मांसाहार सही या गलत : क्या मांसाहार और पशुबलि आवश्यक है…?

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Non veg Right or Wrong

मांसाहार पसंद करने वाले लोग अपने समर्थन में ढेर सारे तर्क देते दिखाई देते हैं, जैसे-

माँसाहार का सम्बन्ध भौगोलिकता से है,
यह शरीर के लिए जरूरी है, इसमें प्रोटीन होता है,
माँसाहार का सम्बन्ध व्यक्ति की क्रयशक्ति से है,
आहार श्रृंखला का निर्माण जातिवाद के कारण होता है,
आज कुछ ब्राह्मण भी तो माँस खाते हैं,
स्वामी विवेकानंद भी तो मांस खाते थे… आदि.

और यदि इन सभी तर्कों से कोई बात न बने तो फिर ली जाती है सनातन धर्म की शरण, और फिर बड़े जोर-शोर से तर्क यह दिया जाता है कि ‘वेदों में या हिन्दू शास्त्रों में भी मांसाहार और पशुबलि का समर्थन किया गया है’, ‘ऋषि-मुनि भी मांस खाते थे’, ‘भगवान श्रीराम भी मांस खाते थे…’, और यह बात कहने वाले इस बात को इतने यकीन के साथ कहते हैं जैसे भगवान श्रीराम तो इन लोगों के साथ ही बैठकर मांसाहार करते थे. फिर कोई और बात चलने पर इन्हीं लोगों के लिए श्रीराम को काल्पनिक बनने में भी समय नहीं लगता.

इनका यह सिक्का इसलिए काम करता है क्योंकि ये लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि आज हिन्दू शास्त्रों या रामायण आदि का ठीक से पूरा अध्ययन कोई नहीं करता, अतः किसी पुस्तक से छोटा सा आधा-अधूरा स्क्रीनशॉट दिखाकर, या संस्कृत शब्दार्थों को दिखाकर या यूं ही बोल फेंककर लोगों को भटकाना बेहद आसान है, साथ ही सनातन धर्म की आड़ लेकर ही मांसाहार और पशुबलि का विरोध करने वाले लोगों का मुंह बंद करवाया जा सकता है.

आज इन्हीं मांसाहारियों के द्वारा एक नया तर्क सुनने को मिला कि ‘मांसाहार और पशुबलि न होने से ही हम कमजोर हुए हैं…’

क्या यह सच है? और क्या हम सच में कमजोर हैं? इस सम्बन्ध में मैं कुछ बिंदुओं में यहाँ अपने विचार रखना चाहती हूँ-

मांस-मछली वर्जित होने से कोई भी व्यक्ति कमजोर नहीं हो जाता. शस्त्र का प्रयोग कब, कहाँ, किस पर और कितना करना चाहिए, यह एक विवेकशील व्यक्ति ही तय कर सकता है.

वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट लिखा है कि, “कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न ही मधु का सेवन करता है” (सुन्दरकाण्ड सर्ग ३६). और श्रीराम के लिए तो यह बात बार-बार लिखी है, पर उन्हीं रघुवंशियों का इतिहास और श्रीराम की गाथा शौर्य और वीरता से भरी पड़ी है. शत्रुओं या दुष्टों पर दया नहीं दिखाते थे वो. इसी के साथ, वाल्मीकि रामायण और महाभारत में राक्षसों की पहचान इस आधार पर भी बताई गई है कि वे मांसभक्षी और रक्तभोजी होते थे.

श्रीराम ने कभी मांस नहीं खाया था, इसका प्रमाण तो महाभारत में भी दिया गया है. महाभारत के अनुशासन पर्व के 115वें अध्याय में कहा गया है कि-

“श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, राजा जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत– इन सबने तथा अन्यान्य राजाओं ने भी कभी मांस-भक्षण नहीं किया था.”

इसी अध्याय में भीष्म पितामह कहते हैं, “जो लोग स्वाहा (देवयज्ञ) तथा स्वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृत का भोजन करने वाले तथा सत्य और सरलता के प्रेमी है, वे देवता हैं, लेकिन जो कुटिलता और असत्य भाषण में प्रवृत्त हैं तथा सदा मांस-भक्षण किया करते हैं, उन्हें राक्षस ही समझो.”

