जब श्रीराम के सामने महर्षि जाबालि ने रखा नास्तिकता का तर्क, तब श्रीराम ने दिया यह उत्तर

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भगवान श्रीराम

यह वो समय था, जब श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनकर अत्यंत दुखी और उदास हो गए थे. भरत जी का वन में आने का एकमात्र लक्ष्य था कि वे किसी प्रकार से श्रीराम को मनाकर अपने साथ अयोध्या वापस ले चलें और अयोध्या के राजा श्रीराम ही बनें. कोई यह नहीं चाहता था कि श्रीराम वन के कष्टों को सहें. वहीं, श्रीराम अपने माता-पिता के वचन और आज्ञा के विरुद्ध नहीं जाना चाहते थे.

राज्य के पीछे दो भाईयों का ऐसा अनोखा युद्ध संसार पहली (और शायद आखिरी) बार देख रहा था. श्रीराम और भरत का प्रेम देखकर बड़े से बड़े ज्ञानी भी भावनाओं में बह गए. एक तरफ धर्म था और दूसरी तरफ प्रेम. किसका पलड़ा भारी है, यह तय कर पाना किसी के भी वश में नहीं था. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि किसका पक्ष लिया जाए और किसे-क्या समझाया जाए.

इस बीच, महर्षि जाबालि भगवान श्रीराम के सामने नास्तिकता का तर्क रख देते हैं, जिस पर श्रीराम तर्क के साथ ही उत्तर देते हैं. जाबालि भी एक महर्षि थे और वे भी श्रीराम से प्रेम करते थे. वे भी श्रीराम को अयोध्या वापस ले जाना चाहते थे. लेकिन जीवन दर्शन के प्रति जाबालि का दृष्टिकोण दूसरों से अलग था. उसी दृष्टिकोण के आधार पर उन्होंने श्रीराम के समक्ष अपने तर्क रखे, लेकिन श्रीराम के तर्कों के आगे कुछ न बोल सके.

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भारतीय दर्शन इतना विस्तृत और गूढ़ है कि जीवन के सभी तत्व उसमें समाहित हो जाते हैं. श्रीराम और महर्षि जाबालि का यह संवाद इस बात को दर्शाता है कि भारतीय दर्शन में अध्यात्म और भौतिकवाद एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह आगे बढ़े हैं. आइये जानते हैं रामायण के इस रोचक प्रसंग के बारे में-

महर्षि जाबालि के तर्क- जब श्रीराम अपने छोटे भाई भरत को समझा-बुझा रहे थे, तब ब्राह्मणशिरोमणि जाबालि धर्मविरुद्ध वचन बोलते हुए श्रीराम से कहते हैं-

“हे श्रीराम! आप तो श्रेष्ठ बुद्धि वाले और तपस्वी हैं, इसलिए आपको गंवार मनुष्य की तरह ऐसा निरर्थक विचार मन में नहीं लाना चाहिए. संसार में कौन किसका भाई है और किसे क्या पाना है? जीव अकेला ही जन्म लेता और मर जाता है. हे रघुनंदन! जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल के समान समझना चाहिए, क्योंकि यहां कोई किसी का कुछ भी नहीं.”

“जैसे कोई मनुष्य दूसरे गांव को जाते समय बाहर किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है और दूसरे दिन उस स्थान को छोड़कर आगे के लिए चल देता है, उसी प्रकार माता-पिता, घर और धन भी मनुष्यों के आवास मात्र हैं. ज्ञानी पुरुष इनमें आसक्त नहीं होते. इसलिए हे श्रीराम! आपको पिता का राज्य छोड़कर इस दुखमय, ऊंचे-नीचे और कष्टप्रद मार्ग पर नहीं चलना चाहिए. आप समृद्धिशाली अयोध्या में राजा के पद पर अपना अभिषेक कराइए और आनंद भोगिये. वह नगरी आपकी ही प्रतीक्षा कर रही है.”

