Ramayan : जब लक्ष्मण जी को आया भरत जी पर क्रोध, तब श्रीराम ने कही यह बात

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भगवान श्रीराम

Ram Lakshman (Ramayan Ayodhya Kand)

रामायण केवल राजाओं की नहीं, भाईयों की भी कहानी है, रिश्तों की कहानी है. भगवान श्रीकृष्ण से सीखा जा सकता है कि संसार के साथ कैसे व्यवहार करना है, तो श्रीराम से सीखा जा सकता है कि परिवार के साथ कैसे व्यवहार करना है. यह भी सत्य है कि विश्व की सबसे प्राचीन इस आर्य सभ्यता ने परिवार के साथ व्यवहार करना श्रीराम से ही सीखा है.

श्रीराम वे हैं, जिन्होंने अपने पिता के वचन की रक्षा के लिए अयोध्या का सारा वैभव छोड़ दिया था, और रावण वह था जिसके पापों से दुखी होकर उसके पिता ने ही लंका छोड़ दी थी. राम-रावण का युद्ध सत्ता का युद्ध नहीं बल्कि सभ्यता का युद्ध था. वह युद्ध था धर्म और अधर्म का. सत्ता के युद्ध में राजनीति निभाई जाती है, पर सभ्यता के युद्ध में केवल धर्म निभाया जाता है.

एक तरफ रावण था जिसने अपने भाई विभीषण को मात्र इस आधार पर सबके सामने अपमानित करके बेदखल कर दिया था, क्योंकि विभीषण ने रावण को सद्शिक्षा दी थी. एक पराई स्त्री पर अत्याचार न करने और उसके लिए पूरे राज्य को संकट में न डालने की सलाह दे दी थी. पराई स्त्री को हासिल करने के लिए रावण ने अपने भाई कुंभकर्ण को युद्ध भूमि में मरने के लिए भेज दिया.

दूसरी तरफ बालि है जिसने न केवल सगे भाई सुग्रीव को राज्य से निकाला, बल्कि हर तरह से उसकी हत्या करने का प्रयास भी किया. उसकी पत्नी रूमा के साथ भी अनुचित कार्य किया. रावण और बालि- दोनों ही ने ‘भ्राता धर्म’ का पालन नहीं किया, दोनों ही ने भाईयों के ऊपर सम्पत्ति और स्वार्थ को प्राथमिकता दी.

लेकिन तीसरी तरफ श्रीराम हैं जिन्होंने अपनी सौतेली माता की इच्छा और पिता के वचन पालन के लिए सम्पत्ति और राज्य पर से अधिकार छोड़ दिया. न सिर्फ वन जाना स्वीकार किया बल्कि छोटे भाई भरत को सत्ता सौंप दी. भरत जी ने भी 14 वर्षों तक वनवासी की तरह रहकर सिंहासन पर श्रीराम की चरण पादुकायें रखकर राज्य संभाला, और वनवास से लौटे अपने बड़े भाई के लिए तुरंत सिंहासन छोड़ दिया.

रावण के पास एक भाई था जो सोता ही रहता था. श्रीराम के पास एक भाई था जो सोता ही नहीं था. लक्ष्मण जी चाहते तो राज्य में ही रुककर सुख-सुविधाएं भोग सकते थे, राज्य को पाने के प्रयास भी कर सकते थे, पर उन्होंने अपने बड़े भाई की सेवा के लिए वन जाना चुना. और न केवल वन गए बल्कि अपने बड़े भाई का साथ देने और अपनी भाभी-मां के लिए युद्ध भूमि में मौत के मुँह तक चले गए.

सम्पत्ति कभी भी भाई या रिश्तों से बढ़कर नहीं होनी चाहिए.

रामायण के इस प्रसङ्ग के माध्यम से अपने भाईयों के प्रति श्रीराम के विचारों को देखिये कि किस प्रकार श्रीराम अपने सभी भाईयों के बीच आपसी प्रेम और विश्वास को बनाये रखते हैं और किस प्रकार परिवार को जोड़े रखते हैं-

जब लक्ष्मण जी ने देखा कि भरत जी सेना सहित श्रीराम की ओर चले आ रहे हैं, तो उनका मन कई तरह की बुरी आशंकाओं से घिर गया. वे रोष से भर गए और श्रीराम से बोले-

“अवश्य ही भरत भैया अपने राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए हैं. वे अवश्य ही हम दोनों को मार डालना चाहते हैं. उन्होंने सोचा होगा कि आप (श्रीराम) वनवास में अकेले हैं, तो अनेक प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर आए हैं. यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार लेकर क्यों आ रहे होते? परन्तु भरत भैया को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत्‌ ही पागल हो जाता है. भैया! हम दोनों को धनुष लेकर पर्वत के शिखर पर चलना चाहिए, और कवच बांधकर अस्त्र-शस्त्र धारण कर यहीं डटे रहना चाहिए. अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया. आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा. इस महान वन में सेना सहित भरत का वध करके मैं धनुष-बाण के ऋण से उऋण हो जाऊंगा.”

और यह कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर श्रीराम से आज्ञा माँगी.