जो भगवद्गीता निर्बल न बनकर शस्त्र उठाकर धर्मयुद्ध करने की प्रेरणा देती है, उसी भगवद्गीता में यह भी लिखा है कि “आसुरी प्रवृत्ति के लोगों में पशुवध प्रधान होता है.”

भगवान् श्रीकृष्ण नहीं खाते थे मांस, बल्कि गायें चराते थे. तो भी शत्रुओं या दुष्टों पर सुदर्शन चक्र चलाने में एक पल भी नहीं सोचते थे.

जिन महाराणा प्रताप ने जंगल में घास की रोटियां खा ली थीं, वही महाराणा प्रताप शत्रुओं को गाजर-मूली की तरह काटते थे, वे क्यों नहीं बने कमजोर?

रानी अहिल्याबाई होल्कर नहीं खाती थीं मांस, पर उनकी वीरता और शौर्य की कहानी सबको मुँह-ज़बानी याद है.

जिन महारानी लक्ष्मीबाई जी ने युद्ध के दौरान अपनी भूख को मिटाने के लिए पशुओं को मारने से मना कर दिया था, वही महारानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों को गाजर-मूली की तरह काटती थीं.

संहार के देवता भगवान् शिव को ‘पशुपतिनाथ’ भी कहा जाता है. भगवान् शिव से जुड़े त्यौहार प्रकृति-रक्षा से जुड़े हुए हैं.

आयुर्वेद में मांसाहार को रोगों को वृद्धि करने और आयु घटाने वाला बताया गया है.

फिर भी जिन लोगों भी ऐसा लगता है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहार या पशुबलि जैसे किसी भी कार्य की अनुमति दी गई है, तो वे लोग एक बार महाभारत के अनुशासन पर्व का अध्याय 115 पढ़ लें.

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‘तो श्रीराम हिरण के पीछे क्यों भागे थे?’

अब जो लोग यह तर्क देते हैं कि राजा दशरथ भी तो शिकार पर जाते थे, श्रीराम भी तो हिरण के पीछे भागे थे… तो आपको इस बात पर भी तो गौर करना चाहिए कि इन सब कार्यों का समर्थन भी तो नहीं किया गया है. प्राचीन समय में राजा लोग शिकार पर जाते थे अपनी शस्त्रविद्या के अभ्यास के लिए, जैसे आज मेडिकल के स्टूडेंट्स जानवरों पर प्रयोग करते हैं. लेकिन इसी के साथ, शिकार का भी एक नियम होता था कि आप अपने शौक के लिए सीमा पार न करें.

जैसे कि राजा दशरथ जी अपनी मृत्यु के समय कौशल्या जी से स्वयं ही कहते हैं कि, “यदि अपनी धनुर्विद्या के अहंकार में मैं शिकार न खेलता, तो न मुझसे श्रवण कुमार की हत्या जैसा भयंकर पाप होता और न आज मुझे यह दिन देखना पड़ता. कर्म ही सबसे शक्तिशाली है.”

वहीं, जब सीताजी ने श्रीराम को हिरण के पीछे भेजा, तो वे श्रीराम से दूर हो गईं और उसके बाद श्रीराम और सीताजी को भयंकर कष्ट उठाने पड़े. भगवान् की लीलाओं का कोई न कोई प्रयोजन होता है. वे अपनी लीलाओं से कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएं देने के लिए ही अवतार लेते हैं.

महाभारत में राजा पाण्डु एक योग्य राजा थे. लेकिन एक मृग का शिकार करने के कारण ही उनसे ऋषि की हत्या हुई और उन्हें भयंकर शाप मिला, जिससे वे अधिक समय तक जीवित ही न रह सके.

हमारे शास्त्रों में शस्त्र उठाकर शत्रुओं का नाश करने का पूरा समर्थन है, बालि जैसे अधर्मी को पीछे से भी मारने का समर्थन है, महाभारत के युद्ध में कपटी कौरवों को छल से ही मारने का पूरा समर्थन है, लेकिन हमारे यहां की कोई भी कथा पशुवध या मांसाहार का समर्थन नहीं करती, फिर भी हमारी कथाएं वीरता और शौर्य से भी भरी पड़ी हैं.