“जैसे देवराज इंद्र स्वर्ग में आनंद उठाते हैं, उसी प्रकार आपको भी बहुमूल्य राजभोगों का आनंद उठाना चाहिए. राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं. पिता जीव के जन्म में निमित्त मात्र होता है. वास्तव में ऋतुमती माता के द्वारा गर्भ धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही यहां (संसार में) पुरुष का जन्म होता है. राजा दशरथ को जहां जाना था, वे चले गए. यह प्राणियों की स्वाभाविक स्थिति है. आप तो उनके लिए व्यर्थ ही कष्ट उठा रहे हैं. इसलिए मैं जो कहता हूं वही कीजिए.”

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“रीति-रिवाजों के अनुसार, ‘श्राद्ध के देवता पितर हैं और श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है’, यही सोचकर लोग श्राद्ध आदि करते हैं. लेकिन हे श्रीराम! विचार करके देखिए कि भला मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा? यदि दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में चला जाता हो, तो परदेस (विदेश) में जाने वालों के लिए भी श्राद्ध ही कर देना चाहिए. फिर उन्हें रास्ते के लिए भोजन क्यों देना?”

“बुद्धिमान मनुष्य ने दान की तरफ लोगों की प्रवृत्ति करने के लिए ही यज्ञ, पूजन, दान, तपस्या आदि की बातें ग्रंथों में लिख दी हैं. इसलिए हे श्रीराम! आप मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवाय और कोई दूसरा लोक नहीं है. इसलिए जो प्रत्यक्ष लाभ है, उसका आनंद उठाइए और परोक्ष (पारलौकिक) लाभ को पीछे धकेल दीजिए. भरत का अनुरोध स्वीकार कर अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए.”

भगवान श्रीराम का उत्तर- महर्षि जाबालि के ऐसे वचन सुनकर श्रीराम ने बिना किसी संशय के विनम्रतापूर्वक उत्तर देते हुए जाबालि से कहा-

“हे विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से जो बातें कही हैं, वे ऊपर से भले ही कर्तव्य सी दिखाई देती हों, लेकिन वे करने योग्य नहीं हैं. ऐसी बातें पथ्य सी (उपयोगी) दिखाई तो देती हैं, लेकिन अपथ्य ही हैं. आपका उपदेश चोला तो धर्म का पहने हुए है, लेकिन वास्तव में यह अधर्म है. आपने जो आचार मुझे बताए हैं, उनका पालन करने वाला मनुष्य ऊपर से ज्ञानी दिखाई दे सकता है, लेकिन वास्तव में होता नहीं.”

“हे महर्षि! आपके कहे अनुसार, यदि इस संसार में मैं किसी का नहीं हूँ, अपने माता-पिता तक का नहीं हूँ और कोई मेरा नहीं है, तो मेरे लिए आपके उपदेश किसके हैं, जिनका मुझे अनुसरण करना चाहिए? (अर्थात- जब मेरा कोई नहीं और मैं किसी का नहीं, तो उस हिसाब से आप भी मेरे क्या लगते हैं, जिनके उपदेश मैं सुनूं और उनका पालन करूँ? आप किस अधिकार से मुझे उपदेश दे रहे हैं?)”

“मैं पिताजी के सामने इस तरह वन में रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ, उन्हें उनके वचन की रक्षा का आश्वासन दे चुका हूँ, और अब मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके फिर से महल में लौट जाऊं? मैं सत्य की शपथ खाकर पिता के सत्य वचन का पालन स्वीकार कर चुका हूँ. पहले सत्यपालन की प्रतिज्ञा करके अब लोभ, मोह और अज्ञान से विवेशकशून्य होकर पिता के सत्य की मर्यादा को भंग कर दूँ?”