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि लक्ष्मण जी भरत जी के प्रति रोषावेश के कारण क्रोधवश अपना विवेक खो बैठे थे. उस अवस्था में श्रीराम ने उन्हें समझाकर शांत किया और उनसे इस प्रकार बोले-

“लक्ष्मण! महाबली भरत जब स्वयं यहां आ गए हैं, तब इस समय यहां धनुष अथवा ढाल-तलवार से क्या काम है? लक्ष्मण! पिता के सत्य की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा करके यदि मैं युद्ध में भरत को मारकर उनका राज्य छीन लूं, तो संसार में मेरी कितनी निंदा होगी, क्या तुम्हें वह स्वीकार होगा? और फिर ऐसे राज्य को लेकर मैं क्या करूंगा? अपने बंधु-बांधव, मित्रों आदि का विनाश करके जिस धन की प्राप्ति होती हो, वह तो विष मिले भोजन के समान सर्वथा त्याग देने योग्य है, मैं उसे कभी ग्रहण नहीं करूंगा.

“लक्ष्मण! मैं तुमसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि मैं धर्म, अर्थ और पृथ्वी का राज्य भी तुम लोगों के लिए ही चाहता हूं. सुमित्रानंदन! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिए ही राज्य की इच्छा रखता हूं और इस बात की सच्चाई के लिए मैं अपना धनुष छूकर शपथ खाता हूं. लक्ष्मण! समुद्र से घिरी हुई इस समस्त पृथ्वी पर अधिकार पाना मेरे लिए दुर्लभ नहीं है, लेकिन मैं अधर्म से इंद्र का पद पाने की भी इच्छा नहीं करता. लक्ष्मण! भरत को, तुमको और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई सुख मिलता हो, तो अग्निदेव उसे जलाकर भस्म कर डालें.”

“हे वीर! विश्वास करो, भरत बड़े भातृभक्त हैं. वे मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है. मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि भरत ने अयोध्या में आने पर जब यह सुना होगा कि मैं तुम्हारे और जानकी के साथ जटा-वल्कल धारण करके वन में आ गया हूं, तब उनकी इंद्रियां शोक से व्याकुल हो उठी होंगी. वे कुलधर्म का विचार करके स्नेहयुक्त हृदय से हम लोगों से मिलने आए हैं. भरत के आगमन का इसके सिवा दूसरा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता. लक्ष्मण! मुझे लगता है कि भरत अवश्य ही माता कैकई के प्रति क्रोधित हुए होंगे उन्हें कठोर वचन सुनाकर और पिताजी को प्रसन्न करके वे मुझे वापस ले जाने के लिए ही आए होंगे. हम लोगों का कोई अहित करने का विचार तो वे कभी मन में भी नहीं ला सकते.”

“तुम ही बताओ लक्ष्मण, भरत ने तुम्हारे प्रति पहले कब कौनसा अप्रिय बर्ताव किया है, जिससे आज तुम्हें उनसे ऐसा भय लग रहा है और तुम उनके विषय में इस प्रकार की आशंका कर रहे हो? अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है, ब्रह्मा-विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने वाला. लक्ष्मण! भरत के आने पर तुम उनसे कोई कठोर या अप्रिय वचन ना बोलना. यदि तुमने उनके प्रति कोई भी प्रतिकूल बात कही, तो वह मेरे ही प्रति कही हुई समझी जाएगी.”

“लक्ष्मण! कितनी ही बड़ी आपत्ति क्यों न आ जाए, लेकिन आखिर पुत्र अपने पिता को कैसे मार सकता है अथवा भाई अपने प्राणों के समान प्रिय भाई की हत्या कैसे कर सकता है? मुझे तुम्हारी वीरता पर कोई संदेह नहीं. तुम आवेश में आकर अवश्य ही भरत को मार सकते हो, परन्तु लक्ष्मण! जब तुम्हें यह पता चलेगा कि भरत पर तुम्हारा संदेह मिथ्या था, तब क्या तुम भरत को जीवित भी कर सकोगे? और यदि तुम राज्य के लिए ऐसी कठोर बातें कहते हो, तो मैं भरत से मिलने पर उन्हें कह दूंगा कि तुम यह राज्य लक्ष्मण को दे दो. देखना लक्ष्मण, मेरे ऐसा कहते ही भरत तुरंत ही “अच्छा” कहकर मेरी बात मान लेंगे.”

अपने धर्मपरायण भाई के ऐसा कहने पर सदा उन्हीं के हित में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण जी लज्जा के मारे मानो अपने ही अंगों में समा गए. श्रीराम का यह वचन सुनकर लक्ष्मण जी ने कहा, “हां भैया! शायद आप ठीक कह रहे हैं. हमारे पिता महाराज दशरथ स्वयं ही हमसे मिलने के लिए आए होंगे. लक्ष्मण जी को लज्जित हुआ देखकर श्रीराम ने कहा, “मैं भी ऐसा ही मानता हूं कि हमारे महाबाहो पिताजी ही हम लोगों से मिलने के लिए आए हैं या मुझे ऐसा भी लगता है कि पिताजी वनवास के कष्ट का विचार करके हम तीनों को निश्चय ही घर लौटा ले जाएंगे.”

और तब लक्ष्मण जी श्रीराम के पास हाथ जोड़कर खड़े हो गए. उधर भरत जी ने सेना को आज्ञा दी कि “यहां किसी को भी हम लोगों के द्वारा कोई बाधा या कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए”. उनका यह आदेश पाकर समस्त सैनिक पर्वत के चारों ओर नीचे ही ठहर गए. नीतिज्ञ भरत जी धर्म को सामने रखते हुए और गर्व को त्यागकर रघुकुलनंदन श्रीराम को प्रसन्न करने के लिए जिसे अपने साथ लाए थे, वह सेना चित्रकूट पर्वत के समीप बड़ी शोभा पा रही थी.

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