हमारे कोई भी देवी-देवता बिना अस्त्र-शस्त्र के नहीं हैं, वे हमें यही सिखाते हैं कि आपको अपनी रक्षा और अपने देश-धर्म की रक्षा के लिए सदा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होना चाहिए और उनका अभ्यास कर उनका प्रयोग करना चाहिए, पर वे आपको निर्दोष जीवों के लिए क्रूर बनना नहीं सिखाते. वीरता और शत्रुओं के प्रति हमारी निर्दयता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि हमने कितने जानवरों को काट डाला. यह हमारे मन की मजबूती, अपने देश-धर्म से प्यार पर निर्भर करती है. हमारे यहाँ ही कहा गया है कि-

अहिंसा परमो धर्म
धर्म हिंसा तथैव च

पशुबलि के समर्थन में दिए जाने वाले तर्क

एक सज्जन ने मुझसे कहा कि ‘एक स्थान पर भैंसे की बलि इसलिए दी जाती है क्योंकि भैंसे को महिषासुर यानी दैत्य का प्रतीक माना जाता है.’

समस्या यही है कि आज लोग अपने ही शास्त्रों में लिखी कथाओं का मर्म नहीं समझना चाहते, केवल उनके बहाने अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं.

इस कथा के माध्यम से यह बताया गया है कि भैंसा जड़ता का प्रतीक है, अतः हमें अपने अंदर की जड़ता को मारना है (भैंसा को नहीं) और नई ऊर्जा के साथ दुर्गा की तरह उठ खड़ा होना है और आसुरी शक्तियों का विनाश करना है…. भला भैंसे को काट देने से क्या होगा?

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महिषासुर का वध किस युग में हुआ था? भैंस को महिषासुर/दैत्य का प्रतीक मानकर हमारे आराध्य पूर्वजों और ऋषि-मुनियों ने तो कभी मां दुर्गा के सामने बलि नहीं दी. चाहे आप महिषासुरमर्दन की कथा पढ़ें, या मां दुर्गा से संबंधित कोई और भी कथा, किसी में भी आपको ऐसा कुछ नहीं मिलेगा कि किसी भी मनुष्य या देवी-देवता ने मां दुर्गा को किसी पशु की बलि देकर उन्हें प्रसन्न किया हो.

नवरात्रि में 9 दिन तक की पूजा-उपासना का रिवाज भगवान श्रीराम ने शुरू किया था और उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था. रही बात शक्ति पूजा की, तो हम उनकी पूजा उसी विधि से करते हैं जिस विधि से भगवान श्रीराम ने की थी, यानी सात्विक विधि से. रावण या मेघनाद की तरह तांत्रिक विधि से नहीं. मां शक्ति से विजयश्री का आशीर्वाद भी श्रीराम को मिला था, रावण को नहीं.

क्या मांसाहार न करने या पशुबलि न देने से हम कमजोर हो जाते हैं?

आपको कमजोर या सबल बनाना आपकी इच्छाशक्ति, आपके देशप्रेम, आपके धर्म से प्रेम पर निर्भर करता है, मांसाहार या बेजुबानों का खून बहाने पर नहीं.

हम कमजोर हुए हैं अपनी सहिष्णुता की वजह से, अपने लालच की वजह से, गद्दारों की वजह से, अपने अंदर इच्छाशक्ति की कमी की वजह से, अपनी जिम्मेदारियों से भागने की वजह से, अपने आत्मज्ञान में कमी की वजह से, अपने ही शास्त्रों के मर्म को न समझ पाने की वजह से, रामायण-महाभारत और भगवद्गीता की शिक्षाओं को आत्मसात न कर पाने की वजह से और इस कारण धर्म-अधर्म में भेद न समझ पाने की वजह से. हम हारे हैं विज्ञान के नाम पर अपनी ही मूल संस्कृति, परम्पराओं का विरोध करने की वजह से, गलत बातों को भी जस्टिफाई करने की वजह से.