“हे महर्षि! आपके बताए मार्ग पर चलने से तो मैं सबसे पहले स्वेच्छाचारी हो जाऊंगा, और फिर धीरे-धीरे यह सारा संसार ही स्वेच्छाचारी हो जाएगा, क्योंकि राजाओं के जैसे आचरण होते हैं, प्रजा भी वैसा ही आचरण करने लगती है.

“आपने अपने तर्कों को उचित सिद्ध करके मुझसे यह जो कहा है कि ‘राज्य स्वीकार करने में ही मेरा कल्याण है’, आपका यह आदेश ऊपर से तो अच्छा और लाभप्रद सा दिखाई देता है, लेकिन यह आचरण में लाए जाने योग्य नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से सत्य और न्याय का उल्लंघन होगा.”

“यदि मैं आपके उपदेशों को स्वीकार करके कर्तव्यों को निभाना छोड़कर विधिहीन कर्मों में लग जाऊं, तो फिर आगे कौन समझदार मनुष्य मुझे आदर देगा और कौन मेरी किसी बात या वचन पर विश्वास करेगा? ऐसा करके तो मैं दुराचारी और लोक को कलंकित करने वाला बन जाऊंगा. (यदि श्रीराम जैसा शक्तिशाली पुरुष अपने ही सुख के बारे में सोचने लगे और स्वेछाचारी हो जाए, तो संसार की क्या दशा होगी?)”

“जो मनुष्य वेद और धर्म की मर्यादा को त्याग देता है, वह पापकर्म में लग जाता है. उसके आचार (आचरण) और विचार दोनों ही भ्रष्ट हो जाते हैं. और ऐसा मनुष्य अच्छे लोगों के बीच कभी सम्मान नहीं पा सकता. किसी भी मनुष्य का आचरण ही तो बताता है कि किसने उत्तम कुल में जन्म लिया है और किसने नीच (बुरे) कुल में, कौन वीर है और कौन व्यर्थ में ही अपने आपको पुरुष मानता है, कौन पवित्र है और कौन अपवित्र.”

“मनुष्य अपने शरीर से जो भी पाप करता है, उसे पहले अपने मन के द्वारा कर्तव्य रूप से निश्चित करता है, फिर जिह्वा की सहायता से उस पापकर्म को वाणी द्वारा दूसरों से कहता है, और तब औरों के सहयोग से उसे शरीर द्वारा संपन्न करता है. इस प्रकार एक पातक, कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार का होता है.”

“जगत में सत्य ही ईश्वर है. सत्य का पालन ही राजाओं का प्रधान धर्म है. सत्य में ही सभी लोक प्रतिष्ठित हैं. दान, तपस्या, यज्ञ, पूजा, श्राद्ध, वेद- इन सबका आधार सत्य ही है. पृथ्वी, कीर्ति, यश और लक्ष्मी- ये सब भी सत्यवादी पुरुष को ही पाने की इच्छा रखती हैं, और शिष्ट पुरुष सत्य का ही पालन करते हैं. अतः सभी को सत्यपरायण ही होना चाहिए. सत्य का पालन करने वाले मनुष्य पर सब लोग विश्वास करते हैं. वहीं, अपने सुख के लिए झूठ बोलने वाले मनुष्य से लोग उसी प्रकार डरते हैं, जैसे सांप से.”

“अतः क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसका निश्चय मैं कर चुका हूँ. गुरु के सामने की हुई मेरी प्रतिज्ञा अटल है. वह किसी तरह नहीं तोड़ी जा सकती. और जब मैंने यह प्रतिज्ञा की थी, तब मेरी माता देवी कैकेयी का हृदय भी हर्ष से खिल उठा था. अतः मैं वन में ही रहकर, बाहर और भीतर से पवित्र होकर, पवित्र फल-मूल आदि का सेवन करूंगा, पुष्पों से देवताओं और पितरों को तृप्त करते हुए वचन का पालन करूँगा.”


