Hinduism) को पुनर्जीवित करने और सनातन धर्म (Sanatan Dharma) की फिर से स्थापना और उसके प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

बेहद जरूरी था आदि शंकराचार्य जी का प्रादुर्भाव- कहा जाता है कि लगभग 2000 साल पहले कुछ बुद्धिजीवियों ने वेदों का गलत अर्थ निकालकर यह फैलाने का प्रयास किया कि वेदों में मांसाहार और बलि प्रथा का समर्थन किया गया है. तब बुद्ध का जन्म हुआ. उन्होंने इन गलत अर्थों का खंडन किया और लोगों को सही दिशा दिखाई. लेकिन धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के कुछ अनुयायियों ने बुद्ध की शिक्षाओं का भी गलत अर्थ निकालना शुरू कर दिया और नास्तिकता का प्रचार करने लगे.

एक समय भारत की अवस्था यह हो गई थी कि 10 करोड़ नास्तिकों के बीच केवल 5 लाख हिंदू ही बचे थे. ऐसी भयंकर स्थिति में आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था. बीच-बीच में आदि शंकराचार्य जी जैसे अवतारों की वजह से ही यह संसार अब तक टिका हुआ है.

जन्म- 11 मई 788 ईसवी
जन्म स्थान- केरल के पूर्णा नदी के तट पर स्थित कलादि नाम के स्थान पर
बचपन का नाम- शंकर
पिता का नाम- शिवगुरु
माता का नाम- आर्यम्बा या सुभद्रा या कामाक्षी देवी
समाधि- 32 साल की आयु में केदारनाथ में.

अद्वैत वेदांत के प्रणेता, चारों वेदपीठों के संस्थापक, ब्रह्मज्ञानी आदिगुरु शंकराचार्य जी का जन्म भगवान शिव की कृपा से हुआ था, इसलिए इनके पिता ने इनका नाम शंकर रख दिया था. पिता के देहांत के बाद मात्र 8 वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य अपनी माता से संन्यास की आज्ञा लेने के बाद नर्मदा नदी के तट पर तपस्या में लीन सन्यासी गोविंदनाथ के पास शिक्षा लेने के लिए पहुंचे. उन्होंने ही इनका नाम शंकराचार्य रखा था. इनकी अनुमति लेकर शंकराचार्य सत्य की खोज में निकले. तब गुरु ने उन्हें सबसे पहले काशी जाने की सलाह दी. काशी में इनकी मुलाकात गंगास्नान करते हुए एक चाण्डाल से हुई. उन्हीं की बातों से इन्हें सत्य का ज्ञान हुआ, इसलिए शंकराचार्य ने उन्हें अपना गुरु मान लिया.

भारत के सबसे सुंदर राज्यों में से एक केरल (मालाबार) में एक छोटे से गांव कालडी में, जहां हमेशा से संस्कृत का प्रचार-प्रसार रहा है, ब्राह्मणों की आबादी ज्यादा थी. इसी गांव में एक विद्वान ब्राह्मण विद्याधर रहा करते थे, जो भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे. विद्याधर के पुत्र का नाम शिवगुरु था, जो आदि शंकराचार्य के पिता थे.

शिवगुरु विवाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन उनके गुरु ने कहा कि-
“अगर तुम विवाह नहीं करोगे तो धर्म की स्थापना करने वाले उस अवतारी पुरुष का जन्म कैसे होगा, जो इस संसार को संकट से बाहर निकालने में मदद करेगा. इसलिए पहले गृहस्थ धर्म का पालन करो और सही समय आने पर संन्यास ले लेना.”