यदि इन बातों को नहीं समझेंगे, तो कितने ही जानवरों को काटकर खा जाएं, कुछ नहीं होने वाला, और यदि इन बातों को समझ जाते हैं तो हमारे देश-धर्म की तरफ आंख उठाकर देखने वाला कोई नहीं. लेकिन आज हम अपनी इन कमजोरियों और दोषों को दूर नहीं करना चाहते और फिर उल्टे-सीधे तर्क देकर अपने ही शास्त्रों को बदनाम करते फिरते हैं.

आजकल कुछ लोग गलत कार्यों का समर्थन इस झूठे नाम से करना चाहते हैं कि तुम्हारे आराध्य या ऋषि-मुनि भी खाते थे मांस, या तुम्हारे आराध्यों ने देवियों का ब.ला.त्का.र किया था, तुम्हारे वेदों में यज्ञ में पशुबलि का विधान है… ऐसे दुष्प्रचार किए ही इसलिए जाते हैं ताकि विधर्मी हमें यह बता सकें कि तुममें और हममें कोई फर्क नहीं है इसलिए तुम्हारे द्वारा हमारी परंपराओं और सोच का विरोध करना भी गलत है.

किसी को मांस खाना है तो किसी ने मना नहीं किया, कोई किसी का हाथ नहीं पकड़ता, लेकिन बस समर्थन करने का तरीका गलत है और यहाँ मैंने उस तरीके का ही विरोध करना चाहा है.

इस सम्बन्ध में ‘परत’ पुस्तक के लेखक श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी ने एक सुन्दर लेख लिखा है-

“परमवीर चक्र विजेताओं के लिए लिखी गई किताब “द ब्रेव” में विष्ट रावत ने बताया है कि वे शुद्ध शाकाहारी थे और कभी शराब भी नहीं पीते थे. दुर्गापूजा के दिन उनकी यूनिट के लोगों ने उन्हें बलि देने के लिए फरसा पकड़ा दिया. उस योद्धा ने कुछ क्षण सोचा और एक झटके में बकरे का सिर काट दिया. खून के छींटे उनके माथे तक पड़े.

उसके बाद वे कई बार अपना मुँह-हाथ धोते रहे. अकारण ही एक निर्दोष जीव पर किया गया प्रहार उन्हें कचोटता रहा, वे उसकी पीड़ा से तड़पते रहे. पर रुकिये! किसी निर्दोष की हत्या पर तड़प उठने वाले उस 24 वर्षीय विशुद्ध शाकाहारी लड़के ने जब कारगिल युद्ध में शस्त्र उठाया तो ऐसा उठाया कि युगों-युगों के लिए उसकी कहानियां अमर हो गईं.

उसकी बंदूक जब गरजी तो ऐसी गरजी की “जीत” उसकी गुलाम हो गई. वह जहां गया जीत कर आया, जिधर बढ़ा उधर से देश के शत्रुओं को मार कर आया. मात्र साढ़े पाँच फीट के सामान्य शरीर वाले उस योद्धा ने युद्धभूमि में वह धूम मचाई कि कारगिल युद्ध के बाद पूरा देश अमर बलिदानी कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की जयकार कर उठा.

वे सेना में गए तो किसी साथी ने उनसे पूछा था, “कहाँ तक जाना चाहते हो?” तो उन्होंने सिर उठाकर पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, “परमवीर चक्र तक…

बहुत कम लोग होते हैं जो इतनी जल्दी अपनी सबसे बड़ी अभिलाषा को छू लेते हैं. मनोज कुमार पाण्डेय ने 24 साल की आयु में ही पा लिया परमवीर चक्र. किसी भी देश की जनता नब्बे वर्ष का सफल जीवन तभी जी पाती है, जब उसके लिए कुछ महान लोग 24 की आयु में ही अपनी बलि देते हैं. हमारे सुखमय जीवन पर उस समस्त योद्धाओं का कर्ज है जिन्होंने अपनी बलि दी.