यहां श्रीराम ने स्पष्ट किया है कि सुख ही सर्वोपरि नहीं है, कर्त्तव्य भी आवश्यक हैं. हमारे कार्यों से समाज को सकारात्मक दिशा भी तो प्राप्त होनी चाहिए. अन्यथा भौतिकता कब अराजकता में बदल जाए, कहा नहीं जा सकता. कितनी स्पष्टता से श्रीराम कहते हैं कि अदृश्य का भी अस्तित्व होता है और इसके लिए वे सत्य और धर्म को पर्याय की तरह अपने तर्क में सामने रखते हैं. श्रीराम स्पष्ट करते हैं कि व्यवहार में तो भौतिकता सही लगती है, वैज्ञानिक और प्रगतिशील प्रतीत होती है, लेकिन अनेक बार आचरण में लाए जाने योग्य नहीं होती.

चूंकि श्रीराम अवतार में उन्होंने सभी आचरण साधारण मनुष्यों की तरह ही किये, इसलिए उन्होंने नास्तिकता का खंडन भी मनुष्य की तरह, तर्क के साथ उत्तर देकर ही किया. क्योंकि श्रीराम अवतार में वे किसी को नहीं बताना चाहते थे कि वे ही भगवान हैं.

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श्रीराम ने यहां तक अपनी पूरी बात बहुत विनम्रता के साथ रखी. वे महर्षि जाबालि के तर्कों या विचारों से नाराज नहीं थे. लेकिन महर्षि जाबालि ने राजा दशरथ के प्रति जो वचन कहे थे, उससे श्रीराम क्रोध में भी थे. श्रीराम ऐसे विचार रखने वाले लोगों को दंडनीय बताते हैं और कहते हैं कि “जो धर्म का पालन करते हैं (अर्थात अपने स्वार्थ के लिए अधर्म का सहारा नहीं लेते), सत्पुरुषों का साथ देते हैं, तेज से संपन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी निर्दोष प्राणी की हिंसा नहीं करते, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय हैं.”

श्रीराम के तर्क सुनकर महर्षि जाबालि विनयपूर्वक कहते हैं, “हे रघुनन्दन! मैं नास्तिक नहीं हूँ. परलोक आदि कुछ नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है. मैं अवसर देखकर आस्तिक और नास्तिक हो जाता हूँ. इस समय अवसर ही ऐसा था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों सी बातें कह डालीं. मेरा उद्देश्य केवल यही था कि मैं किसी प्रकार आपको अयोध्या वापस चलने के लिए तैयार कर लूँ.”

महर्षि जाबालि के इन वचनों से स्पष्ट होता है कि यहां वैचारिक मतभेदों के बाद भी मनभेद की रस्साकशी नहीं थी.


श्रीराम ने ऐसे लोगों को दंडनीय क्यों बताया है?

यह तो हुई श्रीराम और महर्षि जाबालि के बीच के संवाद की बात. अब देखना यह है कि श्रीराम ने ऐसे लोगों को चोरों की तरह दंडनीय क्यों कहा. इसके लिए यह उदाहरण समझिये-

ब्रह्मांड में कुछ भी स्थिर या निरंतर नहीं है. हर एक पिंड किसी न किसी आकर्षण शक्ति के द्वारा एक-दूसरे से बंधा हुआ है. यदि एक भी पिंड अपनी इच्छा से अपनी चाल बदल दे, तो इसका असर धीरे-धीरे अंतरिक्ष के सभी पिंडों की गति और अवस्था पर पड़ेगा, पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा. इसी प्रकार, शरीर के किसी भी अंग में चोट लगने पर बाकी सारे अंग किसी न किसी तरीके से प्रभावित जरूर होते हैं. अतः उस चोट का तुरंत इलाज बहुत जरूरी हो जाता है.