गुरु की आज्ञा से शिवगुरु का विवाह हुआ. लेकिन दंपति को बहुत सालों तक संतान नहीं हुई, तब दोनों पति-पत्नी ने कठोर तपस्या करके भगवान शिव को मनाने का प्रयास किया. भगवान शिव ने दोनों की तपस्या से संतुष्ट होकर शिवगुरु के सपने में आकर कहा कि-

“तुम्हें दो प्रकार के पुत्र मिल सकते हैं. एक पुत्र परम ज्ञानी, महान विद्वान और साधु स्वभाव का होगा, लेकिन उसकी आयु बहुत कम होगी… और दूसरा पुत्र मूर्ख होगा लेकिन उसकी आयु लंबी होगी.” यह सुनकर शिवगुरु ने भगवान शिव से कहा, “मूर्ख और अज्ञानी पुत्र तो यम के समान होता है, इससे तो पुत्रहीन होना ही अच्छा है. इसलिए आप कृपया मुझे विद्वान, महान और परम ज्ञानी पुत्र देने की कृपा करें.”

स्वप्न सच हुआ और शिवगुरु के घर आदि शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ. आदि शंकराचार्य मात्र 8 वर्ष की आयु से ही कठिन से कठिन दर्शनशास्त्रों को समझकर बड़े-बड़े पंडितों को समझाने लगे थे. उनकी विद्वता, ज्ञान और महानता देखकर हर कोई हैरान रह जाता था. उनका यश चारों तरफ फैलने लगा.

आदि शंकराचार्य बचपन से ही वैरागी और संन्यास की तरह जीवन जी रहे थे. उन्हें गृहस्थ आश्रम के बहुत से लाभ बताए गए… लेकिन कोई भी लालच या लाभ आदि शंकराचार्य को प्रभावित न कर सका. उनकी रुचि केवल संन्यास और सनातन धर्म में थी.

8 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने मन से पूछा कि “मैं कौन हूं” और यही सोच-सोचकर वह एक स्थान पर योगी की तरह कई दिनों तक बैठे रहे. उसी दौरान उन्होंने ‘आत्मबोध’ नाम के अमूल्य ग्रंथ की रचना भी कर डाली, जिसके माध्यम से आज न जाने कितने ही ज्ञानियों ने अपने-अपने ग्रंथ लिखे हैं.

महत्वपूर्ण कार्य-

शंकराचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण कर कई नए मंदिरों का निर्माण कराया तो कई पुराने मंदिरों की मरम्मत भी करवाई. सनातन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने द्वारिका, पुरी, बद्रीनाथ और श्रृंगेरी में, यानी भारत के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की थी. भारत के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना कर उन्होंने इस भ्रम को तोड़ा था कि भारत एक राष्ट्र या एक इकाई नहीं था.
(1) बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ (उत्तर)
(2) द्वारिका में शारदामठ (पश्चिम)
(3) दक्षिण में श्रृंगेरीमठ
(4) जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ (पूर्व)

प्रमुख सिद्धांत और रचनाएं-

आदि शंकराचार्य उच्च कोटि और उत्तम चरित्र के सन्यासी थे. मात्र छह साल की आयु में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ साल की आयु में इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था. इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की. इनका अंतिम उपदेश था कि- “हे मनुष्य! तुम पहले स्वयं को पहचानो, स्वयं को पहचानने के बाद तुम भगवान को भी पहचान जाओगे”.

आदि शंकराचार्य ने अद्वैतवाद के सिद्धांत (Doctrine of Monism) को प्रतिपादित किया और संस्कृत में वैदिक सिद्धांत (भगवत गीता, उपनिषद और ब्रह्म सूत्र) पर कई टिप्पणियां लिखीं. इनकी प्रमुख रचनाओं में ब्रह्मसूत्र, भाष्यगोविंदा स्रोत, निर्वाण षट्कम और प्राकरण ग्रंथ शामिल हैं.

महालक्ष्मी जी के प्रतीक और यंत्रराज ‘श्रीयंत्र’ (Shri Yantra) की सिद्धि आदि शंकराचार्य ने ही की थी, जिसके सही प्रयोग से हर तरह की दरिद्रता दूर की जा सकती है, साथ ही हर तरह की सम्पन्नता और उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है.

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