भारतीय सेना कुछ लोगों की भीड़ भर नहीं है, वह अपने देश या राष्ट्र के लिए पूरी तरह समर्पित हो चुके जुनूनी योद्धाओं का वह समूह है जो तलवार के बल पर तोप से टकरा जाने का साहस और उसे उखाड़ फेंकने का कौशल रखते हैं. अपने घर-परिवार के साथ मजाक करते रहने वाला भोला-भाला लड़का भी जब सेना की वर्दी धारण करता है, तो अचानक वह पूरी तरह बदल जाता है. उसे दिखती है तो केवल उसकी मिट्टी, उसे दिखता है केवल उसका देश, उसे याद रहती है केवल उसकी मातृभूमि… और तब वह अपनी मातृभूमि के लिए यमराज से भी लड़ जाता है.”



दुष्टों को शरण और स्त्रियों के प्रति क्रूरता

राज्याभिषेक के बाद सीताजी के वनवास के पीछे की एक कथा यह बताई जाती है कि एक बार देवासुर संग्राम में जब दैत्य बुरी तरह पराजित होने लगे तब उन्होंने भृगु ऋषि की पत्नी के पास जाकर बड़ी दीनभाव से शरण मांगी. भृगु ऋषि की पत्नी ने उन दैत्यों को शरण दे दी. चूंकि भृगु ऋषि की पत्नी की तपस्या और उनके तपोबल का प्रभाव इतना अधिक था कि देवता उनके आश्रम में छिपे दैत्यों का कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे थे.

तब देवताओं ने भगवान विष्णु जी से प्रार्थना की और तब विष्णु जी को भृगु ऋषि की पत्नी पर बड़ा क्रोध आया. उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से भृगु ऋषि की पत्नी का वध कर दिया. यह देखकर भृगु ऋषि अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु जी को शाप देते हुए कहा कि “मेरी पत्नी वध के योग्य नहीं थी, वह एक तपस्विनी थी, अतः शरण में आए हुए की रक्षा की थी, फिर भी आपने उसका वध किया.”

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इसी प्रकार, जब भगवान विष्णु जालंधर का वध करने का निर्णय लेते हैं, तब लक्ष्मीजी चिंतित होकर कहती हैं कि “जालंधर मेरा भाई है, अतः उसके लिए चिंतित होना मेरे लिए स्वाभाविक है”, तब विष्णु जी कहते हैं कि “जालंधर ने जितने लोगों पर अत्याचार किए हैं और कर रहा है, वे सब भी किसी न किसी के भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी ही हैं” और तब लक्ष्मी जी को अपनी भूल का एहसास होता है.

विष्णु जी ने मायावी जालंधर को भेजकर अपनी ही परमभक्त वृंदा के व्रत का संकल्प तुड़वा दिया और तब भगवान शिवजी ने जालंधर का वध कर दिया.

डॉ. पवन विजय जी और ‘परत’ पुस्तक के लेखक सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी लिखते हैं-

“जयशंकर प्रसाद अपनी एक कहानी ‘ममता’ में एक ऐसी हिंदू लड़की का उल्लेख करते हैं जिसने एक आक्रांता को शरण देकर उसके प्राण बचाये थे, जबकि विधर्मियों ने उसके पिता की हत्या धोखे से कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद उसने एक विधर्मी की प्राणों की रक्षा की. कहानी के अंत में जब ममता वृद्ध हो जाती है तो एक सैनिक उस जगह का पता पूछते हुए आता है जहाँ उस आक्रांता को शरण मिली थी. ममता उसे अपनी कुटिया की तरफ इशारा कर देती है. ममता की कुटिया ढहा दी जाती है और उसके ऊपर एक इमारत बनवाई जाती है जिस पर लिख दिया जाता है कि “दुनियाभर के बादशाह ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था”, पर उसमें ममता का नाम गायब था.

कल्पना कीजिये कि यदि ममता उस आक्रांता को शरण देने की बजाय उसका वध कर देती तो इतिहास क्या होता?