यदि हर व्यक्ति यही सोचे कि “मुझे तो संसार में केवल सुख से जीना है. धर्म या कर्तव्यों या जिम्मेदारियों का पालन करने के चक्कर में मैं अपने सुख को क्यों दांव पर लगाऊं”, तो क्या संसार में कोई भी सुखी रह पाएगा?

क्या सीमा पर तपती धूप और गलाने वाली ठण्ड में खड़े सैनिकों या किसी भी समय रक्षा के लिए तैनात हो जाने वाले सिपाहियों को सुख-आनंद का जीवन अच्छा नहीं लगता? यदि ये फरिश्ते भी केवल अपने सुख के बारे में ही सोचने लगें, अपने धर्म (कर्तव्यों या जिम्मेदारियों) का पालन न करें, तब क्या सुखवाद का समर्थन करने वाले नास्तिक लोग भी सुखी और सुरक्षित रह पाएंगे? एक राजा, या पुलिस, या कोई भी सरकारी कर्मचारी अपने सुख या अपने परिवार के ही सुख के बारे में सोचने लगे तो क्या प्रजा सुखी रह पाएगी?

सुखवाद का समर्थन करने वाले हों, या अपने ही स्वार्थ के लिए जीने वाले लोग, जीवनभर कर्तव्य निभाने वालों पर ही निर्भर हैं. नास्तिक जीवनभर उन्हीं लोगों पर निर्भर हैं, जिन्होंने अपने अंदर ईश्वरत्व को देख लिया है.

आज किसी भी प्रकार का प्रदूषण, जीव-हत्या, हिंसा, अपराध, असमानता, गरीबी, भ्रष्टाचार आदि के बढ़ने की वजह तो यही है कि कुछ लोगों ने केवल अपने सुख के बारे में ही सोचा है. आज परिवारों में रिश्तों की मर्यादा भंग होने की वजह यही है कि कुछ लोग दूसरों के तो अनगिनत कर्तव्य गिनाते रहते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों के बारे में बात भी नहीं करना चाहते. केवल अपने सुख के बारे में सोचना चाहते हैं.

यदि एक व्यक्ति मनमानी करता है, तो उसकी देखादेखी दूसरा, फिर तीसरा व्यक्ति भी मनमानी करने का ही तर्क देने लगता है. और इस प्रकार एक अच्छे-भले समाज की पूरी व्यवस्था ही बिगड़ जाती है.

निश्चित सी बात है कि यदि किसी कक्षा में किसी विद्यार्थी की मनमानी करने या अपनी ही बातों से मुकड़ जाने पर उसे दण्डित नहीं किया जाता है, तो कुछ समय बाद पूरी कक्षा को संभालना कठिन हो जाएगा. अतः गलत कार्यों पर उसी समय उचित एक्शन लेना जरूरी हो जाता है.

और बस इसीलिए रामायण में इन्हें दंडनीय बताया गया है. और यदि दण्ड न दिया जा सके, तो ऐसी नास्तिक बुद्धि वाले लोगों से बात ही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ये खुद तो भटके हुए होते ही हैं, दूसरों को भी भटकाते रहते हैं. इनके साथ रहने वालों को एक न एक दिन पछताना ही पड़ता है, क्योंकि ये किसी भी सामाजिक या मानवीय नियमों का पालन नहीं करते. ये लोग अपने विचार रखने से पहले यह नहीं सोचते कि आगे जाकर समाज पर ऐसे विचारों का क्या प्रभाव पड़ेगा. ये हर समय केवल अपने अधिकारों की ही बात करते हैं, अपने कर्तव्यों से इन्हें कोई लेना-देना नहीं होता. और इन सबमें सबसे ज्यादा काम आता है “विक्टिम कार्ड”.

इसी संबंध में यह प्रसंग भी देखिये-

जब भरत जी माता कौशल्या जी से कहते हैं कि “माता! राम भैया आपकी कोई बात नहीं टाल नहीं सकते. यदि आप उन्हें अपनी शपथ देकर आज्ञा दे दें कि वे वनवास को छोड़कर फिर से अयोध्या वापस आ जाएं, तो आपके कहने पर उन्हें वापस अयोध्या आना ही पड़ेगा और ये राज्य भी स्वीकार करना ही पड़ेगा.”