हम शरण में आये की रक्षा प्राण देकर करते और वे धोखे से शरण लेकर हत्या करते हैं. हमारी दया, करुणा उनके लिए सुनहरा अवसर है हम पर वार करने का. हम अपने धर्म पालन के लिए दूसरे की जान बचाते हैं वे कथित धर्म के लिए दूसरे की जान ले लेते हैं. धर्म का एक पहलू और होता है, वह है आपद धर्म जो देशकाल परिस्थिति के हिसाब से व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है. एक की जान बचाने के लिए लाखों लोगों को मरवाने का शाप निश्चित रूप से ममता के ऊपर आया होगा. किसी एक के प्रति करुणा दिखाते समय हमें यह जरूर सोच लेना चाहिए कि इसकी वजह से कितने घर सूने हो जाएंगे, कितने बच्चे अनाथ हो जाएंगे.

अधर्मियों को शरण देना या अपनों के नाम पर उनकी तरफदारी करना कितना गलत होता है, यह भगवान ने अपनी कई कथाओं से हमें समझाने का प्रयास किया है. आप तो दुष्टों को शरण देकर दूसरों की नजर में महान बन जाते हैं, पर उसके आगे की स्थिति का अनुमान नहीं लगाते, आगे चलकर आपकी यही दया और मानवता दूसरे निर्दोष लोगों पर बहुत भारी पड़ती है.

दुष्टों या गद्दारों को शरण देकर या उन्हें जस्टिफाई करके जो लोग यह सोचते हैं कि मैं उस दुष्ट के साथ अच्छा व्यवहार करके उसका स्वभाव बदल दूंगा, या उन्हें अपने जैसा बना दूंगा, तो यह केवल एक गलतफहमी है. चूंकि अपवाद हर जगह होते हैं, लेकिन अपवाद अपवाद ही रहते हैं, वे पूर्ण सत्य नहीं होते. यदि आप दुष्टों अधर्मियों का साथ देते हैं, या उन्हें जस्टिफाई करते हैं, तो आपको उन दुष्टों के पापकर्मों के परिणाम का भी भागी बनना ही पड़ेगा.

अब एक बात और

बेशक जैसे को तैसा ही दंड देना चाहिए, यदि सामने वाला क्रूर है, अधर्मी है, अत्याचारी है, नीति नियमों का पालन नहीं करता है, तो आपको भी उसके साथ किसी प्रकार की नीति नियम के पालन की जरूरत नहीं है. भगवान श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार से कर्ण का वध करवाया, श्रीराम ने बालि को पीछे से मारा, ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे आपको जो हमें सिखाते हैं कि किस अधर्मी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए.

भगवान श्रीराम ने ताड़का का वध किया, लक्ष्मण जी ने शूर्पणखा की नाक काटी, यानी कि भगवान भी दुष्ट स्त्रियों को दंड देने और उनका वध करने के पक्ष में हैं, लेकिन…

लेकिन भगवान ने दुष्ट स्त्रियों का वध तो किया, लेकिन कभी किसी स्त्री के साथ गंदी अभद्रता नहीं की, उन्हें हाथ नहीं लगाया.

बेशक दुष्ट स्त्रियों का वध जरूरी है लेकिन “स्त्री” के नाम पर उनका यौन उत्पीड़न करना, उन्हें निर्वस्त्र करना, उनका रे.प करना… आदि जैसे कार्य इंसानों की श्रेणी में नहीं आते, और न ही ऐसे दुष्कर्मों का समर्थन किया जा सकता है.

भगवान् ने कभी किसी स्त्री का अपमान नहीं किया. वध किया पर अपमान नहीं. बल्कि स्त्री का अपमान होने पर महाभारत हुई. भगवान् श्रीकृष्ण ने पांडवों से कभी यह नहीं कहा था कि कौरवों ने यदि द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया तो तुम लोग भी कौरवों की पत्नियों के साथ ऐसा ही करो… बल्कि उन्होंने कौरवों का ही समूल नाश करवा दिया.

रावण ने कितनी ही स्त्रियों के साथ गलत काम किया था, और बदले में श्रीराम ने रावण और उसके कुल का नाश कर दिया, पर ऐसा कोई गलत काम नहीं किया. यह अंतर है राम और रावण में.

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Written By : Aditi Singhal (working in the media)


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