इस पर माता कौशल्या कहती हैं कि “हाँ पुत्र भरत! मैं जानती हूँ कि मेरे कहने पर राम अयोध्या वापस आ जाएंगे. लेकिन मैं ऐसा कह नहीं सकतीं…” भरत पूछते हैं “लेकिन क्यों?”

तब माता कौशल्या कहती हैं, “क्योंकि जो मां सच में अपनी संतान का भला चाहती है, वो मां अपनी संतान को गलत मार्ग पर चलने के लिए कभी नहीं कह सकती. इस समय राम का कर्तव्य और धर्म तो यही है कि वे अपने पिता के वचन की रक्षा करें. राम को 14 वर्षों के लिए वन में ही रहना चाहिए, इसलिए मैं उसे वापस अयोध्या लौटने के लिए कहकर उसे अधर्म के मार्ग पर चलने के लिए नहीं कह सकतीं”.

रामायण में ‘बुद्ध’?

 श्रीराम और महर्षि जाबालि के बीच के संवाद के एक श्लोक में ‘बुद्ध’ शब्द आया है. अब इसे लेकर कुछ लोग यह दुष्प्रचार करते हैं कि “रामायण में बुद्ध का वर्णन किया गया है, अतः रामायण गौतम बुद्ध के बाद लिखी गई.”

तो पहली बात कि रामायण में किसी बुद्ध का वर्णन नहीं किया गया है, केवल श्लोक में ‘बुद्ध’ शब्द आया है (‘वर्णन’ शब्द का अर्थ तो समझते हैं न आप?). अब ‘बुद्ध’ शब्द देखते ही उसका अर्थ सीधा गौतम बुद्ध से लगा देने वालों के लिए क्या ही कहा जाए.

खैर, यहां ‘बुद्ध’ शब्द का अर्थ गौतम बुद्ध जी से नहीं, ‘बुद्धि’ से है.

जैसे अरण्यकाण्ड का यह श्लोक देखिये-

तत्त्वतो हि नरश्रेष्ठ बुद्धया समनुचिन्तय।
बुद्धया युक्ता महाप्राज्ञा विजानन्ति शुभाशुभे।।

“आप बुद्धि के द्वारा तात्त्विक विचार कीजिये कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं. क्या उचित है और क्या अनुचित, इसका निश्चय कीजिये क्योंकि बुद्धि से युक्त महाज्ञानी पुरुष ही शुभ और अशुभ (उचित और अनुचित) को अच्छी तरह जानते हैं.”

अनुवाद में ‘बौद्धमतावलम्बियों’ शब्द क्यों?

दरअसल, वाल्मीकि जी तो अपने श्लोकों के अर्थ या अनुवाद लिखकर गए नहीं. ये हिंदी अनुवाद आधुनिक काल में लिखे गए हैं. पुस्तक प्रकाशकों ने केवल लोगों को समझाने के लिए इस प्रसंग के एक हिंदी अनुवाद के कोष्ठक में “बौद्धमतावलम्बियों” शब्द भी लिख दिया है, क्योंकि यहां महर्षि जाबालि जो कुछ भी कह रहे हैं, वह काफी कुछ आज के बौद्धमतावलम्बियों से मेल खाता है (गौतम बुद्ध से मेल नहीं खाता, क्योंकि किसी भी बौद्ध साहित्य से यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि गौतम बुद्ध नास्तिक थे).

केवल शब्दों के आधार पर किसी भी प्राचीन ग्रन्थ के श्लोकों आदि की व्याख्या न करें. जैसे-

“रावण जुद्ध अजान कियो”

तो अब इसका अर्थ यह नहीं कि रावण भी अजान करता था.

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